(1) ढूंढाड़ी: {जयपुर, दौसा, सवाई माधोपुर का एक भाग };
(2) हाड़ोती: {कोटा, बूंदी, झालावाड़};
(3) मेवाड़ी: {उदयपुर, भीलवाड़ा, चितौड़गढ़} ;
(4) मारवाड़ी: {जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, पाली, नागौर};
(5) मेवाड़ी: {अजमेर, ब्यावर, किशनगढ};
(6) सिरोही: {आबू अंचल के गीत, बागड़ी भी, गुजराती भी};
(7) पूर्वाचंल के गीत: {करौली, भरतपुर, धोलपुर, कोटा कुछ भाग, अलवर जिले का कुछ भाग, सवाई माधोपुर जिले का एक भाग};
(8) मेवाती क्षेत्र: {अलवर जिला, भरतपुर का कुछ क्षेत्र, सवाई माधोपुर जिले का कुछ क्षेत्र, हरियाणा का एक भाग};
(9) उत्तर पश्चिमी राजस्थान जिस में पुराने बीकानेर डिवीजन तथा शेखावटी व तोरावटी के बीच में रहने वाले रैगर जाति के गीत: {सीकर, झुन्झुनू, चूरू, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ तथा हरियाणा का एक भाग};
(10) दिल्ली के रैगर गीत: {दिल्ली में रैगर जाति के लोग आकर बस गये थे फिर उन के गीतो में राजस्थानी भाषा का ही बोलबाला रहा};
(11) सिन्ध में रहने वाले रैगर जाति के गीत: {आजादी और भारत विभाजन से पहले रैगर जाति के लोग सिन्ध पाकिस्तान में रहते थे इस लिये इन के गीतोें में सिन्धी भाषा के बदले राजस्थानी भाषा ही का पुट हुआ करता था। अब इस सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी मिलना मुश्किल हो गया है।};
(12) पंजाब में रहने वाले रैगर जाति के रैगर गीत: { पंजाब में भी रैगर जाति के लोग रहते है उन के गीतों में पंजाबी भाषा का ही बाहुल्य है }।
इसी प्रकार उस जमाने में रैगर महिलायें सुबह-सुबह दो पाटो वाली पत्थर की चक्की पर आटा पीसती हुई, शाम को एकत्रित होकर, शुभ अवसर पर ‘राती जगा‘ करते हुये तथा मेलो आदि पर
‘हरजस‘ और भजन गाया करती थी। मुझे मेरी सास माता जी स्व.श्रीमती रामादेवी खोरवाल के द्वारा गाये गये ‘हरजस‘ के गीत आज भी याद है जो निम्न लिखित प्रकार से थे:-
‘गया रै काळा केस, धोळा न तज रै, थारी उमर बीती जाये, भज्य लो कद रे।
थारी परणी छोड़ी प्रेम, कदर थारी ना ही रै, झूंठ कपट नै छोड़, राम नै भज रै, थारी उमर बीती जाये, भज्यै लो कद रैै।।
थारी बहुआ छोड़ी लाज, ष्शरम गई तज रै, थारो बेटो बोल्या बोल, मरै रो कद रै।
तू झूंठ कपट न छोड़ राम नै भज रै,थारी उमर बीती जाये, भज्यै लो कद रैै।।
दूसरा उस जमाने का भजन जो मैने मेरी सास माता जी से सुना था, वह इस प्रकार से था ‘- भाई रै मत दै मायड़ नै दोस, करमा री रेखा न्यारी-न्यारी। एक मायड़ रै बेटा चार, चारो री रेखा न्यारी-न्यारी।।……………………
उस जमाने में रैगर छैल छबीले नवयुवक भी मेलो में निम्न प्रकार के गीत गाते थे:-
‘टाटा गैन्दाला री छोरी मंगली, तूनै तो लैर कै चालुंगा ऐ।
ऐ छोरी छम्मो, तूने तो लेर कै चालुंगा ऐ।
ऐ छोरी गेन्दाला की, तूनै तो लैर कै चालुंगा ऐ।
लैर कै चालुगा, लैर कै चालुगां ए।‘
