रैगर जाति के गीत

  1. रैगर जाति के गीतो की वर्गीकरण- रैगर जाति के गीत त्यौहारों और पर्वो से जुड़ी कथाओं की अभिव्यक्ति है। ये गीत ‘रजवाड़ो के गीत‘ नही है इस लिये ये गीत महलों, हवेलियों, किलों की चार दिवारियों में नही पनपे। ये गीत हंसी-खुशी, क्रोध-करूणा, मिलन-बिछोह जैसी भावनाओं को स्पष्ट बताते है। रैगर जाति के गाये जाने वाले लोकगीतो को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

    पहले भाग में ऐसे गीत है जिन का मूल शास्त्रीय राग पर आधारित होता है और जिन का मूल तत्व भक्ति रस है। इस वर्ग में राम, कृष्ण, शंकर, हनुमान, गणेश, तथा अन्य लोकप्रिय देवी देवताओं जैसे भैरू जी, भोमिया जी, रामदेव जी के कीर्तिमान सम्बन्धी और कबीर, मीरा आदि संतो की छाप के लोकभजन गाये जाते है जैसे –

    ‘‘रींगस का भैरू लाडला, म्हारी अरज सुनेलो कांइ रे‘।
    तथा ‘हेलो म्हारे सुनियो रे बाबा रूणीचे रा नाथ।
    हुकम देवो तो धणी रे आउंला दरबार, म्हारो हेलो सुणो जी रामा पीर‘।।

    दूसरे भाग में वे गीत आते हैं जो रैगर जाति की जीवन क्रियाओं, प्रणय, ऋतुओं, पर्वो, त्यौहारो आदि विषयों पर आधारित होते है। सास-बहु, समधी-समधन, ननद-भौजाई, ननदोई-देवर, भाभी, बड़सासू के रिशतो पर गाये जाने वाले गीत भी इस के अन्तर्गत आते है जैसे -‘तीन पाव का चांवल-रांद्या, बांदरा खागा। तो सूं भाग्यो जाय तो भाग, घर में बांदरा आगा, रे बैरी पावणा आगा‘।। तथा ‘भाया की बड़ सासू रै, दो दन रहजा पावणी। थारे कड्यां घड़ा द्यू रे।‘ इस भाग में संस्कारो के गीत भी सम्मिलित किये जा सकते है। जन्म, मरण व लौकिक 16 संस्कारों पर ये गीत जैसे तेल, हल्दात, घोड़ी, बन्ना-बन्नी, मेंहदी, पीला उढाना, कामण, तोरणियों, बधावा इसी वर्ग मेें आते है। ये सभी गीत संस्कारों के गीतो की श्रेणी में आते है जैसे –
    ‘उंचलिये मंगरे री मेंहदी, जैसाणे री ढेल, म्हारी मेंहदी रंग राचणी।
    ‘तथा ‘खातीडा रा बेटा चतुर सुजान, तोरणियां घड़ल्या दे, म्हाने चंदन कके रे रूख रो हो राज।‘
    ये गीत जिन रागों पर आधारित होते हैं उन में पहाड़ी, दुर्गा, भूपाली, सारंग, पीलू, गारा, झिझोटी देश, सोरठ, मांड, काफी, खमाज तथा तिलककामोद प्रमुख है जैसे ‘गोरी थारे श्याम को परवाणो आयो रे, परवाणो आयो रे, संदेसो आयो रे‘।

    तीसरे भाग में अलग अलग राग के अशुद्व मिश्रण पाये जाते है जो प्रायः दुर्गा, पहाड़ी तथा भूपाली में अपने ही ढंग से गाये जाते है। इस रीति से गाये जाने वाले गीतो की धुनो को आसानी से नही पकड़ा जा सकता। इन गीतो की मधुरता अपने आप में बड़ी ही मीठी होती है।
  1. भाषाओें और बोलियों पर आधारित गीत- रैगर जाति के लोग राजस्थान के विभिन्न जिलो में निवास करते है अतः वहां की बोली वाले लोकगीत भी उन्होने अपना लिये है। मेवाड़ में रैगर जाति के लोगो को जटिया और मेवाड़ में बोळी कहा जाता है इस प्रकार इस जाति के लोगो को क्षे़त्र के अनुसार भी अलग अलग नामो से जाना जाता है। इस प्रकार रैगर जाति की महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले ये गीत आंचलिक बोलियों व शैलियों की विविधता व विभिन्नता लिये भावनात्मक रूप से सजीव है। हाड़ौती, मेवाड़ी, ढंूढारी, मारवाड़ी, शेखावाटी, बागड़ी व बृज आदि विभिन्न आंचलिक भाषाओं के आधार पर इन का वर्गीकरण किया जा सकता है। हर बारह कोस पर बोली तथा पानी बदल जाता है। इसी लिये रैगर जाति के गीतो के बोल तथा धुनो में भी थोड़ा अन्तर आ जाता है। इन गीतो में भूगोल का भी प्रभाव पड़ा है। इस के अलावा जिस स्थान में रैगर जाति के लोग रहते है वहां की महत्वपूर्ण घटनाओं और नये संचार साधनों को भी अपने गीतो में समावेश कर लिया गया है। राजस्थान प्रदेश में कौन कौन से भाग में कौन सा मौसम हितकारी है के सम्बन्ध में एक दोहा प्रचलित है – ‘सीयाले खाटू भली, उन्हाले अजमेर, जोधाणी नित को भलो, सावण बीकानेर।‘ इस के अलावा इन गीतों पर रैगर महिलाये भी नाच गान व नृत्य करती है। मोटे तौर पर रैगर जाति के गीतो के निम्न आंचलिक भेद माने जा सकते हैः-

