रक्तदान महादान

स्वैच्छिक रक्तदान एक ऐसा पुनीत सेवा कार्य है, जिसका कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि रक्तदान द्वारा किसी को नवजीवन देकर जो आत्मिक सुख प्राप्त होता है, उसका न तो मूल्यांकन किया जा सकता है और न ही उसे शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है अर्थात् स्वैच्छिक रक्तदान ‘महादान’ है । जरा सोचें आज किसी को आपके रक्त की आवश्यकता है, संयोग से कल आपको किसी और के रक्त की भी आवश्यकता पड़ सकती है । भ्रमवश ऐसा माना जाने लगा है कि रक्तदान करने से शरीर में स्थायी कमजोरी आ जाती है किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि हमारा शरीर कुछ ही समय में आवश्यकतानुसार पोषक तत्वों से रक्त बना लेने में सक्षम होता है ।

रक्त रुधिर. . .ख़ून जी हाँ, लाल रंग का यह तरल ऊतक हमारा जीवन-आधार है । इसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते । रक्तदान तब होता है जब एक स्वस्थ व्यक्ति स्वेच्छा से अपना रक्त देता है और रक्त-आधान (ट्रांसफ्यूजन) के लिए उसका उपयोग होता है या फ्रैकशेनेशन नामक प्रक्रिया के जरिये दवा बनायी जाती है । प्रत्येक मानव के शरीर में उसके शरीर के वजन का 8 प्रतिशत रक्त रहता है और इस प्रकार से एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में सामान्यत: 5 से 6 लीटर रक्त होता है । मनुष्य के शरीर में वजन का 7 प्रतिशत रक्त होता है । 18 से 65 वर्ष की आयु का कोई भी स्वस्थ व्यक्ति जिसका वजन 48 किलोग्राम से अधिक हो तथा जिसने पिछले तीन माह में रक्तदान नहीं किया हो, रक्तदान कर सकता है । एक बार के रक्तदान में 350 मिलीग्राम (डेढ़ पाव) रक्त दिया जाता है, जो मात्र 21 दिनों में दुबारा शरीर में बन जाता है । वैसे भी हर तीन महीनों बाद पुराने रक्तकण मर जाते है और पित्त की थैली में चले जाते हैं, उनकी जगह यकृत (लीवर) द्वारा नए पैदा करने की प्रक्रिया जारी रहती है । रक्तदान के उपरांत भी हमारे शरीर की समस्त क्रियाएं उसी प्रकार से चलती रहती हैं जैसी कि रक्तदान करने से पूर्व चलती है । चिकित्सकों का मानना है कि रक्तदान खून में कोलेस्ट्राल को बढ़ने से रोकता है और शरीर में रक्त बनने के प्रक्रिया तंत्र को तेज कर देता है । रक्त लेते समय सावधानीपूर्वक साफ-सुथरी सूई का उपयोग होना चाहिये, ताकि संक्रमित बीमारियों से बचा जा सके । रक्तदाता तथा जरूरतमंद व्यक्ति का ब्लड ग्रुप मिलाना आवश्यक है । सरकार के निर्देशानुसार ‘रक्त संग्रहण केन्द्रों’ पर सुरक्षित व्यवस्था अपनाई जाती है, जहां रक्तदान से पूर्व रक्तदाता का स्वास्थ्य परीक्षण किया जाता है और इसी प्रकार रक्त चढ़ाने से पहले प्रत्येक इकाई की मलेरिया, सिफलिस, हिपेटाइटिस-बी, सी व एच.आई.वी. एवं एड्स की जांच की जाती है, ताकि सुरक्षित रक्तही रक्त प्राप्तकर्ता को मिल सके । मानव व समाज की सेवा रक्तदान कर की जा सकती है । इसमें कोई दो राय नहीं कि रक्त का कोई दूसरा विकल्प नहीं है यानी यह किसी फैक्ट्री में नहीं बनता और ना ही इंसान को जानवर का खून दिया जा सकता है । यानी रक्त बहुत ज्यादा कीमती है । रक्त की मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, परंतु जागरुकता ना होने की वजह से लोग देने से हिचकिचाते हैं । रक्तदान के बारे में तरह तरह की गलत धारणाएं होती है कि ‘रक्तदान करने वाला कमजोर हो जाता है’, ‘उसकी रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता क हो जाती है’, आदि आदि. लेकिन ये सब भ्रांतियां हैं । आवश्यकता है तो केवल पहल और जनजाग्रति की ।

