हम उस समय की बात कर रहे है जब समस्त भारतवर्ष शताब्दियों की परतन्त्रता के पश्चात् नई करवट लेने की तैयारी में था। सामाजिक क्षेत्र में भारतवर्ष में कई मतामतान्तर प्रचलित थे जिनमें हिन्दू, सिख, मुसलमान, ईसाई आदि जातियां मुख्य थी । हिन्दू जाति में संकीर्णता अपनी चरम सीमा को पार कर गई थी। कोई हिन्दू व्यक्ति समुद्र की यात्रा कर लेता था तो उसे अपवित्र मानकर जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। हिन्दू समाज में छुआछुत की बीमारी अत्यंत विकट रूप धारण कर चुकी थी । अछुत की छाया पढ़ने पर भी धर्म भ्रष्ट हो जाता था । अछुत का किसी भी सार्वजनिक स्थान पर जाना वर्जित था । हिन्दू समाज ने ‘नार्यस्तु यत्र पुज्यंते तत्र रमन्ते देवता’ के उद्घोष को भूलकर नारी को केवल चार दिवारी की वस्तु बना दिया था । नारी को जो अधिकार वैदिक काल में एवं उसके पश्चात् शताब्दियों से प्राप्त थे पदच्युत कर लगभग समस्त अधिकारों से वंचित कर दिया था । उसका गृहणी रूप प्रधान एवं जीवन संगनी रूप गौण हो गया था । परदा प्रथा का प्रचलन जोर था ।
जैसे कि आपने इतिहास की पुस्तकों में पढ़ा होगा कि आर्यों की सामाजिक व्यवस्था अर्थात वर्ण व्यवस्था से चार वर्णों में समाज विभाजित हो गया था । यह वर्ण व्यवस्था आरम्भ में कार्य के आधार पर बनी थी किन्तु बाद में जन्म के आधार पर बन गई और धीरे-धीरे जाति व्यवस्था का विकृत रूप ले लिया । ऐसे समय में जबकि हिन्दू समाज अपने प्रत्येक रूप में अपनी निकृष्टतम अवस्था को प्राप्त हुआ था अछूतों की दशा का जो सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं आर्थिक प्रत्येक क्षेत्र में अपने से उच्च कहे जाने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य तीनों वर्णों से हमेशा से ही पिछड़ा रहा है जिससे इनकी अवस्था का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है । शूद्र अथवा अछूत जो कि आगे चल कर हरिजन भी कहलाए गए समाज के विभिन्न अंगों से इस प्रकार काट दिए गए कि उनका स्थान समाज से बिल्कुल दूर कर दिया गया औ केवल वह निकृष्ट कार्यों के लिए ही उपयुक्त समझे जाने लगे । फिर ब्राह्मण वाद के बढ़ते प्रभाव के कारण शूद्रों पर नाना प्रकार के अत्याचार उत्तर वैदिक काल से ही आरम्भ हो गये थे । उनके लिए कुओं पर पृथक इन्तजाम था जहाँ पर नालियों के द्वारा पानी पिलाया जाता था । देवस्थानों पर जाना लगभग वर्जित ही था । शूद्रों का निवास स्थान गाँव के बाहर एकान्त में होने लग गया तथा आने-जाने के मार्ग अलग कर दिये गये उन्हे पूजा-पाठ, अध्ययन एवम् अन्य मानवी अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया । वे अपनी इच्छा के अनुसार कोई कार्य नहीं कर सकते थे और न अच्छा खान-पान कर सकते और न ही वस्त्राभूषण पहन सकते थे । उन पर कई प्रकार की बेगार थोप दी गई । उन्हें अकारण प्राण दण्ड भी दे दिया जाता था जिसकी सुनवाई नहीं होती थी ।