(1) ढूंढाड़ी: {जयपुर, दौसा, सवाई माधोपुर का एक भाग };
(2) हाड़ोती: {कोटा, बूंदी, झालावाड़};
(3) मेवाड़ी: {उदयपुर, भीलवाड़ा, चितौड़गढ़} ;
(4) मारवाड़ी: {जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, पाली, नागौर};
(5) मेवाड़ी: {अजमेर, ब्यावर, किशनगढ};
(6) सिरोही: {आबू अंचल के गीत, बागड़ी भी, गुजराती भी};
(7) पूर्वाचंल के गीत: {करौली, भरतपुर, धोलपुर, कोटा कुछ भाग, अलवर जिले का कुछ भाग, सवाई माधोपुर जिले का एक भाग};
(8) मेवाती क्षेत्र: {अलवर जिला, भरतपुर का कुछ क्षेत्र, सवाई माधोपुर जिले का कुछ क्षेत्र, हरियाणा का एक भाग};
(9) उत्तर पश्चिमी राजस्थान जिस में पुराने बीकानेर डिवीजन तथा शेखावटी व तोरावटी के बीच में रहने वाले रैगर जाति के गीत: {सीकर, झुन्झुनू, चूरू, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ तथा हरियाणा का एक भाग};
(10) दिल्ली के रैगर गीत: {दिल्ली में रैगर जाति के लोग आकर बस गये थे फिर उन के गीतो में राजस्थानी भाषा का ही बोलबाला रहा};
(11) सिन्ध में रहने वाले रैगर जाति के गीत: {आजादी और भारत विभाजन से पहले रैगर जाति के लोग सिन्ध पाकिस्तान में रहते थे इस लिये इन के गीतोें में सिन्धी भाषा के बदले राजस्थानी भाषा ही का पुट हुआ करता था। अब इस सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी मिलना मुश्किल हो गया है।};
(12) पंजाब में रहने वाले रैगर जाति के रैगर गीत: { पंजाब में भी रैगर जाति के लोग रहते है उन के गीतों में पंजाबी भाषा का ही बाहुल्य है }।

  1. रैगर जाति के प्राचीन गीत- रैगर समाज के प्राचीन गीतो के बारे में अब बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। ये वो गीत थे जो रैगर महिलायें विभिन्न उत्सवों पर गाया करती थी। ष्ये गीत तत्कालीन स्थितियों को बताते थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मेरी माताजी स्व.श्रीमती खेमली देवी रछोया मुझे बचपन में कई गीत सुनाया करती थी। इन गीतो में एक गीत आज भी मेरे मनःस्थल पर विद्यमान है:-
    ‘पीतल की चिमनी मै, मटिया को डालयो तेल।
    वा तो जूपै रंगमहल मै, सारी रात।।
    डट जा ऐ रेल भवानी, म्हारा मारूजी को आयो देस।
    मै तो डाटा ना ही डटूंगी, डटूंगी अजमेर।।
    इस गीत से स्पष्ट होता है कि उस समय रेल राजस्थान में प्रारम्भ हुई थी परन्तु वह अजमेर जैसे बड़े स्टेशनो पर ही रूका करती थी। इस के अलावा उस जमाने में रोशनी चिमनी में मिट्टी का तेल डाल कर ही की जाती थी। तब तक बिजली नही आई थी।

इसी प्रकार उस जमाने में रैगर महिलायें सुबह-सुबह दो पाटो वाली पत्थर की चक्की पर आटा पीसती हुई, शाम को एकत्रित होकर, शुभ अवसर पर ‘राती जगा‘ करते हुये तथा मेलो आदि पर
‘हरजस‘ और भजन गाया करती थी। मुझे मेरी सास माता जी स्व.श्रीमती रामादेवी खोरवाल के द्वारा गाये गये ‘हरजस‘ के गीत आज भी याद है जो निम्न लिखित प्रकार से थे:-
‘गया रै काळा केस, धोळा न तज रै, थारी उमर बीती जाये, भज्य लो कद रे।
थारी परणी छोड़ी प्रेम, कदर थारी ना ही रै, झूंठ कपट नै छोड़, राम नै भज रै, थारी उमर बीती जाये, भज्यै लो कद रैै।।
थारी बहुआ छोड़ी लाज, ष्शरम गई तज रै, थारो बेटो बोल्या बोल, मरै रो कद रै।
तू झूंठ कपट न छोड़ राम नै भज रै,थारी उमर बीती जाये, भज्यै लो कद रैै।।