भारत में दान की परम्‍परा प्राचीन है । गो दान और कन्‍यादान तो आज भी घर-घर में होते हैं लेकिन पीछे हम देह दान में भी नहीं है । महर्षि दधीचि की यह परम्‍परा आज भी जारी है । बहुत पुरानी बात नहीं है जब नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस ने कहा, ”तुम मुझे खून दो मैं तुम्‍हे आजादी दूंगा” और असंख्‍य भारतीयों ने अपना खून देकर भारत की आजादी के सपने को पूरा किया । फिर आज हमें क्‍या हो गया । आज हम दान में पीछे क्‍यों हैं ? खास कर रक्‍त दान में । चाहे हमारा अपना ही कोई रक्‍त के अभाव में दम तोड़ता दिखे पर हमारी कोशिश किसी दूसरे से रक्‍त दान कराकर ही उसका जीवन बचाने की होती है । आखिर क्‍यों नहीं देना चाहते हम अपना रक्‍त ? क्‍या है हमें डर और कैसे मिटे यह डर और यदि हम सब रक्‍तदानी बन जाएं तो क्‍या होगा असर । ज्‍यादातर लोग सोचते हैं- इतने लोग रक्त दान कर रहे हैं तो मुझे क्या जरुरत पड़ी है… या भई, मेरा ब्लड ग्रुप तो बहुत आम है, ये तो किसी का भी होगा, तो मैं ही क्यों दान करुँ. अब उनकी यह सोच सही इसलिए नहीं क्‍योंकि कि आम ब्लड होने के कारण उस समूह के रोगी भी तो ज्यादा आते होगें । यानि उस ग्रुप की मांग भी उतनी ही ज्‍यादा होगी । या फिर कई लोग यह सोचते है कि भाई, मेरा ग्रुप तो रेयर है, यानी खास है तो मैं तब ही रक्‍त दूंगा जब जरुरत होगी ।

ऐसे में तो यही बात सामने आती है कि आपका रक्त चाहे आम हो या खास । हर तीन महीने यानी 90 दिन बाद दान देना ही चाहिए । हमारा शरीर 24 घंटे के भीतर रक्त ही पूर्ति कर लेता है जबकि सभी तरह की कोशिकाओ के परिपक्व होने मे 5 सप्ताह तक लग जाते हैं ।

अब बात आती है कि जब जरुरत होगी तभी देंगे, सही नही है । मरीज कब तक आपका इंतजार करेगा । हो सकता है कि आप तक खबर ही ना पहुँच पाए या आप ही समय पर ना पहुँच पाए तो आप दोषी किसे मानोगे । दूसरी बात यह भी है कि बेशक आप लगातार रक्त देते हो पर जब भी आपने रक्त दान करना होता है आपका सारा चैकअप दोबारा होता है उसमे कई बार समय भी लग जाता है । इस इंतजार में तो ना ही रहें कि जब जरुरत होगी तभी ही देने जाएगें ।

रक्तदान से मौत से जूझ रहे मरीज, दुर्घटना से ब्लडलॉस वाले लोग, आपरेशन करवाने वाले बीमार, अथवा ‘थैलीसीमिया’ ग्रस्त बच्चों की जान बचाई जाती है. अनुभव किया गया है कि बहुत प्रचार-प्रसार के बावजूद कम लोग इस पुण्य कार्य में अपना योगदान करने के लिए सहर्ष आगे आते हैं । कई सामाजिक सस्थानों के सदस्य व उद्योग समूहों में कार्यरत समझदार लोग इस विषय की गंभीरता को समझते हुए रक्तदान करने/कराने लगे हैं ।

वैसे स्वैच्छिक रक्त दान यानी जो रक्तदान अपनी मर्जी से किया जाए उसी को सुरक्षित माना जाता है क्योकि इन मे रक्त संचरण जनित सक्रंमण ना के बराबर होता है । यह भी बात आती है कि रक्तदान किसलिए करें तो स्वस्थ लोगो का नैतिक फर्ज है कि बिना किसी स्वार्थ के मानव की भलाई करें । अगर हमारे रक्त से किसी की जान बच सकती है तो हमे गर्व होना चाहिए कि हमने नेक काम किया है और अब तो विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली कि एक जने का दिया गया खून तीन जिंदगियां भी बचा सकता है । तो क्या सोच रहे है आप…… अगर आप 18 से 60 साल के बीच में हैं और आपका हीमोग्लोबिन 12.5 है और आपका वजन 45 किलो से ज्यादा है तो आप निकट के ब्लड बैंक मे जाकर और जानकारी लेकर रक्तदान कर सकते हैं ।

क्या आपको पता है कि देश मे हर साल लगभग 80 लाख यूनिट रक्त की जरुरत होती है, जबकि 50 यूनिट ही मिल पाता है । ये बहुत कम है । लाखों मरीज रक्त के इंतजार में दम तोड़ देते हैं । हरियाणा के जिला सिरसा मे 100% स्वैच्छिक रक्त दाता हैं और रक्त मरीज का इंतजार करता है ना कि मरीज रक्त का । इसी उपलब्धि को वेबसाइट ब्रावो ब्‍लड डोनर ने भी सराहा है ।

सच, जिस काम मे किसी का भला होता हो किसी की जान बचती हो उस काम से कदम पीछे नही हटाना चाहिए । हमें तो रक्तदान के लिए किसी ने कहा ही नही इसलिए हमने किया भी नहीं. ऐसे लोगों के लिए क्या जवाब हो सकता है- आप बेहतर जान सकते हैं. यहां पर एक बात कहना उचित होगा कि ” जब जागो तभी सवेरा” ।

