रैगर बालको का बचपन और संस्कार

यादे कल की, बीते पल की. मेरी कलम रैगर जाति के बच्चो का बचपन उन यादो को बतलाती है जो आजकल केवल बीते पलो की यादे ही रह गई है। उस जमाने में स्कूल की गर्मयों की छुट्टियों में शिमला या नैनीताल आदि ठंडे स्थानो पर जाने की कोई सोच भी नही सकता था। छत के कोने में या गली में ही सोने के लिये बिछाई गई चारपाई पर ही पुरानी चादर को औढते हुये टेन्टनुमा बना कर ठंडक महसूस कर लिया करते थे। क्या जमाना था जब अंगूली से लकीर खैंच कर बचपन के खैलो में बंटवारा हो जाता था। मामा, मामी, बुआ, चाचा के बच्चे सब सगे भाई लगते थे। घर छोटा ही था परन्तु प्यार से गुजारा हो जाया करता था। कन्चे, गोटियों व इमली के ‘चियो‘ से खजाने भरे जाते थे। सांप सीढी का खेल ही पसंदीदा खेल हुआ करता था। कैरम का खेल कुछ अमीर रैगर बच्चो के घरो में ही होता था। पुरानी पोलिश की डिब्बी तराजू बन जाती थी। नीम की निबोली आम समझ कर खाई जाती थी। बड़े-बूढे छोटे बच्चो को हिसाब करना सिखा देते थे। कापी के खाली पन्नो से रफ बुक बनाई जाती थी। बंधी हुई कतरन से गुडिया सजाई जाती थी। रात में दादी नानी से भूत की कहानी सुनते थे। कई बार सरकस के जोकर की तरह नकल उतारा करते थे। घर छोटा ही सही पर प्यार से गुजारा हो जाया करता था। घोंसले में अंडे देखने पेड़ पर चढ जाया करते थे। स्कूल की इतवार की छुट्टी में गिल्ली डंडा और ‘खपच्ची‘ का खेल खेलने में बहुत आनन्द आता था। बारिश में कागज की नाव बना कर तराया करते थे। यंहा तक कि कागज के हवाई जहाज को आकाश में उड़ाया करते थे। मां जिद्द करती रहती थी कि स्कूल में जाने के लिये जल्दी तैयार हो जाये परन्तु अपनी मर्जी से तैयार हुआ करते थे और झूंठे आंसू बहाते हुये स्कूल में जाया करते थे। शाम को परिवार के साथ बैठ कर एक साथ खाना खाया करते थे। मां चुल्हे पर रोटी सेकती रहती थी और बच्चे बड़े गौर से चुल्हे की तरफ देखते रहते थे। जैसा भी था रैगर बच्चो का बचपन बड़ा ही हसीन था। ऐसा था इन का बचपन जिस में मां को बोलने की और चुप रहने की भी कीमत चुकानी पड़ती थी। सोचते रहते थे कि बचपन कब खत्म होगा और अब सोचते है कि अब वो बचपन वापस कब आयेगा।

राजस्थान के गांवो में बचपन- रैगर जाति आर्थिक रूप से एक बहुत ही कमजोर जाति थी इस लिये इस जाति के बच्चे अपने बचपन में प्रायः नंग-धंड़ग ही पला करते थे। वे बड़े होकर ज्यादा नही पढाई करते थे क्योंकि उन का ध्येय सरकारी नौकरी प्राप्त करना नही होता था। ये तो अपने चमड़े रंगने और उस की जूतियां बनाने में ही ज्यादा ध्यान रखते थे।