दूसरा उस जमाने का भजन जो मैने मेरी सास माता जी से सुना था, वह इस प्रकार से था ‘- भाई रै मत दै मायड़ नै दोस, करमा री रेखा न्यारी-न्यारी। एक मायड़ रै बेटा चार, चारो री रेखा न्यारी-न्यारी।।……………………
उस जमाने में रैगर छैल छबीले नवयुवक भी मेलो में निम्न प्रकार के गीत गाते थे:-
‘टाटा गैन्दाला री छोरी मंगली, तूनै तो लैर कै चालुंगा ऐ।
ऐ छोरी छम्मो, तूने तो लेर कै चालुंगा ऐ।
ऐ छोरी गेन्दाला की, तूनै तो लैर कै चालुंगा ऐ।
लैर कै चालुगा, लैर कै चालुगां ए।‘
इसी प्रकार रैगर जाति के गीतो में प्राकृतिक विपदाओं और सौन्दर्य का भी सुन्दर बखान किया जाता था। बारिश के दिनो में गांव में प्राकृतिक बिजली की आवाज के सम्बन्ध में एक गीत बहुत
प्रचलित था -‘बिजली तो चमके कड़कड़ा की…….‘

4. रैगर जाति में गाये जाने वाले गीत. रैगर जामिें आजकल विभिन्न अवसरो पर गाये जाने वाले कुच्छेक गीत निम्न प्रकार से है ‘-

  • विनायक (राग: पीलू/तालः दीपचन्दी). रैगर जाति में विवाह उत्सव का प्रारम्भ गणेश जी को नौतने से प्रारम्भ होता है। विवाह के कुछ दिन पुर्व गणेश जी की स्थापना की जाती है और गणेश जी को आवाह्मन किया जाकर उन की पूजा की जाती है। इसी लिये विवाह की तारीख निश्चित होने पर रैगर जाति में पहली वैवाहिक कार्यवाह गणेश जी को न्यौतना होता है। इस के लिये विवाह का कार्ड अथवा हल्दी में किये गये पीले चावल का न्यौता गणेश जी को दिया जाता है। तेल की रस्म के दिन रैगर जाति के लोग तेल में पुरी और गुड़ के मीठे पूये तल कर एक लौहे के सुये में पिरो कर घर में बनाये गये गणेश जी के सामने रखते है। ऐसे गीतों में श्री गणपति से प्रार्थना की जाती है कि विवाह का मंगल कार्य निर्विघ्न समाप्त हो जावे:-
    ‘छाजे रे छाजे नौबत बाजे, म्हारे घर आणंद बधावो विनायक, छाजे रे छाजे।
    ‘कंवर लाडलड़ा रो बिड़द उपाई, रणत भंवर सूं आवो विनायक, छाजे रे छाजे।
    चलो विनायक आपां जोसी जी रे चालां, चोखा-चोखा लगन लिखावां विनायक,छाजे रे छाजे।

भावार्थ: मेरे घर के द्वार पर शहनाई व नगाड़े बज रहे है। हे गणेश जी ! मेरे घर पर पधारे तथा आनन्द से कार्य साधें। हे गणपति ! लाडले कुंवर की कीर्ति बढाना। हे गणेश ! अपन जोशी जी
के घर चले तथा विवाह के लिये शुभ लगन लिखा कर लावे। इसी प्रकार कंदोई, बजाजा तथा पनवाड़ी के बोल है। हे गणेश ! बारात लेकर बनड़ी के घर चलेंगे तथा सुन्दर सी कन्या विवाह के घर लावेंगे।

  • आज बागां में रिमझिम हो रही (राग: श्विरंजनी/तालः कहरवा), प्रस्तुत गीत अलवर जिले में गाया जाता है। बहिन कह रही है कि आज रिमझिम वर्षा हो रही है, मेरी मां का जाया अर्थात सगा भाई मेरे लिये बहुत मंहगी चूनरी लाया है। बहिन अपने भाई के परिवार की श्री वृद्वि हो ऐसा स्नेहिल आर्शीवाद देती है। सावन में नवविवाहित लड़की को ससुराल में चंूदड़ी भेजने का पुराना रिवाज है।

(बहिन के बोल): आज बागां में, रिमझिम हो रही जी, आयो म्हारी मां को जायां बीर,
हीराबंद लयायो चूंदड़ी जी। आज ………
जैरे पहरूं तो मोती झर पड़े, बुगचे धरूं तो तरसे जीव,
सादी क्यून लयायो चूंदड़ी जी।। आज …….
थारी तो बधियों रे बीरा बेलड़ी जी, अमर रहो रे थारी काय,
पंचा में उंचा तैकरी जी।। आज ……..
थारी तो बधियों रे बीरा बेलड़ी जी,
अमर रहो रे थारो मान। भायां में उजली तैं करी जी।
(भाई का बोल)
‘तूं ओढें क्यून चुंदड़ी (जीजी या बहिना)
जीवे थारो मां को जायो बीर, तने और मंगा दे चूंदड़ी जी‘।। आज …….

