1. वर्तमान समाज व्यवस्था गरीबों के शोषण की व्यवस्था :- वर्तमान समाज-व्यवस्था का ताना-बाना बनाने वाले सुविधाभोगी वर्ग ने इस तरह बनाया है जिसमें श्रमजीवी कर्मजीवी, मेहनतकश गरीब जन्म से मरण तक धार्मिक-कर्मकाण्डों, सामाजिक रिस्मों-रिवाज़ों, जन्म-परण-मरण के संस्कारों में अंधा होकर धर्म, पुण्य प्रतिष्ठा के झूंठे भुलावों में घाणी के बल की भांति चक्कर काटता रहे । रात-दिन खून पसीना बहा कर मुश्किल से अपना व बच्चों का पेट पालने लायक धन कमाता है । जीवन भर रोटी-कपड़ा-मकान भी सही ढंग से नहीं जुटा पाता है हमेशा दुविधाओं में रहकर दुविधा भोगी वग बन जाता है । आये दिन के जन्म-परण-मरण के संस्कारों रिस्मों-रिवाज़ों के खर्च, व्रत-त्योहारों के खर्चे रिश्तेदारों के चाल-चलावों के खर्चे, देवी-देवताओं के झंझट पाखंडी पंडो व स्वादी-साधुओं की पेट-पूजा के खर्चों में गरीब की गाढी मेहनत की कमाई का अधिकतर धन बर्बाद हो जाता है । धर्म-भीरू, दलित वर्ग के भोल-भाले लोग जीवन भर कर्जदार, कंगाल, दुविधाभोगी बने रहते है । वे निर्धनता में ही जन्मते हैं और निर्धनता में ही मर जाते हैं । वे समाज व्यवस्था के इन कोढो का शिकार बने रहते हैं दुसरी तरफ सुविधाभोगी पाखंडी-पण्डे-पुजारी, स्वामी-साधु, सन्यसी भूखे भेड़ियों की तरह गरीब भोले-भाले लोगों को गुमराह करके अनकी गाढी कमाई के धन से मेवे, मिष्ठान, भेंट, पूजा, अन्न-धन लेकर मुस्टण्डे बने रहते है । इनका भरपूर सादा समाज में झूंठी प्रतिष्ठा के भूखे कठ मुल्ले पंच-पटेल, रूढ़ीवादी, विचारहीन अज्ञानियों की भीड़ देती रहती है जिससे उनका जीमण होता रहे । ये खर्चीलें रिस्मों-रिवाज़ समाज को रसातल में ले जाने के रास्ते है ।
2. झूंठी प्रतिष्ठा के भूखे-भेड़िये खर्चीलें रीति-रिवाज़ों को पनपा रहे हैं :- हर समाज में दो प्रकृति के व्यक्ति पाये जाते हैं । प्रगतिशील एवं रूढीवादी, प्रगतिशील व्यक्ति समाज में परिवर्तन का पक्षधर होता है । वह सड़ी-गली, रूढीवादी रीति-रिवाज़ों ढकोसलों मान्यताओं में बदलाव का प्रयास करता है । समाज में बैठ-ऊठ करके समाज सुधार के कार्यों में अपना कीमती-समय, धन लगाता है यही उसकी प्रतिष्ठ होती है । वह समाज को अपने ज्ञान व तर्क ने नयापन देता है । सड़े-गले रीति-रिवाज़ों को बढावा नहीं देता है । दूसरी तरफ समाज में रूढीवादी कठमुल्ले होते हैं । इनकी मानसिकता अतीत की सड़ी गली मान्यताओं व रीति-रिवाज़ों से जकड़ी होती है । रूढीवादी लोग अपने सोच में बदलाव लाने की क्षमता नहीं रखते है वे परिवर्तन व नयेपन से कतराते है । सड़ी गली परम्पराएं, रीति-रिवाज़, इनकी इज्जत व औखात का आधार होता है । यदि रूढीगत परम्परायें टूटती है तो इन कठुमुल्लओं की प्रतिष्ठा रसातल में चली जाती है । परिवर्तन को पचाने या अपनाने की न तो इनकी क्षमता है न बुद्धि । नयेपन के सामने ये कूड़े के ढेर समान है । ये रूढीवादी लकीर के फकीर होते है । इसी आधार पर ये समाज के ठेकेदार बने रहते है । यहीं इनका धर्म है । इन लकीर के फकीरों में अशिक्षित पंच-पटेल ही नहीं बल्कि अधकचरे पढ़े-लिखे यहां तक रूढीवादी नौकरी-टोकरी वाले कर्मचारियों एवं अधिकारियों का भारी जमावड़ा है । यह सफेदपोष तबका वर्तमान में सोच होन लकीर का फकीर ही नहीं बल्कि नये-नये खर्चीले रीति-रिवाज़ पनपा रहा है । समाज सुधार के लिए इनके पास एक घन्टे