रैगर समाज जो अछूत जातियों का ही एक अंग था उनकी सामाजिक अवस्था अत्यंत सोचनीय थी । इस समाज की प्रमुखत: जनसंख्या राजस्थान की देशी रियासतों, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, सिंध हैदराबाद (पाकिस्तान) एवं दिल्ली में प्रवासित थी । राजस्थान में इनकी हालत अत्यंत ही दुखद एवं पशुवृत थी । कोई भी रैगर स्वतंत्रतापूर्वक कहीं आ जा नहीं सकता था । कुओं से पीने के लिए पानी नाली द्वारा पिलाया जाता था । अपने उत्साह के अवसरों पर किसी प्रकार का भी वाद्य यंत्र का प्रयोग (जैसा कि विवाह आदि अवसर पर घोड़े एवं बाजे का प्रबन्ध) नहीं कर सकते थे । दुल्हे को घोड़े पर बैठने नहीं दिया जाता था । मेहमानों को स्वर्ण व्यक्तियों के सामने खाट पर नहीं बैठा सकते थे । कोई भी रैगर जूतियां पहनकर गाँव के उच्च लोगों के घरों के सामने से नहीं निकल सकता था । इसके अतिरिक्त जब भी ग्राम की पंचायतों में इन्हे बुलाया जाता तो दूसरे लोगों के जूते चप्पलों पर बिठा कर सवाल जवाब किये जाते थे । साईकिल पर सवारी नहीं करने दी जाती थी और उतार दिया जाता था । वह छाता लगाकर या कंधे पर लाठी रख अन्य लोगों के सामने से नहीं जा सकता था व भोज में लड्डू आदि नहीं बना करते थे । महिलाएं चाँदी के जेवर नहीं पहिन सकती थी । पुराने लोगों से सुनने में आता है कि जमीन पर थूकना भी मना था इसके लिए गले में एक हान्डी (मटकी) बांध दी जाती थी । इन सब बातों के प्रतिकूल कोई भी रैगर आचरण नहीं कर सकता था । यह सब बातें उनको प्रकृतिदत्त ही प्रतीत होती थी । इसका विमोचन केवल भाग्य के अधीन एवं भगवत्कृपा पर ही समझते थे ! और फलस्वरूप किसी भी प्रकार का कोई व्यक्तिगत प्रसास नहीं करते थे क्योंकि भय था सामूहिक शक्ति के द्वारा पूरी तरह कुचले जाने का ।
इसके अतिरिक्त रैगर लोगों में भाईचारा अर्थात सौहाद्र एवं प्रेम नहीं था एवं एकता का भी नितान्त अभाव था । इनकी इस प्रवृति से एक दूसरे की कठिनाईयाँ अधिक उग्र होती गई । इनके आपसी झगड़ों से अन्य जातीय लोगों को बहुत लाभ होता था ।
रैगर बन्धुओं की स्वयम् की दशा भी बड़ी दयनीय थी । रंगत के कारण सारे कपड़े हाथ-पाँव व नाखुनों पर मेंहदी सी रची रहती थी । घरों के बीच में कूंडे व भेवणिया होती थी । घरों के पास कच्ची गीली खाले होती व अन्य कई प्रकार की गंदगी फैली रहती थी जिससे बस्ती में काफी बदबू होती थी । घरों में सींगों की खूटियाँ होती थी । स्त्रियों के पीतल के जेवर होते व कपड़े गंदे होते थे । साफ-सफाई का लोग कतही ध्यान नहीं रखते थे । तत्कालीन रैगर समाज में कई प्रकार की कुरीतियों का साम्राज्य था । जिसके कारण समाज निरन्तर पतनोन्मुख होता जा रहा था । सारा का सारा रैगर समाज बहुत निर्धन होता जा रहा था । इनका किसी भी प्रकार का कोई व्यापार एवं उद्योग नहीं था अपितु मजदूरी, खेती, चर्म व्यवसाय आदि ही मुख्य जीवनोपार्जन के साधन थे । इन्हीं परिस्थितियों में समाज में उपस्थित कुरीतियों पर रैगर बन्धु मुक्त हस्त से अपव्यय कर रहे थे जिनसे इनके आर्थिक हालात जीर्ण शीर्ण होते जा रहे थे । इस प्रकार रैगर समाज कुरीतियों एवं अपव्यय दोनों परिस्थितियों में बुरी तरह से पिस रहा था । यहाँ समाज में जिन कुरीतियों का आधिपत्य था उनमें से मुख्य-मुख्य कुरीतियों की ओर ही ध्यान ले जाना पर्याप्त होगा इनमें से कुछ निम्नानुसार है-
रैगर समाज में बहुत सी कुरीतियां इस समय व्याप्त थी उनमें सबसे अधिक विवाह की प्रथा थी । विवाह में भी मुख्य रूप से बाल -विवाह एवं अनमेल-विवाह की समस्याएँ थीं । समाज में विवाह-संस्कार अधिकतर मद्यपान पर बैठे हुए लोगों द्वारा बोली देकर ही हो जाते थे और फिर वचन को अन्त तक निभाते थे । यदि उस समय पर दृष्टि डाली जाय तो हमें सैकड़ों घटनाओं का पता चलेगा जहां पर दूल्हा-दुल्हन को गोद में लेकर विवाह वेदी पर लाया जाता और उनके माता पिता उन्हें गोद में लेकर उनका विवाह कर दिया जाता था ।
