स्वामी आत्माराम ‘लक्ष्य’

‘त्‍यागमूर्ति ‘स्‍वामी श्री आत्‍माराम ‘लक्ष्‍य'”

कुछ नवयुवक अपने इस सामाजिक व्‍यवस्‍था से छुटकारा पाने के लिए कुछ कर गुजरने के लिए व्‍यथित थे उस समय इन बिखरी हुई शक्तियों को एक सूत्र में पिरोने के लिए उसको एक निर्दिष्‍ट मार्ग देने के लिए जयपुर के ग्राम श्‍यादासपुरा में विक्रम सम्‍वत् 1907 की कृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी को श्री गणेशराम खोरवाल को एक पुत्र रत्‍न की प्राप्‍त‍ि हुई । जिसका नाम कन्‍हैया लाल रखा गया । बालक कन्‍हैया लाल की माता का नाम पांची देवी था । बालक कन्‍हैयालाल के माता-पिता साधु प्रकृति के व्‍यक्ति थे ।

3 वर्ष की अवस्‍था में बालक कन्‍हैयालाल अनाथ हो गया और इसी अवस्‍था में उनके जीवन का दूसरा अध्‍याय शुरू होता है । उनकी बुआ जी दिल्‍ली में रहती थी, उन्‍हें अपने पास पालन-पोषण हेतु ले गयी । बुआ-फूफा भी निर्धन थे अत: वह इन्‍हें किसी प्रकार की शिक्षा नहीं दिला सके । अभावों में पलता हुआ बालक कन्‍हैयालाल निर्धनता के झकोरे खाता रहा । इन परिस्थितियों ने बालक के हृदय में दया का भाव तथा करूणा का अथाह सागर भर दिया । छोटी सी आयु में ही इच्‍छा न रहते हुए भी इनका विवाह हो गया लेकिन वह अपने गृहस्‍थी जीवन से संतुष्‍ट नहीं थे । कुछ तो बचपन से ही इनके हृदय में जातीय सुधार सम्‍बंधी अंकुर विद्यमान थे एवं उन्‍हीं से प्रेरित होकर इन्‍होंने विवाह का विरोध भी किया । इनका गृहस्‍थी जीवन से असन्‍तुष्‍ट रहने का मुख्‍य कारण इनके विचारों का अपनी पत्नि के विचारों से तालमेल न होना था ।

श्री कन्‍हैयालाल की भजन किर्तन में अत्‍यधिक रुचि थी जिसका मुख्‍य कारण यह था कि वह अपने साडूभाई श्री भगतराम रातावाल के घर में ही रहा करते थे इसीलिए अपनी प्रारंभिक अवस्‍था से ही यह भजन लिखा करत थे । दिल्‍ली क्‍लाथ मिल्‍स में जब से इन्‍होंने कार्य करना प्रारंभ किया वहाँ यह कुछ कबीर पंथ के अनुयाइयों के सम्‍पर्क में आ गए । एवं निरंतर सम्‍पर्क के कारण शनै: शनै: यह कबीरदास जी के विचारों से प्रभावित होते रहे । उन पर इनकी प्रतिभा पूर्ण व्‍यक्तित्‍व का प्रभाव पड़ा और वह पूर्णतया कबीर पन्‍थी सम्‍प्रदाय के अनुयायी बन गए ।

श्री कन्‍हैयालाल स्‍वामी मौजीराम एवं स्‍वामी ज्ञानस्‍परूप जी के शिष्‍यों से समय-समय पर शास्‍त्रार्थ किया करते थे । इनको शंका समाधान करने का बड़ा शौक था इनका स्‍वामी मौजीराम जी के शिष्‍यों एवं सत्संगीयों के साथ परस्‍पर सम्‍बंध से वैष्‍णव धर्म से प्रभावित होने लगे एकेश्‍वर के स्‍थान पर अवतारवाद में इनका विश्‍वास बढ़ता गया । समय-समय पर स्‍वामी मौजीराम एवं स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी दिल्‍ली आते रहते थे । जिन से यह प्रभावित होकर एक विशाल सत्‍संग में श्री कन्‍हैयालाल ने कबीर पंथी सम्‍प्रदाय का पूर्णतया त्‍याग करके स्‍वामी ज्ञानस्‍परूप जी महाराज का शिष्‍यत्‍व ग्रहण किया ।