इसी प्रकार रैगर जाति के गीतो में प्राकृतिक विपदाओं और सौन्दर्य का भी सुन्दर बखान किया जाता था। बारिश के दिनो में गांव में प्राकृतिक बिजली की आवाज के सम्बन्ध में एक गीत बहुत
प्रचलित था -‘बिजली तो चमके कड़कड़ा की…….‘
4. रैगर जाति में गाये जाने वाले गीत. रैगर जामिें आजकल विभिन्न अवसरो पर गाये जाने वाले कुच्छेक गीत निम्न प्रकार से है ‘-
भावार्थ: मेरे घर के द्वार पर शहनाई व नगाड़े बज रहे है। हे गणेश जी ! मेरे घर पर पधारे तथा आनन्द से कार्य साधें। हे गणपति ! लाडले कुंवर की कीर्ति बढाना। हे गणेश ! अपन जोशी जी
के घर चले तथा विवाह के लिये शुभ लगन लिखा कर लावे। इसी प्रकार कंदोई, बजाजा तथा पनवाड़ी के बोल है। हे गणेश ! बारात लेकर बनड़ी के घर चलेंगे तथा सुन्दर सी कन्या विवाह के घर लावेंगे।
(बहिन के बोल): आज बागां में, रिमझिम हो रही जी, आयो म्हारी मां को जायां बीर,
हीराबंद लयायो चूंदड़ी जी। आज ………
जैरे पहरूं तो मोती झर पड़े, बुगचे धरूं तो तरसे जीव,
सादी क्यून लयायो चूंदड़ी जी।। आज …….
थारी तो बधियों रे बीरा बेलड़ी जी, अमर रहो रे थारी काय,
पंचा में उंचा तैकरी जी।। आज ……..
थारी तो बधियों रे बीरा बेलड़ी जी,
अमर रहो रे थारो मान। भायां में उजली तैं करी जी।
(भाई का बोल)
‘तूं ओढें क्यून चुंदड़ी (जीजी या बहिना)
जीवे थारो मां को जायो बीर, तने और मंगा दे चूंदड़ी जी‘।। आज …….
भावार्थ: आज पावन काल में मेरा भाई मेरे लिये चूंदड़ी लाया है जो हीरो से जड़ी हुई है। यदि इसे पहनती हूं तो इस के हीरे झड़झड़ पढते है। (हीरों का नुकसान) तथा यदि उठर कर रखती हूं
तो जी तरसता है कि भाई द्वारा लाई चूंदड़ी क्यून नही पहनी। ऐ भाई, तेरी वंश बेल बढे तूने मेरा मान उंचा रखा। तूने समाज में मेरी बात रखी है, जात बिरादरी से मेरी प्रतिष्ठा रखी है। हे भाई तेरी काया, तेरा नाम अमर रहे। भाई ने जवाब दिया कि बहिन तेरा सगा भाई जीवित है, हीरो के झड़ने की फिक्र न कर इस चूंदड़ी को पहन ले, मैं तुझे ऐसी दूसरी मंगा दूंगा।
‘मैं तो मरी होती राज मरी होती, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
बीछूड़ो डंक लगाय, गयो सा, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
आगे आगे चाले म्हारै वैद जी को लड़को,
पाछा सू आया म्हारा प्यारा लख पतियां, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
वैद जी बुलाया म्हारे डाक्टर आया,
पाछा सा आया म्हारे ससुरो सा,
पिलंगा पर बैठे म्हारे वैद जी को लड़को,
फरसा पर बैठे म्हारा आलीजा, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
नाड़ी तो देखे म्हारे वैद जी को लड़को,
टप टप रोवै म्हारा आलीजा,
म्हारे परणेतो कब्जा ने लोहड़ी पहरेगी। खा गयो बैरी बीछूड़ो,
म्हारे आलीजा सूं रंडवो मत खीजो, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
चार- चरा कून्या में गढ रहया,
म्हारी कैलासी के ब्याव में लगा दी जो।