भावार्थ: आज पावन काल में मेरा भाई मेरे लिये चूंदड़ी लाया है जो हीरो से जड़ी हुई है। यदि इसे पहनती हूं तो इस के हीरे झड़झड़ पढते है। (हीरों का नुकसान) तथा यदि उठर कर रखती हूं
तो जी तरसता है कि भाई द्वारा लाई चूंदड़ी क्यून नही पहनी। ऐ भाई, तेरी वंश बेल बढे तूने मेरा मान उंचा रखा। तूने समाज में मेरी बात रखी है, जात बिरादरी से मेरी प्रतिष्ठा रखी है। हे भाई तेरी काया, तेरा नाम अमर रहे। भाई ने जवाब दिया कि बहिन तेरा सगा भाई जीवित है, हीरो के झड़ने की फिक्र न कर इस चूंदड़ी को पहन ले, मैं तुझे ऐसी दूसरी मंगा दूंगा।

  • खा गयो बैरी बीछूड़ो (राग: तिलक कामोद/ तालः कहरवा)
    बचपन मे यह गीत मैने दिल्ली के टुटया में रैगर महिलाओं के मुखारविन्द से सुना था। यह मनमोहक भावनाओं का मोहक चित्रण है। पत्नी जिसे बिच्छु ने डस लिया है। वह समझती है कि उस की मृत्यु निश्चित है अतः यह कहती है कि मेरे पति को कोई ‘रंडुआ‘ न कहे तथा वे दूसरा विवाह कर ले। उस की शादी के वस्त्राभूषण उस की वसीयत में है कि उसे, ‘लोहड़ी‘ अर्थात बाद में आने वाली स्त्री पहने आदि।

‘मैं तो मरी होती राज मरी होती, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
बीछूड़ो डंक लगाय, गयो सा, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
आगे आगे चाले म्हारै वैद जी को लड़को,
पाछा सू आया म्हारा प्यारा लख पतियां, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
वैद जी बुलाया म्हारे डाक्टर आया,
पाछा सा आया म्हारे ससुरो सा,
पिलंगा पर बैठे म्हारे वैद जी को लड़को,
फरसा पर बैठे म्हारा आलीजा, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
नाड़ी तो देखे म्हारे वैद जी को लड़को,
टप टप रोवै म्हारा आलीजा,
म्हारे परणेतो कब्जा ने लोहड़ी पहरेगी। खा गयो बैरी बीछूड़ो,
म्हारे आलीजा सूं रंडवो मत खीजो, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
चार- चरा कून्या में गढ रहया,
म्हारी कैलासी के ब्याव में लगा दी जो।

भावार्थ: पत्नी को विषैले बिच्छू ने डस लिया है। अपना मरण निश्चित समझती हुई यह कह रही है कि मैं पति, ससुर सब की लाड़ली हंू। मुझे बचाने के प्रयत्नों में सम्मानित वै़द्य, डाक्टर, हकीम सभी लगे हुये है लेकिन मेरा बचना न हो। मेरे प्रियतम को कोई बछुआ कह कर न चिढावे अतः मैं उन्हे दूसरे विवाह की सलाह दे रही हूं तथा मेरी इच्छा है कि मेरी शादी के समय के वस्त्राभूषण मेरे बाद में आने वाली पत्नी को वे पहना दे। मेरी यह इच्छा है कि मेरी पुत्री कैलाशी की शादी मंे उस धन को खर्च किया जावे तथा किसी भी हालात में मेरे पति विधुर नही कहलायें।

  • उड़ जाउंगी मां पांख लगाय (राग: तिलक कामोद/ तालः कहरवा)
    रैगर बालिका अपनी मां से कहती है कि मां मुझ से कोई भी ईष्या क्यों रखे क्योंकि हम तो परदेशी चिड़िया है, पंख लगा कर उड़ जाने वाली है।

उड़ जाउं ओरी मां पांख लगाय,
चली जाउंगी री मां पांख लगाय,
थोड़ा सा दणा री पावणियां,
म्हारा दादा जी गढावे सोना सांकलयां,
म्हारी जीजा हो राज, मूड़े तो बोल,
अम्बर जैसी कोयलड़ी।
म्हारी काकाजी गढावे, सोना बोरला,
म्हारी काक्यां हो राज, मूड़े तो बोल
म्हें परदेशी चिड़कल्यां।
म्हारी बीराजी मढावै सोना झूठण्या,
म्हारी भौजायां हो राज, मूड़े तो बोल,
अम्बर जैसी कोयलड़ी,
म्हारा पड़ौसी चढावै सोना टेवट्या, म्हारी पड़ोसन हो राज, मूड़े तो बोल, महें परदेशी चिड़कल्या।