श्री कन्‍हैयालाल ने इस सांसारिक मोह-माया की जंजीर तोड़कर एक धोती एवं लोटा लेकर घर को पूर्णतया त्‍यागकर निकल पड़े । घर से निकल कर सीधे स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी के टंडू आमद के आश्रम सिंध में पहुँचे । स्‍वामी जी ने इनकी कई परीक्षाएँ ली और इन्‍हें घर वापस जाने के लिए दबाव दिया लेकिन अन्‍तत: इन सभी परीक्षाओं में श्री कन्‍हैयालाल खरे उतरे । स्‍वामी मौजीरामजी महाराज की साक्षी में सन् 1937 में आयोजित हुए विशाल सत्‍संग में श्री 108 ब्रह्म श्री स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूपजी महाराज द्वारा इनको अंगीकार किया, इनको साधुता की दीक्षा दी । स्‍वामी जी ने इनका नाम कन्‍हैयालाल के स्‍थान पर आत्‍माराम रखा । अशिक्षा से व्‍यक्ति ने स्‍वयं की न ही समाज की उन्‍नति कर सकता है । इस हेतु स्‍वामी जी ने श्री आत्‍माराम को पढ़ाने का निश्‍चय किया ।

प्रारम्भिक शिक्षा के लिए स्‍वामी जी ने इनके लिए पं. लच्‍छीराम नामक अध्‍यापक से ”विचार सागर” नामक ग्रन्‍थ का अध्‍ययन कराया । स्‍वामी ज्ञानस्‍परूप जी ने शास्‍त्रों के अध्‍ययन के लिए संस्‍कृत के ज्ञान हेतु श्री ताराचन्‍द्र जयराम दास संस्‍कृत पाठशाला हैदराबाद (सिंध) में प्रवेश दिलाया ।

श्री आत्‍माराम ने बड़े परिश्रम एवं लगन के साथ मध्‍यमा परीक्षा पास कर वे व्‍याकरण भूषणाचार्य की परीक्षा काशी विद्यापीठ से पास करने हेतु काशी गए । व्‍याकरण भूषणाचार्य की परीक्षा पास करने के उपरान्‍त स्‍वामी ज्ञानस्‍परूप जी ने श्री आत्‍माराम जी को रैगर जाति की दुर्दशा का संजीव चित्र प्रस्‍तुत करते हुए उन्‍हें पूर्णतया वास्‍तविकता से अवगत कराया एवं उन्‍हें निर्देश दिया कि वे जाति सुधार कार्यों में प्रवृत हो जाये । उन्‍हें एक लक्ष्‍य ”समाज सुधार एवं उत्‍थान करना” प्रदान किया गया । जिसको आत्‍मारामजी ने अपना ‘लक्ष्‍य’ स्‍वीकार किया, और तभी से इनके नाम के पीछे लक्ष्‍य लगने लगा ।

स्‍वामी जी के उपदेशों एवं आदेशों से प्रेरित हो श्री आत्‍माराम जी ने अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्‍य रैगर जाति की सेवा अर्थात् जाति उद्धार बना लिया था । इस प्रकार श्री आत्‍माराम जी जाति उद्धार के लिए निकल पड़े । गाँव-गाँव में जा-जाकर श्री आत्‍माराम जी सत्‍संगों के माध्‍यम से जाति को सुधार सम्‍बंधी मार्ग पर चलने का प्रचार करने लगे । उन्‍होंने समाज में व्‍याप्‍त बुराईयों को त्‍यागने पर बल दिया । गहरी नींद में सो रहे रैगर समाज के प्रत्‍येक स्‍त्री-पुरूष एवं युवा वर्ग को जगया । इस काल में रैगर समाज उच्‍च शिक्षा, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ था । प्राय: देश के प्रत्‍येक क्षेत्र में देवी-देवताओं के समक्ष पुशबली चड़ाने जैसी कुप्रथाओं का प्रचलन था । समाज में व्‍याप्‍त मृत्‍यु भोज (नुकता-मोसर) गंगोज, सवामणी, कोली बाल विवाह, अनमेल विवाह, दहेज प्रथा एवं लड़की की पीला ओढाने की आढ जैसी अनेक प्रचलित प्रथाओं को समाप्‍त करने के लिए स्‍वामी जी ने रैगर जाति को प्रेरित किया । श्री आत्‍माराम जी का जीवन बहुत सादा एवं राष्‍ट्रवादी भावनाओं से पूर्णतया ओत-प्रोत था । भगवाँ-वस्‍त्र न पहनने पर भी श्री आत्‍माराम जी सभी जगह स्‍वामी जी कहताये जाते थे । स्‍वामी जी हमेश खद्दर के वस्‍त्र ही पहनते थे एवं सिर पर खादी की टोपी लगाते थे ।