कुछ प्रोफेशनल खून बेचने वाले शराबी/नशेड़ी लोग जरूरतमंदों को खून उपलब्ध कराते हैं । इसमें दलालों का भी हिस्सा होता है किन्तु ये बहुत खतरनाक बीमारियों को निमंत्रण देने जैसा है क्योंकि इन पेशेवरों के खून में हीमोग्लोबिन का स्तर बहुत कम रहता है तथा बीमारियों की जड़ निहित रहती है । अधिकृत ब्लड बैंक रक्त का परीक्षण और भंडारण करते हैं, जिसमें स्टरलाईजेशन का विशेष ध्यान रखना होता है । जिन थैलियों में रक्त लिया जाता है, उनमें उचित मात्रा में ऐंटीकोआग्युलेन्ट होना चाहिए । ये महत्वपूर्ण है कि संरक्षित रक्त भी ज्यादा लम्बे समय तक नहीं रखा जा सकता है । कुछ अनधिकृत नकली खून के कारोबारी दलालों के मार्फ़त मौत की सौदागिरी करते हैं । इनसे सावधान रहना चाहिए ।

चूँकि अस्पतालों में आवश्यकतानुसार खून की पूर्ति नहीं हो पाती है इसलिए इसके विकल्प के रूप में cells free hemoglobin solution का उपयोग कुछ देशों में होने लगा है । सर्वप्रथम दक्षिण अफ्रीका ने इसको मान्यता दी है ।

रेडक्रॉस सोसाइटीज तथा बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा संचालित ‘ब्लड बैंक’ इस क्षेत्र में प्रसंशनीय कार्य कर रही हैं । रक्तदान करने वाले बहुत से लोगों ने नियमित रक्तदान करने के अपने व्यक्तिगत रिकॉर्ड बनाए हैं । हमें अपने स्वजनों, मित्रों व साथियों को समय समय पर रक्तदान करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । ये मानवता की सेवा में बड़ा कदम होगा ।

रक्‍त के कार्य व उपयोगिता

मनुष्य के शरीर में बहने वाले खून में श्वेत व लाल रक्त कोशिकाएं अरबों की संख्या में अपने अपने अनुपात में रहते हैं । लाल कणों में हीमोग्लोबिन रहता है, जो शरीर के तमाम उतकों का पोषण करता है । श्वेत कण एक तरह की अन्दुरुनी फ़ौज है, जो प्रतिरोधात्मक शक्ति बनाए रखती है । इनका सामंजस्य प्लेटलेट्स बनाए रखते हैं । ये ऐसा जटिल विधिविधान है, जिसे आसानी से नहीं समझा जा सकता है । रक्त के उपरोक्त ग्रुप्स के उपसमूह भी हैं । आज चिकित्सा विज्ञान बहुआयामी और विस्तृत हो चुका है । अनेक विधाओं में इसका अध्ययन किया जाने लगा है । रक्त देना और रक्त लेना पूर्ण सुरक्षित हो गया है ।

मुख्य रूप से रक्त का कार्य हमारे शरीर में सभी कोशिकाओं में प्राण वायु [आक्सीजन], ग्लूकोस आदि पोषक तत्वों को पहुँचाना है.इस के अलावा यह कार्बन di ऑक्साइड ,यूरेया,लेक्टिक acid को शरीर से बाहर करने में सहायक होता है और शरीर का तापमान बनाये रखने में भी इस की महत्वपूर्ण भूमिका होती है.इस के अलावा भी कुछ अन्य जरुरी कार्य रक्त द्वारा किए जाते हैं. इसलिए इसे व्यक्ति के शरीर में जीवन हेतु अति आवश्यक माना गया है।

जीवन को चलाए रखने में यह कौन-कौन-सी भूमिका अदा करता है, इसकी लिस्ट तो लंबी-चौड़ी है फिर भी इसके कुछ मुख्य कार्य-कलापों पर दृष्टिपात करने पर ही इसके महत्व का पता चल जाता है । शरीर की लाखों-करोड़ों कोशिकाओं को आक्सीजन तथा पचा-पचाया भोजन पहुँचा कर यह उनके ऊर्जा-स्तर को बनाए रखने से लेकर भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाता है । उन कोशिकाओं से कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा यूरिया जैसे विषैली गैसों एवं रसायनों को निकालने के कार्य में भी यह लगा रहता है । बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं से तो यह लगातार लड़ता रहता है और उनके विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है । इसके अतिरिक्त एक अंग में निर्मित रसायनों, यथा हॉमोन्स को शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाने से लेकर शरीर के ताप को एकसार बनाए रखने, आदि तमाम कार्यों में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है ।

