रैगर जाति की समन्वयवादी संस्कृति

रैगर संस्कृति में समन्यवाद. रैगर जाति किसी धर्म, जाति व पन्थ की विरोधी नही रही है। जंहा इस ने वैदिक व पौराणिक विचारो को अपनाया वंहा मध्ययुगीन वैष्णवेतर विचारधाराओं के भक्ति योग को भी स्वीकार किया है। इसी प्रकार इस जाति के लोगो पर सिद्वो एवम् नाथपंथी योगियो का भी प्रभाव रहा है जो प्रायः हिन्दू धर्म की नीची समझी जाने वाली जातियों के ही व्यक्ति थे। इन के कुछ सिद्वान्त जैसे जाति-पाति के भेद-भाव का विरोध व गुरू की महत्वता की परम्परा को रैगर जाति ने स्वीकारा है। यह गुरू परम्परा आज भी रैगर जाति में विद्यमान है इसी लिये इस जाति ने स्वामी आत्माराम लक्ष्य, स्वामी ज्ञान स्वरूप, स्वामी बालक नाथ आदि को अपना गुरू मानते हुये जाति की प्रगति व विकास में सार्थक योगदान दिया। इन्होने ‘नौ नाथ, चैरासी सिद्व‘ को स्वीकारा है। रैगर जाति में उलटबांसियों का प्रचलन भी सन्तो की उलटबांसियां की शैली से ली गयी है जिन का उद्गम सिद्वो एवम् नाथो से हुआ है। कबीर की उलटबांसियांे को तो बहुत प्रसिद्वि प्राप्त हुई हैं जैसे ‘कबीरदास की उलटी बाणी, बरसे कम्बल, भीगे पानी‘, ‘बैल बियाइ गाय भई बांझ, बछरा दूहे, तीन्यू सांझ‘ आदि।

वैष्णव भक्ति आन्दोलन का रैगर संस्कृति पर प्रभाव. काल की दृष्टि से संत मत का आविर्भाव भक्ति आन्दोलन के बहुत बाद हुआ। अतः सन्तो पर वैष्णव भक्ति का प्रभाव आना स्वाभाविक ही था। मघ्वाचार्य, राघवाचार्य, रामानन्द आदि वैष्णव भक्ति के प्रवर्तक सन्त कबीर आदि सन्तो से बहुत पहले रह चुके थे। कबीर, रविदास, सेना, पीपा आदि प्रारम्भिक सन्तगुरू रामानन्द के ही शिष्य बताये जाते है। इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैष्णव भक्तो और सन्तो के सिद्वान्तो के समान रैगर जाति ने भी भगवत्-शरण के लिये वैष्णवो द्वारा भगवान के नामो को ही स्वीकार किया है – राम, गोविन्द, हरि आदि वैष्णव भक्तो के प्रिय नाम है, रैगर जाति के सन्तो ने भी इन्ही नामो का लिया है। रैगर जाति के सन्तो और आम आदमी ने ईश्वर के अल्लाह, खुदा आदि नामो को स्वीकार करने पर भी उन्हे इतनी अधिक मान्यता नही दी है, जितनी राम, कृष्ण, हरि आदि को दी है। ईश्वर की प्रेमनुभूति की तन्मयता में रैगर जाति के लोग वैष्णव भक्तो द्वारा स्वीकृत ईश्वर के नाम ही लेते है। रैगर सन्तो पर वैष्णव भक्ति का दूसरा प्रभाव ईश्वर प्रेम की भक्ति का है। जिस प्रकार वैष्णव भक्ति में ईश्वर प्रेम स्र्वोपरि है उसी प्रकार रैगर संस्कृति में भगवान से प्रेम रखना अति आवश्यक है। यही कारण है कि रैगर महिलायें जब ‘हरजस‘ गाती हैं तो वे ईश्वर प्रेम की बात पर बल डालती रहती है। रैगर जाति ने भी वैष्णवो के प्रति श्रद्वा व्यक्त की है अतः इस संबंध में कबीर कहते है -‘मेरे संगी दोइ जणा, एक वैष्णो एक राम, वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाम‘ और ‘ वैश्नों की छपरी भली, ना साखत का बड़ गांऊ आदि। परन्तु विचारणिय विषय यह है कि रैगर जाति के सन्त व गुरूओं ने अन्य सन्तो की तरह अद्वेतवाद और माया की बात करते हुये इस्लाम के मृत्यु के पश्चात मिलने वाली बहिश्त और आखिरी कलाम की नही जिस का अभिप्राय यह निकला कि रैगर संस्कतिृ में इस जाति के सन्तो और गुरूओं ने पवित्र कुरान के बदले हिन्दू शास्त्रो को ही अपना आधार माना है।

