समाज की उत्पत्ति : आदिकाल का मानव ही हमारे समाज का जन्मदाता है । समाज शब्द ‘सभ्य मानव जगत’ का सूक्ष्म स्वरूप एवं सार है । सभ्य का प्रथम अक्षर ‘स’ मानव का प्रथम अक्षर ‘मा’ जगत का प्रथम अक्षर ‘ज’ इन तीनों प्रथम अक्षरों के सम्मिश्रण से समाज शब्द की उत्पत्ति हुई, जो सभ्य मानव जगत का प्रतिनिधित्व एवं प्रतीकात्मक शब्द है ।
समाज की संज्ञा : एक से अनेक व्यक्तियों के समूह को परिवार तथा एक परिवार से अनेक परिवारों के समूह प्रतिनिधित्व को समाज की संज्ञा दी गई है ।
समाज का निर्माता : बन्धु ही समाज का सच्चा निर्माता, सतम्भ एवं अभिन्न अंग है । बन्धु, समाज का सूक्ष्म स्वरूप और समाज, बन्धु का विशाल स्वरूप है । अत: बन्धु और समाज एक-दूसरे के पूरक तथा विशेष महात्वाकांक्षी है ।
”जिसको न निज गौरव तथा निज जाति पर अभिमान है ।
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान ।।”
हमारा भारत देश 22 प्रदेशों और 7 केन्द्र शासित क्षेत्रों में बंटा हुआ है । देश के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग जाति धर्मों और जातियों के लोग अनेक संस्कृतियों को संजोए हुए इस देश में रहते हैं, लेकिन जनसंख्या के आधार पर देखें, तो हमारी रैगर जाति देश की संख्या लगभग 3 करोड़ है जोकि देश की आबादी की लगभग 2.5 प्रतिशत है और इसमें भी खास़ विशेषता यह है कि रैगर जाति के लोग जिला, तहसील या ब्लाक स्तर पर ही नहीं, अपितु प्रत्येक गाँव में मिलेंगे, विशेष कर राजस्थान में, आमतौर पर इनकी आबादी गांव के बाहर अर्थात् आखरी में एक बस्ती या मौहल्ले के रूप में बसी होती है । ओर इस मौहल्ले या बस्ती को जाति के नाम से ही पुकारा जाता है जैसे कि ‘रैगर मौहल्ला’ । अभी भी गाँवों में हमारी जाति के लोग अधिकतर कच्चे मकानों में रहते हैं । कही कही पर आज भी दूसरी जाति के कुँओं पर पानी भरना और मंदिर में प्रवेश करना प्रतिबंधित हैं । शहरों की बात छोड़ दें, तो ग्रामीण क्षेत्रों में शोषण और उत्पीड़न में कोई खास़ कमी नहीं आई है । आज भी बारात में दूल्हा घोड़े पर बैठकर नहीं चल पाता उसे ठाकुरों और जमीदारों के घर या मंदिर के सामने घोड़े से नीचे उतरकर उनके पेर पड़कर आर्शिवाद लेने का ढोंग करना पड़ता है ।
हमारी रैगर जाति को पुरे भारत में विभिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है वे इस प्रकार है – रैगर, रेगर, रेहगर, रेगड़, रेगढ़, रेयगर, रायगर, जटिया, सिंधी जटिया, बोला, जात-गंगा, एवं लस्करिया रैगर । लेकिन जाति का वास्तविक एवं मूल नाम ” रैगर ” है । ‘रैगर समाज’ को रंघड़ राजपूत के नाम से भी जाना जाता था । राजस्थान के कई क्षेत्रों मे रैगर समाज को रैगर जटिया व जटिया समाज के नाम से भी पुकारा जाता है, लेकिन इतने तरह के नामों के बाद भी हमारा रैगर समाज एक है ।
रैगर समाज के लोग आपस मे मारवाड़ी में बातचीत करते है एवं दूसरों के साथ बात करने के लिये हिन्दी भाषा का उपयोग करते है । भोजन मे ये शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों ही प्रकार के होते है । खाने मे यह समाज गैहु, बाजरा, जौ, चावल एवं चना का मुख्य रूप से उपयोग करते है लेकिन मुख्य तोर पर गेहूं प्रधान आहार लेते है । कुछ लोगों ने आर्य समाज एवं राधा स्वामी जी के विचारों से प्रेरित हो कर पूर्ण रूप से शाकाहारी बन गये है । आज के आधुनिक युग में रहन-सहन साधारण स्तर का है और पहनावे में धोती-कुर्ता, बगतरी साफा तथा पावों में कड़े का प्रयोग करते हैं ।