बचपन में प्रार्थना व सफाई पर जोर का संस्कार व पहनावा- यंहा मेरा अनुभव दिल्ली में बिताये गये बचपन पर ज्यादा आधारित है। बचपन में विद्यालय जाते समय बालक खाकी निक्कर पहना करते और बालिकायें स्कर्ट ;ैापतजद्ध और ब्लाऊज पहना करती थी। बालक की निक्कर के नीचे किसी भी प्रकार की कच्छी नही हुआ करती थी। प्रायः जो विद्यालय की ड्रैस होती थी वह ही बालक और बालिकायें पहना करती थी। मैं भी मेरे बचपन में जब भी प्राथमिक विद्यालय में जाता था तो निक्कर और कमीज ही पहन कर जाता था। जूते पहनने का रिवाज नही था। प्रायः बालक चप्पले पहन कर ही आते थे। मां तैयार कर ही विद्यालय में भेजा करती थी। विद्यालय की घंटी बजने से पहले ही प्रार्थना में सम्मिलित होना आवश्यक होता था। यदि किसी कारण से विद्यालय की प्रार्थना में देर से पंहुचना पड़ता था तो क्लास के पीछे खड़ा होना पड़ता था। प्रार्थना के बाद अध्यापक देरी से आने वाले बच्चो को ‘मुर्गा‘ बना कर पीठ पर एक-दौ बैंत मारा करता था तथा भविष्य में समय पर आने की हिदायत दिया करता था। प्रार्थना के बाद में सफाई से रहने की सलाह बच्चो को दी जाती थी। मुझे अभी तक याद है वह वाक्य जो इस प्रकार से था -‘नाक में अंगुली, कान में तिनका, मत कर, मत कर‘। दांतो की सफाई और नहा कर विद्यालय में आने पर जोर दिया जाता था।

बचपन में बुजूर्गो का सम्मान करने का संस्कार- रैगर जाति में बचपन से ही बड़े-बूढे को सम्मान करना सिखाया जाता था। कभी भी कोई बच्चा किसी बुजूर्ग के सामने नही बोलता था और न ही उसे गलत शब्द कहता था। मुझे याद है कि प्रत्येक दिवाली के दिन मेरी गली के प्रत्येक बुजूर्ग के पांव छूने और उस से आर्शीवाद लेने के लिये मेरे माता-पिता मुझे कहा करते थे। ऐसा प्रत्येक रैगर के घर में होता था। इसी प्रकार का बुजूर्गो का सम्मान राजस्थान के प्रत्येक गांव की रैगर बस्ती में बचपन से ही बच्चो को सिखाया जाता था। कई गांवो में तो हुक्का भरने की जिम्मेवारी बच्चो की ही हुआ करती थी।

पुराने रीति रिवाजो का बचपन में ज्ञान देना- राजस्थान व दिल्ली के रैगर समाज में यह परम्परा थी कि नई पीढी को पुराने सामाजिक नियमो से अवगत कराया जाये। रैगर जाति के लोग यह मानते थे कि इन्सान की जिन्दगी में हार जीत का फैसल उस की औलाद करती है। अगर संस्कारी और कमाऊं है तो जीत है। अगर औलाद बेकार और आवारा है तो करोड़ो की कमाई हुई पुंजी होते हुये भी हार है। इस लिये मुझे याद है कि घर में कोई भी शुभ कार्य होता था तो घर के बच्चे भी मां-बाप के साथ जाया करते थे जिस से वे भी अपनी आंखो से सामाजिक नियमो को देख ले। इस लिये जब होली का ‘डांडा‘ रोप दिया जाता था तो गोबर के कंडे की माला होली के ‘डांडा‘ पर चढाने के लिये माताये अपने घर के बच्चे को भी साथ लेकर जाती थी जिस से बच्चे त्योंहारस आदि के कार्यक्रमो के रीति रिवाजो से पूरी तरह अवगत हो जाये। रैगर जाति में बच्चो में अच्छे संस्कार डालना प्रत्येक मां-बाप के लिये आवश्यक होता था।

बचपन में ही नैतिक चरित्रता का ज्ञान- उस जमाने में रैगर जाति के प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चो में नैतिक चरित्र बनाने का पूर्ण प्रयास किया करते थे। यह परम्परा दिल्ली में पाकिस्तान से आये शरणार्थियो के आने के बाद कम होती गयी परन्तु नैतिक चरित्रता पर प्रत्येक मां-बाप ने अपने बच्चो में पनपाने पर जोर जारी रखा। राजस्थान के रैगर समाज में तो नैतिक चरित्रता बनाये रखने पर विशेष ध्यान दिया गया। रैगर जाति के लोग उस समय यह मानते थे कि नैतिक चरित्र एक इंसान के संस्कारो की ओर इंगित करता है। यह मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ निधि है। जो इस में सफल होता है वही जीवन लक्ष्य तक पंहुच कर संसार में यशस्वी बन जाता है। नैतिक चरित्र के साथ उत्कृष्ठ जीवन जीना एक तपस्या है। शारीरिक, मानसिक एवम् वाचिक तपस्या जब ही सम्भव है जब यह बचपन से ही प्रत्येक रैगर बच्चे में विद्यमान हो। नैतिक चरित्र सत्य व प्रिय बोलने को प्रेरित करता है। इस लिये रैगर जाति के लोग जीवन में नैतिक चरित्रता पर बल दिया करते थे। वे यह भी मानते थे कि जन्म के समय एक शिशु पूर्ण रूप से इस संसार के प्रपंचो से अनभि़ज्ञ होता है इस लिये आगे चल कर वह समाज व परिवार से ज्ञान अर्जित करता है अतः प्रत्येक बच्चे में नैतिक चरित्र बनाये रखना आवश्यक माना जाता था।