इसकी संरचना में प्रयुक्त अवयवों के अनुपात में थोड़ा असंतुलन भी हमारे लिए तमाम परेशनियाँ खड़ी कर सकता है । यथा- सोडियम की ज़्यादा मात्रा रक्तचाप को बढ़ा देता है तो पानी की कमी हमें मौत के क़रीब पहुँचा सकती है और ऑयरन की कमी एनिमिक बना सकती है, आदि-आदि. . .। जब इतने से ही इतना कुछ हो सकता है तो ज़रा सोचिए, जब यह पूरा का पूरा हमारे शरीर से निकलने लगे तब क्या होगा? और दुर्भाग्य से हमारे साथ ऐसा होता ही रहता है । छोटी-मोटी चोटें तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा है और इनसे निकलने वाले रक्त की कोई परवाह भी नहीं करता । कारण, हमारे शरीर में रक्त-निर्माण की प्रकिया शैने: शैने: सतत रूप से चलती ही रहती है । साथ ही रक्त में एक और गुण होता है और वह यह कि हवा के संपर्क में आते ही यह स्वत: जमने लगता है, जिसके कारण छोटे-मोटे घावों से निकलने वाला रक्त थोड़ी देर में स्वत: रुक जाता है । चिंता का विषय तब होता है जब हमें बड़ी एवं गंभीर चोट लगती है । ऐसी स्थिति में बड़ी रक्त-वाहिनियाँ भी चोटिल हो सकती हैं । इन वाहिनियों से निकलने वाले रक्त का वेग इतना ज़्यादा होता है कि रक्त के स्वत: जमाव की प्रक्रिया को पूरा होने का अवसर ही नहीं मिलता और एक साथ थोड़े ही समय में शरीर से रक्त की इतनी अधिक मात्रा निकल जाती है कि व्यक्ति का जीवन संकट में आ जाता है । यदि समय से उसे चिकित्सा-सुविधा न मिले तो मौत निश्चित है । चिकित्सकों का पहला प्रयास रहता है कि रक्त-प्रवाह को किस प्रकार रोका जाय और फिर यदि शरीर से रक्त की मात्रा आवश्यकता से अधिक निकल गई हो तो बाहर से किस प्रकार रक्त की आपूर्ति की जाए ।

संरचना के आधार पर मनुष्य के रक्त को दो भागों में विभक्त किया गया है-

प्लाज्मा – आयतन के आधार पर लगभग 55 से 60% भाग।
रुधिर कणिकाएँ या रुधिराणु – लगभग 40 से 45% भाग।

रक्त के विभिन्न अवयव

(1) प्लाज्मा- यह हल्के पीले रंग का रक्त का तरल भाग होता है, जिसमें 90 फीसदी जल, 8 फीसदी प्रोटीन तथा 1 फीसदी लवण होता है।

(2) लाल रक्त कण- यह गोलाकार,केन्द्रक रहित और हीमोग्लोबिन से युक्त होता है। इसका मुख्य कार्य ऑक्सीजन एवं कार्बन डाईऑक्साइड का संवहन करना है। इसका जीवनकाल 120 दिनों का होता है।

(3) श्वेत रक्त कण- इसमें हीमोग्लोबिन का अभाव पाया जाता है। इसका मुख्य कार्य शरीर की रोगाणुओं से रक्षा के लिए प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना होता है। इनका जीवनकाल 24 से 30 घंटे का होता है।

(4) प्लेट्लेट्स- ये रक्त कोशिकाएं केद्रक रहित एवं अनिश्चित आकार की होती हैं। इनका मुख्य कार्य रक्त को जमने में मदद देना होता है।

रक्त समूह- रक्त समूह की खोज लैंडस्टीनर ने की थी। रक्त चार प्रकार के होते हैं-

A, B, AB और O (A+, A-, B+, B-, AB+, AB-, O+, O-)

(1) रक्त समूह AB सर्व प्राप्तकर्ता वर्ग होता है, अर्थात वह किसी भी व्यक्ति का रक्त ग्रहण कर सकता है।
(2) रक्त समूह O सर्वदाता वर्ग होता है। अर्थात वह किसी भी रक्त समूह वाले व्यक्ति को रक्तदान कर सकता है। किंतु वह सिर्फ O समूह वाले व्यक्ति से ही रक्त प्राप्त कर सकता है।

रक्तदान की खोज का इतिहास

किसी व्यक्ति के शरीर में खून की कमी को पूरा करने के लिए अब से लगभग 400 वर्ष पहले यूरोप में तत्कालीन चिकित्सकों के दिमाग में आया कि यदि जानवरों का ताजा खून मुँह द्वारा पिला दिया जाये तो वह सीधे मरीज के शरीर के रक्त में जा मिलेगा । एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति तब आज की तरह समृद्ध व वैज्ञानिक नहीं थी । रक्त ट्रांस्फ्यूजन या रक्तदान का प्रारंभिक इतिहास बताता है कि ये भ्रांतिपूर्ण तरीका बहुत प्रचलित था । बाद में एक कदम आगे बढ़ते हुए एक चिकित्सक ने भेड़ का ताजा खून एक मरीज की रुधिर सिरा में चढ़ा दिया तो मरीज की तुरन्त मौत हो गयी । फ्रांस के इस दुस्साहसी चिकित्सक को मरीज को मारने के जुर्म में मृत्युदंड दिया गया ।