विवाह का दूसरा पक्ष था अनमेल विवाह । समाज में निर्धनता एवं अदूरदर्शिता के कारण बहुत से विवाह ऐसे भी देखे गए जहाँ पर अनमेल विवाह के कारण परिवारों का सुख-चैन समाप्त हो गया एवं गृहस्थियां उजड़ गई । अनमेल विवाह में कई तो ऐसे विवाह थे जहां पर एक मासूम बालिका को एक अधेड़ या वृद्ध के साथ ब्याह दिया जाता था कुछ दिनों पश्चात् जब प्रकृति का नियम लागू होता था उस समय वह विधवा स्त्री कुटुम्बियों के लिए बोझ बन जाती थीं कुटुम्बियों के बुरे व्यवहार से दु:खित होकर वह समाज के एक बहुत ही अच्छे नियम, जिसे कोई भी हितचिन्तक निसन्देह उत्तम एवं कल्याणकारी कहेंगे और जिसके अभाव में समाज अनगणित बुराईयों का शिकार हो सकता था, विधवा विवाह अर्थात् ‘नाता’ के आश्रय होती थी । और इस प्रकार स्त्री दूसरा पति करने के लिए बाध्य होती थी । इस प्रकार इस विवाह के कारण एक दो गृहस्थियों का ही नाश नहीं हुआ अपितु समाज की कई होनहार सन्तानों एवं कई खिलते पुष्पों का पराग समाज की इस कुरीति ने अपने कठोर प्रहार से समाप्त कर दिया ।
विवाह से सम्बन्धित कई कुरीतियों और थीं जिनमें मुख्य रूप से है विवाह में लेन-देन की प्रथा का होना । विवाह आदि के अवसरों पर सभी समाजों में लेन-देन की प्रथा होती है और इसका होना रैगर समाज में कोई अनोखी बात नहीं थी । परन्तु अनोखी बात तो यह है कि रैगर समाज में दूसरी जातियों के विपरीत बेटी वालों का बेटे वालों से रूपए लेना था । और इस धन को बरातियों को पांच-पांच ओर कई बार तो इससे भी अधिक दिन तक रोक कर शराब आदि में अपव्यय करना । इससे समाज पर दो प्रकार का प्रभाव पड़ता था । एक तो निर्धन समाज का पैसा जीवनोपयागी कार्यों में न लग कर उसकों व्यर्थ के कार्यों में नष्ट कर देना । दूसरा था उस कन्या को जिसके पिता ने विवाह में पति से पैसे लिए ससुराल में जा कर समूचित सम्मान का प्राप्त न होना । उसे कई प्रकार की यातनाएं सहनी पड़ती थी । यह पैसा जहाँ पर कर्ज आदि लेकर या अपनी सम्पत्ति को गिरवी रखकर बटेड़े, पिया, बारोठी आदि बेटे वाले की तरफ से दिए जाते थे वहां पर तो इसका परिणाम और भी विषाक्त होता था । इस प्रकार नस प्रथा ने समाज को बहुत हानि पहुँचाई और कई परिवारों का सुख चैन इस प्रथा पर बलि हो गया ।
मौसर अर्थात् मृत्यु के पश्चात दिया गया भोज जाति में उस कौढ़ की तरह है जिस पर अभी तक नस्तर का प्रयोग भी नहीं किया गया एवं वह अपने आप भी नहीं फूटा जिसमें अन्दर ही अन्दर पीप इकट्ठी होती जा रही है एंव अत्यन्त दु:ख दे रही है । इस प्रथा का प्रचलन सम्भवत: उसी सम्प्रदाय ने किया था जो कि अपने आप अपना पेट पालन नहीं कर सकता एवं सदियों से वह समाज के ऊपर एक प्रकार के भार स्परूप ही है ।
मृत्युभोज के कारण समाज की कितनी हानि होती है इसका अनुमान तो केवल इसी से लगया जा सकता है कि इस निर्धन समाज में जब गृहस्थी अपना पेट भरने के लिए ही अथक प्रयत्न करते है और फिर लोग इसको इतने बड़े पैमाने पर करते है कि आस-पास की बारह कोस की दूरी के सभी सजातीय गृहस्थी आमन्त्रित किए जाते है । इस कार्य को करने के लिए कई बार अपने मन के विपरीत कार्य करना पड़ता है । कभी सम्बंधियों के द्वारा उन पर दबाव डाला जाता है । कभी समाज का और कभी-कभी केवल अपनी झूठी मान मर्यादा के लिए ही लोग इस कार्य को सम्पन्न करते हैं । इस कार्य की विकटता उस समय और भी अधिक हो जाती है जब मौसर करने वालों को उसके लिए साहूकार से कर्ज लेना पड़े । और इस प्रकार दरिद्रनारायण की कृपा उन पर पीढ़ियों तक चलती चली जाती है ।