रैगर संस्कृति पर इस्लाम का प्रभाव. रैगर धर्म साधना में धर्मान्धता, वर्णव्यवस्था रूढिवादी परम्पराओं और जातिवाद का जो हरजस आदि गीतो तथा विभिन्न प्रकार की कहानियों और बातों में वर्णन आता है वह हिन्दु धर्म के चैरासी सिद्वो और नौ नाथो के सिद्वान्तो के आधार पर ही है। जातिवाद व वर्णव्यवस्था के विरूद्व के सिद्वान्त इस्लाम धर्म में भी मिलते है जिन का प्रभाव रैगर संस्कृति पर भी स्पष्ट दिखता है परन्तु रैगर जाति ने इन सब सिद्वान्तो की समानतता होने के बावजूद भी इस्लाम धर्म स्वीकार नही किया और वह हिन्दू धर्म में एक अछूत व शूद्र जाति ही बना रहना स्वीकार किया। जिस समय मुस्लमान भारत में विजेता के रूप में आये तो उन्होने हिन्दू धर्म की सवर्ण व उच्च जातियों पर अत्याचार किये परन्तू रैगर जाति पर इस लिये कोई अत्याचार नही किये क्यों कि यह जाति तो पहले से ही हिन्दू धर्म से प्रताड़ित व अत्याचार पीड़ित निर्जीव व दुर्बल जाति थी जो मुस्लिम धर्म का किसी भी प्रकार का विरोध करने की कोई क्षमता नही रखती थी। यह भी एक कारण था कि रैगर जाति को मुस्लिम धर्म में परिवर्तन के दौर में इस्लाम का एक हिस्सा नही बनाया गया। इस्लाम के भारत में आने के बाद सन्तो और भक्तो ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात की गयी जब कि रैगर जाति के लोग हिन्दुओ की छूआछूत नीतियों और इस्लाम के कट्टरवाद से ग्रसित होकर तड़फड़ाती जिन्दगी जीने को मजबूर ही बने रहे। यही कारण है कि हिन्दू धर्म की अध्यात्मकवादी विचारो और इस्लाम के फैलाववाद में इस जाति का कोई योगदान नही रहा जिस की वजह से ही रैगर जाति के लोग इस्लाम के धर्म परिवर्तन करवाने के दौर में मुस्लिम धर्म को स्वीकार करने से दूर ही रखे गये। यही कारण है कि रैगर जाति में नमाज, रोजा, मूर्ति पूजा का विरोध और इस्लाम धर्म के कई सिद्वान्त मौजूद नही है। इस जाति के लोगो ने इन पर हिन्दू धर्म की उच्च जातियों द्वारा किये जा रहे अत्याचारो और छूआछूत करनेे के दौर में भी ईश्वर को स्मरण किया करते थे और अपने भाग्यवाद को कौसते हुये हिन्दू धर्म की भाग्यवादी व कर्मवादी सिद्वान्तो पर ही स्वीकारते रहे थे।