परन्तु यह विचार कि एक मनुष्य का रक्त दूसरे को चढ़ाया जा सकता है, ज़िंदा रहा । इस प्रकार के प्रयोग होते रहे । तब अलग अलग खून में ‘अग्लूटिनेसन’ (आपस में मेल) की क्रिया से अनजान रहने के कारण मरीज मरते भी रहे.सन 1679 में पोप X1 ने रक्त ट्रांस्फ्यूजन पर प्रतिबन्ध लगा दिया ।
इन प्रयोगों में एक जानवर का रक्त दूसरे जानवर को प्रदान करने से ले कर जानवर का रक्त मनुष्य को प्रदान करने के प्रयास शामिल हैं । इनमें से अधिकांश प्रयोग असफल रहे तो कुछ संयोगवश आंशिक रूप से सफल भी रहे । 1885 में लैंड्यस ने अपने प्रयोंगों से यह दर्शाया कि जानवरों का रक्त मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है । कारण, मनुष्य के शरीर में जानवर के रक्त में पाए जाने वाली लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बन जाते है एवं ये थक्के रक्त वहिनियों को अवरुद्ध कर देते हैं जिससे मरीज़ मर सकता है । ऐसे प्रयोगों के फलस्वरूप, मनुष्य के लिए मनुष्य का रक्त ही सर्वथा उचित है, यह बात तो चिकित्सकों ने उन्नीसवीं सदी में ही समझ ली थी और एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से रक्त प्राप्त कर ऐसे मरीज़ के शरीर में रक्त आपूर्ति की विधा भी विकसित कर ली गई थी एवं इसका उपयोग भी किया जा रहा था । लेकिन इसमें भी एक पेंच देखा गया- कभी तो इस प्रकार के रक्तदान के बाद मरीज़ बच जाते थे, तो कभी नहीं । 1905 में कार्ल लैंडस्टीनर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह दर्शाया कि सारे मनुष्यों का रक्त सारे मनुष्यों के लिए उचित नहीं है । ऐसे प्रयासों में भी कभी-कभी मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की रुधिर कणिकाओं के थक्के उसी प्रकार बनते हैं जैसा लैंड्यस ने जानवरों के रक्त के बारे में दर्शाया था । 1909 में लैंडस्टीनर ने अथक प्रयास के बाद यह दर्शाया कि किस प्रकार के मनुष्य का रक्त किसे दिया जा सकता है । आस्ट्रियाई जीव विज्ञानी व भौतिकविद कार्ल लेंडस्लाइडर ने रक्त में ‘अग्लूटिनेसन’ के आधार पर रक्त समूहों को A, B, AB और O ग्रुप्स में वर्गीकृत करके इस चिकित्सा विधा में क्रान्ति ला दी । क्रॉसमैचिंग करके ग्राह्य रक्त को खून की कमी के शिकार मरीज को दिया जाना सामान्य बात हो गयी ।

Blood Receivers

उन्होंने पाया कि हमारी लाल रुधिर कणिकाओं के बाहरी सतह पर विशेष प्रकार के शर्करा ऑलिगोसैक्राइड्स से निर्मित एंटीजेन्स पाए जाते हैं । ये एंटीजन्स दो प्रकार के होते हैं- A एवं B । जिन लोगों की रक्तकाणिकाओं पर केवल A एंटीजेन पाया जाता है उनके रक्त को A ग्रुप का नाम दिया गया । इसी प्रकार केवल B एंटीजेन वाले रक्त को B ग्रुप तथा जिनकी रुधिर कणिकाओं पर दोनों ही प्रकार के एंटीजेन पाए जाते हैं उनके रक्त को AB ग्रुप एवं जिनकी रक्तकणिकाओं में ये दोनों एंटीजेन्स नहीं पाए जाते उनके रक्त को O ग्रुप का नाम दिया गया । सामान्यतया अपने ग्रुप अथवा O ग्रुप वाले व्यक्ति से मिलने वाले रक्त से मरीज़ को कोई समस्या नहीं होती, लेकिन जब किसी मरीज़ को किसी अन्य ग्रुप के व्यक्ति (A, B या फिर AB) रक्त दिया जाता है तो मरीज़ के शरीर में दाता के रक्त की लाल रुधिर कणिकाओं के थक्के बनने लगते हैं । कहने का तात्पर्य यह कि A का रक्त B, AB एवं O में से किसी को नहीं दिया जा सकता; B का रक्त A, AB एवं ओ को नहीं दिया जा सकता और AB का रक्त तो किसी को नहीं दिया जा सकता। परंतु AB (युनिवर्सल रिसीपिएंट) को किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जा सकता है तथा O (युनिवर्सल डोनर) किसी को भी रक्त दे सकता है ।

