वर्ण व्यवस्था

आज भारत विभिन्‍न जातियों एवं संस्‍कृतियों की संगम स्‍थली है । हजारों वर्षों के उतार-चढ़ाव से नए-नए विचारों तथा जीवन-पद्धतियों का प्रभाव यहाँ के निवासियों पर पड़ा है । लेकिन आदमी-आदमी के बीच भेदभाव की जो परम्‍परा इस देश के ज्ञात इतिहास के प्रारंभ से अब तक देखने को मिलती है, वह अविचल है, स्थिर है। आर्य बाहर से आए और उन्‍होंने यहाँ के मूलनिवासियों को हराकर अपने आचार-विचारों को उन पर थोप दिया, उनकी उन्‍नतशील सभ्‍यता और प्रकृतिवादी संस्‍कृति को नष्‍ट-भ्रष्‍ट करके एक तरह से उन्‍हें गुलामों की स्थितियों में ला दिया । फिर वर्ण-व्‍यवस्‍था को शास्‍त्र-सम्‍मत रूप देकर सबसे नीचे की श्रेणी शुद्र बनाकर उसमें रख दिया, जिन्‍हें केवल ऊपर के तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) की सेवा का अधिकार दिया गया।

भारत में जीवन-निर्वाह के बेहतर साधनों की तलाश में आर्य यहाँ आए थे, फिर धीरे-धीरे साम-दण्‍ड-भेद की नीति से मालिक बन बैठे ओर समस्त मानव जाति को कार्य की दृष्टि से चार वर्णों में विभाजित कर दिया । यह विभाजन जाति विभेद के आधार पर नहीं किया गया यह चार वर्ण इस प्रकार है : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । वेदों में कहा गया है की उस विरट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिये, सिने से वैश्य, और कमर से नीचे के भाग से शुद्र उत्पन्न हुए ।

मानव शरीर के विश्लेषण से पता चलता है कि हर मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र है । गले के ऊपर वाले भाग को जिसे हम सिर, मस्तक कहते है, यह भग ज्ञान-केन्द्र बिदु है । इस ज्ञान-केन्द्र को ब्रह्म भी कहते हैं । ब्रह्म अर्थात ब्राह्मण । दूसरे भाग भुजाओं और सिने को क्षत्रिय कहते हैं क्योंकि भुजाओं और सिने में सारी वीरता होती है । तीसरा भाग सीना तथा पेट आता है जो वैश्य का प्रतिनिधित्व करता है । व्यापार एवं व्यवसाय के द्वारा समस्त मानव जाति के पोषण का भार वैश्य वर्ण पर जाता है । चौथा भाग कमर के नीचे पैरों तक का शुद्र कहा जाता है । जिस प्रकार नींव के बिना मकान खड़ा नही हो सकता उसी तरह पैरों अर्थात शुद्र के बिना बाकि तीनों वर्णों का अस्तित्व नही रह सकता ।

मनु स्मृति के अनुसार कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था बनाई गई थी । मनुष्यों में कोई छोटा या बड़ा नही होता । शरीर के सभी अंगों का अपनी-२ जगह महत्व है । वैसे तो संसार के सभी धर्म, सम्प्रदायों में जाति-पाति का थोड़ा बहुत भेद अवश्य मिलेगा किन्तु वह भेद अहंकार, घृणा और एक-दूसरे को नीचा दिखाने कि भावना से हुआ, क्योंकि धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सभी मनुष्य समान हैं ।

शूद्र संख्या में ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्यों की कुल संख्या से काफी अधिक संख्या में रहे सभी इस देश के मूल निवासी थे । जिनको राजसत्ता, पाप तथा अधर्म का भय दिखाकर ही शारीरिक व मानसिक रूप से गुलाम बनाया गया । ब्राह्मण को यह भय लगा कि यदि वर्ण के आधार पर शूद्र की पहचान जारी रहती है तो इस आधार पर शूद्र संगठित हो सकते हैं, ब्राह्मण की सत्ता को चुनौती दे सकते है, इसलिए वर्ण के आधार पर की गई पहचान को समाप्त करने की साजिश रची गई । शूद्रों को कृषि, पशुपालन, दस्तकारी व चाकरी के आधार पर कई जातियों में विभाजित किया। शूद्रों से ही अन्त्यज के रूप में अलग से जातियाँ बनाई जिनको घृणित व अपमान जनक व्यवसायों में लगाया । शूद्र वर्ण की जातियों को समान धरातल पर नहीं रखा। जातियाँ आपस में घुल मिल नहीं सकें, इसके लिए शादी विवाह केवल जाति में ही किये जाने की परिपाटी डाली गई । जाति व्यवस्था को मजबूत बनाया गया । जाति के लोगों के आपसी झगड़े जैसे सम्पत्ति, उत्तराधिकार व पति-पत्नि के विवाद जाति पंचायतों द्वारा निपटाने की व्यवस्था स्थापित की । जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे कार्य जाति में ही सम्पन्न होने का रिवाज बन गया । लोगों ने अपनी जाति के बाहर सोचना ही बन्द कर दिया ।

