समाज का रहन सहन

रैगर जाति का रहन सहन, पुराना व्‍यवसाय व खान-पान

1. रैगर जाति का रहन सहन :

1.1 साधारणजन का रहन सहन :- स्‍वतंत्रता से पहले रैगर जाति के पूर्वजों को काफी कष्‍ट झेलने पड़े थे इसीलिये मैंने उनके उस समय के जीवन के बारे में लिखना उचित समझा है । वास्‍तव में उस समय उनकी दशा बड़ी ही दयनीय थी । उनके सारे कपड़े, हाथ-पैर और नाखून चमड़े को रंगने के कारण बदबूदार और लाल से ही रहते थे । घरों के बीच में ‘कूण्‍डे’ व ‘भवणिया’ होती थी । घरों के पास में कच्‍ची गीली बड़े जानवरों की खालों के साथ-साथ वहां अन्‍य प्रकार की गंदगी फैली रहा करती थी जिसके कारण रैगर बस्‍ती में काफी बदबू रहा करती थी । घरों में सींगों की खूंटियां होती थी जिन पर मर्दों और स्त्रियों के कपड़े टांगे जाते थे । स्त्रियों के पीतल के जेवर होते थे और उनके कपड़े भी गंदे होते थे । सफाई का लोग कतई ध्‍यान नहीं रखते थे ।

1.2 आवास व्‍यवस्‍था :- प्राय: रैगर जाति के लोगों के मकान कच्‍ची ईटों और गारे के बने हुये होते थे जो घास फूस के छप्‍परों से ढके रहते है । पुरूष वर्ग के बैठने-उठने, बकरी व अन्‍य पालतु पशुओं के बांधन और चारा लकड़ी आदि के संग्रह के लिये खुले छप्‍परों का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार प्रारम्‍भ में राजस्‍थान में रैगर समाज के कच्‍चे घर हुआ करते थे जिन पर ‘छान’ पड़ी होती थी कच्‍चे घर का अभिप्राय है कि इनके मकान पक्‍की ईटों के नहीं हुआ करते थे । इक्‍का-दुक्‍का ही किसी गांव में किसी का पक्‍का मकान होता भी था तो उसे बहुत धनवान मानते थे । उस दौर में कई घरों में कोई अलग से ड्राईंग रूम या बैठक आदि नहीं हुआ करती थी । उस दौर में कई घरों में ‘साल’ भी हुआ करती थी जो प्राय: छोटी ही हुआ करती थी । जब रैगर समाज के लोग राजस्‍थान से दिल्‍ली आये तो भी इनकी कच्‍ची झोपड़िया ही थी । राजस्‍थान में रैगर समाज के मुकाबले में राजपूतों के पास गढ किले और सेठों के पास हवेलिया होती थी । गांव के निर्जन स्‍थान को शौचालय के रूप में उपयोग में लाया जाता था जिसे ‘जंगल जाना’ भी कहा जाता था । प्राय: इनकी रसोई अलग से घर के बाहर बनाई जाती थी जिसमें मिट्टी का चूल्‍हा बनाया जाता था । चूल्‍हे की राख से पीतल कांसे के बर्तन साफ किये जाते थे । इनके बर्तनों में कांसे की थाली और लोटे का बहुत महत्‍व व उपयोग होता था । गिलास पीतल के ही होते थे । खाना कांसे के ‘कचोळे’ या ‘कचोळी’ में खाना अच्‍छा माना जाता था । हर घर में ‘परिन्‍डा’ बना होता था जिस पर पानी के घड़े और मटके रखे जाते थे । इन मटकों को महिलायें ही गावं में रैगर जाति के कुआ से पानी भरकर लाती थी क्‍योंकि हर जाति का अपना अलग कुआ हुआ करता था । घर के अन्‍दर ‘मूंज’ अर्थात ‘सन्‍न’ से बुना हुआ पलंग हुआ करता था जिस पर ‘गूदड़ी’ बिछाकर सो जाया करते थे । घर के बाहर क्षाअ या मचला बिछाकर आराम कर लिया जाता था ।
जहां तक घरों में रौशनी करने का प्रश्‍न है, उस जमाने में ‘दीया’ ही जलाया जाता था जिसमें तिल का तेल डला होता था । ‘कंटीले’ के बीज को ‘तावड़ा’ अर्थात धूप में सुखा कर पीसा जाता था । बाद में उसे कपड़े में रखकर निचोड़ लिया जाता था । कंटीले के बीज प्राय: जंगल में ही मिला करते थे अत: इनको लेने के लिये महिलायें बहुत दूर तक जंगल में जाया करती थी । कंटीले का तेल चमड़े को रंगने के बाद उसे चमकाने के भी काम में लिया जाता था । बाद के वर्षों में रोशनी के लिए मिट्टी का तेल प्रयोग में लाया जाने लगा ।