सूती रंगीन लकीरो वाला पायजामा– शिक्षा के प्रति जागरूकता व सामाजिक धोखा. जब मैं प्राथकि शिक्षा प्राप्त करने के बाद हायर सैंकडरी कक्षा में शिक्षा प्राप्त करने लगा तो सूती रंगीन लकीरो वाला पायजामा पहन कर जाने लग गया था। कुछ अन्य बच्चे ही पतलून पहन कर आया करते थे। पायजामा पहन कर विद्यालय में आने से कोई बुरा नही मानता था। विद्यालय में दाखिले के समय मां-बाप अध्यापक को प्रायः यह कहा करते थे ‘ मास्टर जी, मांस-मांस आप का है और इस बच्चे की हड्डियां हमारी है। आप चाहे जितना भी इसे मारना, परन्तु पढाना जरूर।‘ रैगर जाति में यह वह दौर था जब प्रत्येक मां-बाप अपने लड़के को अच्छी पढाई पढा कर आगे बढाना चाहता था। उस समय दिल्ली में बच्चो को अंग्रेजी विद्यालय में नही पढाया जाता था क्योंकि अंग्रेजी विद्यालयो की फीस रैगर जाति के लोग नही दे सकते थे। इस के अलावा रैगर पुरा में नगर निगम दिल्ली का प्राथमिक विद्यालय हुआ करता था जो कि गन्दे नाले के साथ स्थित था। इस लिये इसे ‘गन्दे नाले वाला स्कूल‘ कहा जाता था। रैगर जाति के जो भी राजकीय अधिकारी प्रारम्भ मेें बने वे प्रायः इसी स्कूल से पढे हुये थे। यह विद्यालय आज भी बस्ती रैहगढ पुरा अर्थात रैगर पुरा करोल बाग में मौजुद है परन्तु रैगर रत्न आज यह पैदा नही कर पा रहा है। इसी प्रकार बीडन पुरा में ‘बुढे का स्कूल‘ हुआ करता था जंहा आज प्रथम मंजिल पर ‘बाबा रामदेव का मन्दिर‘ बना हुआ है। इस स्थान की अजीब कहानी है। इस में बहुत कम चुपचाप रिशवत लेकर जो कि केवल 5 हजार रूपये ही थी रैगर जाति के पंचो ने बैंड वाले और अन्यो को दुकाने बेच दी जो उन की अदूरदर्शिता ही कही जा सकती है। यह सब मैने मेरे बचपन में उस समय में देखा था जब इन पंचो के विरूद्व कोई आदमी बोल नही सकता था। यह वह दौर था जब रैगर जाति का शिक्षा के क्षेत्र में शैशव काल ही प्रारम्भ हुआ था और दिल्ली रैगर पंचायत तथा रैगर समाज के तत्कालीन राजनैतिक नेता अपनी औछी व बेईमान हरकतो पर उतारू हो गये थे।
मेरे इस बचपन की याद को आज भी मैं नही भूला हूं क्योकि जब जाति के हुक्मरान ही जाति को बेचने लग जाये।तो वह जाति दूसरी जातियों के हाथो हमेशा के लिये गुलाम हो जाया करती है। यह कारण है कि अग्रवाल समाज बाद में रैगर पुरा में आकर बसा परन्तु उसने अपनी अग्रवाल धर्मशाला बना ली। रैगर जाति के लोग पहले से ही रैगर पुरा, बीडन पुरा व देव नगर में रहते थे परन्तु अपनी अदूरदर्शिता के कारण वे किसी भी प्रकार की धर्मशाला अथवा अन्य सामाजिक स्थान नही बना पाये जो आगे आने वाली पीढियों के इतिहास में एक दुखपूर्ण ही अध्याय होगा। दिल्ली को अपना अग्रणी वाला राजस्थान भी इस प्रकार के कार्य करने में पिछड़ गया। राजस्थान में बचपने की बात की जावे तो प्राथमिक विद्यालय गांव से दूर दूसरे बड़े गांव में हुआ करते थे जंहा बचपन में रैगर जाति के बच्चे पैदल ही उस विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने जाया करते थे। इन्र से उच्च जातियों के बच्चे छूआछूत किया करते थे। विद्यालय का अघ्यापक भी इन बच्चो की शिक्षा में कोई अधिक रूचि नही लिया करता था। जो भी राजस्थान के व्यक्ति आगे विकास व प्रगति की राह में आये थे वे अपनी मेहनत, ईमानदारी, व अच्छे संस्कारो के कारण ही विकसित हो पाये थे।