भावार्थ: ओ मेरी मां पंच लगा के उड़ जांउगी। मैं थोड़े से दिनो की मेहमान हूं। मेरे दादाजी, काकाजी, भाईजी, पड़ोसीय मेरे विवाह में देने हेतु क्रमशः सोने की जंजीर, झुठलिया, आदि जेवर घड़वाये हैं लेकिन मेरी काकी, भाभी, पड़ोसिन तथा मां ने इस पर अप्रसन्नता प्रकट की तथा मुझ से बोली भी नही। ओ मेरी मां मुझ से मुंह से तो बोल मैं परदेशी चिड़िया हूं, फुर्र से उड़ जांउगी। गांव में कन्या, न केवल उस के माता पिता को, सभी को प्यारी लगती है।

  • कोयल बाइ सिध चाल्या (राग: वृन्दावनी सांरग/ तालः दीपचन्दी)
    कन्या पक्ष की ओर से विवाह के समय स्त्रियां इस कोयलडी गीत को गाती है, क्यांे कि चैथे फेरे पर कन्या को पराई मान लिया जाता है। अतः खोला भरने जाती हुई, बाइ को विदाई के समय, करूण रस से पूर्ण निम्न गीत गाया जाता है:-
    म्हें थाने पूछां म्हारी कंवर बाइ ओ। अतरो बाबा जी रो लाड़, छोड़ बाइ, सिध चाल्या।
    आंबो पाक्यो ओ, आमली,
    पाक्यो-पाक्यो नीबूड़ा रो रूख, म्हे थाने पूछां ओ, राधा बाइ, इतरो बाबाजी रो हेत,
    छोड़ री बाइ सिध चाल्या, हे आओ परदेशी सूवटो, लेग्यो टोली में सूं टाल, कोयलड़ी अब बोलो आपरां माउजी रो लाड़ छोड़ रे बाइ सिध चाल्या।
    आयो सगां रो सूवटो, ले गयो टोली में सूं टाल, कोयल बाइ सिध चाल्या।

भावार्थ: आम, इमली पक गये तथा नींबूओं में रस भर गया, अर्थात कन्या युवती हो चली। ए बाइ अपने पिता का इतना स्नेह छोड़ कर तुम कंहा चल दी? अपनी माता का प्यार छोड़ कर कंहा जा रही हो? कन्या ने बताया कि समधाने से सूवटा अर्थात पक्षी मुझ कोयल को लिवाने आया है तथा वह पूरी टोली में से मुझे छांट कर ले जा रहा है। भारतीय संस्कृति की यह परम्परागत विवशता है कि कन्या को विवाह के पश्चात ससुराल, अपरिचितो में जाना पड़ता है, चाहे माता पिता ने कितने ही लाडो से उसे पाला हो।

  1. खाटू का श्यामजी : सीकर जिले के रींगस से 16 मील दूरस्थ खाटू के श्याम जी का मन्दिर है। यंहा फागुन सुदी 11, 12 तथा जेठ सुदी ग्यारस तथा बारस को मेला भरता है। महबली भीम के पौत्र बर्बरीक की स्मृति में यह मैला भरता है। श्याम जी की पुजी जाने वाली मूर्ति का स्वरूप राजपूती वेश में है। इस के पुजारी भी चैहान राजपूत है। इन को चुरमा का चढावा चढाया जाता है। जात, जडेूले के लिये यहां दूर दूर से यात्री आते है।

धन खाटू, धन सांवला नंदलाल, जी परभु, धन रै ढंूढाड़ी लोग, स्याम सुहावणा, बाबा स्याम,
कै रे कोसा में थारो देवरो, बाबा स्याम, जी, परभु, कै रे कोसां में जगाजोत, स्याम सुहावणा, बाबा स्याम।
अस्सी ऐ कोसां में थारो देवरो, बाबा स्याम,
जी परभु, सगली सिस्टी से जगाजौत,
कुण चिणयो थारो देवरो, बाबा स्याम,
जी परभु, कुण दिवाइ गज नीव।।
राजाजी चिणायों म्हारो देवरो, बाबा स्याम,
जी परभु, सेवकां दिवाइ गजनीव,
जात्री जो आवै थारै दूर का, बाबा स्याम,
जी परभु, सावलिया मोट्यार।।
जात्री आवै थारै कुलबहू, बाबा स्याम,
जी परभु, गोद जड़ूलै पूत।।
कुण्या जीे री गाड़ी हांकी, बाबा स्याम जी परभू,
संग कुण्याचद जी रो साथ।।
चढे अे चढालै थारै चूरमों, बाबा स्याम,
जी परभु, और चोट्यालां नाले र।।

भावार्थ: हे श्याम जी खाटू वाले! आप का मन्दिर किस ने बनाया, आप का प्रभाव क्षेत्र कितने कोसों में है ? खाटू श्याम जी आप का मन्दिर राजा जी ने बनाया तथा 80 कोस में इस मन्दिर का क्षेत्र है। प्रभु आप के यहां अनेकों यात्री आते है। कुल-वधुओं को आप के आर्शीवाद से पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है तथा आप के चुरमें का प्रसाद चढाया जाता है।