ऐसा क्यों होता है? इसे पता लगाने के प्रयास में यह पाया गया कि किसी भी व्यक्ति के रक्त के तरल भाग प्लाज़्मा में एक अन्य रसायन एंटीबॉडी पाया जाता है । यह रसायन उस व्यक्ति की लाल रुधिर काणिकाओं के उलट होता है । A ग्रुप में B एंटीबॉडी मिलता है तो B में A एवं ओ में दोनों एंटीबॉडीज़ मिलते हैं । परंतु AB में ऐसे किसी भी एंटीबॉडीज़ का अभाव होता है । एक ही प्रकार के एंटीजेन एवं एंटीबॉडी के बीच होने वाली प्रतिक्रिया के फलस्वरूप रुधिर कणिकाएँ आपस में चिपकने लगती हैं, जिससे इनका थक्का बनने लगता है । यही कारण है कि जब A का रक्त B को दिया जाता है मरीज के रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी A दाता के लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने एंटीबॉडी A से प्रतिक्रिया कर उनका थक्का बनाने लगते हैं । यही बात तब भी होती है जब बी का रक्त A को दिया जाता है । चूँकि ओ में दोनों ही एंटीबॉडीज़ मिलते हैं अत: ऐसे मरीज़ को A, B अथवा AB, किसी का रक्त दिए जाने पर उसमें पाए जाने वाली रुधिर कणिकाओं का थक्का बनना स्वाभाविक है । इसके उलट, AB में कोई भी एंटीबाडी नहीं होता अत: इसे किसी भी ग्रुप का रक्त दिया जाय थक्का नहीं बनेगा । रक्तदान के पूर्व दाता एवं मरीज़ दोनों के रक्त का ग्रुप पता करने की विधा भी खोज निकाली गई ।

कार्ल लैंडस्टीनर की इस खोज ने ब्लड ट्रांसफ्युज़न के फलस्वरूप मरीज़ों को होने वाली परेशानियों एवं इनकी मृत्युदर में भारी कमी ला दी । चिकित्सा जगत के लिए यह खोज इतनी महत्वपूर्ण थी कि 1930 में लैंडस्टीनर को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । बाद में आरएच फैक्टर एवं एम तथा एन जैसे एंटीजेन तथा ब्लड ग्रुप की खोज में भी इन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । अब हर साल 14 जून को कार्ल लेंडस्लाइडर (14 जून 1868 – 26 जून 1943) के जन्मदिन को विश्व रक्तदान दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है ।

कुछ समस्याएँ तो इन सब के बाद भी बनी रहीं ओर भी बनी हुई हैं । यथा, आकस्मिक दुर्घटना के कारण अचानक आवश्यकता से अधिक रक्त की हानि होने पर मरीज़ की जान बचाने के लिए तुरंत रक्त की आवश्यकता पड़ती है और वह भी उस ग्रुप की जो उसके लिए उचित हो । यदि समय रहते सही रक्तदाता न मिले तो समस्या गंभीर हो सकती है । सामूहिक दुर्घटना की स्थिति में तो बहुत सारे रक्त की, वह भी अलग-अलग ग्रुप वाले रक्त की आवश्यकात पड़ सकती है । इस समस्या से निपटने के लिए ब्लड बैंक की स्थापना का विचार आया । यह तभी संभव हो पाया जब 1910 में लोगों की समझ में यह बात आई कि रक्त को जमने से रोकने वाले रसायन एंटीकोआगुलेंट को रक्त में मिला कर उसे कम ताप पर रेफ्रिज़िरेटर में कुछ दिनों के लिए रखा जा सकता है । 27 मार्च 1914 में एल्बर्ट हस्टिन नामक बेल्जियन डॉक्टर ने पहली बार दाता के शरीर से पहले से निकाले रक्त में सोडियम साइट्रेट नामक एंटीकोआगुलेंट को मिला कर मरीज़ के शरीर में ट्रांसफ्यूज़ किया । लेकिन पहला ब्लड बैंक 1 जनवरी 1916 में ऑस्वाल्ड होप राबर्ट्सन द्वारा स्थापित किया गया ।
इस सबके बावजूद संसार में मरीज़ों की जान बचाने के लिए रक्त का अभाव बना ही रहता है । वैज्ञानिक निरंतर इस प्रयास में लगे रहते हैं कि किस प्रकार इस समस्या से निपटा जाय । साथ ही यह भी प्रयास रहा है कि किस प्रकार लाल रुधिर कणिकाओं पर पाए जाने वाले एंटीजेंस से छुटकारा मिल सके ताकि किसी का रक्त किसी को भी दिया जा सके । 1960 के बाद इस प्रयास में काफी तेजी आई है । डेक्सट्रान जैसे संश्लेषित प्लाज़्मा सब्सटीच्यूट द्वारा रक्त का परिमाण तो बढ़ाया जा सकता है लेकिन शरीर की कोशिकाओं को रक्त पहुँचाने वाले लाल रुधिर काणिकाओं का क्या सब्स्टीच्यूट है? 1970 के दशक में जापान के वैज्ञानिकों ने फ्लूओसॉल-डीए जैसे रसायन का आविष्कार किया जो कोशिकाओं को अस्थायी तौर पर ऑक्सीजन पहुँचाने का काम कर सकते हैं ।
1980 के दशक में वैज्ञानिकों को एक ब्लड ग्रुप को दूसरे में परिवर्तित करने में आंशिक सफलता मिली थी । इसी की अगली कड़ी है- युनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगेन के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दल ने एक ऐसी तकनीक़ का विकास किया है जिसके द्वारा किसी भी ग्रुप के आरएच निगेटिव रक्त को, चाहे वह ए ग्रुप का हो या बी का अथवा एबी का, ओ ग्रुप में परिवर्तित किया जा सकता है । यदि आपने यह आलेख ध्यान से पढ़ा है तो आप जानते ही हैं कि ओ ग्रुप का रक्त किसी को भी दिया जा सकता है। यह एक क्रांतिकारी अनुसंधान है ।