रैगरों में शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व जागृति आई है, और इसी कारण इस जाति के काफी लोग केन्द्र और राज्य सरकारों की सेवाओं में हैं । लेकिन फिर भी अधिकांश आबादी खेत-मजदूरों के रूप में ही कार्य करती है । डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित होकर लाखों लोगों ने बुद्ध धर्म की दीक्षा ली है, लेकिन हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डों से अपने आपको अभी तक मूक्त नहीं कर पाए है । बुद्ध और अम्बेडकर को तो मानते हैं, परन्तु उनके उपदेशों को जीवन में नहीं उतार पाए है । जहाँ तक पूजा-पाठ की बात है, वे हिन्दू पद्धति से ही इन दोनों महापुरूषों के चित्रों के सामने मोमबत्ती जलाते हैं और फूलों की माला पहनाते हैं । विवाह एवं अन्य शुभ अवसरों पर ब्राह्मणों को तो आमंत्रित किया जाता है और वैदिक परम्परा का निर्वाह करते हुए वैदिक मंत्रों का उच्चारण के साथ इन अवसरों का समापन होता है । हिन्दू धर्म के अनुसार ही सारी परम्पराओं का निर्वाह करते हैं । गंगा माता व बाबा रामदेव की असाध्य देव के रूप में उपासना व पूजा की जाती है और साथ ही जहां पर भी रैगर जाति के लोग निवास करते हैं वहां पर आपको बाबा रामदेव जी व गंगा माता के मंदिर अवश्य मिल जाएंगे । शादी-ब्याह-विवाह, पूजा-पाठ आदि अवसरों पर अथवा देवी-देवताओं को खुश करने के लिए पशुबली की प्रभा चली आ रही है जो अभी भी समाज में व्याप्त है । यंत्र, मंत्र, तंत्र में बराबर इनकी आस्था बनी हुई है । जहाँ चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहाँ इलाज के नाम पर टोना-टोटका और झाड़-फूंक बराबर चल रहे हैं ।
रैगरों में विवाह सम्बंध करते समय अपने दादा, दादी, नाना, नानी, आदि के गोत्रों को छोड़कर विवाह किया जाता है । गॉवों मे सगाई (रिश्ता तय) बचपन मे ही 10-12 वर्ष की उम्र मे ही कर दिया जाता है, समाज में बाल विवाह की भी प्रथा अभी भी प्रचलित है लेकिन कम उम्र में शादी कर देने के बावजूद वे अपनी बेटी को बालिग हो जाने पर ही उसे गोना कर ससुराल भेजते है । लेकिन अब नई पीढ़ि के द्वारा इस प्रथा का विरोध किया जाने लगा है एवं जागरूकता के चलते अब विवाह बालिग होने पर ही किया जाने लगा है । शादी दुलहन के घर पर हिन्दू रिति-रिवाजों से होती है । दहेज के रूप मे इलेक्ट्रानिक उपकरण, घर मे काम आने वाले बर्तन, पलंग, बिस्तर, एक पितल की बडी थाली, काशी की थाली और लोठा मुख्य रूप से दिया जाता है । शादी हो जाने के पश्चात् वर-वधू कुल के देवी देवताओं की पूजा करवायी जाती है इस प्रकार शादी की मुख्य रसमे निभाई जाती है । कही-कही पर समाज के सक्रिय बुद्धिजीवियों द्वारा सामुहिक विवाह सम्मेलन का आयोजन भी समय-समय पर किया जाता है जिसमे अनाथ बच्चों की शादी बिना कोई शुल्क लिये की जाती है ।
रैगर समाज मे कूल के देवी-देवता जैसे पुरवज बावजी, भेरू बावजी, ड्याडी माता (कुल देवी) एवं झूणजी बावजी की पुजा मुख्य तोर से की जाती है एवं हिन्दू पूजा पाठ के अनुसार मुर्तिं पुजा दैनिक रूप से की जाती एवं साथ ही साथ सभी हिन्दू देवी देवताओं को माना जाता है एवं गंगा माता एवम् भगवान श्री रामदेव बाबा (रूणिचा वाले) के गॉव-गॉव मे मंदिर है मंदिर मे पूजा-पाठ पंडित रखवा कर किया जाता है, संत रविदास, कबीर दास के भजन गाये जाते है, इन सभी को विशेष तोर से माना एवं पूजा जाता है एवं इन देवताओं संबंधित त्यौहारों पर भजन-किर्तन आयोजन कर विशेष रूप से हर्षों उल्लास के साथ मनाया जाता है, समाज मे यज्ञ, हवन, कथा, भजन मंडली का आयोजन भी किया जाता है हिन्दू समाज के सारे धार्मिक त्यौहार जैसे मकर सकरांती, होली, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, गणेश जन्मोत्सव, नवरात्री, दशहरा, दीवाली, गंरगोर की तीज, शिवरात्री, आदि त्यौहारों को विशेष तोर से मनाया जाता है । समाज के बंधुओं का अपने पूर्ण जीवनकाल मे एक बार जरूर चार धाम की यात्रा करने का महत्व मानते है ।