का समय नहीं है न एक पैसा खर्च करने को तैयार है क्योंकि खुद ही सुधरे हुऐ नहीं है । परन्तु समाज में झूठी प्रेतिष्ठा पाने के लिए रूढीगत, सड़े-गले रीति-रिवाज़ों पर अनाप-शनाप खर्च करने का नाटक रचते हैं । इनकी प्रतिष्ठा का यहीं एक मात्र आधार है बाकी तो ये लोग ढोल की पोल है । वैसे उच्च वर्गों के सामने इस समाज के ये सफेदपोष धनवान राई के बराबर भी नहीं है लेकिन ”अंधों में काणा राजा” एवं ”घड़े में अनाज, ढेड के घर राज” वाली कहावत इन पर लागू होती है ।
इस प्रकार के समाज के रूढीगत मानसिकता के अशिक्षित एवं शिक्षित लोग नित-नये बेतुके खर्चीले रीति-रिवाज़ पनपा कर अपनी झूंठी प्रतिष्ठा इन अशिक्षित व गरीब समाज पर थौपने में लगे रहते हैं । इनकी देखा-देखी में साधनहीन गरीब की मुश्किल हो जाती है । गरीब की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है उसको सम्पन्न शिक्षित रिश्ते नहीं मिल पाते हैं । बेचारा गरीब अपनी ईज्जत बचाने के लिए खर्चीले रीति-रिवाज़ों के चक्कर में कंगाल बन जाता है । नैकरी-टोकरी वाले कर्मचारी या अधिकारी या कुछ धंधे वाले जिनके पास कुछ फालतु आमदनी होती है वे रीति-रिवाज़ों, रोकने-टोंकने, सगाई-शादी, जामणा (छुकक, बालुण्डो), भात-मायरा, रिश्म-पगड़ी, कौंली-गंगोज, अन्तिम-संसकार में अधिक से अधिक खर्चे करके अपनी औखात का दिखावा करते है तथा गरीबों, बेरोजगारों को समाज में नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं । यह सामाजिक अपराध है यह पाप है यह रैगर समाज को रसातल में ले जाने का मार्ग है ।
मैं मेरे जीवन के बाल्यकाल से ही प्रगतिशिल विचारधारा का पक्षधर रहा हूँ । मैंने 18 वर्ष की आयु से समाज-सुधार के कार्यों में भाग लेना शुरू कर दिया था । नुकता-प्रथा, गंगोज, कौली, बाल-विवाह, रूढीगत मान्यताओं, रीति-रिवाज़ों, परम्पराओं के विरूद्ध जितना सम्भव हुआ कार्य किया है । समाज को समय दिया है । नये पन एवं परिवर्तन को जीवन के व्यवहार में आचरण में समाया है । मेर सब साथी इस तथ्य को जानते है । मेरे विचारों के आधार मेरे पिताजी का निर्वाण 30 अप्रैल 1980 बुद्ध पूर्णिमा को हुआ था । भारी दबाव के बावजूद मैं मेरे पिताजी की अस्थियां गंगाजी में डालने नहीं गया जबकि मैं ज्येष्ठ पुत्र था । सन् 1979 में मैं बाबा रामदेव की समाधि पर परिवार सहित नमन् करने गया परन्तु गांव वालों के दबाव के बावजूद कौंली जैसी कुप्रथा की रस्म मैंने नहीं की । अत: हमें बुराईयों व खर्चीले रिवाज़ों को अपने घर से समाप्त करने का उदाहरण पेश करना पड़ेगा । समाज बन्धुओं से हमारे समाज के खर्चीले रिवाजों पर मेरे लम्बे सामाजिक जीवन के अनुभवों के आधार पर कुछ सुझाव है आप इन पर गौर करे एवं व्यवहार में अमल में लावें ।
(i). जन्म संस्कार पर जामणा, छुछक, बालुण्डा :- जब किसी के पहला बच्चा/बच्ची जन्मता है तो जच्चा के स्नान पर या कुआं पूजन पर या बाद में जच्चा के पीहर पक्ष द्वारा कपड़े, जेवर, नगद राशि से जामणा या छुछक (पंजाब में), बालुण्डा (मारवाड़ में) भरने का रिवाज़ है । दिनों दिन इस रिवाज़ पर लाखों रूपयों का खर्च किया जाने लगा है । पीर पक्ष अपनी झूठी प्रतिष्ठा के चक्कर में पचासों आदमी/ओरतें लेकर जच्चा के ससुराल जाते हैं । भारी कपड़े, जेवर, नगदी लेकर अपनी औखात दिखाते हैं । उधर जच्चा के ससुराल पक्ष के पास भी कुछ बचत नहीं होती है । मेहमानों के खर्चीले भोजन सेवा इत्यादि में दिया लिया बराबर हो जाता है बल्कि वे नुकसान में रहते हैं । उनकी बस्ती को जीमण करना पड़ता है । अपने लेनदार मेहमानों को कपड़े, नकदी देना पड़ता है । अत: झूंठी प्रतिष्ठा के चक्कर में दोनों घर बर्बाद हो जाते हैं, गरीब कंगाल हो जाते हैं ।