भावार्थ: पत्नी को विषैले बिच्छू ने डस लिया है। अपना मरण निश्चित समझती हुई यह कह रही है कि मैं पति, ससुर सब की लाड़ली हंू। मुझे बचाने के प्रयत्नों में सम्मानित वै़द्य, डाक्टर, हकीम सभी लगे हुये है लेकिन मेरा बचना न हो। मेरे प्रियतम को कोई बछुआ कह कर न चिढावे अतः मैं उन्हे दूसरे विवाह की सलाह दे रही हूं तथा मेरी इच्छा है कि मेरी शादी के समय के वस्त्राभूषण मेरे बाद में आने वाली पत्नी को वे पहना दे। मेरी यह इच्छा है कि मेरी पुत्री कैलाशी की शादी मंे उस धन को खर्च किया जावे तथा किसी भी हालात में मेरे पति विधुर नही कहलायें।
उड़ जाउं ओरी मां पांख लगाय,
चली जाउंगी री मां पांख लगाय,
थोड़ा सा दणा री पावणियां,
म्हारा दादा जी गढावे सोना सांकलयां,
म्हारी जीजा हो राज, मूड़े तो बोल,
अम्बर जैसी कोयलड़ी।
म्हारी काकाजी गढावे, सोना बोरला,
म्हारी काक्यां हो राज, मूड़े तो बोल
म्हें परदेशी चिड़कल्यां।
म्हारी बीराजी मढावै सोना झूठण्या,
म्हारी भौजायां हो राज, मूड़े तो बोल,
अम्बर जैसी कोयलड़ी,
म्हारा पड़ौसी चढावै सोना टेवट्या, म्हारी पड़ोसन हो राज, मूड़े तो बोल, महें परदेशी चिड़कल्या।
भावार्थ: ओ मेरी मां पंच लगा के उड़ जांउगी। मैं थोड़े से दिनो की मेहमान हूं। मेरे दादाजी, काकाजी, भाईजी, पड़ोसीय मेरे विवाह में देने हेतु क्रमशः सोने की जंजीर, झुठलिया, आदि जेवर घड़वाये हैं लेकिन मेरी काकी, भाभी, पड़ोसिन तथा मां ने इस पर अप्रसन्नता प्रकट की तथा मुझ से बोली भी नही। ओ मेरी मां मुझ से मुंह से तो बोल मैं परदेशी चिड़िया हूं, फुर्र से उड़ जांउगी। गांव में कन्या, न केवल उस के माता पिता को, सभी को प्यारी लगती है।
भावार्थ: आम, इमली पक गये तथा नींबूओं में रस भर गया, अर्थात कन्या युवती हो चली। ए बाइ अपने पिता का इतना स्नेह छोड़ कर तुम कंहा चल दी? अपनी माता का प्यार छोड़ कर कंहा जा रही हो? कन्या ने बताया कि समधाने से सूवटा अर्थात पक्षी मुझ कोयल को लिवाने आया है तथा वह पूरी टोली में से मुझे छांट कर ले जा रहा है। भारतीय संस्कृति की यह परम्परागत विवशता है कि कन्या को विवाह के पश्चात ससुराल, अपरिचितो में जाना पड़ता है, चाहे माता पिता ने कितने ही लाडो से उसे पाला हो।
धन खाटू, धन सांवला नंदलाल, जी परभु, धन रै ढंूढाड़ी लोग, स्याम सुहावणा, बाबा स्याम,
कै रे कोसा में थारो देवरो, बाबा स्याम, जी, परभु, कै रे कोसां में जगाजोत, स्याम सुहावणा, बाबा स्याम।
अस्सी ऐ कोसां में थारो देवरो, बाबा स्याम,
जी परभु, सगली सिस्टी से जगाजौत,
कुण चिणयो थारो देवरो, बाबा स्याम,
जी परभु, कुण दिवाइ गज नीव।।
राजाजी चिणायों म्हारो देवरो, बाबा स्याम,
जी परभु, सेवकां दिवाइ गजनीव,
जात्री जो आवै थारै दूर का, बाबा स्याम,
जी परभु, सावलिया मोट्यार।।
जात्री आवै थारै कुलबहू, बाबा स्याम,
जी परभु, गोद जड़ूलै पूत।।
कुण्या जीे री गाड़ी हांकी, बाबा स्याम जी परभू,
संग कुण्याचद जी रो साथ।।