रैगर संस्कृति पर एकेश्वरवाद व सूफीवाद का प्रभाव. रैगर जाति को हिन्दू धर्म में एक अछूत जाति के रूप में ही स्वीकार किया गया परन्तु इस जाति द्वारा हिन्दू धर्म की असमानतावादी नीति के विरूद्व किसी भी प्रकार का विरोध नही करने और लगातार अत्याचारो को सहते रहने के कारण यह जाति हिन्दू समाज के एक नीचे हाशिये पर पड़ी रही। ’भारत, चीन,जापान, मिस्त्र, अरब, ग्रीस, फिलस्तान, बेबीलोनिया और कैल्टिक प्रदेश के धर्मो के प्राचीनतम रूपो का इतिहास देखने पर उन में बहुदेववाद की झलक मिलती है।‘1 रैगर जाति भी हिन्दू धर्म के बहु-देवता वाद में विशवास रखती रही है परन्तु इस जाति में कुछ व्यक्ति एक आत्मा और एक परमात्मा में विश्वास रखते रहे है जो एकेश्वरवाद ही कहा जा सकता है। इसी संदर्भ में भारत के मध्यकाल में मुस्लिम धर्म के आने से एकश्वरवाद का असर भी भारतीय समाज में देखने को मिलता है। ’अरब में इस्लाम का आगमन एकेश्वरवाद की अवधारणा के साथ हुआ। इस्लाम के प्रचार प्रसार शुरू होने के बाद मुस्लिम रहस्यवादीयो के लिये सूफी शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। यह शब्द पैगम्बर मुहम्मद के देहावसान होने के लगभग दो सौ वर्ष पश्चात प्रचलन में आया जान पड़ता है क्योंकि सूफीमत का पर्यायवाची तसव्वुफ हिजरी 392 में संग्रहित मिŸाह में नही पाया जाता है। 2 इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ई. सन् 800 से पूर्व कूफा के अबू हाशिम के लिये हुआ था जो सन् 776 ई. में विद्यमान था3 जो कि बाद में मुस्लिम रहस्यवाद का प्रतीक बन गया। सूफी शब्द के मूल स्त्रोत के विषय में बड़ा मतभेद रहा है। इसे सूफी अर्थात शुद्वता, सूफ अर्थात ऊन के वस्त्र पहनने वाले तथा अहल-उस-सफा से व्युत्पन्न माना जाता रहा है। अब्द-उल- करीम और इब्ने खलादुन इस की उत्पति भाषाओं के आधार पर सूफ से ही मानते है। 4 अल-बरूनी ने इस की उत्पति ग्रीक शब्द सोफिया से मानी है जिस का अर्थ है बुद्विमता। 5 इस संबंध में कश्फ-उल-महजूब 6 अधिक महत्वपूर्ण उत्तर देती है। सूफी वह है जो अपने को खोकर ईश्वर में लीन हो गया। इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त हाकर परम सत्य के साथ मिल गया। 7 सूफी वे है जिन की रूहे मानवीय दुर्भावनाओ से शुद्व हो चुकी हों जो न किसी का स्वामी हो और न किसी के स्वामित्व में हो। 8 सीधे तौर पर हम समझना चाहें तो सूफी वे सन्त, व्यक्तित्व, महात्मा है जो दया, परोपकार, मानवता के वैश्विक सिद्वान्तो से जुड़े थे। वे भक्ति के प्रेम मार्ग के अनुयायी थे, नम्रता और संतोष जिन की पहचान थी।9 सूफी, वली-उल्लाह, दरवेश तथा फकीर शब्दो से उन मुस्लिम रहस्यवादियो को अभिहित किया गया है जो तप, घ्यान, सन्यास तथा आत्म-निषेध द्वारा अंतरात्मा के विकास का प्रयास करते है।