  1. घी ही पी रैगर जाति में विवाह के पहले, वर तथा कन्या को अपने अपने घर, घी तथा शक्कर पिलाई जाती है तथा उन की पीठ पर थप्पी देते है।

घी ही पी, म्हारा आछया लाड़ा घी ही पी, थारी दाद्यां पावे, माया पावै, डोर हिलावै।
हमसूं रलिया रंग करे।
मंजीरा बाजै घी ही गुड़ बाजै, वेला सबद सुणावै (म्हारा आछया)
थारी भुआ पावै, माम्या पावै, मास्यां पावै, डोर हिलावै।
म्हांसूं रंग रलिया करै, म्हारा आछया लाड़ा घी ही पी।

भावार्थ: मेरे अच्छे लाड़ले तू घी ही पी, तेरी दादियां, माताजी, भुआ, मामी, मांसी घी पिला रही है तथा मनोरंजन कर रही है, हंसी मजाक किया जा रहा है। विवाह के अवसन पर यह एक सामान्य प्रक्रिया है। इस गीत को काफी लम्बे समय तक गाया जाकर घी पिलाने की रस्म पूरी की जाती है।

  1. चटणी: रैगर जाति एक गरीब जाति रही है। साग भाजी के अभाव में मिर्च मसाले से बनी हुई चटनी से बाजरे की रोटी स्वाद पूर्वक खाकर वह आनन्दित हो जाया करती है।

चटणी में इमरत घोल ल्याइ नार, चटणी में।
बाजरियारी रोटी खाणे, चटणी म्हानै चोखी लागे।
तरसै तरसै दोनूं म्हारी जाड।
चटणी खाता खाता म्हारो मन नही धापै।
म्हारो जीवडो हो रहयो निहाल।
चटणी ढब सू पीसी, ढबसूं नान्ही-नान्ही पीसी।
जीवडा में छू की, ढब सूं राम रस भाख्यौ म्हारा स्याम। चटणी में ……।।
छीक छीक चटणी रोटी सूं जीमी जिण में, भरियों खटरस सुवाद।
उपर ठण्डो नीरज पीओ, म्हारो हिवेडो भयो ऐ निहाल, चटणी में ……।

भावार्थ: रैगर जाति के लोगो के लिये चटणी भी अमृत तुल्य हुआ करती थी। बाजरे की रोटी के साथ
खायी जाने पर वह और भी सुस्वाद बन जाती है।

  1. छोटी सो बन्नो आंगणा रे गिल्ली खेले (ताल कहरवा): रैगर जाति में पहले बहुत छोटी उम्र में ही विवाह हो जाया करता था। प्रस्तुत गीत में बनड़ा अर्थात पति तो बालक और पत्नी युवती है। ससुराल के घर के प्रांगण में जाकर भी बालक बन वह दूसरे बालको के साथ गिल्ली डंडा खेल रहा है।
    छोटो सो बन्ना, म्हारे आंगणिये में गिल्ली खेले,
    आंगणा में गिल्ली खेले, आंगणा में गुच्ची खोदे,
    पनिया भरन जाऊं कहे मन्ने गोदी लेले,
    मारूंगी बतियन की मार बालमो बचतो डोले,
    रसोई बनवण जाऊं, यूं कहे मन्ने गोदी लेले,
    मारूंगी फुलकनि की मार, बनड़ो भगती डोले,
    सेजां बिछावण जाऊं यूं कहे मन्ने गोदी लेले,
    मारूंगी छतियन की मार, बन्नो बचतो डोले।

भावार्थ: छोटा सा बन्ना, मेरा बालक पति, मेरे घर के आंगण मे गिल्ली डंडा खेल रहा है। जब मैं पानी भरने जाती हूं तो मुझे कहता है कि गोदी में उठा लो, मैं बातो बातो में उसे बहलाती हूं। रसोई बनाने जाती हूं तो भी गोदी में लेने की रट लगाता है। मैं उसे फुलकों की ऐसी मार मारूंगी कि मेरा बालक पति भगता फिरेगा। सेज बिछावे के समय मेरा छोटा सा प्रियतम मुझ से कहता है कि गोदी में ले लो। मेरा बालक पति नासमझ है। वह मेरे यौवन की मार भी क्या समझेगा या झेलेगा, वह बचता फिरेगा।

  1. बांगा म बाजे जंगी ढोल (राग मिश्र जयवन्ती/झिझोड़ी/ दीपचन्दी ): रैगर जाति में अन्य जातियों की तरह भात भरने का रिवाज है। इस गीत में भांजी के विवाह पर भात भरने पीहर से भाई आये हुये हैं। रेश्म की चुनरी को बहिन को औढाई गई है। अपने पीहर वालो के प्रति स्नेह, प्रेम तथा अपनत्व के उद्गार इस गीत में है।