चढे अे चढालै थारै चूरमों, बाबा स्याम,
जी परभु, और चोट्यालां नाले र।।
भावार्थ: हे श्याम जी खाटू वाले! आप का मन्दिर किस ने बनाया, आप का प्रभाव क्षेत्र कितने कोसों में है ? खाटू श्याम जी आप का मन्दिर राजा जी ने बनाया तथा 80 कोस में इस मन्दिर का क्षेत्र है। प्रभु आप के यहां अनेकों यात्री आते है। कुल-वधुओं को आप के आर्शीवाद से पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है तथा आप के चुरमें का प्रसाद चढाया जाता है।
घी ही पी, म्हारा आछया लाड़ा घी ही पी, थारी दाद्यां पावे, माया पावै, डोर हिलावै।
हमसूं रलिया रंग करे।
मंजीरा बाजै घी ही गुड़ बाजै, वेला सबद सुणावै (म्हारा आछया)
थारी भुआ पावै, माम्या पावै, मास्यां पावै, डोर हिलावै।
म्हांसूं रंग रलिया करै, म्हारा आछया लाड़ा घी ही पी।
भावार्थ: मेरे अच्छे लाड़ले तू घी ही पी, तेरी दादियां, माताजी, भुआ, मामी, मांसी घी पिला रही है तथा मनोरंजन कर रही है, हंसी मजाक किया जा रहा है। विवाह के अवसन पर यह एक सामान्य प्रक्रिया है। इस गीत को काफी लम्बे समय तक गाया जाकर घी पिलाने की रस्म पूरी की जाती है।
चटणी में इमरत घोल ल्याइ नार, चटणी में।
बाजरियारी रोटी खाणे, चटणी म्हानै चोखी लागे।
तरसै तरसै दोनूं म्हारी जाड।
चटणी खाता खाता म्हारो मन नही धापै।
म्हारो जीवडो हो रहयो निहाल।
चटणी ढब सू पीसी, ढबसूं नान्ही-नान्ही पीसी।
जीवडा में छू की, ढब सूं राम रस भाख्यौ म्हारा स्याम। चटणी में ……।।
छीक छीक चटणी रोटी सूं जीमी जिण में, भरियों खटरस सुवाद।
उपर ठण्डो नीरज पीओ, म्हारो हिवेडो भयो ऐ निहाल, चटणी में ……।
भावार्थ: रैगर जाति के लोगो के लिये चटणी भी अमृत तुल्य हुआ करती थी। बाजरे की रोटी के साथ
खायी जाने पर वह और भी सुस्वाद बन जाती है।
भावार्थ: छोटा सा बन्ना, मेरा बालक पति, मेरे घर के आंगण मे गिल्ली डंडा खेल रहा है। जब मैं पानी भरने जाती हूं तो मुझे कहता है कि गोदी में उठा लो, मैं बातो बातो में उसे बहलाती हूं। रसोई बनाने जाती हूं तो भी गोदी में लेने की रट लगाता है। मैं उसे फुलकों की ऐसी मार मारूंगी कि मेरा बालक पति भगता फिरेगा। सेज बिछावे के समय मेरा छोटा सा प्रियतम मुझ से कहता है कि गोदी में ले लो। मेरा बालक पति नासमझ है। वह मेरे यौवन की मार भी क्या समझेगा या झेलेगा, वह बचता फिरेगा।
बागां में बाजे जंगी ढोल (झालर झिणका करे जी),
दरवाजे बाजे शहनाई,
आयो म्हारी मां को जायो बीर,
चूंदड़ ल्यायो रेसमी जी (चूंदड़ ल्याओ मौज की जी),
नापूं तो हाथ पचास, तोलूं तो तोला तीस की जी,
(या साठ की जी),
ओढूं तो हीरा मोती झरपडै़, मेलूं तो डब्बो भर जाय,
(चूंदड़ ल्याओ),
ओढा म्हारे सुगना बाइ रे ब्याव जनेती देखे जीमता जी,
ओढा म्हारे लेाडकंवर रा ब्याव साजन देखे मुलकता जी,
धन ये गोरी थारो भाग, बीरो तो ल्यायो चूंदीडी जी।
