रैगर महिलाओं की श्रंगार परम्परा व गहने

रैगर महिलाओ द्धारा शरीर पर गुदवाने की प्रथा (Tatoo marks) प्राचीन काल में शरीर पर गुदवाने की प्रथा प्रायः आम हुआ करती थी। मैने मेरी नानी स्वर्गीय श्रीमती कानी देवी जी के माथे पर बिन्दी तथा हाथो पर फूल गुदे हुये देखे थे। मेरी नानी बताती थी कि राजस्थान के गांव में मेले में ज्यादातर रैगर महिलायें कभी नाम या फूल आदि गुदवाया करती थी। उस समय बैटरी से चलने वाली एक हाथ की मशीन के आगे के हिस्से में एक पैनी नौकदार सूई होती थी जो इस बैटरी चालित मशीन के पिछले भाग में एक नीले रंग का कैमीकल भरा होता था जो इस बैटरी चालित हाथ की मशीन को चलाने से र्थर-र्थर की आवाज से पीछे भरे हुये नीले रंग को बाहर पैनी सुई की ओर फैंका करता था जो बहुत ही दर्दनाक हुआ करता था। मैने मेंरे बचपन में एक बार राजस्थान के किसी मेले में रैगर महिलाओ द्वारा अपने शरीर पर गुदवाने की प्रक्रिया को देखा था और इस संबंध में जानने का प्रयास किया था। उस समय यह माना जाता था कि शरीर गुदवाने से महिला की सुन्दरता में निखार आता है और उस का स्वास्थय भी ठीक रहता है। यह भी माना जाता था कि शरीर पर गुदवाये गये निशान मृत्यु उपरांत भी मौजुद रहते है इस लिये किसी भी परिस्थिति में महिला की पहचान इन गुदवाये गये चित्रो या निशाने से अवश्य रूप से हो जायेगी। अपने नारीत्व की रक्षा और अपने पति के प्रति वफादारी के कारण कई रैगर महिलाये अपनी बाजु पर पति का नाम भी गुदवाती थी। पति का नाम गुदवाने से रैगर महिलाये पति के प्रति उन के प्रेम को बताना चाहती थी। अपनी सुन्दरता को निखारने के लिये वे कई बार फूल-पती, बिच्छु, किसी देवी देवता का चित्र आदि भी बांहो पर गुदवाया करती थी जिस से प्रतीत होता है कि यह समाज जनजाति के रूप में भी विकसित हुआ था। ललाट पर एक बिन्दी लक्ष्मी और समृद्धि के प्रतीक के रूप में गुदवाई जाती थी। बिन्दियों का गुच्छा, कमल और चक्र सुहाग व सृमद्वि का प्रतीक माना जाता था। स्वास्तिक का चिन्ह सूर्य देवता का चिन्ह हुआ करता था। वास्तव में शरीर पर मांढने गुदवाना अत्यंत पीड़ामय हुआ करता था और कई बार तो गुदवाने की पैनी सूई से खून भी काफी बह जाया करता था। गुदवाने के उपरान्त पिसी हुई हल्दी लगाई जाती थी जिस से कि गुदवाने से आये घावो में जल्दी से आराम आ जाये।

मेहन्दी लगाने की प्रथा:- रैगर समाज की महिलाये विवाह जैसे शुभ अवसरो पर मेहन्दी लगाना कभी नही भूलती है। विवाह के अवसर पर दुल्हिन के हाथो पर मेहन्दी लगाने की प्रथा बहुत ही आम बात हुआ करती है। मेहन्दी में विभिन्न डिजायन जैसे बीजणी, लहरिया आदि बनाये जाते है। मेहन्दी कड़वा चैथ, रक्षा बन्धन, तीज आदि त्यौहारो पर भी हाथो पर रचाई जाती है। पहले यह मान्यता था कि सोजत जो पाली जिले में है वहां की मेहन्दी बहुत अधिक रचती है अतः मेहन्दी खरीदने से पहले यह पूछ लिया जाता था कि मेहन्दी सोजत की है अथवा नहीं। पहले माचिस की तीलियोे से ही मेहन्दी के मांढने मांढे जाते थे परन्तु आजकल प्लास्टि के कोन से मेहन्दी के मांढने मांढे जाते है। पहले यह माना जाता था कि जितनी ज्यादा मेहन्दी हाथो में रचेगी अर्थात काली पड़ जायेगी उस से यह ही बात साफ हो जायेगी कि उस का पति उसे कितना प्यार करता है। मेहन्दी लगाने के बाद हाथो पर तेल लगाने के बाद उसे सूर्य की धूप में रखा जाता था जिस से वह गहरी रच जाये। मेहन्दी लगे हाथो को साबुन से नही धोया जाता था बल्कि सादे पानी से ही मेहन्दी लगे हाथो को धोया जाता था। मेहन्दी लगाने की परम्परा आज भी समाज की महिलाओ में विद्यमान है।