जातियों को समान धरातल पर नहीं रखा । अछूत जातियों के लोगों से छुआछूत व परहेज बरतना बुरा नहीं माना गया बल्कि छुआछूत को बढ़ावा दिया गया । प्रत्येक जाति के लोगों की अलग-अलग बस्ती बसने लगी । बस्तियों के नाम जाति के नाम से होने लगे । जिनको अन्त्यज या अछूत माना गया उनकी बस्तियाँ दूर बसाई गई । एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों में अधिक घुले मिलें नहीं इस बात का विशेष ध्यान रखा गया। सभी शूद्र जातियों के लोगों के व्यवसाय कम लाभकारी व श्रम पर आधारित थे इसलिए शूद्र वर्ण की जातियों के लोग गरीब व अभाव में ही रहे। ब्राह्मण ने सभी हिन्दुओं को एक समाज के रूप में विकसित होने से रोका आज हालत यह है कि शूद्र वर्ण के लोग 6000 से अधिक जातियों में विभाजित हैं ।

हिन्दु समाज व्यवस्था में ऊँचे पायदान पर बैठे वर्ग ने अपने स्वार्थ के लिए धर्म को आधार बना स्वयं को समाज का अधिष्ठाता घोषित कर बहुसंख्यक वर्ग को जो यहाँ का मूल निवासी है ईश्वरीय उपदेशों के माध्यम से शारीरिक, मानसिक व आर्थिक गुलामी का शिकार बना दिया ।

प्रत्येक वर्ण के लोगों के क्या कार्य या व्यवसाय होगें ? इसका निर्धारण भी ईश्वर से ही करवाया गया । ब्रह्मा, विष्णु, कृष्ण आदि ईश्वर व ईश्वर के अवतारों के माध्यम से ब्राह्मण का काम पढ़ना, पढ़ाना, धर्म का ज्ञान प्राप्त करना, दान लेना, धार्मिक अनुष्ठान करना, क्षत्रिय का काम समाज व देश की रक्षा करना, ब्राह्मण को दान देना, धार्मिक अनुष्ठान कराना, वैश्य का काम व्यवसाय व व्यापार करना तथा ब्राह्मण को दना दक्षिणा व आर्थिक सहयोग प्रदान करना व शूद्र का काम तीनों वर्णों विशेषकर ब्राह्मण की सेवा करना तय करवाये । यदि ईश्वर अथवा ईश्वर अवतारों के द्वारा चारों वर्णों के व्यवसाय, दायित्व व निर्योग्यताएँ तय नहीं करवाई जाती तो ब्राह्मणों के अलावा बाकी वर्ण के लोग इस पर आपत्ति उठा सकते थे और ऐसी स्थिति में योग्यता व्यक्ति का समाज में स्थान तय करने का मापदण्ड बनता। इसलिए सोची समझी साजिश के तहत वर्णानुसार कर्म का सिद्धान्त भी ईश्वरीय उपदेश करार दिया गया ।