मृत्युभोज के अतिरिक्त इसी के समान एक और विलक्षण प्रथा रैगर समाज में प्रचलित थी और आज तक चली आ रही है वह है गंगोज एवं कोली आदि । रैगर जाति में गंगा को अत्यधिक मान एवं सम्मान की नजर से देखा जाता है गंगा जाति में कुलतारन देवी मानी गई है । अत: रैगर बन्धु जब गंगास्नान करने जाते हैं तो अपने सभी बन्धुओं को अत्यधिक धूमधाम के साथ्ज्ञ ले जाते है । गंगा स्नान के लिए सभी रैगर बन्धु हरिद्वार के अतिरिक्त जिस स्थान पर जाते है वह विशेष ध्यान देने योग्य है । जिस स्थान पर भागीरथ ने अपने पूर्व पुरूषों की हड्डियों का गंगा में विसर्जन किया था उसी स्थान पर यह स्नान करते हैं एवं वहाँ से प्रसाद स्परूप खील-पताशों के अतिरिक्त जल भी लाते है । उस स्थान की मिट्टी से बनी हुई एक ईंट भी लाते है । ऐसी मान्यता है कि उससे घर पवित्र होता है । वहाँ से आने के पश्चात् एक जाति भोज का आयोजन किया जाता है जिसमें कभी-कभी तो समस्त जाति को भोज के लिए आमन्त्रित किया जाता है एवं गंगाजल प्रसाद स्परूप् सब को बांटा जाता है । गंगा माँ के अनन्य भक्त बन्धु इस कार्य को सम्पन्न करने में अपना सर्वस्व लगाना एक गौरव की बात समझते है । इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए आर्थिक व्यय का किसी भी प्रकार का कोई विचार नहीं किया जाता और ऐसी धारणा है लोगों के मन पर कि गंगा माँ पर किया गया खर्च माँ के आशिर्वाद से कई गुना प्राप्त होगा । इस भावना के वशीभूत होकर लोग कर्ज लेकर भी मुक्त हस्त से व्यय करते थे । इस प्रकार यह प्रथा भी हमारे समाज में शताब्दियों से चली आ रही है और आज के इस वैज्ञानिक युग में भी लोग इसे उसी धूम-धाम के साथ मनाते है ।
यहाँ पर यह कह देना अत्यंत आवश्यक है कि हम गंगा स्नान के कतई विरोध नहीं । हम यह नहीं करते कि हमें गंगा माँ में श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए । परन्तु इन अवसरों पर रैगर समाज की गाढ़े पसीने की कमाई पण्डों द्वारा लूटी जाती है एंव गंगोज आदि में मुक्त हस्त से पानी की तरह बहाई जाती है । वस्तुत: विशेष दु:ख का कारण है ।
इसी प्रकार रामदेवजी के भक्तगण रामदेव के मन्दिर में जाते है और प्रतिवर्ष वहाँ से आने के पश्चात् धूमधाम से ‘कोली’ करते है । जिसमें जाति को भाज पर आमन्त्रित करते है । ‘कोली’ ‘गंगोज’ की ही भान्ति एक और दूसरा अपव्यय है एवं समाज के लिए अत्यंत महंगा पड़ता है ।
रैगर समाज शूद्र जाति का एक अंग था एवं आज भी है जो कि समस्त भारत में नीच समझे जाते थे एवं जिनका स्वर्ण भी हेय समझा जाता था । नीच सतझे जाने के प्रत्यक्षत: दो कारण थे प्रथम वह कार्य जिनका सम्बंध दूसरे समाजों से था । जैसे मरे हुए पशु की खाल खिंचना, चमड़ा रंगना, जूते बनाना आदि । एंव दूसरे वह कार्य जिनका सीधा सम्बंध उनके अपने जीवन से था जिनमें मुख्यत: रीति-रिवाज, खान-पान, पहनावा आदि है । पहले कारण का जहां तक सम्बंध है वह केवल जीवन निर्वाह का साधन मात्र