उन्‍होंने रैगर समाज के नवयुवक वर्ग को एकत्रित किया और उनको जातीय सुधार कार्यों में उत्‍साह के साथ भाग लेने को प्रेरित किया । स्‍वामी आत्‍माराम जी लक्ष्‍य के अथक परिश्रम एवं प्रेरणा से मार्च 1944 में एक दिल्‍ली के कार्यकर्ताओं की बैठक आँधी थौलाई में सत्‍संगनुमा विशाल जलसा मनाने के उद्देश्‍य से हुई जहाँ स्‍वामी जी ने लोगों को आह्वान किया कि वे आपसी कलह का त्‍याग कर जातीय सुधार कार्यों में कन्‍धे से कन्‍धा मिलाकर कार्य करें इस समय एक ‘दिल्‍ली प्रान्‍तीय रैगर युवक संघ’ नामक संस्‍था का जन्‍म हुआ और एक अखिल भारतीय स्‍तर पर रैगर महासम्‍मेलन को बुलाने के लिए निश्‍चय किया गया । महासम्‍मेलन के लिए दौसा नगर उपयुक्‍त समझा गया ।

स्‍वामी श्री आत्‍माराम जी लक्ष्‍य नवम्‍बर 1944 दौसा सम्‍मेलन के स्‍वागताध्‍यक्ष बने और उन्‍हीं की प्रेरणा से यहाँ सम्‍मेलन का आयोजन पूर्णतया सफल हुआ । नये प्रस्‍ताव मंजूर किये गये । भारतवर्ष में सभी स्‍थानों पर जहाँ भी रैगर रहते थे स्‍वर्णों द्वारा अत्‍याचार हो रहे थे । राजस्‍थान के तो गाँव-गाँव में सजातीय बंधुओं पर सभी स्‍वर्ण हिन्‍दुओं का दुर्व्‍यवहार हो रहा था जिसका पुरजोर विरोध किया । स्‍वामी जी ने गाँव-गाँव में जाकर जागृति का मंत्र फूँका ।

इस सम्‍मेलन में जाति सुधार संबंधी कई महत्‍वपूर्ण निर्णय लिए गए जिनके बड़े दूरगामी परिणाम निकले । जिसके फलस्‍वरूप स्‍वामी आत्‍माराम जी को कई प्रकार की यातनाओं का सामना करना पड़ा । दौसा सम्‍मेलन के परित प्रस्‍तावों का प्रचार करने से इनके जीवनकाल में बहुत दर्दनाक एवं हृदयस्‍पर्शी घटनाएँ घटित हुई । कनगट्टी (होलकर स्‍टेट) में स्‍वामी आत्‍माराम जी समाज सुधार सम्‍बंधी प्रचार करने हेतु वहाँ पहुँचे । स्‍थानीय रैगर बंधुओं ने बड़े उत्‍साह के साथ इनका स्‍वागत किया जिसे देख स्‍थानीय ठाकुर, जमीदार आदि स्‍वर्ण हिन्‍दू ईर्ष्‍या अग्नि से धधक उठे और उन्‍हें यह सहन न हा सका कि रैगर जाति का एक साधु का जलूस घोड़े पर उनके गाँव में उनकी आँखों के सामने निकाला जाए ।

स्‍वर्ण हिन्‍दुओं ने सम्मिलित रूप से स्‍वामी जी की शोभा यात्रा पर हमला कर दिया । लाठियों एवं जूतों का प्रहार किया गया । जिससे स्‍वामी जी को बहुत चोटें आई । एक अन्‍य सबसे महत्‍पूर्ण घटना स्‍वामी जी के जीवन की ग्राम कोट खावदा (जयपुर) में घटित हुई । वहाँ पर स्‍वामी जी स्‍थानीय रैगर बंधुओं द्वारा बेगार आदि न देने पर वहाँ के ठाकुर लोग अत्‍याचार कर रहे थे, स्‍वामी जी रक्षा हेतु वहाँ पहुँचे । स्‍वामी जी ने स्‍थानीय स्‍वर्णों को समझाने का प्रयास किया । साथ ही उन्‍होंने रैगर बंधुओं को धैर्य प्रदान करते हुए अपने सुधारवादी कार्यों का दृढ़ता से पालन करने का प्रचार किया । स्‍वर्ण हिन्‍दुओं को इनका प्रचार अच्‍छा नहीं लगा जिसके परिणाम स्‍वरूप वहाँ के जागीरदार ने इनको नजरबन्‍द कर लिया एवं इनके साथ दुर्व्‍यवहार एवं मारपीट की गई । लगभग 24 घण्‍टों तक इनकों काठ (जेल) (एक विशेष प्रकार की सजा जिसमें दोनों टांगों को पर्याप्‍त दूरी पर रखा जाता है) दे दिया गया । इस पर भी स्‍वामी जी ने अपने धैर्य को नहीं छोड़ा । स्‍वामी जी कभी भी इन नाना प्रकार की यातनाओं से अपने ध्‍यय से पदच्‍युत नहीं हुए क्‍योंकि इनका एकमात्र लक्ष्‍य जाति उत्‍थान, हमेशा इनके सक्षम बना रहता था ।

सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए यह निश्‍चय किया गया कि स्‍वर्णों के अत्‍याचारों, रैगर जाति में सुधार तथा संगठन सम्‍बंधी मसलों पर विचार करने के लिए अखिल भारतीय स्‍तर पर रैगर महासम्‍मेलन बुलाया जाना चाहिए । इसी निर्णय के अनुसार 13, 14 अप्रेल 1946 में जयपुर में द्वितीय अखिल भारतीय रैगर महासम्‍मेलन आयोजित किया गया । सम्‍मेलन का शुभारंभ श्री आत्‍मारामजी लक्ष्‍य के कर कमलों द्वारा झण्‍डारोहण के साथ हुआ । इस सम्‍मेलन की महत्‍वपूर्ण उपलब्धियाँ रही । उनकी अभिलाषा थी कि रैगर जाति का विस्‍तृत इतिहास लिख जाना चाहिए, रैगर जाति का अपना एक समाचार पत्र नियमित रूप से प्रकाशित होना चाहिए तथा रैगरों के बच्‍चों की शिक्षा के लिए रैगर छात्रावासों की समुचित व्‍यवस्‍था होनी चाहिए । उक्‍त दोनों सम्‍मेलनों का सारा श्रेय स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूपजी एंव दिल्‍ली प्रान्‍तीय स्‍वयं सेवक मण्‍डल तथा स्‍वामी आत्‍मारामजी के अथक प्रयत्‍नों को प्राप्‍त है ।

जयपुर द्वितीय रैगर महासम्‍मेलन के समय ही इनका स्‍वास्‍थ्‍य खराब हो गया था । महासम्‍मेलन समाप्ति पर श्री मंगलानन्‍द जी को अपने उपचार के लिए रोका । श्री मंगलानन्‍द जी वहाँ पर रुके और स्‍वामी जी को जयपुर से दिल्‍ली लेकर पहुँचे । दिल्‍ली में महाराज ज्ञानस्‍परूप जी के शिष्‍यों ने इनकी बहुत सेवा की एवं इनका इलाज कराया । लकिन अन्‍तत: इन्‍हें स्‍वास्‍थ्‍य लाभ नहीं हो सका । इनके रोग में निरन्‍तर वृद्धि होती रही तत्‍पश्‍चात् स्‍वामी जी को अपनी रूगणावस्‍था में भी जातीय सुधार कार्यों में भाग लेने की इच्‍छा बनी रहती थी । दिल्‍ली से स्‍वामी जी मंगलानन्‍द जी के साथ जयपुर अजमेर रुकते हुए ‘ब्‍यावर’ में पहुँचे । जहाँ स्‍वामी जी की चिकित्‍सा होने लगी ।

स्‍वामी जी ब्‍यावर से सिंध हैदराबाद गये और वहाँ पुन: हैदराबाद से जयपुर श्री मंगलानन्‍द जी के साथ पधारें । इस समय उनकी हालत नाजुक दौर से गुजर रही थी । जयपुर में स्‍वामी जी लालाराम जलुथरिया चांदपोल के निवास स्‍थान पर रुके खतरनाक स्थिति में जब उन्‍हें ऐसा विश्‍वास हो गया कि वे अ‍ब इस संसार में केवल थोड़े समय के अतिथि हैं तो स्‍वामी जी ने अपने निकटतम साथी श्री कंवरसेन मौर्य को याद किया । इन दोनों ने समाज सुधार कार्यों यथा प्रचार एवं हर काण्‍ड में कन्‍धें से कन्‍धा मिलाकर कार्य किया था । श्री स्‍वामी जी को श्री कंवरसेन मौर्य से अपने अधूरे कार्यों की पूर्ति की आशा थी । स्‍वामी जी ने श्री कंवरसेन मौर्य को बताया कि वह सम्‍भवत: इस संसार के थोड़े ही दिनों के मेहमान है एवं सारा कार्य ही अधूरा है । वस्‍तुत: स्‍वामी आत्‍मारामजी ‘लक्ष्‍य’ अपने जीवन के लक्ष्‍य की प्राप्‍ति में पूर्ण रूपेण सफल रहे । लेकिन फिर भी उन्‍होंने वसीयत के रूप में अपने जीवन तीन अन्तिम अभिलाषा व्‍यक्‍त की जिन्‍हें स्‍वामी जी अपने जीवन काल में ही पूरा करना चाहते थे लेकिन कर नहीं सके थे । उन्‍होंने बताया कि सर्वप्रथम तो रैगर जाति का एक विस्‍तृत इतिहास लिखा जाना चाहिये, दूसरा जाति का समाचार-पत्र का महत्त्व बताते हुए अभिलाषा प्रकट की कि रैगर जाति का अपना एक पत्र हो । तीसरे रैगर जाति के उच्‍च शिक्षा का अध्‍ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए रैगर छात्रावास का निर्माण होना चाहिए ।