आर्य ब्राह्मणों ने अपनी श्रेष्ठता को ओर मजबूत करने की नियत से यह भी तर्क दिया कि व्यक्ति पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही वर्ण में जन्म लेता है जिसके पूर्व जन्म के कर्म श्रेष्ठ होते हैं वह ब्राह्मण वर्ण में और जिसके पूर्व जन्म के कर्म अच्छे नहीं रहे जिसने पाप पूर्ण कार्य किये हों उसका जन्म निम्न वर्ण में होता है इसलिए वर्ण में जन्म होना पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है और पूर्व जन्म के कर्मों का फल समझकर जो भाग्य में लिखा है उसी प्रकार से जन्म वाले वर्ण के लिए निर्धारित कर्म करते रहना चाहिए । तभी मोक्ष संभव है ओर अगला जन्म अच्छे वर्ण में होना भी संभव है । वर्ण में उत्पत्ति को पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम करार दिये जाने से बाकी तीनो वर्णों के लोगों के पास यह विकल्प भी नहीं रहने दिया कि वे वर्तमान में अच्छे कर्म के बल पर अपना वर्ण परिवर्तित कर सकें । इस प्रकार देश के बहुसंख्यक वर्ग की सृजनशीलता, वैज्ञानिक खोज की ललक, आविष्कार की मानसिकता, प्राकृतिक विपदाओं से निजात दिलाने के लिए उपाय तलाशने की इच्छा शक्ति को समाप्त कर दिया । बाकी तीनों वर्णों, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्रों को द्वितीय श्रेणी का नागरिक घोषित कर दिया और ईश्वर अवतार उत्पन्न व घोषित कर उनके माध्यम ये संदेश या उपदेश दिलवा दिया कि ज्ञान व गुण दोनों से रहित होते हुए भी ब्राह्मण पूजने योग्य है । ब्राह्मणों ने अपने आपको समाज का शिक्षक व धर्म का अधिकृत प्रवक्ता स्थापित कर लिया । उनके द्वारा पाप व दुराचरण करने पर भी उन्हें पापी व दुराचारी करार देने का अधिकार किसी को नहीं दिया ।

मनुस्मृति व अन्य धर्मशास्त्रों के अनुसार हिन्दू धर्म का सामाजिक ताना-बाना समान धरातल पर नहीं है । वर्ण-व्यवस्था में जहाँ ब्राह्मण सर्वोच्च शिखर पर स्थापित है वहीं शूद्र (इस देश का मूल निवासी) अन्तिम पायदान पर है । प्रत्येक वर्ण के लोगों के निश्चित व्यवसाय हैं, उन्‍हें अपनी मर्जी से व्यवसाय चुनने का अधिकार नहीं है । ब्राह्मण के अलावा बाकी वर्ण के लोगों को दूसरे वर्ण के लिए निर्धारित व्यवसाय करने का अधिकार नहीं है । शूद्र को तो केवल गुलामी ही करने का काम दिया गया है । वह कोई सम्पत्ति अर्जित नहीं करेगा । यदि भूल व लालचवश शूद्र ने कोई सम्पत्ति अर्जित भी कर ली तो उसे ब्राह्मण को छीन लेने का अधिकार है और शूद्र की सम्पत्ति छीन लेने पर ब्राह्मण को राजा द्वारा दंडित भी नहीं किया जा सकता । व्यवहार में भी समानता नहीं है, जिस प्रकार इस्लाम व ईसाइयत मे सभी व्यक्ति समान हैं उन्हें किसी भी प्रकार का व्यवसाय करने का अधिकार है उस प्रकार की व्यवसायिक स्वतंत्रता सनातन हिन्दुओं में नहीं है । आजादी के बाद भारतीय संविधान ने स्थिति को बदला है लेकिन धार्मिक अनुष्ठान कराने, मन्दिरों में सेवा पूजा करने का एकाधिकार अब भी ब्राह्मणों के ही पास है जो बिना परिश्रम का काम है । इस कार्य में किसी अन्य वर्ग का दखल नहीं है । ब्राह्मण इस बात पर कट्टिबद्ध है कि मन्दिरों में सेवा-पूजा व धार्मिक अनुष्ठान कराने के क्षेत्र में अन्य वर्ण व जातियों के लोग प्रवेश करने की हिमाकत ही नहीं कर सकें । धार्मिक अंध विश्वासों व परम्पराओं ने लोगों को पूर्णतया ब्राह्मणों पर आश्रित बना दिया है, मन्दिरों में चढ़ावा आता है सन् 2004-2005 के बजट भाषण में देश के तत्कालीन वित्त मंत्री श्री पी. चिबंदरम ने कहा था कि देश के मन्दिरों की सालाना आमदनी सकल बजट से 60 प्रतिशत अधिक है, सारी आमदनी पर केवल ब्राह्मणों का ही एकाधिकार है इस अथाह राशि के खर्च का कोई हिसाब किताब नहीं है मेरे विचार में यह राशि आम लोगों की है इसलिए यदि इस अथाह धनराशि को शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं पर खर्च किया जाये तो यह देश स्वास्थ्य की दृष्टि से तन्दुरस्त व शिक्षा की दृष्टि से बौद्धिक व कुशल राष्ट्र की श्रेणी में आ सकता है । चर्च की आमदनी जनकल्याण कारी योजनाओं पर खर्च हेाती है इस्लाम में भी जक़ात जैसी जनकल्याणकारी योजनाओं पर धर्मादा राशि खर्च होती है लेकिन हिन्दू धर्म के मन्दिरों की आमदनी को केवल एक वर्ण विशेष के लोग ही डकार रहे हैं फिर भी सुदामा कहलाते हैं । आमदनी का ब्यौरा व लेखा जोखा नहीं होने से यदि सर्वे कराया जाये तो साढे तीन करोड़ में से लगभग एक करोड़ ब्राह्मण बी.पी.एल. कार्ड धारक मिल जायेंगे इस प्रकार देश के वंचित व उपेक्षित वर्ग का हक ओर मार रहे हैं इसलिए इस धर्म आधारित आरक्षण को समाप्त किए बिना स्वतंत्रता व समानता का कोई महत्व नहीं है । परम संत शिरोमणी गुरू रविदास जी ने ऐसे राज की कामना करते हुए एक पद की रचना कि जिसमें काई भूखा न रहे और छोटे-बड़े का भेदभाव भुलाकर सभी मिल-जुलकर रहे । उन्‍होंने अपनी वाणी में कहा है कि –