प्राचीन काल मे रैगर जाति की केशविन्यास परम्परा:- यदि प्राचीन इतिहास को अध्ययन किया जाये तो वर्ण व्यवस्था का आतंक इतना भंयकर था कि अछूत व दलित महिलाये किसी भी प्रकार का श्रंगार नही कर सकती थी। इन्हे किसी भी धातू के गहने पहनने की मनाही हुआ करती थी परन्तु यह भी साफ हो जाता है कि ये महिलाये केशविन्यास कर अपना श्रंगार किया करती थी। उस जमाने में किसी भी प्रकार का कोई साबुन नही होता था तो वे अपने सिर के बाल को ‘खड़िया मिट्टी‘ से धोया करती थी। इन महिलाओं के केशविन्यास के अलग अलग तरीके हुआ करते थे जिस से इन के चेहरे खूबसूरत नजर आते थे। पुरूष वर्ग भी लम्बे बाल रखा करता था क्योंकि उस समय जातिवाद का इतना भयंकर रूप था कि गांव का नाई भी किसी शूद्र और अछूत के बाल तथा दाढी भी नही बनाये करते थे। मैने स्वयम् देखा था कि भारत की स्वतन्त्रता के सालो के बाद तक गांव का नाई किसी रैगर के बाल नही काटता था और न ही किसी रैगर की दाढी बनाया करता था।ष्जब मैं एक बार अपने बचपन में मेरे पैतृक गांव रायसर तहसील जमुवा रामगढ जिला जयपुर में किसी रैगर दुल्हे की बारात में सम्मिलित हुआ तो मैने देखा कि रैगर जाति के किसी बाराती की गांव का नाई दाढी तक नही बना रहा था बल्कि रैगर जाति के लोग आपस में ही उस्तरे अथवा बलेड से बाल काट कर या हजामत बना कर स्वयम् ही नाई का कार्य कर रहे थे। जहा तक केशविन्यास का प्रशन है प्राचीन काल में भी अछूत व शूद्र महिला व पुरूषो की सुन्दरता का अहम् हिस्सा हुआ करता था। इस के अलावा अछूत महिला व पुरूष के केशविन्यास से सर्वण जाति के लोगो को साफ दिख जाया करता था कि ये लोग शूद्र व अछूत जाति से संबंध रखते है। मौसम के अनुसार भी इन लोगो के केशविन्यास में बदलाव आ जाया करता था। कई बार केशविन्यास के तरीके के अनुसार शूद्र व अछूत महिलाये अपना पहनावा भी बदल दिया करती थी जो सामान्यतः बहुत की सादा तरीके का पहनावा ही हुआ करता था। ज्यादातर रैगर महिलाये लम्बे बाल ही रखा करती थी। वे बालो में किसी भी प्रकार का जूड़ा नही बनाया करती थी। बाद के सालो में लकड़ी की ‘कंघी‘ से बालो को संवारने की व्यवस्था बन गयी थी। उस जमाने में यदि किसी महिला के सिर के बालो में ‘जुयें‘ आ जाती थी तो दूसरी महिला उस के सिर के बालो में ‘जुओं‘ को चुन-चुन कर उन्हे अपने हाथ के एक नाखुन पर रख कर दूसरे हाथ के नाखून से मार दिया करती थी। इस परम्परा को मैने कई बार दिल्ली शहर में भी देखा था। इस के अलावा अछूत व दलित महिलायें अंवाछित बालो को एक प्रकार की राख लगा कर शरीर से हटा दिया करती थी। प्राचीन समय में रैगर महिलायें व पुरूष किसी खास मौके पर विशेष प्रकार का केशविन्यास भी किया करते थे। यह खास मौके अपने परिवार के लड़के या लड़की के विवाह जैसे शुभ कार्य अथवा गांव के मेले में जाने आदि के ही हुआ करते थे। बालो को रोज नही धोया जाता था। सामान्य रूप से बाल धोने और नहाने में बस्ती के कुयें के पानी का ही उपयोग किया जाता था। गर्म पानी का उपयोग नही किया जाता था।