बचपन में ही विवाह- उस जमाने में राजस्थान व दिल्ली में रैगर जाति के बालक और बालिकाओं का विवाह बचपन में कर दिया जाता था। राजस्थान में तो यंहा तक होता था कि गांव के मेले में बुजूर्ग लोग आपस में यह निर्णय कर लिया करते थे कि यदि दोनो परिवारो में एक परिवार के लड़का होता है और दूसरे परिवार में लड़की होती है तो दोने बच्चो का विवाह कर दिया जायेगा। इस प्रकार माता के गर्भ में ही बच्चो की सगाई कर दी जाती थी। राजस्थान में कई बार दूध पीते बच्चो की सगाई करना आम रिवाज हुआ करता था। दिल्ली में तो आठ या नौ साल का बच्चा या बच्ची होने पर बुूर्जूगो द्वारा आपस में गौत्र मिला कर सगाई कर दी जाती थी। जल्दी सगाई और जल्दी विवाह।

पर्दा प्रथा- मुस्लिम आक्रमणो के उपरान्त राजपूतो ने अपनी जीवन शैली में महिलाओ के लिये पर्दा प्रथा का प्रचलन प्रारम्भ किया। इस का मूल कारण राजपूत समाज में मुस्लिम आक्रमक कर्ताओ से अपनी महिलाओ की रक्षा कारण रहा था। रैगर समाज ने राजपूत सभ्यता के इस दृष्टिकोण को अपनाते हुये अपनी महिलाओ के लिये पर्दा प्रथा को अपनी जीवन शैली में समावेश कर लिया जो राजस्थान के गांवो में आज तक चालू है। दिल्ली में भी पहले बुजूर्ग महिलायें पुरूषो से पर्दा किया करती थी। पहले के समय में सास भी अपने दामाद से घूंघट अर्थात पर्दा किया करती थी परन्तु आजकल की बालिकायें पढी लिखी है इस लिये इस प्रथा को स्वीकार नही करती जो सही भी है। इस प्रकार का बचपन हुआ करता था जो रैगर जीवन शैली का अभिन्न अंग बन चुका था।

विडम्बना- राजस्थान और दिल्ली में यह विडम्बना ही थी कि उस समय घर में जब किसी के लड़के का जन्म होता था तो घर के बाहर थाली बजा कर सब को सूचित किया जाता था कि घर में लड़के ने जन्म लिया है। लड़की के जन्म होने पर किसी भी प्रकार की थाली नही बजायी जाती थी। ऐसा माना जाता था कि लड़की परिवार के लिये एक बोझ है इस लिये इस के जन्म पर किसी भी प्रकार की खुशी नही जाहिर की जानी चाहिये। इस का असर यह हुआ कि रैगर जाति में लड़की को किसी विद्यालय में भेज कर शिक्षा नही दी जाती थी। यह माना जाता था कि लड़की तो पराये घर की है इस लिये उसे शिक्षित करने को कोई लाभ नही है। रैगर समाज के लोग यह भूल गये थे कि लड़की ही अपने मां-बा पके प्रति ज्यादा वफादार रहा करती है।

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