रहा । यदि दूसरे अन्य कार्य इनके हाथों में होते तो शायद यह कार्य करना लोग कभी भी पसन्द नहीं करते । कई स्थानों पर जहां लोगों को दूसरे कार्य करना, अपना जीवन निर्वाह के साधन प्राप्त थे वहां पर इन्होंने यह कार्य करने बन्द किए एक प्रतिक्रिया स्वरूप स्वर्ण हिन्दुओं ने सामाजिक बहिष्कार कर दिया । बहुत से स्थानों पर यह कार्य बेगार स्वरूप बराये जाते थे एवं कई स्थानों पर जोर जबरदस्ती से भी जहां तक दूसरे कार्यों का सम्बंध है वह इनके स्वयं के द्वारा जनित है । यह इस समाज की वह बुराई है जिसके कारण कि रैगर जाति सदियों से अधोगति को प्राप्त हुई एवं जिस कारण आज भी यह जाति निरन्तर अपने हास को प्राप्त हो रही है ।
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से अभी तक मादक वस्तुएं अर्थात शराब, चरस, गांजा आदि नशीली वस्तुओं का प्रयोग रैगर समाज में एक प्रकार से धार्मिक नियम बना हुआ है । मादक वस्तुओं का सेवन समाज के समस्त विधि विधानों में होता रहा है । जब बच्चा पैदा होता है तब शराब आदि वस्तु का खुशी के कारण प्रयोग होता इसके पश्चात् जब गृहस्थ प्रवेश का समय आया अर्थात विवाह के सकय और अन्त में मृत्यु के समय शराब का सेवन किया जाता रहा है । समाज में शराब आदि वस्तु का प्रयोग जन्म के समय, विवाह के समय और अन्त में मृत्यु के समय शराब का सेवन किया जाता रहा है । समाज में शराब आदि वस्तु का प्रयोग जन्म के समय, विवाह के समय, मृत्यु के समय, उत्सव के समय और इतना ही नहीं देवी-देवताओं की अर्चना के लिए भी यह वस्तुए एक प्रकार से आवश्यक सी बन गई है । शराब का दैनिक जीवन में तथा तीज त्योहारों के अवसरों पर प्रयोग एक प्रकार से अपनी कुलीनता समझी जाती है ।
उस समय रैगर जाति में शिक्षा का नितान्त अभाव था । समस्त भारत में ईसा की बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बहुत कम लोग शिक्षित पाये जाते थे । लोगों का ध्यान इस ओर इसलिए नहीं भी था क्योंकि कोई भी नौकरी के लिए तैयार नहीं होता था । लोग अपना स्वतन्त्र कार्य करते थे उसके लिए सामन्य जमा घाटा एवं हस्ताक्षर तक ही शिक्षा का ज्ञान आवश्यक समझा जाता था । इस प्रकार सरकारी एवं गैर सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में शिक्षा के प्रति प्रेरणा के अभाव में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार नहीं हुआ ।
शिक्षा के अभाव का मुख्य कारण ढूढ़ने पर हमें ज्ञात होता है कि इसके मुख्यत: दो कारण थे । प्रथम शिक्षा संस्थाओं का अभाव यदि किसी गृहस्थी ने अपनी सन्तानों को पढ़ाने का प्रयत्न भी किया तो अपनी सन्तानों को दूर भेजने एवं वहां पर भी अमानुषिक व्यवहार के कारण उनकी हीन मनोवृत्ति कभी भी उनका साथ नहीं छोड़ सकी इस प्रकार वह शिक्षा प्राप्त करने में असफल रहे । इसका कारण सम्भवत: इनकी निर्धनता रही हो क्योंकि प्रत्येक परिवार में जो बच्चा उस या बारह वर्ष का हो जाता है वह घर के लिए कुछ आय का साधन बन जाता था । जो कोई पढ़ने जाता भी तो उसे दूर चप्पल जूतों पर बिठाकर पढ़ाया जाता और उनको जल डालकर शुद्ध करने के पश्चात ही मास्टर जी उन्हें वहां पर बेठने देते उन्हे कुछ बताना हो तो मास्टर जी अपनी लकड़ी से ही सब बताते थे । इस प्रकार शिक्षा प्रसार में यह कारण भी एक रोड़ा बना । यहाँ तक तो शिक्षा का सम्बंध था वह केवल पुरूष जाति का यदि हम स्त्री जाति की शिक्षा पर ध्यान दें तो हमें सन्देह होता है कि कोई भी एक महिला मिडिल पास जाति में हुई हो । जब लड़के एंव लड़की की शादी दस या बारह वर्ष में कर दी जाती हो तब शिक्षा का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है ।