रैगर महिलाओ को गहने पहनने की मनाही:- अन्य नीची कहे जाने वाली जातियों की तरह ही रैगर जाति की महिलाओं को सोने या चांदी के जेवर पहनने का कोई अधिकार नहीं था। उन्हे प्रायः पीतल के जेवर की पहनने का ही अधिकार था। हाथो में पहने जाने वाले पीतल के गहने को ‘कंाकणी’ कहा जाता था। जब राजपुतों और ठाकुरों का आतंक आजादी की लड़ाई के समय में कम होता गया तो बाद के सालों में कई गांवो में वे चांदी के हाथ के कड़े और पांवों में चांदी की कड़िया पहनने लगी थी। गले में कंठी भी पहनने लगी जो चांदी की हुआ करती थी। जो गरीब महिलायें थी वे लाल अथवा हरे रंग के नकली मूंगे की ‘कंठी‘ पहना करती थी। सम्पन्न घरों की औरतें चांदी की ‘करधनी‘ कमर में और गले में चांदी की लम्बी तगड़ी भी पहनने लगी थी। सोने के जेवर नही पहने जाते थे क्यों कि इन गहनों को पहनने की ठाकुरों द्वारा सख्त मनाही थी। सोने चांदी के गहने केवल स्वतंत्रता के उपरातं ही पहनने प्रारम्भ हुये थे। उस दौर में यह भी साफ तौर से सोचा जाता था कि चांदी के जेवर बुरे समय में गिरवी रख कर अथवा बेच कर रूपयें लिये जा सकते हैं। वास्तव में चांदी के जेवर ही रैगरों की मुख्यः सम्पति हो गई थी क्यों कि इनके मौहल्ले के मकानों को कोई अन्य जाति का व्यक्ति नही खरीदा करता था। इनके मौहल्लें में चमड़े रंगने का कार्य होता था जो काफी घृणित कार्य समझा जाता था। बाद के सालों में रैगर जाति के लोग दिल्ली में खाने कमाने को आ गये थे। दिल्ली में इन की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हो गया था। इस लिये रैगर महिलायें सोने और चांदी के जेवर पहनने लग गयी थी जो बड़े की सुन्दर किस्म के हुआ करते थे। ये उन के श्रंगार के अभिन्न अंग हुआ करते थे। वे गहने पहनने के अतिरिक्त श्रंगार स्वरूप माथे पर बिन्दी, आंखों में काजल या सुरमा, हाथों में मेहन्दी और हाथों व पांव के नाखुनो पर नेल पालिश लगाया करती थी। कई महिलायें अपने शरीर के विभिन्न भागों पर मांढने, फूल, पति का नाम आदि गुदवाया लिया करती थी जो उन की सुन्दरता को निखारा करता था। इस के अतिरिक्त कई महिलायें ‘धनासा’ जो अखरोट की छाल होती है उस से अपने दांतो को साफ किया करती थी। ‘धनासा’ से महिला के औंठ लाल हो जाया करते थे। उस दौर में निम्नलिखित गहने और जेवर रैगर महिलाओं द्वारा पहने जाते थे:-