सुझाव :- इस अवसर पर केवल जच्चा व नवजात बच्चा/बच्ची को कपड़े एवं खाने-पीने की सामग्री मात्र एक आदमी के साथ भेजना प्रयाप्त है । स्थानीय पंचों को इस नियम की पालना करनी चाहिये । जो इससे ज्यादा दिखावा करे उसके खिलाफ सामाजिक प्रस्ताव लिया जाना चाहिए । उसके घर जोमण में व अन्य संस्कारों में भाग नहीं लेना चाहिए तभी यह खर्चीली बुराई बन्द हो सकती है ।
(ii). लड़के की रोकना/टींकना/सगाई के बढ़ते रिवाज़ समाज का कैंसर :- 15-20 वर्ष पहले इस समाज में लड़के रोकने/टींकने का रिवाज़ बिल्कुल नहीं था लड़के वाले, लड़की वाले के घर जाते थे एक रूपया नारियल की रस्म अदा करके सगाई पांच आदमियों के सामने हो जाती थी । परन्तु ज्यों-ज्यों इस समाज के लोग थोड़े बहुत शिक्षित व साधन सम्पन्न होने लगे इन्होंने अन्य सम्पन्न समाजों की नकल करते हुए अपनी औखात जमाने के लिए इस गरीब अशिक्षित समाज पर रोकने/टींकने की प्रथा थौप डाली । गरीब की बेटी को अच्छा धर-बार मुश्किल हो गया । साधन वाले व नौकरी-टोकरी वाले रोकने/टींकने के रिवाज़ में हजारों-लाखों रूपये खर्च करने लग गये तथा समाज में झूंठी प्रतिष्ठा व वाह-वाही लूटने लग गये । अब रोकना/टींकना व सगाई तक बेटी का बाप बर्बाद होने लग गया । फालतु की कमाई वाले लागों की यह बर्बादी शान बन गई मेहनत कश की मुश्किल । यह बुराई अब समाज का कैंसर बनती जा रही है । 10-20 हजार में गरीब अपनी बेटी की शादी कर देता था अब इससे ज्यादा उसको रोकने-टींकने-सगाई पर खर्च करने पड़ते है । यह खर्चा दहेज है । सामाजिक अपराध है । गरीबों की लड़कियों के साथ अन्याय है, पाप है ।
सुझाव :- अखिल भारतीय एवं प्रदेश स्तर पर इस रोकने/टींकने व सगाई खर्च पर सख्त पाबन्दी का प्रस्ताव रैगर संस्थाओं को लेना चाहिए । महासम्मेलन में सबको संकल्प दिलाया जावे कि रोकने/टींकने व सगाई खर्च तुरन्त बन्द किया जावे । संकल्प के उलग्नकर्तां को समाजद्रोही घोषित किया जावे । उसकी शादी व्यवहार का स्थानीय पंच व रिश्तेदार बहिष्कार करे । नवयुवक व प्रगतिशिल सामाजिक कार्यकर्ताओं का दल उन पर निगाह रखे एवं उनके विरूद्ध सामाजिक, प्रशासनिक व न्यायिक कैंसर पर रोक लग पाये । अन्यथा यह रिवाज समाज को रसातल में ले जावेगा ।
(iii). अन्त्येष्टि संस्कार पर रिश्तेदारों से नगद राशि स्वीकार करना महापाप की घृणित कमाई :- मरी हुई लाश पर रिश्तेदारों द्वारा नगद रकम देना व लेना दोनों ही घृणित एवं निर्लज्जता है । यह प्रथा 5-7 वर्षों से कुछ सोचहीन कठुमुल्लाओं ने शुरू की है जो समाज में झूठी प्रतिष्ठा के भूखे है । पहले केवल देवाल रिश्तेदार ज्यादा से ज्यादा एक मर्दाना/जनाना कफन लाश पर डाल देता था । परन्तु अब तो औखात के भूखे लोग शमशान भूमि तक देने दरिया करने लग गये । जिस परिवार में मृत्यु हुई है उसके उत्तराधिकारी बेटे-पौते-भाई-बंधु सब इतने निर्लज्ज हो गये है कि मरी हुई लाश पर भी रिश्तेदारों से लने के लिए हाथ पसार देते हैं जैसे वे कंगाल हो । थोड़ी भी लज्जा या शर्म हो कम से कम नगद राशि ता स्वीकार नहीं करनी चाहिए । अपने मृत्क बुजुर्ग या परिजन का अन्तिम संस्कार खुशी से स्वयं के खर्चे पर करना चाहिए कंगाल होतो कोई दूसरा भी कर सकता है । यह घृणित कार्य है, निर्लज्जता की निशानी है ।