इस प्रकार शिक्षा की दशा में हमारी पिछड़ापन इतना अधिक था कि उसके विस्तार को देखते हुए अशिक्षित लोगों को यह समस्य ही प्रतीत नहीं होती थी वस्तुत: निष्कर्ष रूप में हम कह सकते है कि रैगर जाति का पिछड़ेपन का मुख्य कारण समाज में अशिक्षा का साम्राज्य था । शिक्षा के महत्व का ज्ञान भी हमारे रैगर बन्धुओं को पता नहीं था ।
रैगर जाति की आर्थिक दशा उस समय अत्यधिक शोचनीय थी । समस्त जाति एक प्रकार से मेहनत मजदूरी कर अपना जीवन यापन कर रही थी । उसका मुख्य धन्धा चमड़ा व्यवसाय था । कुछ लोग कच्चे चमड़े को बेचा करते थे, कुछ कच्चे चमड़े का पकाने का कार्य करते थे और कुछ जूतियां आदि बनाते थे, समाज का लगभग 70 प्रतिशत इस कार्य में लगा हुआ था । इस प्रकार समाज का अर्थतन्त्र मुख्यत: इसी प्रकार के व्यवसायों पर आधारित था एवं कुछ लोग खेतीबाड़ी करते थे जो मुख्यत: मजदूरी पर कार्य करते थे क्योंकि उनका अपना कोई भी खत आदि नहीं था । आय के अभाव में बहुत बड़ा भाग कर्ज से दबा हुआ रहता था । इस प्राकर जाति का अपना कोई मुख्य व्यापार नहीं था एवं इसी प्रकार और कभी भी उन्नति पथ पर अग्रसर नहीं हो सकी ।
रैगर जाति में भी बहुत से नवयुवक इस विचार धारा के थे कि कुछ भी करगुजरने के लिए कटिबद्ध थे । युवकों के हृदय में तूफान उठता था और वह कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे । व्यक्तिगत, सामाजिक, एवं राष्ट्रीय समस्याओं से रैगर नवयुवक समुदाय क्षुब्ध था । रैगरों में संगठित संस्थाओं का नितान्त अभाव था । जिसके फलस्वरूप रैगर नवयुवकों को सार्वजनिक संस्थाओं में घुसड़ना पड़ा ।
मुख्य रूप से रैगर बन्धुओं ने कांग्रेस में शामिल होकर ही स्वतन्त्रता के आन्दोलन में भाग लिया । दिल्ली में जिन लोगों ने मुख्यरूप से सक्रिय भाग लिया वह है सर्व श्री नवल प्रभाकर, श्री कंवर सेन मौर्य, डॉ. खूबराम जाजोरिया, चौ. पदम सिंह प्रभू दयाल रातावाल, श्री गोतमसिंह सक्करवाल, श्री आशाराम सेवलिया, श्री शम्भुदयाल गाडेगावलिया, श्री खुशहालचन्द मोहनपुरिया, श्री दयाराम जलुथरिया प्रभृति । रैगर जाति का राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण प्रारम्भ से ही था । इसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि स्वतन्त्रता से पूर्व भी श्री भोलाराम जी तोणगरिया हैदराबाद (सिंध) में म्युनिसिपल कमिशनर के रूप में रह चुके हैं । राजस्थान में आन्दोलन में भाग लेने वालों में सर्व श्री सूर्यमल मौर्य, श्री जयचन्द मोहिल, श्री कंवरलाल जेलिया, श्री हजारीलाल पंवार आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इस स्वतन्त्रता आन्दोलन में भारतवर्ष के समस्त रैगरों में श्री नवल प्रभाकर जी का कार्य रैगरों के गौरव का बढ़ाने वाला है इनको अंग्रेजों के विरूद्ध आन्दोलन में कांग्रेस की तरफ से जेल यात्रा भी करनी पड़ी ।
(साभार- ‘रैगर कौन और क्या ?’ एवं रूपचन्द जलुथरिया कृत ‘रैगर जाति का इतिहास’)
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