बागां में बाजे जंगी ढोल (झालर झिणका करे जी),
दरवाजे बाजे शहनाई,
आयो म्हारी मां को जायो बीर,
चूंदड़ ल्यायो रेसमी जी (चूंदड़ ल्याओ मौज की जी),
नापूं तो हाथ पचास, तोलूं तो तोला तीस की जी,
(या साठ की जी),
ओढूं तो हीरा मोती झरपडै़, मेलूं तो डब्बो भर जाय,
(चूंदड़ ल्याओ),
ओढा म्हारे सुगना बाइ रे ब्याव जनेती देखे जीमता जी,
ओढा म्हारे लेाडकंवर रा ब्याव साजन देखे मुलकता जी,
धन ये गोरी थारो भाग, बीरो तो ल्यायो चूंदीडी जी।

भावार्थ: मेरे घर पर शहनाई तथा ढोल बज रहे है। मेरी लाडो बेटी का विवाह है। मेरा भाई जो भात में रेशम क चूंदड़ी लाया है। वह बहुत मंहगी है। हीरो से जड़ी है। नाचती हूं तो पचास हाथ की व तोलने पर तीस तोले की है। इसे पहन कर जब इतराती फिरूंगी तो जनवासे में आये बराती इस को शान से देखेंगे तथा मेेरे पति भी मुस्करा कर इस की प्रंशसा करेंगे। मेरे पीहर वालो की इस से शान बढेगी कि सभी लोग मेेरे लिये इतनी महंगी चूंदड़ी लेकर आये है।

  1. शीतला माता: शीतला मां की पूजा के लिये शीतला अष्टमी प्रति वर्ष आती है। इस दिन एक दिन पूर्व पकाया हुआ (बासी), भोजन (बाासोड़ा), खाया जाता है। शीतला के मन्दिर में कुम्हार पुजापा लेते है। माता जी के राबड़ी तथा ठण्डी रोटी आदि चढाई जाती है। शीतला मां कृपाकांक्षी, मां से पूत्र, पोत्र आदि सन्तानोत्पति के आर्शीवाद की अपेक्षा रखते है।

रामचन्द्र जी ओ, दरवाजा खोल, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
थां पै लेगी गडजोड़ा री जात, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
थाने देसी जी बेटा पोतारा जोड़, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
दशरथ जी यो दरवज्जो खोल, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,
म्हाने के फरमावे माता सीतला, थां जेसी राबड़ी रोटिया की जेठ,
थां पै मया ये करे छैः माता सीतला, थां पै मेहर करे छैः माता सीतला,

भावार्थ: ए भक्त, दरवाजा खोलो, तुम पर शीतला माता कृपा करने वाली है। तुम से केवल गडजोड़े की पूजा, बासी रोटी तथा राबड़ी के एवज में तुम्हारी गोद भरने हेतु बेटे देगी, पोता देगी।

  1. रंगीलो चंग बाजणो: इस गीत में रैगर जाति का विशेष बखान किया गया है। रैगर जाति चमड़े रंगने के अलावा जूती बनाना तथा चंग को मढने का काम भी किया करती थी। मेरे गांव रायसर में बांकी माता का बहुत पुराना मन्दिर पहाड़ी पर स्थित है। इस मन्दिर पर ढोल नंगाड़े आज भी बजते है। इन नंगाड़ो पर चमडा मंढने का काम केवल रायसर गांव के ‘रछोया‘ गोत्र के रैगर ही किया करते थे। इस गीत में होली पर चंग बजाने और उस पर चमड़े मंढने का विवरण है। राजस्थान में होली के त्यौंहार का विशेष महत्व है। होली का डांड बसन्त पंचमी से ही रूक जाता है। तभी से स्त्री पुरूष टोलियां बना कर होली के गीत गाने लगते है। कंही चंग नृत्य होता है तो कंही गींदड़ खेली जाती है। नीचे महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला एक लोकप्रिय गीत प्रस्तुत हैः –
    रंगीलो चंग बाजणू,
    म्हारे बीरो जी मंडायो चंग बाजणू,
    म्हारे रैगर मंड के लायो जी,
    रंगीलो चंग बाजणू,
    चंग आंगलियां बाजै,
    चंग मूंदडिया बाजै,
    चंग पूचे के बल से बाजै,
    रंगीलो चंग बाजणू,
    म्हारो बीरो जी बजावै चंग बाजणू,
    सारा साथिड़ा मिल गावै धमाल अे।
    रंगीलो चंग बाजणू,
    बाजत बाजत वो गया,
    कोइ गयो-गयो होलो डे रे पान ऐ,
    रंगीलो चंग बाजणू।
    भावार्थ: होली आ गई, रंगीलो चंग बज रहा है। मेरे भैया ने चंग मढवाया, रैगर मढ़ के लाया। चंग अंगुलियों से, उंगली में पहने हुये छल्लो से तथा हाथों की ताकत से बजता है। मेरा भाई अपने साथियों के साथ चंग बजाता है।
  2. लांगुरिया (राग: पीलू/ तालः कहरवा): राजस्थान के करौली क्षेत्र में देवी के सेवक या भक्त को लांगुर कहते है। किसी किसी का कहना है कि जिस प्रकार से बटुक नाथ भैरव की आराधना पश्चिमी, उत्तरी तथा दक्षिणी राजस्थान में की जाती है, उसी प्रकार पूर्वी राजस्थान तथा करौली क्षेत्र में लांगुरिया सिद्ध माना जाता है। कैला देवी के मेले पर लाखों स्त्री-पुरूष जिन में रैगर जाति के लोग भी होते है लांगुरिया की धुन पर विभिन्न बोलों के हेर फेर के साथ नाचते गाते देखे जा सकते है।