मृत्यु के संदर्भ मे लेख है कि मृत्यु होने के पश्चात् उसका दाह संस्कार हिन्दू रीति-रिवाज़ों से किया जाता है एवं दाह संस्कार के तीन दिन बाद बची हुई हड्डियों को इकठ्ठा कर गंगा नदी मे विसर्जित किये जाने की मान्यता है । मृत्यु के बारह दिन पश्चात् जाति भोज रखा जाता है जिसे मौसर या घाटा कहा जाता है लेकिन अभी कुछ वर्षों पूर्व शासन के निर्देशानुसार मौसर पर कानूनी तोर पर प्रतिबंध लगा दिया गया है । लेकिन अभी भी कही-कही मौसर हो रहे है ।
रैगर समाज में पुरानी परम्पराओं, मान्यताओं, कुरीतियों और विशवासों ने अभी भी ऐसी पकड़ बना रखी हैं, जिस पर बुद्धिजीवी और प्रगतिशील लोगों का कोई असर नहीं हो रहा है । यह शिक्षा की कमी ही समझिए कि ऐसे लोगों से द्वेषभाव रखने वालों की संख्या ज्यादा है, और ऐसे लोगों को समाज के रूढ़िवादी लोगों का विरोध बराबर झेलना पड़ता है, क्योंकि उसे अपना जैसा बनाने में ही ये अपनी सारी ताकत लगा देते हैं, और विकास की गतिविधियां आगे नहीं बढ़ पाती । बहुत छोटी-छोटी सोच और लालच, उनकी अपने तक सीमित सोच ही समाज की राह में भी बहुत बड़ी बाधा है । शराब आदि नशीले प्रदार्थों का सेवन करने वालों की संख्या बढ़ती जा रहीं हैं । जिसका फायदा दूसरे लोग उठातें हैं और इनका जमकर शोषण करते हैं ।
आर्थिक दृष्टि से 10 प्रतिशत से भी कम लोग ठीक-ठाक कहे जा सकते हैं और लगभग 30 प्रतिशत को बीच की श्रेणी में रखा जाता है और 60 प्रतिशत शेष बचते हैं, उन्हे सराकरी भाषा में कहे तो गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में ही रखा जा सकता है ।
प्राय: यह देखने में आता है कि रैगर जाति के अधिकांश लोग अपनी जाति को छिपाकर रहते हैं और रखते हैं और अगर कहीं जाति बताने का प्रश्न आता है तो जाति को बताने में बहुत ही दुविधा महसूस करते है और अगर बताते भी है तो, वो भी हिचकिचाहट के साथ आधी-अधुरी ही बातते है टालमटोल के साथ । तब दूसरे लोग इसे आपकी कमजोरी ही समझते हैं । यह प्रवृति शिक्षित और धनी लोगों में अधिक पाई जाती है, जबकि हमारी रैगर जाति संस्कृति, इतिहास, तर्कशीलता, बुद्धिमतता, तर्कशीलता, ईमानदारी व कर्मठता की दृष्टि से अन्य जातियों की तुलना में किसी भी रूप से कम नहीं है, फिर जाति को स्पष्ट रूप से बताने में लज्जा किस बात की, गर्व क्यों नहीं ? जब भी कोई जाति पुछे तो आप गर्व से कहे की ”मैं रैगर हुँ!” और अपनी इस हीन भावना का परित्याग कर देंवे । स्वयं को रैगर बताने में गौरव का ही अनुभव करे ।
वैसे तो रैगर समाज के लोगों में डॉक्टर, इंजीनियर, समाज-सुधारक, लेखक, पत्रकार, अधिकारी, कर्मचारी, वक्ता, अधिवक्ता, नेता, शिक्षक, कलाकार, साहित्यकार, चिन्तक, विचारक, व्यापारी, उद्योगपति आदि भरपूर मात्रा में विद्यमान है, जो शैक्षिक और आर्थिक रूप से परिपूर्ण होने के कारण बड़े लोगों में शामिल माने जाते हैं, लेकिन अधिकांश संख्या तो गरीबों की है, जो अभी भी अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिला पाए और अभावों से भरी जिन्दगी जीने को विवश हैं, वे दूसरों की नजर में ही नहीं अपनी नजर में भी छोटे हैं । उनको भी आगे बढ़ाने के लिए तथाकथित बड़े लोगों को अवश्य प्रयास करने चाहिए, जिससे समाजिक दृष्टि से उन्हें भी बाराबरी का आभास हो सके ।