(1) बोरला: सिर पर ललाट के थोड़े से भाग तक दिखता हुआ सोने अथवा चांदी का ‘बोरला’ हुआ करता था। सम्पन्न महिलायें सोने का और गरीब महिलायें चांदी का ‘बोरला‘ पहना करती थी। यह कई साधारण किस्म के डिजाइनों में ही होता था। सोने या चांदी की परत को सांचे में ढाल कर गोल आकार में अन्दर लाख भर कर इसे बनाया जाता था जो काली डोरी में पिरो कर सिर के आगे के बालो से बांध दिया जाता था। वृद्व महिलायें छोटा ‘बोरला’ पहना करती थी जिसे ‘बोरली’ भी कहा जाता था। बाद के सालों में ‘बोरला’ के स्थान पर ‘टीका’ पहने जाने लगा।

(2) लौंग: पहले बालिकाओं की नाक बचपन में ही छिदवा दी जाती थी जिस से वह नाक में ‘लौंग’ पहन सके। राजस्थान में महिलायें नाक में ‘नथ’ पहनती थी जो प्रायः सम्पन्नता के अनुसार सोने अथवा चांदी की हुआ करती थी। दिल्ली में महिलायें रोजमर्रा के जीवन में नाक में सोने की ‘लौंग’ पहना करती थी परन्तु विवाह और खुशी के अवसरों पर ‘नथ’ भी पहना करती थी। कई महिलायें जवार के दाने के समान सोने की लौंग पहना करती थी। बाद के सालों में ‘लौंग’ के डिजाइनों में काफी बदलाव आता रहा। आज कल रैगर महिलायें सोने में मढी हीरे की लौंग पहनती हैं। भिन्न भिन्न किस्म की नथ पहनने का प्रचलन भी समय के अनुसार महिलाओं में आ गया है।

(3) ‘बाटा‘ : पहले के समय में कानों में ‘बाटा’ पहना जाता था। ‘बाटा’ सांचे में ढला हुआ गोलनुमा कानो का एक जेवर हुआ करता था जो सम्पन्नता के अनुसार सोने या चांदी के हुआ करते थे। बाटा काना में पहने जाना वाला जेवर होता था जो प्रायः रैगर वृद्व महिलाये पहना करती थी

(4) ‘बाळी’: कान की लौर अर्थात कान के उपर के हिस्से को भी कई महिलायें छिदवा लिया करती थी। इस भाग में महिलायें ‘बाळी’ पहना करती थी। प्रायः सम्पन्न परिवार की महिलायें ही सोने की ‘बाळी’ पहना करती थी। आजकल भी सभी बालिकाओं के दोनो कानों के नीचे के भाग को छिदवा दिया जाता है और सभी महिलायें कानों में सोने के गहने जैसे ‘बाळी‘ आदी पहनती हैं।

(5) ‘झूमर‘: नाक के समान ही बालिकाओं के दोनो कानों के नीचे के भाग को छिदवा दिया जाता था जिस से वे बाद में कानों के गहने पहन सके। बाद के सालो में ‘झूमके’ और ‘झूमर‘ भी पहने जाने लगे थे जो लटकन समान लटकते रहते थे। आज के ‘झूमर’ इन्ही का बदला हुआ रूप हैं। कान में टाप्स’ भी पहने जाते थे।

(6) ‘लौंग‘ की लाईन: आजकल की कई लड़कियां कान के उपरी भाग को दो या तीन स्थानों पर छिदवा कर एक लाईन में ‘लौंगे’ पहनती हैं।

(7) ‘हंसली’: गले में ‘हंसली’, ‘हमेल’, ‘तलड़ी’ ‘कंठी’, ‘ढौलना’, और ‘टेवटा’ पहना जाता था। ‘हंसली’ चांद के आकार की होती थी जिस का डिजाइन इस तरह का होता था कि आगे का भाग थोड़ा मोटा और घड़ाई किया होता था और पीछे का भाग पतला होता था। इस के पीछे के दोनो मुंह मुड़े हुये होते थे जिन में काला डोरा पिरो कर गले में इसे पहना जाता था। यह चांदी की ही हुआ करती थी जिस का वजन पाव से लेकर एक सैर तक होता था। यह काफी भारी जेवर होता था। इस को पहनने से सम्पन्नता साफ झलका करती थी।