सुझाव :- इस अवसर पर सभी रिश्तेदारों द्वारा मृत्क की लाश पर फूल मालाऐ, पुष्प चढ़ाने चाहिये । ज्यादा से ज्यादा कफन का कपड़ा लाश पर उढाना पर्याप्त है । लाश पर लेन-देन की निष्ठुर व निर्लज्ज बुराई को तुरन्त त्याग करना जरूरी है अत: सभी समझदार, ईज्जतदार इस कुप्रथा का कड़ा विरोध करे एवं त्याग करे ।
iv). रैगर समाज आज बैरोजगारी, गरीबी के कगार पर खड़ा है :- समाजकंटक, सोचहीन लोग नये-नये रिवाज़ पनपा रहा है हमें नुकताप्रथा, दहेजप्रथा, भात-मायरा, पगड़ी-रस्म, लग्न, खर्चीले बैण्ड-बाजे, शादी मण्डप सजावट, कौंली, गंगोज सभी रीति-रिवाज़ों के खर्चे पर पाबन्दी लगाना जरूरी हो गया है अखिल भारतीय, प्रदेश स्तर जिला व तहसील स्तर तथा स्थानीय सामाजिक संस्थाओं व पंचों को इस तरह सख्त कदम उठाना चाहिए नहीं तो यह समाज कंगाली, कूंडा, दिवालियापन के जाल में फस जायेगा ।
3. लकीर के फकीर समाज के असली दुश्मन :- अशिक्षित व बड़े-बूढों में बदलाव लाना थोड़ा मुश्किल हो सकता हैं क्योंकि उसको शिक्षा नहीं मिली नयी-सोच का अवसर नहीं मिल पाया । परन्तु इस समाज का अधकचरा शिक्षित यहां तक की उच्च डिग्रियां हासिल डॉक्टर, इन्जिनियर, विज्ञान के शिक्षक, I.A.S., I.P.S., R.H.J.S., R.J.S., R.A.S., R.P.S., R.T.S. व अन्य सेवाओं के पदाधिकारी/कर्मचारी अधिकतर लकीर के फकीर के फकीर बने हुए है । पुरानी बेतुकी, सड़ी-गली, रूढियों, मान्यताओं, विचारों से बंधे पड़े है नया-पन, बदलाव से कतराते है । कांपते है जैसे कायर-कमजोर । वास्तव में ये सफेद पोष (White Color) लोग समाज के परिवर्तन के दुश्मन है । सभी खर्चीले रीति-रिवाज़ों को पनपाने में इन लोगों का पूरा योगदान है । गरीब-ग्रामीण अशिक्षित तो इन चमकीले सफेद-पोषों से अपनी इज्जत बचाने के लिए खर्चें करके बर्बाद होते है । ये सफेद पोष बुराईयों, रूढियों का विरोध करने मैं अक्षम है क्योंकि तर्क व ज्ञान के लिए ये ढोल की पोल है ।
इनका एक तर्क है ‘अरे पहले से चली आ रही रस्म तो निभानी ही पड़ती है ।” इसी में इनके ज्ञान की इति श्री हो जाती है । ये लकीर के फकीर यह नहीं समझते की दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी और हम हजारों वर्ष पुरानी बातों में हमारी उन्नतिऔखात देख रहे हैं । ये लकीर के फकीर यह भी नहीं समझते कि सारी परम्पराये उच्च वर्ग के सुविधाभोगियों की थौपी हुई है जिससे हमारा मेहनतकश वर्ग दुविधा में पडकर पद-दलित हो गया है तथा ये रीति-रिवाज़ हमारे पतन के कारण है ।
ये सफेदपोष यह भी नहीं समझते कि भारतीय संविधान की धारा 51 (क) में अच्छे नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह जीवन में तर्क व वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनावे एवं अंधी आस्था रूढी परम्पराओं से मुक्त रहे । इन तथाकथित शिक्षित, डिग्रीधारी, पदाधिकारिव सफेदपोषों को समाजहित में परिवर्तनशील होना चाहिए ।
एक कवि लिखते है :-
लीक लीक गाड़ी चले, लीक ही चले कपूत ।
लीक छोड़ तीनों चले, शायर, सिंह सपूत ।।
लेखक : पी.एम. जलुथरिया (पूर्व न्यायाधीश)
जयपुर, राजस्थान