साधु लक्ष्मणदासजी

साधु श्री लक्ष्‍मणदासजी महाराज

आप साधु लक्ष्‍मणदासजी के नाम से भी पुकारे जाते हैं । इनका जन्‍म पाली निवासी श्री बाबूरामजी सुंकरिया के घर बाई सूजांदेवी के गर्भ से हुआ । उपलब्‍ध तथ्‍यों के अनुसार इनका जन्‍म सम्‍वत् 1935 तथा देहांत सम्‍वत् 1990 में पाली में हुआ । साधु लक्ष्‍मणरामजी ने उन दिनों सिंध (पाकिस्‍तान) में रहकर सिंधि हाई स्‍कूल फुलैली से दसवीं कक्षा उत्‍तीर्ण की । आप शुरू से ही पढ़ने में प्रवीण थे । शिक्षा प्राप्ति के बाद आप पाली लौटे । सांसारिक कार्यों से विरक्ति होने से आध्‍यात्‍मिकता की तरफ आपका झुकाव बढ़ा । जोधपुर निवासी श्री अचलरामजी महाराज के सम्‍पर्क में आए और उनके शिष्‍य बन गये । उनके साथ रह कर वैराग्‍य ले लिया । वैराग्‍य धारण करने के बाद भी वे गृहस्‍थ जीवन में रहे । गृहस्‍थ जीवन में रहते हुए ही योग, विज्ञान, दर्शन आदि का गहन अध्‍ययन किया । आपने ज्ञान दिवाकर, अवगुणौषधि आदि अनेकों ग्रंथों की रचना की मगर उपलब्‍ध केवल ज्ञान दिवाकर ही है । इन्‍हौंने इस ग्रन्‍थ में अनेक छन्‍दों का सुन्‍दर प्रयोग किया है । हिन्‍दी साहित्‍य के अच्‍छे से अच्‍छे छन्‍द ग्रन्‍थ से इसकी तुलना की जा सकती है । इंदव छन्‍द, त्रिभंगी छन्‍द, कुण्‍डलिया छन्‍द, मुतियदाम छन्‍द, मनहर छन्‍द, त्रोटक छन्‍द, अरिल छन्‍द, छपय छन्‍द, भुजंग प्रयात छन्‍द, चौपाई छन्‍द, द्रमिला छन्‍द, हरिजीत छन्‍द तथा नाराच छन्‍द आदि अनेकों छन्‍दों का प्रयोग कर विद्वत्‍ता का अद्वितीय परिचय दिया है । इस ग्रन्‍थ के प्रारम्‍भ में गुरूदेव की अर्चना बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों में की गई है ।

दोहा


आत्‍म अनिवासी अचल, सर्व प्रकाशक सोय । ।
लक्ष्‍य कहे निजरूप लखि, भेद मर्म दे खोय । ।1 । ।

ज्ञान दिवाकार में ही साधू लक्ष्‍यमणरामजी द्वारा इंदव छन्‍द का प्रयोग बहुत ही सुन्‍दर तथा प्रभावशील तरीके से किया गया है ।

काल कराल सदा शिर गाजत, तू नहीं चेतत मूढ़ अजानी ।
आयु घटे छण ही छण भीतर, जावत ज्‍यों? सरिता कर पानी । ।
तेल घटे जब बाट बुते इत, त्‍यों तन छीजत सों नहि जानी ।
लक्ष कहे हरिनाम भजे बिन, जाय पड्यां नरके अभिमानी । ।1 । ।

भाव, भाषा, छन्‍द, अलंकार, उपदेश तथा आध्‍यात्‍मवाद की दृष्टि से ‘ज्ञान दिवाकर’ एक बेजोड़ ग्रन्‍थ है । इस कृति को देखने से कहा जा सकता है कि श्री केवलानन्‍द भारती को छोड़कर साधु लक्ष्‍मणदासजी से बड़ा विद्वान साधु रैगर समाज में दूसरा नहीं हुआ है । रैगर जाति में साधु लक्ष्‍मणदासजी की भारी प्रतिष्‍ठा थी । रैगर समाज पर उनका जबरदस्‍त प्रभाव था । उन्‍होंने तात्‍कालीन परिस्थितियों में रैगर जाति में व्‍याप्‍त अनेकों बुराइयों की तरफ समाज के लोगों का ध्‍यान आकर्षित किया । उन्‍होंने बाल विवाह, अनमेल विवाह, मृत्‍यु भोज आदि अनकों समाज सुधार के कार्य किए । साधु लक्ष्‍मणरामजी पाली में ही सूरजपोल के अन्‍दर रैगर जाति द्वारा बनाये गये हनुमानजी के एक विशाल मन्दिर में रहते थे । उनके तीन पुत्र थे- नारायणदासजी, अचलदासजी तथा हुकमारामजी । साधु लक्ष्‍मणरामजी की मृत्‍यु के बाद उनके पुत्र नारायणदासजी हनुमानजी की पूजा का कार्य करते थे । नारायणदासजी के पुरूष संतान नहीं होने से अब इस मन्दिर की व्‍यवस्‍था रैगर समाज द्वारा ही चलाई जा रही है । साधु लक्ष्‍मणदासजी महान् समाज सुधारक, दूरदर्शी, आध्‍यात्‍मवादी तथा विद्वान् महात्‍मा थे ।

(साभार- चन्‍दनमल नवल कृत ‘रैगर जाति का इतिहास एवं संस्‍कृति’)

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