(8)‘हमेल’: उस समय विक्टोरिया और जार्ज पंचम के चांदी के रूपयों का प्रचलन था। हमेल में इन चांदी के रूपयों पर चांदी की ही पकड़ लगा दी जाती थी। ‘हमेल’ कोे जरी लगे धागो में इस तरह से पिरोया जाता था कि जब यह पहनी जाये तो गले के दोनो तरफ चांदी के सिक्के बराबर ही रहे।

(9) ‘तलड़ी’: ‘तलड़ी’ गले में पहने जाने वाली व़क्ष से नीचे तक लम्बी चेन ही हुआ करती थी। प्रायः यह चांदी की ही हुआ करती थी।

(10) ‘कंठी’: ‘कंठी’ सोने की हुआ करती थी। इस के बीच में तीन फूल होते थे। यह सोने के मोतियों में गुथी होती थी। यह गले के कंठ तक पहनी जाती थी इसी लिये इसे ‘कंठी’ कहा जाता था।

(11) ‘ढौलना’: ‘‘ढौलना’ प्रायः सोने का ही हुआ करता था। यह गोलाई में लम्बे रूप में होता था जिस के भीतर लाख भरी होती थी और इस के दोनो मुंहो को सुन्दर रूप में मौड़ते हुये इन पर बाजरे के दाने के समान सोने की गोलियां लगा कर बन्द किया होता था। यह काले डौरे में पिरो होता था।

(12) ‘टेवटा’: ‘टेवटा’ महिला के परिवार की सम्पन्नता का द्योतक होता था। ‘टेवटा’ सोने का ही हुआ करता था। यह गले को लगभग ढक लिया करता था। इस की बनावट इस तरह से हुआ करती थी कि इस के नीचे के हिस्से में सोने के मोतियों की झालर लटकती होती थी और इस के बीच में उभरते हुये गोल फूल खिलते से नजर आते थे तथा उबर के हिस्से में सोने की कलाकारी की हुई एक परत हुआ करती थी। ‘टेवटा’ कई तरह के डिजायनो में बनता था। यह छोटे छोटे हरे रंगो के मोतियो की लड़ियों में पिरोया हुआ रहता था। यह गले का अत्यंत सुन्दर जेवर होता था।

(13) ‘बटन ‘: उस समय महिलायें में ब्लाउज पहनने का रिवाज नही होता था। ब्लाउज पहनने का रिवाज तो बाद के सालों में आया है। महिलायें प्रायः ढीला कमीज या कुर्ती पहना करती थी। इस कमीज पर बटन चांदी या सोने के लगाया करती थी जो आमतौर से तीन या चार ही हुआ करते थे।
ये बटन अलग अलग रूप से कमीज के काजो पर लगे होते थे और कई बार इन्हे चैन में पिरो कर भी कमीज पर बटन के रूप में पहना जाता था।

(14) ‘बळा‘‘: रैगर महिलाओ द्वारा हाथों में भी अत्यंत सुन्दर गहने पहने जाते थे। कोहनी के उपर ‘बळा’ अपनी हैसियत के अनुसार सोने या चांदी के पहने जाते थे। यह गहना प्रायः दो या तीन बळ खाये हुये होता था इस लिये इसे ‘बळा’ कहा जाता था।

(15) ‘कड़े‘: हाथ की कोहनी के नीचे के भाग में ‘कड़े’, ‘बंगड़ी’, और कांकण’ पहने जाते थे। ‘कड़े’ चूड़िया पहनने के कारण घिस ही जाते थे परन्तु बिना ‘कड़ो’ के पहने कोई महिला नही रहा करती थी। ये ‘कड़े’ प्रायः पाव या इस के अधिक की चांदी के वजन के हुआ करते थे। ये गोल आकार में होते थे और इनके दोनो मुहों को डिजायन के रूप में बनाया होता था।