”ऐसा चाहूँ राज मैं, मिलै सबन को अन्‍न।
छोटे-बड़ों सब सम बसें, रविदास रहे प्रसन्‍न।।”

भारत में जाति तोड़ो आ‍न्‍दोलन की चर्चा आज के इस आधुनिक युग की नई युवा पीढ़ि के द्वारा बहुत जोर शोर के साथ की जाती है, लेकिन जाति की दीवारें टूटने की बजाय ओर अधिक मजबूत होती जा रही है, क्‍योंकि भारत देश की राजनीति जो सभी तालों की चाबी है, इस राजनीति में प्रवेश के लिए टिकीट की आवश्‍यकता होती है ओर उस टिकीट के लिए प्राथमिकता उसकी जाति के लोगों की संख्‍या के आधार पर दी जाती है । हमारे राष्‍ट्रीय स्‍तर के कई नेता इस बात को खुले आम स्‍वीकार भी कर चुके है कि भारत के इस समाज में ब्‍याह-शादी और राजनीति का प्रमुख स्‍तंभ जाति ही है। लेकिन अब धीरे-धीरे इस युवा पीढ़ि में जाति की प्रासंगिकता कम होती जा रही है। यह तर्क भी अपने आप में वजन तो रखता ही है कि सोच का स्‍तर जाति से ऊपर उठकर होना चाहिए, राष्‍ट्र की बेहतरी की बात सोचनी चाहिए , लेकिन जो जातियाँ, सामाजिक और आर्थिक रूप से सदियों से पिछड़ी चली आ रही हैं, उन्‍हें मूलभूत सुविधाएँ उपलब्‍ध नहीं है, उन्‍हें बराबर का इन्‍सान नहीं समझा जाता है, उनकी बेहतरी के लिए राष्‍ट्रवादी विचार-धारा वाले लोगों को भी आगे आना चाहिए, क्‍योंकि वे भी इसी देश के नागरिक है, उन्‍हें भी दूसरों की तरह तन ढंकने के लिए कपड़ा, खाने के लिए दो वक्‍त की रोटी और रहने के लिए एक छत की जरूरत है, और साथ ही बराबरी का सम्‍मान मिलना चाहिए । समाज के ऊँचे कद वाले लोगों और आज के नये युग के आ‍धुनिक विचार धारा वाले लोगों को इसके लिए बाध्‍य तो नहीं किया जा सकता है लेकिन जो लोग इसी दलदल से निकलकर बाहर आए हैं और आज अच्‍छे सामाजिक परिवेश में सुख-सुविधाओं से युक्‍त जीवन-यापन कर रहे हैं, उन्‍हें उनके बारे में थोड़ा-बहुत तो सोचना ही चाहिए । लेकिन क्‍या करे यह तो मानव स्‍वभाव ही है कि लोग अधिकतर अपने बारे में ही सोचता है, और आदमी अगर ऊपर पहुँच जाये तो वह नीचे वालों के बारे में सोचना बन्‍द कर देता है, लेकिन वही आदमी जब नीचे था तब वह यह सोचा करता था कि ऊपर वाले लोग हमारे बारे में क्‍यों नही सोचते ! लेकिन इन ऊँचे पदों पर बेठे हुए प्रगतिशील व्‍यक्तियों का ये सामाजिक दायित्‍व बनता है कि वे अपनी कौम से संबंध रखने वाले गरीब लोगों के लिए काम करना अपनी पहली प्राथमिकता समझे।

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