1.3 कोठयार या ओबरी :- यह मुख्‍यत: अनाज रखने के लिये मिट्टी में गोबर मिलाकर चौकोरनुमा बनाया जाता था । इसकी लम्‍बाई-चौड़ाई घर के जिस कमरे में इसे रखा जाना होता था उस कमरे की लम्‍बाई-चौड़ाई पर ही इसका निर्माण निर्भर होता था । इसमें मजबूती आ जाये इसलिये कई बार भूसा भी मिट्टी ओर गोबर में मिला लिया जाता था । बड़े साईज के बने हुए ओर जिसमे ज्‍यादा सामान आ जाये उसे ‘कोठयार’ कहा जाता था । छोटे साईज वाले को ‘ओबरी’ कहा जाता था । इसमे अनाज के अलावा किमती सामानऔर गहने आदि भी छुपा कर रखे जाते थे । ‘कोठयार’ एवं ‘ओबरी’ बनाने का मुख्‍य कारण यह था कि उस दौर में आसानी से अनाज नहीं मिला करता था तथा कई बार बारिश के नहीं होने के कारण अकाल का सामना भी करना पड़ता था इसलिये यह आवश्‍यक था कि अनाज को बचा कर रखा जाये । इसके अलावा रैगर समाज के पास खेती की जमीन भी नहीं हुआ करती थी क्‍योंकि मूलत: यह कौम खेतीहर कौम नही थीं । अपने खाने के अनाज प्राप्‍त करने के लिये महिलायें प्राय: जमीदारों के यहां ‘लावणी’ करने जाया करती थी जिसके एवज में जमीदार उन्‍हें कुछ अनाज दे दिया करता था जिससे उनका गुजर बसर हो जाये । इसके अलावा गांव के ठाकुरों अैर जमीदारों द्वारा बलपूर्वक ‘बेगार’ भी करवाई जाती थी । इस ‘बेगार’ के एवज में इन्‍हें ज्‍वार या बाजरा पेट भरने को मिल जाया करता था । इस मौटे अनाज में जो कुछ भी बच जाता उसे ‘कोठयार’ या ‘ओबरी’ में बुरे समय में बच्‍चों का पेट पालने के लिये रख लिया जाता था । उस समय में गरीबी बहुत अधिक थी इसलिये इनके पास संदूक अथवा अलमारी होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता । मैंने रैगर समाज के कई पुराने घरों में ‘कोठयार’ और ‘ओबरी’ बनी हुई देखी है । आजकल के जमाने में न तो कोर्इ इन्‍हें बनाता क्‍योंकि इनके बनाने में काफी मेहनत लगती है । इसके अलावा आसानी से हर जगह पर लोहे की संदूक या अलमारी मिल जाती है । अनाज का मिलना भी आसान हो गया है ।

2. रैगर जाति का पुराना व्‍यवसाय :

