रैगर जाति मे भित्ति चित्र कला

कला की दृष्टि से रैगर जाति की भित्ति चित्रकला- रैगर जाति की यह कला अपने आप में अद्वितीय है। रैगर महिलाओं द्वारा बनाये गये भित्ति चित्रो की आकृतियों के औज एव्म माधुर्य, रेखाओं की सम्पन्नता, रंगो में जादू और दृष्यों को सबल आधार देने वाली यह कला जंहा प्रबुद्व दर्शक को लोक से अलोकिक जगत् तक ले जाने में समर्थ है, वंहा वह उसे यह सोचने पर बाध्य करती है कि वास्तव में ये चित्र कृतियां सत्य के निकट है अथवा सत्य उन के निकट है। इस दृष्टि से रैगर महिलाओ द्वारा विवाह आदि के अवसरो पर बनाये गये भित्ति चित्रकला के चित्रो का रहस्यमयी कल्पनाओ के मूर्त स्वपन भी कहा जा सकता है। आज इन भित्ति चित्रो में विस्तृत ष्शोध की अत्यंत आवश्यकता है क्यों कि आज तक रैगर जाति में विद्यमान भित्ति चित्र कला का विस्तृत अध्ययन नही किया गया है जब कि भित्ति चित्र कला में रैगर जाति की महिलायें इस अदभूत कला को बनाने में अत्यंत माहिर रही है। मैने मेरे बचपन में देखा कि जब मेरा व मेरे परिवार के लोगो के विवाह हुये तो मेरी माता श्रीमती खेमली देवी ने मुझे ‘बान‘ बिठाने के दिन हमारे मकान के मुख्य कमरे की दीवार पर चूने की सफेदी से लेप करने के बाद उस पर ‘हरमच‘ के लाल रंग से देवताओं को दर्शाने के लिये कुछ लकीरे इस तरह दीवार पर बनाई जो ‘भित्ति चित्र कला‘ के ही नमूना था। यह भित्ति चित्र कला परिवार के कुल देवताओं और मृत बुजूर्ग आत्माओ से आशीर्वाद लेने के लिये बनाई जाती थी। इन भित्ति चित्रो को बनाने के बाद गेंहु के दानो पर एक मिट्टी का दीया जला दिया जाता था जो निरन्तर जलता रहता था। यह भित्ति चित्र कला आज भी रैगर समाज द्वारा विवाह के समय अपनाई जाती है।

रैगर संस्कृति में चित्रकला- प्रायः रैगर जाति के घरो में चित्रकला को कंही न कंही स्थान अवश्य मिला है। ये चित्र या तो भित्तियों पर बने होते है या फिर चैक एवं द्वारपद पर चित्रित किये जाते रहे है। विवाह के समय तोरण मारने से पहली वधु पक्ष की महिलाओं द्वारा आटे से ‘चौक पूरने‘ की रस्म करना भी चित्रकला की एक शैली ही मानी जा सकती है। इस के अलावा विवाह के समय दीवार पर खड़िया मिट्टी अथवा लाल रंग से अपने देवी देवताओं की निशानी बनाना भी चित्र कला का ही एक भाग है। हथेलियों पर ‘मेंहदी‘ द्वारा सुन्दर अलंकरण, चैकों में ‘मांडणे‘ के विविध नमूने एवम्शु भ अवसरों व त्यौहारों पर मंगल-चित्र रैगर जाति की लोककला के विशेष स्वरूप है।

रैगर जाति में चित्रकला वास्तव में स्त्री-कला ही है। इस में स्त्रियों की वह कला सम्मिलित है जिस के द्वारा वे अपने घरों को और स्वयम् अपने हाथ-पैरों को सजाती है और जिस को ‘माण्डणा‘ अथवा मेंहन्दी रचना कहा जाता है। माण्डणा का अभिप्राय है कि घरों को सजाना और ‘मेहन्दी रचना‘ का मतलब हाथ-पैरों को सजाना होता है। रैगर जाति की स्त्रियों द्वारा घरों की और हाथ-पैरों को सजाने के लिये जिस कला का उपयोग किया जाता है वह ज्यामितीय प्रतीक प्रधान होती है। इस में आकृतियां प्रायः सभी प्रकार जैसे त्रिकोण, चतुष्कोण, षड्भुज, वृत्त, स्वस्तिक, सर्वतोभद्र आदि होती है। माण्डणा मांढने और मेहन्दी लगाने की क्रिया मांगलिक अवसरों अथवा तथा पर ही की जाती है।