1 अप्रैल 2007 के नेचर बॉयोटेक्नॉलॉजी के अंक में प्रकाशित आलेख के अनुसार लगभग 2500 बैक्टीरिया एवं फफूंदियो की प्रजातियों के जांच-पड़ताल के बाद इन वैज्ञानिकों को एलिज़ाबेथकिंगिया मेनिंज़ोसेप्टिकम एवं बैक्टीरियोऑएड्स फ्रैज़ाइलिस में पाए जाने वाले सक्षम ग्लाइकोसाइडेज़ एन्ज़ाइम्स की खोज में सफलता मिली है जो लाल रुधिर कणिकाओं की सतह से संलग्न ऑलिगोसैक्राइड्स (एंटीजेन ए अथवा बी) को बड़ी सफ़ाई से काट कर अलग कर सकते हैं और वह भी तटस्थ पीएच पर । इन एन्ज़ाइम्स की क्रियाशीलता केवल ए तथा बी एंटीजन्स तक ही सीमित है। ये आरएच एंटीजेन के विरूद्ध अप्रभावी हैं, फलत: इनके द्वारा केवल आरएच निगेटिव रक्त को ही ओ ग्रुप में बदला जा सकता है । यह सीमित सफलता भी बड़ी महत्वपूर्ण है । इसके द्वारा भी बहुतेरे मरीज़ों की जान बचाई जा सकेगी। हालांकि इस विधा का क्लीनिकल ट्रायल अभी शेष है। आशा है, जल्दी ही इसे भी पूरा कर लिया जाएगा एवं इसका लाभ शीघ्र ही मरीज़ों को मिलने लगेगा ।

कौन कर सकता है रक्तदान : 
* कोई भी स्वस्थ व्यक्ति जिसकी आयु 18 से 68 वर्ष के बीच हो ।
* जिसका वजन 45 किलोग्राम से अधिक हो ।
* जिसके रक्त में हिमोग्लोबिन का प्रतिशत 12 प्रतिशत से अधिक हो ।
* रक्‍तदान के दिन धुम्रपान और शराब का सेवन वर्जित है । रक्‍तदाता निरोगी होना चाहिए ।

ये नहीं करें रक्तदान :
* महावारी के दौर से गुजर रही महिला ।
* बच्चों को स्तनपान कराने वाली महिला ।
* एनीमिया रोगी अर्थात हीमेाग्‍लोबिन 9.5 से कम हो ।
* अगर आप ने 90 दिन की अवधि में रक्‍तदान किया हो ।

Blood

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के तहत भारत में सालाना एक करोड़ यूनिट रक्त की जरूरत है लेकिन उपलब्ध 75 लाख यूनिट ही हो पाता है। यानी करीब 25 लाख यूनिट खून के अभाव में हर साल सैंकड़ों मरीज दम तोड़ देते हैं। विश्व रक्तदान दिवस समाज में रक्तदान को लेकर व्याप्त भ्रांति को दूर करने का और रक्तदान को प्रोत्साहित करने का काम करता है। भारतीय रेडक्रास के राष्ट्रीय मुख्यालय के ब्लड बैंक की निदेशक डॉ. वनश्री सिंह के अनुसार देश में रक्तदान को लेकर भ्रांतियाँ कम हुई हैं पर अब भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।

उन्होंने बताया कि भारत में केवल 59 फीसद रक्तदान स्वेच्छिक होता है। जबकि राजधानी दिल्ली में तो स्वैच्छिक रक्तदान केवल 32 फीसद है। दिल्ली में 53 ब्लड बैंक हैं पर फिर भी एक लाख यूनिट खून की कमी है। डॉ. सिंह ने कहा कि इस तथ्य से कम ही लोग परिचित हैं कि खून के एक यूनिट से तीन जीवन बचाए जा सकते हैं।