(16) बंगड़ी: ‘बंगड़ी’ चूडियों के बाद में पहनी जाती थी। ये उभरती हुई गोल आकार में होती थी। इनके उपर गोल गोल रूप में कंगारे निकले होते थे जो इसे अलग ही हटा दिया करते थे। इसे बन्द करने के लिये घुमाउ पेज लगे होते थ। ‘कांकण’ बड़ा ही सुन्दर उभरा हुआ जेवर होता था। इस प्रकार इन गहनो को हाथों में पहनने का तरीका इस प्रकार से था कि पहले ‘कड़े’, बाद में चूड़िया जो प्रायः लाख की हुआ करती थी, उसे के बाद ‘बंगड़ी’ पहनी जाती थी।

(17) ‘कांकण‘: ‘बंगड़ी’ के उपर ‘कांकण’ पहने जाते थे। इस प्रकार हाथ का पूरा श्रंगार किया जाता था।

(18) ‘हथफूल’: हाथों की अंगुलियों में ‘हथफूल’ पहना जाता था। इस के बाद अंगुलियों में अंगूठियां पहनी जाती थी।

(19) ‘कमरबन्द’: कमरबन्द चांदी का हुआ करता था जिस को रैगर जाति की महिला कमर में पहनती थी। इस में चांदी की बनी हुई कई लाईने मिली हुआ करती थी।

(20) ‘तागड़ी’: कमर में ‘तागड़ी’ भी पहनी जाती थी जो प्रायः चांदी की हुआ करती थी।

(21) गुच्छा: साड़ी या घाघरा पर चाबियों का गुच्छा लगाया जाता था जिस में घूंघरू भी लगे होते थे। यह प्रायः चांदी का ही हुआ करता था।

(22) ‘कड़िया‘: रैगर महिलाओ द्वारा पांव में भी भिन्न भिन्न प्रकार के बड़े ही सुन्दर गहने पहने जाते थे। चांदी की ‘कड़िया’, ‘नेवरी’, ‘छेलकड़ा’, और ‘टनका’ पांवो में पहने जाते थे। पहले के दौर में चांदी की ‘कड़िया’ पांव में पहनी जाती थी जो काफी वजनी होती थी। इन को पहनने के बाद पांव से निकालना आसान नही होता था। ‘कड़िया’ केवल विवाहित महिलोय।ही पहना करती थी। जीवन में एक बार पहनने के बाद इन को आमतौर से नही निकाला जाता था।

(23) ‘नेवरी’: यह रैगर महिलाओ द्वारा पांव में पहने जाना वाला जेवर हुआ करता था। प्रायः इसे विवाह के उपरान्त यौवनास्था की महिलायें ही पहना करती थी। वृद्व महिलाये इसे नही पहना करती थी। यह चांदी की पांव में पहनी जाने वाली कड़ी के चारो तरफ मध्य में छोटे चांदी की 84 घुघरू लगे होते थे जो चलने पर बहुत की मधुर तरीके से बजा करते थे।

(24)‘छेलकड़ा’:

(25)‘टनका’:

(26) ‘पाजेब‘: पांव में चांदी की पाजेब पहनी जाती थी। यह सादा और बाजने वाली घुंघरू लगी हुअी हुआ करती थी। रैगर महिलाओं में चांदी की पाजेब ही पहनने का रिवाज होता था। इस का मुख्य कारण यह भी हो सकता है कि सोने को पहनने की राजस्थान में राजपूतों द्वारा मनाही थी अतः सोने की पाजेब को पहनना अशुभ माना जाता था।

(27) ‘बिछिया’: पाजेब के अलावा पांव की अंगुलियों में ‘बिछिया’ पहनी जाती थी। जब कोई नई दुल्हिन घर में आती थी तो सासु जी लाख के हाथ के चूड़े के अलावा पांव की दसो अंगुलियो में बिछिया भी पहनाया करती थी जो सुहाग की निशानी भी होती थी।

(28) ‘छल्ले’: रैगर महिलाये दोनो पांव कं अंगुठो में ‘छल्ले’ पहना करती है। ‘ ‘छल्ले’ प्रायः घुमावदार ही हुआ करते थे।

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