विधाता का विधान कुछ और ही था । रैगर जाति का समग्र प्रयत्‍न, बहुत से लोगों की सेवा एवं-प्रसिद्ध वैद्य डॉक्‍टरों की औषकिधयाँ बेकार हो गई । वह दिन भी आया जब रैगर जाति का वह सितारा जिसने बहुत से लोगों के मन में ज्‍योति लगाई एवं उन्‍हें समाज सेवा के लिए प्ररित किया था । बुधवार, 20 नवम्‍बर 1946 को चांदपोल, जयपुर (राज.) में श्री लालारामजी जलथुरिया के घर उस त्‍याग मूर्ति के जिसने अपना सारा जीवन अपने ‘लक्ष्‍य’ की पूर्ति में लगा दिया प्राण पखेरू अनन्‍त गगन की ओर उठ गए और रैगर जाति का एक दैदिप्‍यमान सूर्य हमेशा के लिए अस्‍त हो गया ।

स्‍वामी जी के निधन से पूरा रैगर समाज शोकसंतप्‍त हो गया तथा यह दु:खद समाचार वायुवेग से फेल गया फिर जयपुर से दिल्‍ली, अजमेर, ब्‍यावर, हैदराबाद व अन्‍य अनेक स्‍थानों पर तार भेजे गये और दूसरे दिन लगभग सभी नेतागण जयपुर आ गये । इसके पश्‍चात् लगभग ग्‍यारह बजे स्‍वामी जी के पार्थिव शरीर को गाजे बाजे व हरि कीर्तन के साथ चाँदपोल स्थित शमशान की ओर ले जाया गया । मार्ग में अनकों ने स्‍वामी जी के पार्थिव शरीर पर फूलों की वर्षा करते हुए व आँखों में आँसू भरे हुए सभी नेतागणों व कार्यकर्ताओं ने स्‍वामी जी को कंधा दिया । शवयात्रा में हजारों बन्‍धु होने से शवयात्रा की कतार बहुत लम्‍बी हो गई थी और लार्इन चाँदपोल गेट से शमशान घाट तक लग गई थी । अंत मे स्‍वामी जी के पार्थिव शरीर को जयघोष की गूंज के साथ अग्नि को समर्पित कर सभी रैगर बन्‍धु शोक के आँसू बहाते हुए दु:खीमन से वापिस आ गये ।

स्‍वामी आत्‍मारामजी लक्ष्‍य को वर्ष 1986 में अखिल भारतीय रैगर महासभा द्वारा विज्ञान भवन, दिल्‍ली में आयोजित पंचम अखिल भारतीय रैगर महा सम्‍मेलन में भारत के तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति श्री ज्ञानी जैलसिंह द्वारा ‘रैगर रत्‍न’ की उपाधि से नवाजा गया । स्‍वामी जी की स्‍मृति में रैगर युवा प्रगतिशील संगठन द्वारा रैगरपुरा हरध्‍यानसिंह रोड़, करोल बाग, नई दिल्‍ली स्‍थित भव्‍य स्‍मारक ”स्‍वामी आत्‍माराम लक्ष्‍य पार्क” का निर्माण करवाया गया । स्‍वामी आत्‍मारामजी लक्ष्‍य ने अपने अथक प्रयत्‍नों से इस जाति को ऊपर उठाया तथा विकास की रहा दिखाई । रैगर जाति के इतिहास में स्‍वामी आत्‍मारामजी लक्ष्‍य का नाम सदा अमर रहेगा ।

(साभार- श्री विष्‍णु मन्‍दिर, नई दिल्‍ली : स्‍मारिका 2011)
(स्‍व. श्री रूपचन्‍द जलुथरिया कृत ‘रैगर जाति का इतिहास’ एवं रैगर ज्‍योति)

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