Blood types graph

रक्त जिंदगी का आधार है | हवा ना मिले तो इंसान मर जरूर जाता है लेकिन अगर रक्त का प्रवाह और बनने की प्रणाली काम करना बंद कर दे तो इंसान की मौत और भी दर्दनाक होती है | जिंदगी का यह अनमोल रत्न हर किसी के अंदर भगवान ने प्रवाहित किया होता है लेकिन कभी एक्सीडेंट तो कभी किसी बीमारी की चपेट में आकर अक्सर लोग खून की कमी की वजह से दम तोड़ देते हैं | कई बार जिंदगी के दिए सिर्फ इसलिए बुझ जाते हैं क्योकि उन्हें कुछ लीटर खून नहीं मिल पाता । यह खून सस्ता भी है महंगा भी | शरीर के अंदर स्वत: ही बनता है लेकिन अगर किसी कारणवश इसकी कमी हो जाती है तो इसका मोल अनमोल हो जाता है ।

देशभर में रक्तदान हेतु नाको, रेडक्रास जैसी कई संस्थाएँ लोगों में रक्तदान के प्रति जागरूकता फैलाने का प्रयास कर रही है परंतु इनके प्रयास तभी सार्थक होंगे, जब हम स्वयं रक्तदान करने के लिए आगे आएँगे और अपने मित्रों व रिश्तेदारों को भी इस हेतु आगे आने के लिए प्रेरित करेंगे।
रक्तदान के प्रति जागरूकता जिस स्तर पर लाई जानी चाहिए थी, उस स्तर पर न तो कोशिश हुई और न ही लोग जागरूक हुए. भारत की बात की जाए तो अब तक देश में एक भी केंद्रीयकृत रक्त बैंक (Centralised Blood Bank) की स्थापना नहीं हो पाई है, जिसके माध्यम से पूरे  देश में कहीं पर भी खून की जरूरत को पूरा किया जा सके. टेक्नोलॉजी में हुए विकास के बाद निजी तौर पर वेबसाइट्स (Websites) के माध्यम से ब्लड बैंक व स्वैच्छिक रक्तदाताओं की सूची को बनाने का कार्य आरंभ हुआ. भले ही इससे थोड़ी बहुत सफलता जरूर मिली हो लेकिन संतोषजनक हालात अभी भी नहीं बन पाए
स्वैच्छिक रक्तदान को बढ़ावा देने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) ने वर्ष 1997 से 14 जून को विश्व रक्तदान दिवस (World Blood Donation Day) के रूप में मनाने की घोषणा की. इस मुहिम के पीछे मकसद विश्वभर में रक्तदान की अहमियत को समझाना था. लेकिन दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत (India) में इस मुहिम को उतना प्रोत्साहन नहीं मिल पाया जितना की अपेक्षित है. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण लोगों में फैली भ्रांतियां हैं, जैसे कि रक्तदान से शरीर कमज़ोर हो जाता है और उस रक्त (Blood) की भरपाई होने में काफी समय लग जाता है. इतना ही नहीं यह गलतफहमी भी व्याप्त है कि नियमित खून देने से लोगों की रोधक  क्षमता कम हो जाने के कारण बीमारियां जल्दी जकड़ लेती हैं. ऐसी मानसिकता के चलते रक्तदान लोगों के लिए हौवा बन गया है जिसका नाम सुनकर ही लोग सिहर उठते हैं. ऐसी ही भ्रांतियों को दूर करने के लिए ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) ने इस आयोजन की नींव रखी, ताकि लोग रक्तदान (Blood Donation) के महत्व को समझ जरूरतमंदों की सहायता करें | एक स्वस्थ व्यक्ति में एक unit रक्तदान से उसकी दिनचर्या में कोई फरक नहीं पड़ता .इस लिए रक्तदान के लिए समय समय पर शिविर लगाये जाते हैं.लोगों को प्रोत्साहित किया जाता है.एक व्यक्ति के द्वारा किया गया रक्तदान एक जीवन बचा सकता है इस लिए इसे महादान भी कहा जाता है. आशा है, जल्दी ही इसे भी पूरा कर लिया जाएगा एवं इसका लाभ शीघ्र ही मरीज़ों को मिलने लगेगा।

रक्तदान जीवनदान है। हमारे द्वारा किया गया रक्तदान कई जिंदगियों को बचाता है। इस बात का अहसास हमें तब होता है जब हमारा कोई अपना खून के लिए जिंदगी और मौत के बीच जूझता है। उस वक्त हम नींद से जागते हैं और उसे बचाने के लिए खून के इंतजाम की जद्दोजहद करते हैं।
अनायास दुर्घटना या बीमारी का शिकार हममें से कोई भी हो सकता है। आज हम सभी शिक्षि‍त व सभ्य समाज के नागरिक है, जो केवल अपनी नहीं बल्कि दूसरों की भलाई के लिए भी सोचते हैं तो क्यों नहीं हम रक्तदान के पुनीत कार्य में अपना सहयोग प्रदान करें और लोगों को जीवनदान दें।

धर्म विचारों सज्जनों बनो धर्म के दास ।
सच्चे मन से सभी जन करे रक्‍तदान ।।

लेखक : ब्रजेश हंजावलियामन्‍दसौर (म.प्र.)