दीवार पर बने चित्र- अंग्रेजी शासन काल के अन्तिम समय में तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रारम्भिक वर्षो तक रैगर जाति की किसी लड़की का विवाह जब होता था तो दुल्हे और बारात का स्वागत करने के लिये वधु के घर के बाहर अपने गोत्र द्वारा स्वागत करना लिखा जाता था। इस के अलावा घर के मुख्य द्वरवाजे के दोनो तरफ ऊंट अथवा घोड़े की सवारी, राजा का जुलूस, फुल पत्तिया आदि बना कर दुल्हा और बारात का स्वागत प्रदर्शित किया जाता था। दीवार पर बनाये गये चित्ररे को भित्ति चित्र कला की श्रेणी में रखना एक सचमुच गम्भीर चिन्तन का विषय है। मेरे प्रारम्भिक जीवन में मैने कई बार दीवार पर बनाये गये विभिन्न चित्रो को रैगर जाति के उन विवाह वाले घरो के बाहर देखे थे जिसे भारतीय कला एवम् सास्ंकृतिक परम्परा का एक उत्कृष्ट नमूना ही कहा जा सकता है। इस प्रकार की दीवार पर बनाई गयी चित्रकला की संस्कृति प्रायः राजस्थान के प्रत्येक गांव में देखने को मिल जाती थी। इस चित्रकला के इन चित्रो में ऐसी खूबसूरती नजर आती जो आज के मोर्डन आर्ट अथवा आधुनिक कला में देखने को भी नही मिलती। तुलनात्मक दृष्टि से रैगर जाति के घरो के बाहर बनाये गये चित्रो को तीन काल खण्डो में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम में वे चित्र आते है जो उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण में बनाये जाते थे। द्वितीय वे थे जो उन्नीसवी शताब्दी के उतराद्र्व में बनाये जाते थे तथा तृतीय चरण में उन चित्रो को ले सकते है जो बीसवीं शताब्दी के चित्र है। रैगर समाज के राजपुताना के सभी स्थानो पर प्रारम्भिक उन्नीसवीं शताब्दी में चित्रांकन अत्यन्त कुशलता के साथ किया जाता था। इन में स्वाभाविकता के साथ साथ कोमलता भी मौजुद रहा करती थी। इन में अधिकतर हरा, लाल व पीला रंग प्रयोग में लिया गया था। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में रंग पतले और कम चमकीले लगाये जाने लगे थे। इन्हे अण्डे का जर्दा और गोंद के साथ मिला कर नही लगाने स चमक नही आ पाई थी। इस समय के चित्रों में युरोपियन प्रभाव भी दिखने लगा था। तृतीय चरण में इनका स्तर और भी गिर गया। विभिन्न रंग और एक रंग की कई रंगतो का प्रयोग होने लगा था। विभिन्न विषयों और युरोपीय चित्रो का प्रभाव बहुतायत में रैगर जाति के घरो के बाहर की दीवारो पर होने लगा। समय किसी का भी इन्तजार नही किया करता। समय का प्रभाव जड़ चेतन पर समान रूप से पड़ता है। ऐसी अवस्था में समय के बदलाव के साथ साथ दीवार पर चित्र बनाने की कला में बहुत कमी आ चुकी है। यंहा तक की समय की रफतार में रैगर जाति के लोगो द्वारा विवाह आदि अवसरो पर दीवार पर बनाने की चित्रकला लगभग लुप्त प्रायः हो चुकी है।