2.1 रंगत :- पुराने समय में चमड़े को रंगने का ही मुख्‍य कार्य होता था । बड़े जानवर की खाल को ही ‘आढ़े’ में रंगा जाता था । यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें बड़े जानवर की कच्‍ची खाल को पहले तो बड़े ‘सूये’ द्वारा सूत या सन्‍न से चारों त‍रफ सिल लिया जाता था । फिर उसमें पानी भरकर ‘कीकर’ के पेड़ की कुछ कुटी हुई छाल चमड़े को रंगने के लिये डाल दी जाती थी । कीकर के पेड़ को ‘बोळी’ को पेड़ भी कहा जाता था । इसकी छाल को पहले सुखाया जाता था । बाद में ही इसे चमड़ा रंगने के काम में लिया जाता था । कई बार खाल में बाजरे की थोड़ी सी लेई भी छाल के साथ चमड़े में डाल दी जाती थी जिससे कि छाल का रंग पक्‍की तरह से चमड़े पर आ जाये । इसमें चूना भी इसलिए डाला जाता था कि चमड़ा जल्‍दी से रंग जाये । ‘आढा’ शब्‍द ‘आढे’ से आया है जिसका अभिप्राय है कि खड़े के बदले लटकाकर टांकना । ‘आढा’ पक्‍की चुनाई कर करीबन बारह-पंद्रह फीट लम्‍बा और आठ फिट चौड़ा छोटा सा तालाबनूमा शकल का होता था जिसके दोनों तरफ लकड़ी के ठुंठ गाढे हुये रहते थे जिससे कि इनके दोनों तरफ के ठुंठो पर पानी और कीकर की कुटी हुई छाल से से भरी सन्‍न से सिली हुई बड़े जानवर की खाल को आढी लकड़ी में फंसाकर रंगने के लिए टांग दिया जाता था । चमड़ा रंगने की प्रक्रिया में खाल से बदबूदार पानी इस ‘आढे’ में गिरता रहता था । एक जानवर की खाल को रंगने करीबन एक महिना लग जाता था । चमड़ा रंगने के बाद इसे ‘आढे’ के दोनों किनारों पर लगे ठूंठों के बीच की लकड़ी में टांगी गई खाल के पानी और छाल को निकालकर सन्‍न की सिलाई को हटाकर धूप में सूखा दिया जाता था जिससे रंगे हुए चमड़े की जूतियां और चड़स बनाया जा सके । चमड़ा रंगने की प्रक्रिया बड़ी ही कठीन और असहनीय होती थी ।

2.2 गांठना :- आजकल की तरह अंग्रेजी किस्‍म के जूते नहीं हुआ करते थे । उस जमाने में जूतियां ही हुआ करती थी जो कच्‍चे चमड़े को रैगर जाति द्वारा रंगने के बाद बनाई जाती थी । गांवों में नई जूतियां जिन्‍हें ‘जोड़ी’ कहा जाता था रैगर जाति द्वारा ही बनाई जाती थी । औरतों की जूतियों पर विशेष प्रकार की कढाई रैगर महिलाओं द्वारा ही की जाती थी जिससे वे बड़ी ही आकर्षक लगा करती थी । पुरानी अर्थात पांव में पहनकर पुरानी हुई जूतियों को सही करना ‘गांठना’ कहलाया करता था जिसका काम रैगर जाति के लोग ही किया करते थे ।

2.3 ‘लाव-चड़स’ :- जब राजस्‍थान के गांवों में बिजली नहीं हुआ करती थी तो खेतों में लाव-चड़स के माध्‍यम से जमीदार लोग पानी दिया करते थे । इसमें दो बैलों की जोड़ी हुआ करती थी । उनके कंधे अर्थात उभरी हुई थौर पर एक लकड़ी रख दी जाती थी । इसके बीच की ‘कीली’ में लाव-चर्खी फंसा दी जाती थी । यह ‘कीली’ भी लकड़ी ही हुआ करती थी । लाव सन्‍न की हुआ करती थी जो चड़स से बंधी होती थी । चड़स से पानी निकालने के लिये एक व्‍यक्ति कुंअे की मुंडेर पर खड़ा रहता था । इस जगह को ‘ढाणा’ भी कहा जाता था । दूसरा व्‍यक्ति कुअे के ‘ढाणे’ की सीध में जमीन पर बैलों के चलने के लिए बनाई गई गलीनूमा जगह में खड़ा रहता था । ‘चड़स’ चमड़े की ढोलनुमा बनी होती थी जिसमें कुअे से पानी भरकर ऊपर आता था और लाव को खल देने पर कुअे के पास बनाई गई पानी की नाली में चड़स को उढेल दिया जाता था जो खेतों की क्‍यारियों में होता हुआ सारे खेत में पहुंच जाता था । रैगर जाति के लोग ‘चड़स’ को बनाने और ‘चड़स’ की मरम्‍मत करने में माहिर हुआ करते थे इसलिये हमारे समाज को विशेष सम्‍मान भी दिया जाता था ।

