जालाणी कोई जाति नहीं है बल्कि यह एक धूंणी, गादी, पंथ या सम्प्रदाय है । धूंणी या गादी 4 प्रकार की है- जालाणी, मालाणी, हरनिवाणी तथा हरचंदवाणी ।
मालाणी– ये गुर्जरों के भोपे होते हैं तथा गुर्जर जाति के अलावा किसी भी जाति को नहीं मांगते है ।
हरनिवाणी– ये बलाइयों के कामड़ होते है जो तेरह ताल बजाते हैं और बाबा रामदेव के जमा जगाते है ।
हरचन्दवाणी– ये पूंगी बजाने वाले कालबेलिये होते हैं ।
जलाणी– ये रैगरों के क्रियाकर्म करते है । जलाणी रैगर जाति के अलावा किसी दूसरी जाति को नहीं मांगते हैं । जालाणी धूंणी, गादी या पंथ के संस्थापक जालापीर थे । हींगलाज में जालापीर की मुख्य धूंणी या गादी है । जालाणियों को वहीं से भेख (भगवां चोला) दिया जाता था तभी जालाणी पंथ के अनुयायी माने जाते थे । अनुसूचित जाति में एक जाति खंगार है । खंगार अपनी उत्पत्ति खंगारोत राजपूतों से बताते हैं । खंगार जाति के जिन लोगों ने रैगरों के क्रियाकर्म का पेशा अपनाया वे जालाणी कहलाए । खंगार जाति के दूसरे लोग जालाणियों के साथ खान-पान तथा बेटी व्यवहार नहीं करते हैं । जालाणियों को निम्न समझते है । खंगार अपने नाम के पीछे राजपूतों की तरह ‘सिंह’ लगाते हैं मगर जालाणियों में अपने नाम के पीछे नाथ लगाने की परम्परा है । कई जालाणी नाम के पीछे दास भी लगाते हैं । जालाणियों का मुख्य पारम्परिक धन्धा रैगरों के क्रियाकर्म करना है । ये रैगरों के दाह संस्कार में नहीं जाते है । यदि जाते भी है तो मानवता के नाते अन्य आम आदमी की तरह जाते हैं तथा वहां अंतिम संस्कार सम्बंधी कोई कार्य नहीं करते हैं । इनका कार्य मृतक के मरने के तेरहवें दिन की रात को होता है । मृतक के परिवार से सूचना मिलने पर जालाणी क्रियाकर्म के लिए उसके घर जाते हैं । क्रियाकर्म रात को ही होता है । क्रियाकर्म के पिछे धारणा यह है कि मृतक की आत्मा भटकती रहती है । क्रियाकर्म करवाने से ही उसको मोक्ष की प्राप्ति होती है । क्रियाकर्म शुरू करवान से पहले मृतक के घर की लिपाई-पुताई करवाकर साफ सुथरा करवाते है । घर में जिस स्थान पर पाठ (मंत्र) पढ़ने का कार्य होना होता है वहां चारों तरु दीवारों पर नये या साफ कपड़ों के पर्दे लगवाते हैं और मंदिर की तरह सजाते है । चार कोनों में चार दीपक रखते हैं तथा बीच में एक बड़ा दीपक रखते हैं, जिसे जोत कहते हैं । क्रियाकर्म की अन्य सामग्री भी रखदी जाती है । प्रारम्भ में मृतक के परिवार के सदस्यों को चेला मूण्डते हैं । चेला मूण्डन में चेले के कान पर चाकू रखकर कान में मंत्र फूंक दिया जाता है । चेला मूण्डन के बाद क्रियाकर्म की कार्यवाही में मंत्रों के जप करना शुरू करते हैं । 360 शब्द (मंत्र) होते हैं उनका रात भर जप चलता रहता है । मंत्रों के जप के दौरान काली मिट्टी की एक कुण्डी मँगवा कर उसमें कच्चा दूध डालते हैं । मृतक का डाब (घास) का एक पुतला बनाकर उस पर मृतक यदि पुरूष है तो सफेद कपड़ा तथा स्त्री है तो लाल कपड़ा ओढ़ा कर पुतले को कच्चे दूध में नहलाया जाता है । इसके बाद पीपल के पेड़ की लकड़ी या कपास के पौधे की लकड़ी से सीढ़ी बनाते हैं । यजमान की सामर्थ्य हो तो चांदी की सीढ़ी भी बनवाते है । सीढ़ी के सात खण्ड होते हैं । हर खण्ड के अलग-अलग मंत्र हैं तथा हर सीढ़ी के अलग-अलग दान हैं । सात खण्ड़ों के सात दान होते है । दान में गाय, कपड़े, लोटा, अन्न, रूई वगैरा देते हैं । इस तरह यजमान अपनी सामर्थ्य के अनुसार सातों दान देता है । यह क्रियाकर्म सम्बंधी सम्पर्ण कार्यवाही सूर्यास्त के बाद शुरू होकर सूर्योदय के पहले अनिवार्य रूप से समाप्त हो जाती है । यह धारणा है कि क्रियाकर्म करवाए बिना मृतक की आत्मा को मोक्ष नहीं मिलती है ।
जालाणी दिल्ली तथा राजस्थान में बसे हुए हैं । राजस्थान में बूंदी, कोटा, डीग, उदयपुरया, निवाई, बगड़ी, देवड़ास, टोडारायसिंह, पीपलदा, छीनोद, श्योपुर कला (म.प्र.), डिगीमालपुरा, पचेवर, अराई, मोरला, गणेती, नासिरदा तथा हनुतिया वगैरा स्थानों में फैले हुए है । जालाणियों की जनसंख्या बहुत ही कम है । जालाणियों का परारम्परिक धन्धा समाप्त होता जा रहा है क्योंकि रैगर जाति में शिक्षा का काफी प्रसार हुआ है तथा कई रैगर स्वयं भी क्रियाकर्म कर लेते हैं । इसलिए जालाणी अब अपने पारम्परिक धन्धे के अलावा खेती, मजदूरी, सिलाई, नौकरी आदि करने लग गये हैं ।
क्रियाकर्म करने या करवाने से मृतक की आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति सम्बंधी यह धारणा रैगर जाति के पिछड़ेपन की निशानी है । जो समाज जितना पिछड़ा हुआ है, वो उतने ही अन्ध विश्वासों में फंसा हुआ होता है । क्रियाकर्म की धारणा घोर अन्ध विश्वास तथा ढकोसलेबाजी है । अज के वैज्ञानिक युग में एक तरफ दनिया चाँद पर पहुँच चुकी है, दूसरी तरफ रैगर जाति अभी तक अन्ध विश्वास के घेरे में फंसी हुई है । इस पोंगापंथी को त्यागना ही रैगर जाति के हित में है । यह सर्व मान्य तथ्य है कि व्यक्ति का अपने जीवन में सदकर्म करने से मोक्ष मिलती है, क्रियाकर्म करवाने से नहीं ।
(साभार- चन्दनमल नवल कृत ‘रैगरजाति : इतिहास एवं संस्कृति’)
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