चरखी चल रही बर के नीचे, रस पीजा लांगुरिया, रस पीजा लांगुरिया अरे गुड़ खायजा लांगुरिया, चरखी चल रही……
पोखरिये की पाल़ पै, लम्बो पेड़ खजूर बापै चढके देखियो, मेरे बलमा कित्ती दूर, चरखी चल रही……..
राम-नाम तो सब कहे, दशरथ कहे न कोय, एक बेर दशरथ कहे, कोई अष्ट जज्ञ फल होय, चरखी चल रही….
चित्रकूट के घाट पर भइ सन्तन की भीर तुलसीदास चन्दन घिसे, तिलक लेत रघुवीर, चरखी चल रही…..
पत्ता टूट्यो डार तै, ले गई पवन उडाय, अबके बिछुड़े नाय मिलेंगे, दूर पड़िंगे जाय, चरखी चल रही….

भावार्थ: उक्त गीत मेेलो-ठेलों के अवसर पर गाया जाता है। नायिका कह रही है कि वटवृक्ष के नीचे गन्ने के रस की चरखी चल रही है, गुड़ बनाने की तैयारी है। अरे लांगुर, आकर रस पी जा और गुड़ खाले। इस के बाद विभिन्न प्रचलित दोहे गाये जाते है। इस गीत के गायन में रस की सहज निष्पत्ति होती है। इस धुन पर तथा गीत की चाल पर मनमौजियों ने कई प्रकार के लांगुरिया गीत गढ लिये है।

  1. लांगुरिया (राग पीलू/ ताल कहरवा) :
    केला मैया के भवन में घुटवन खेले लांगुरिया,
    छुटुवन खेले लांगुरिया कि सरपट दौड़े लांगुरिया,
    मैया तेरी गैल में ऊंचे नीचे पहाड़,
    जापै तू बैठी भइ है करिकै बन्द किंवार।
    केला मैया के भवन में घुटवन खेले लांगुरिया।।
    मैया तेरी गैल में सोना गढेरे सुनार,
    हमको तो कछुना घड़े मैया तोकू नवलखहार,
    मैया तेरी गैल में मटका घड़े कुम्हार,
    हमको जो कुछुना घड़े मैया तोकू कलसा चार।
    केला मैया के भवन में घुटवन खेले लांगुरिया।।
    तुलसी या संसार में भांति भांति के लोग,
    सबसे हिलमिल चालिये, कोइ नदी नाव संजोग।
    केला मैया के भवन में घुटवन खेले लांगुरिया।।

भावार्थ: केला देवी के भवन में सेवक, बाल स्वरूप, बटुक स्वरूप, भक्तगण दौड़ते फिरते है। मैया के मन्दिर के रास्ते में ऊंचे नीचे पर्वत है जहां केला देवी अपने स्थान पर विराजमान है। यह गीत इसी प्रकार दोहे जोड़ कर गाया बजाया जाता है।

  1. सात फेरे : अग्नि को साक्षी मान कर विवाह रैगर जाति में सम्पन्न होते है। हवन कुण्ड के चारो तरफ सप्तपदी की रस्म होती है तथा फेरे लिये जाते है। रैगर जाति में निम्नलिखित गीत फेरों के समय स्त्रियां गाती है। यह गीत बहुत सरल है इस लिये भावार्थ पृथक से लिखना आवश्यक नही है। इस गीत का अर्थ यही है कि सातवें फेरे के बाद कन्या मां-बाप की नही रह कर पराई हो जाती है जो कि वास्तविकता है चाहे कितनी ही घर वालो की लाडली बच्ची क्यों न हो। रैगर जाति में जब लड़की की विदाई होती है और लड़की रौती है तो औरते प्रायः उस को यह समझाती है कि राजा महाराजों के भी बेटियां पराई हो जाती है। तू तेरे ससुराल में खुशी खुशी जा और अपना नया संसार बसा।

पहलो तो फेरो ए, लाडी बाबासा री प्यारी,
दूजो तो फेरो ए, लाडी, दादासा री प्यारी,
तीजो तो फेरो ए, लाडी, काकासा री प्यारी,
चैथो तो फेरो ए, लाडी बीरा जी री प्यारी,
पांचवो तो फेरो ए, लाडी, मामाजी री प्यारी,
छठो तो फेरो ए, लाडी मावसा जी री प्यारी,
सातवों तो फेरो ए, लाडी हुई री पराई।
लाडी लगौ सहेलियां मय टाल, बागां मेली कोयल, ए लाडी आयो सगा जी रे डाबरो….

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