भावार्थ: मेरे घर पर शहनाई तथा ढोल बज रहे है। मेरी लाडो बेटी का विवाह है। मेरा भाई जो भात में रेशम क चूंदड़ी लाया है। वह बहुत मंहगी है। हीरो से जड़ी है। नाचती हूं तो पचास हाथ की व तोलने पर तीस तोले की है। इसे पहन कर जब इतराती फिरूंगी तो जनवासे में आये बराती इस को शान से देखेंगे तथा मेेरे पति भी मुस्करा कर इस की प्रंशसा करेंगे। मेरे पीहर वालो की इस से शान बढेगी कि सभी लोग मेेरे लिये इतनी महंगी चूंदड़ी लेकर आये है।
रामचन्द्र जी ओ, दरवाजा खोल, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
थां पै लेगी गडजोड़ा री जात, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
थाने देसी जी बेटा पोतारा जोड़, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
दशरथ जी यो दरवज्जो खोल, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
म्हाने के फरमावे माता सीतला, थां जेसी राबड़ी रोटिया की जेठ,
थां पै मया ये करे छैः माता सीतला, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
भावार्थ: ए भक्त, दरवाजा खोलो, तुम पर शीतला माता कृपा करने वाली है। तुम से केवल गडजोड़े की पूजा, बासी रोटी तथा राबड़ी के एवज में तुम्हारी गोद भरने हेतु बेटे देगी, पोता देगी।
चरखी चल रही बर के नीचे, रस पीजा लांगुरिया, रस पीजा लांगुरिया अरे गुड़ खायजा लांगुरिया, चरखी चल रही……
पोखरिये की पाल़ पै, लम्बो पेड़ खजूर बापै चढके देखियो, मेरे बलमा कित्ती दूर, चरखी चल रही……..
राम-नाम तो सब कहे, दशरथ कहे न कोय, एक बेर दशरथ कहे, कोई अष्ट जज्ञ फल होय, चरखी चल रही….
चित्रकूट के घाट पर भइ सन्तन की भीर तुलसीदास चन्दन घिसे, तिलक लेत रघुवीर, चरखी चल रही…..
पत्ता टूट्यो डार तै, ले गई पवन उडाय, अबके बिछुड़े नाय मिलेंगे, दूर पड़िंगे जाय, चरखी चल रही….
भावार्थ: उक्त गीत मेेलो-ठेलों के अवसर पर गाया जाता है। नायिका कह रही है कि वटवृक्ष के नीचे गन्ने के रस की चरखी चल रही है, गुड़ बनाने की तैयारी है। अरे लांगुर, आकर रस पी जा और गुड़ खाले। इस के बाद विभिन्न प्रचलित दोहे गाये जाते है। इस गीत के गायन में रस की सहज निष्पत्ति होती है। इस धुन पर तथा गीत की चाल पर मनमौजियों ने कई प्रकार के लांगुरिया गीत गढ लिये है।
भावार्थ: केला देवी के भवन में सेवक, बाल स्वरूप, बटुक स्वरूप, भक्तगण दौड़ते फिरते है। मैया के मन्दिर के रास्ते में ऊंचे नीचे पर्वत है जहां केला देवी अपने स्थान पर विराजमान है। यह गीत इसी प्रकार दोहे जोड़ कर गाया बजाया जाता है।
पहलो तो फेरो ए, लाडी बाबासा री प्यारी,
दूजो तो फेरो ए, लाडी, दादासा री प्यारी,
तीजो तो फेरो ए, लाडी, काकासा री प्यारी,
चैथो तो फेरो ए, लाडी बीरा जी री प्यारी,
पांचवो तो फेरो ए, लाडी, मामाजी री प्यारी,
छठो तो फेरो ए, लाडी मावसा जी री प्यारी,
सातवों तो फेरो ए, लाडी हुई री पराई।
लाडी लगौ सहेलियां मय टाल, बागां मेली कोयल, ए लाडी आयो सगा जी रे डाबरो….
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