रैगर संस्कृति पर सन्त रैदास पंथ का प्रभाव. सन्त मत में कबीर एक सच्चे कर्मयोगी होने के कारण वे युग युग गुरू थे। उन्होने सन्त काव्य का प्रदर्शन कर साहित्य के क्षेत्र में नव निर्माण का कार्य किया था। हिन्दु मुस्लिम एकता की जो विचार धारा आज इतनी प्रबल हो उठी है उस के मूल प्रर्वतक कबीर ही थे। यदि साहित्य व समय की दृष्टि से आकंलन किया जाये तो कबीर के उपरान्त सन्त मत अनेक पंथो में विभक्त हो गया था। कबीर पंथ के अतिरिक्त इन पंथो में रैदास पंथ, सिक्ख पंथ, दादू पंथ (17वीं शताब्दी), निरंजनी सम्प्रदाय (17वीं शताब्दी), बावरी पंथ (17वीं शताब्दी), मलूक पंथ (17-18वीं शताब्दी), दरियादासी सम्प्रदाय (17वीं शताब्दी), चरणदासी सम्प्रदाय (18वीं शताब्दी), गरीब पंथ (18-19वीं शताब्दी), पानप पंथ (18-19वीं शताब्दी), राम-स्नेही सम्प्रदाय (18-19वीं शताब्दी) आदि प्रमुख है। प्रारम्भ में इन सभी पंथो में कोई मूलभूत अन्तर नही था किन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया इन सभी पंथो में रूढियां, विधि-निषेधो, पाखण्ड- प्रर्दशन एवम् मायाजाल आदि का समावेश होता गया। रैगर जाति पर रैदास पंथ का काफी असर देखने को मिलता है इस का मूल कारण यह था कि सन्त रैदास एक चर्मकार थे और चमड़े की जूतियां बनाते थे। रैगर जाति भी चर्मकार और चमड़े की रंगत का कार्य कर अपना जीवन यापन किया करती थी। इस लिये रैगर जाति सन्त रैदास जी के विचारो को पूर्णतः स्वीकार कर अपनी जीवन शैली में उतारती रही थी। इसी लिये कई इतिहासकारो ने रैगर जाति की उत्पति सन्त रैदास जी से मानी है जो कि सरासर गलत है। सन्त रैदास जी रामानन्द की के शिष्य थे। ये कबीर के समकालीन थे। सन्त-काव्य-परम्परा में रैदास जी को विशिष्ट स्थान है। आप उच्चकोटि के सन्त थे। प्रसिद्व भक्त कवियत्री मीरा बाई सन्त रैदास जी की शिष्या थी। सन्त रैदास जी के पद श्री गुरू ग्रन्थ साहिब में संकलित है। ये अत्यंत सरल प्रव्ति के व्यक्ति थे। इन के पदो में अनुभूति की सरलता और अभिव्यक्ति की सरलता मिलती है। इन के विषय में हिन्दी साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत है -‘अनाडम्बर सहज शैली और निरीह आत्म-समर्पण

सन्त रविदास जी का अन्तिम पद. संत शिरोमणि रविदास जी इस गीत पद के सुनाने के उपरान्त स्वर्गवासी हो गये थे। चितोड़ के कुम्भ श्याम मन्दिर में यह गीत सन्त रविदास जी ने गाया था।

जीवन चार दिवस का मैला रे।
बांभन झूंठा, वेद भी झूंठा, झूंठा बह्ना अकेला रे।
मन्दिर भीतर मूरति बैठी. पूजति बाहर चेला रे।
लडडू भोग चढावति जनता, मूरति के ढिंग केला रे।
पत्थर मूरति कुछ नही खाती, खाते बांभन चेला रे।
जनता लूटति बांभन सारे, परभू जी देति न धेला रे।
पुण्य, पाप या पुर्नजन्म का, बांभन दीन्हा खेला रे।
स्वर्ग नरक बैकुण्ठ पधारो गुरू शिष्य या चेला रे।
जितना दान देंव गे जैसा, वैसा निकले तेला रे।
बांभन जाति सभी बहकावे, जनह तंह मचै बबेला रे।
छोड़ के बांभन, आ संग मेरे, कह विद्रोहि अकेला रे।

इस लिये रैगर समाज के लोगो को चार वेदो का अर्थ नही मालूम हो तो कोई बात नही है। परन्तु समझदारी, जवाबदेही, वफादारी और ईमानदारी , ये चार शब्दो का मर्म जान लेवे तो जीवन सार्थक हो जायेगा।

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