रैगर जाति में ‘मांडणा‘ परम्परा- पुराने समय में रैगर जाति के लोगो के घर कच्चे होते थे और उन की छतो को फूस आदि से ढका जाता था। इस जाति के लोगो की जीवन शैली का अध्ययन किया गया तो यह पाया कि भारत की आजादी के कई सालो तक ये अपने घरो के आंगन व कमरो को गोबर से लीपा करते थे। मैने मेरे बचपन के जीवन में यह देखा था कि राजस्थान व दिल्ली में बसने के समय में रैगर जाति की महिलायें अपने घरो की आंगन व कमरो को गोबर से लीपा करती थी क्यों कि इनके घरो के आंगन व कमरो की र्फश कच्ची मिट्टी से बनी हुई होती थी। उस समय इन की महिलाये इन कच्चे घरो को समय समय पर गोबर से लीपा करती थी। इस से घर ठंडे रहने के अलावा बिल्कुल साफ सूथरे रहा करते थे। गोबर का लेप सूखने के उपरान्त रैगर महिलाये अपने घरो के आंगन व कमरो में चूने के सफेद रंग और ‘हरमच‘ के लाल रंग से विभिन्न प्रकार के माण्डना मांडे करती थी। ये माण्डणे ‘सातिया‘, फूल पत्ती आदि के होते थे। इन माण्डणो में किसी देवता, भगवान या व्यक्ति का चेहरा नही बनाया जाता था क्योंकि जमीन पर बनाये गये माण्डणो पर किसी के भी पांव पड़ सकते थे जो कि परिवार के लिये अशुभ होते थे। माण्डणा बांटने में रैगर महिलायें अत्यंत कुशल हुआ करती थी जिस से इनके कुशाग्र चिन्तन के साथ साथ कला प्रेम को भी दर्शाता है। धीरे धीरे समय के बदलाव के साथ साथ सीमेन्ट, लोहे और ईंटो के पक्के मकान बनने लग गये। गोबर की लेप के बदले सीमेन्ट की र्फश बनाई जाने लग गई जो बाद के वर्षो में सीमेन्ट की फर्श में मारबल के दाने की चिप्स की बनने लग गई थी। आर्थिक प्रगति के साथ रैगर जाति के लोग दिल्ली व अन्य स्थानो पर मारबल की र्फश बनवाने लग गये है। इस प्रकार आधुनिक युग में रैगर जाति की महिलाओं में माण्डणा घरो की फर्श पर बनाये जाने वाले ‘माण्डणा‘ कम होती गयी है।

इसी संदर्भ में यह लेख है कि रैगर जाति के घरो की दीवारो पर महिलायें लाल रंग की गैरू मिट्टी से ‘मांण्डणा‘ बनाया करती थी जिस से इन की झोपड़िया बड़ी ही सुन्दर लगा करती थी। यह परम्परा मध्य काल के मुगल शासन से ही इन में प्रारम्भ हुई थी क्योंकि मुगल शासन के दौरान कला व संस्कृति तथा अन्य विद्याओ में विकास आम जन मानस के पटल पर भी उतरना आरम्भ हो गया था। परन्तु ‘माण्डणा‘ बनाने की परम्परा आज भी इस रूप में विद्यमान है जब किसी बालिका के विवाह पर दुल्हा अपनी बारात लेकर दुल्हिन के घर पर तौरण मारने आता है उस समय जमीन पर दुल्हिन की मां ‘चैक पूरने‘ की परम्परा को निभाते हुये सूखे आटे से दुल्हे के आगमन के स्वागत में ‘माण्डणा‘ मांडती‘ हुये दुल्हे का स्वागत करते हुये गीले आटे की गोलियो को अपने सामने और पीछे फैंकती है। उस के बाद वह ‘माण्डणा‘ के दोनो तरफ ग्लास से पानी ‘सलाहती‘ है। यह माना जाता है कि इस प्रकार की क्रिया से कोई भी बुरी आत्मा या ग्रह का प्रकोप समाप्त हो जाती है। इस प्रकार रैगर जाति में विवाह के समय आटे से ‘माण्डणा‘ बनाने की कला आज भी विद्यमान है।

वास्तु शिल्प में रैगर जाति का योगदान- राजपुतो के शासन काल में राजस्थान में जितने भी किले,गढ व महलो का निर्माण हुआ उन में रैगर जाति के लोगो का बेगार प्रथा तथा शोषण के आधार पर अमानविय तरीके से मजूदरो के रूप में उपयोग किया गया। इस का मुख्य कारण यह रहा कि इस जाति को शूद्र मानते हुये इनका शोषण करना राजा महाराजाओ तथा ठिकानेदारो ने अपना इन पर अधिकार माना इस प्रकार जयपुर का आमेर किला, अलवर का बाला किला, चितोड़ का चितोड़ गढ, झालावाड़ का गागरोन का किला, जयपुुर का जयगढ, बीकानेर का जूनागढ, भरतपुर का लोहागढ आदि इस जाति के खून पसीने से ही बिना किसी मजदूरी के रूपये दिये बेगार मे ही निर्माण किये गये है जो वास्तव में इस जाति पर ढाये गये आतंक के ही प्रतीक कहे जा सकते है। इसी प्रकार कई महल जैसे अलवर, धोलपुर, भरतपुर, जयपुर आदि महाराजाओ के महल तथा राजस्थान के छोटे बड़े ठिकानो में बने छोटे बड़े गढ व ठिकानेदारो के महल व मन्दिरो में इस जाति के लोगो का शोषण कर निर्माण करवाया गया था।

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