3. रैगर समाज का खान पान

3.1. ‘बड़ी’ :- सर्दी में बांस पर कच्‍चे मांस के लम्‍बे टुकड़ो को छांव में सूखा दिया जाता था जिसे ‘बड़ी’ कहा जाता था । गर्मी के मौसम में चने की सूखी कोंपलों जिन्‍हें ये हरी भाजी कहते हैं अथवा सूखी ग्‍वांर फली या चने की दाल आदि में ‘बड़ी’ को बर्तन में डालकर चूल्‍हे पर एक मांसाहारी सब्‍जी की तरह खाने को पकाते थे । बारिश के मौसम में ‘बड़ी’ जो मूलत: खूखा हुआ मांस ही था को नहीं खाया करते थे क्‍योंकि बारिश के मौसम में मांस बदबूदार और किटाणु युक्‍त हो जाता है । इसके अलावा ‘बड़ी’ को चूल्‍हे की आग पर सेक कर भी खाया करते थे ।

3.2 ‘छाछ’ ‘राबड़ी’ :- मक्‍का, जौ, बाजरा को धीमी आंच में पकाकर राबड़ी बनाई जाती थी । उस जमाने में ‘छीना’ जो अकाल के समय का अनाज माना जाता था और मोटे अनाज की श्रेणी में आता था उसकी भी ‘राबड़ी’ बनाई जाती थी । यह पौधा करीबन दो-ढाई फिट ऊंचा होता था । आजकल इसे कोई नहीं बोता और न ही इस्‍तेमाल करता है क्‍योंकि देश में हर प्रकार का अनाज गावं में आसानी में मिल जाता है । राबड़ी में ताजा छाछ डालकर सुबह-सुबह ‘कलेवा’ किया जाता था । यदि किसी के कोई मेहमान आ भी जाता था तो उसे कलेवे में छाछ राबड़ी ही दी जाती थी । कलेवा सुबह के नाश्‍ते को कहा जाता था । उस जमाने में चाय का बिल्‍कुल भी रिवाज नहीं था । चाय का प्रचलन तो आजादी के बाद में आया है ।

3.3 सीरा और लापसी :- मक्‍का अथवा ज्‍वार की गुड़ डाल कर लापसी बनाई जाती थी । गेंहू और गुड़ को कड़ावे में पकाकर सीरा बनाया जाता था । सीरा मृत्‍यु भोज जिसे नुक्‍ता भी कहा जाता है के समय बनाकर मेहमानों को खिलाया जाता था । पैसे वाले लोग नुक्‍ते पर ‘पुआ’ भी बनाया करते थे । ‘पुआ’ मूलत: गुड़ मे गेहूं के आटे के घोल को मिलाकर तेल में तल कर बनाया जाता था । पहले के जमाने में घी के बदले तेल में ही पूरी, साग, मालपुए आदि बनाया करते थे । विवाह के अवसर पर भी मीठा सीरा परोसने का रिवाज़ होता था । सीरा ही मिठाई के बतौर काम में लिया जाता था । इसका मुख्‍य कारण निर्धनता ही था । नुक्‍ता और विवाह के समय में सीरा का कांसा भरने का भी रिवाज़ था । पैसे वाले लोग अपनी लड़कियों के विवाह में तलड़ी अर्थात तराजू से तोलकर सवा सेर का कांसा अपने सगे सम्‍बन्धियों और बस्‍ती में भेजा करते थे ।

3.4 तिल्‍ली का तेल :- पहले रैगर समाज के लोग तिल्‍ली का तेल का ही अधिक प्रयोग किया करते थे । राजस्‍थान से दिलली आने के उपरान्‍त भी काफी समय तक तिल्‍ली के तेल का ही खाने में प्रयोग किया जाता रहा था । यहां तक की सर्दियों में तिल्‍ली के तेल को चूल्‍हे की मोटी रोटियों में डालकर भी खाया जाता रहा था । इसका मुख्‍य कारण यह रहा था कि देसी घी प्राय: हरेक को आसानी से नहीं मिलता था जबकि घानी से निकला तिल्‍ली का तेल आसानी से मिल जाता था जो देसी घी से भी सस्‍ता हुआ करता था । इसके अलावा तिल्‍ली का तेल खाने में स्‍वादिष्‍ट होता था जिसकी तासीर गर्म हुआ करती थी ।

(साभार- डॉ. पी. एन. रछोया कृत रैगर जाति का इतिहास एवं संस्‍कृति)

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