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने मानवीय आधार पर समता, बंधुता और न्याय से ओत-प्रोत जीवन की नई परिभाषा गढ़ी और उनके अथक प्रयासों से लाखों लोग इस स्थिति में आ गए हैं कि यदि वे अपने सामाजिक दायित्व को थोड़ा भी वहन करें, तो हजारों लोगों को बेहतर स्थिति में ला सकते हैं । तात्पर्य यह है कि सामाजिक और आर्थिक बराबरी का दिवास्वप्न साकार हो सकता है । शिक्षा और रोजगार के समानान्तर विकल्प विकसित करने होंगे, शिक्षा अर्थतन्त्र का आधार है, इस पर सबसे ज्याता तवज्जों देने की जरूरत है । तथा गत गौतम बुद्ध ने हजारों साल पहले कहा था – ”अपना दीपक आप बनो”, इस पर अमल किये बिना बात बनने वाली नही है । अगर आप ने उच्च शिक्षा को प्राप्त कर लिया तो आपको मान-सम्मान भी अलग से मिलगा, बस जरूरत है थोड़े से साहस की और समाज के प्रति संवेदना की । हजारों लोग प्रतिवर्ष सेवानिवृत हो रहे हैं, यदि वे अपने अर्जित ज्ञान और अर्थ का समुचित उपयोग करने की ओर अग्रसर हों तो वे न केवल सामाजिक ऋण से मुक्त होंगे, बल्कि उनका शेष जीवन स्वस्थ, आनन्द, सम्मान से भरपूर होगा, जो सार्थकता की वास्तविक कसौटी है और शिक्षित तथा सम्पन्न होने की असली पहचान है ।
यह हमारा समाज है कि जो हमारे लिए आगे बढने के लिए उत्प्रेरक का काम करता है । अगर समाज का डर न हो तो इंसान इंसान नहीं रह सकता । हम तो खुद कैसे भी अपना जीवन बिता लेंगे । फिर जिंदगी के दरिया में कहीं न कहीं किनारे पर लग कर अपना जीवन व्यतीत कर ही लेंगे । अब क्योंकि हम इस समाज के महत्वपूर्ण अंश है, इसलिए हम हर पल समाज के आगोश में रहते है । समाज की बंदिशों का डर रहता है कि हम किसी भी काम को करने से पहले बहुत बार सोचने को मजबूर हो जाते है । अगर हमारी वजह से कोई गलत काम हो गया, तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेगे, फिर हमारे माता-पिता व हमारा परिवार समाज से कट भी सकता है और यही छोटी-छोटी बातें हमको कुछ सकारात्मक व सार्थक करने के लिए प्रेरित करती है । निम्न व मध्यम वर्गीय परिवारों की तरक्की के रास्ते समाज ही दिखाता है । जबकि उच्च वर्गीय परिवारों को समाज की कोई परवाह नहीं होती है, उनको लगता है कि वह समाज से ऊपर है । यह अलग बात है कि अपवाद हर जगह पर हो सकते हैं । बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के लंबे सफर में सबसे बेशकीमती युवावस्था का समय हमारी जिंदगी का महत्वपूर्ण पड़ाव होता है, और इसी पडाव पर हमको बचपन की सुनहरों यादों के साथ सपनों को साकार करने प्रयास करना चाहिए, ताकि हम वृद्धावस्था में अपने समाज में गर्व से कह सके कि देखो और समझो हमने जिंदगी के दरिया में मजबूत व दृढ इच्छा-शक्ति के बल पर तैर कर अपने लिए वह मुकाम हासिल किए है, जो कामयाबी के शिखर बन गए । अगर हमने युवावस्था में समाज की परवाह नहीं की, तो ऐसा हो सकता है कि वृद्धावस्था में समाज हमारा साथ छोड दे और हम अकेले रह जाए, जिंदगी के आखिरी मोड पर । इसलिए जरूरी हो जाता है कि हमको अपना कल को संवारने के लिए आज समाज को सम्मान देकर और उससे प्रेरणा लेते हुए आगे बढने की कोशिश की जाए ।
हमारा समाज तो हम सब के लिए एक अच्छी और साफ़-सुथरी जिन्दगी जीने का मुख्य आधार है, अगर हम समाज को दरकिनार करेंगे तो हमारा जीवन एक नरक की तरह बन जाता है, निजी जीवन जीने के लिए आज कल पैसा ही सब कुछ है, पर समाज में भी रहना जरुरी है, जीवन में आदमी महान कब होता है जब इज्जत-मान-मर्यादा हर आदमी का अपना परिवार होती है, इसके लिए समाज बहुत जरुरी है, अपने कल संवारने के लिए आज समाज को सम्मान देकर और उससे प्रेरणा लेते हुए आगे बढने की कोशिश की जाए ।
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