गंगा भागीरथ और रैगर


प्रस्‍तावना

बीते हुए कल को याद रखने के लिए इतिहास लिखा जाता है। यदि इतिहासकार बीते हुए कल का इतिहास नहीं लिखते तो वर्तमान में जी रही पीढ़ी भूतकाल में हुई घटनाओं से सर्वथा अनभिज्ञ रहती। समय-समय पर इतिहासकारों ने विभिन्‍न देशों के आदिकाल की सभ्‍यता पर खोज की और उसे कलमबद्ध कर हम तक पहुँचाया। अनेक इतिहासकारों ने भारतवर्ष में रहने वाली अलग-अलग जातियों पर खोज और शोध करके लिखा है कि इन जातियों की उत्‍पत्ति कब हुई और इनके द्वारा अपनाऐं जाने वाले रीति-रिवाज क्‍या थे आदि-आदि।

दुर्भाग्‍यवश भारत में रहने वाली कुछ ऐसी भी जातियां है जो इतिहासकारों की दृष्टि से ओझल रही और इन जातियों की उत्‍पत्ति और इनके द्वारा अपनाऐं जाने वाले रीति-रिवाजों पर कुछ भी नहीं लिखा गया। इन जातियों में रैगर जाति भी एक है जिसकी उत्‍पत्ति के विषय में कभी भी किसी इतिहासकार ने नहीं लिखा।

पिछले कुछ दशकों में रैगर जाति के कुछ विद्वानों ने अनेक प्रमाण प्रस्‍तुत करके या अपनी अटकलों से रैगर जाति की उत्‍पत्ति के विषय में लिखा है, परन्‍तु यह सब कहाँ तक सही है या गलत यह कोई नहीं जानता। इन लेखकों द्वारा दिये गए प्रमाणों में एक समानता अवश्‍य है कि सभी ने रैगर जाति को राजपूतों का वंशज ठहराया है।

मैंने भी अपनी कल्‍पना से पौराणिक ग्रन्‍थों का सहारा लेकर रैगर समाज की उत्‍पत्ति पर प्रकाश डाला है, और साथ ही हमारे समाज में सगाई-विवाह के अवसर पर अपनाऐ जाने वाले पुराने रीति-रिवाजों से भी अवगत कराया है। इन रिवाजों की बहुत सी बातें अब केवल अतीत का इतिहास बन कर रह गई है जिन्‍हे पढ़कर ही आने वाली पीढ़ी जान पायेगी कि कैसे थे हमारे समाज के पुराने रीति-रिवाज।

कुल पृष्‍ठ 112

मुल्‍य 120/-

दिनांक 18 मई, 2007

रमेश चन्‍द्र जलुथरिया

5555/74, रैगर पुरा,

करोल बाग, नई दिल्‍ली

पिन कोड – 110005

◈ दो शब्‍द ◈

      श्री रमेश चन्‍द जी जलुथरिया ने गंगा भागीरथ और रैगर नाम से पुस्‍तक लिख कर एक प्रशंसनिय कार्य किया है । इस पुस्‍तक में इन्‍होंने रैगर जाति की उत्‍पत्ति जिस प्रकार बताई है, वह भले ही काल्‍पनिक हो, परन्‍तु रैगर जाति की सदियों से चली आ रही माता गंगा के प्रति आस्‍था को देखते हुए रैगर जाति की उत्‍पत्ति को यथार्त रूप में भी देखा जा सकता है ।
इस पुस्‍तक में रमेश जी ने केवल रैगर जाति की उत्‍पत्ति ही नहीं अपितु इनके रीति-रिवाजों पर भी प्रकाश डाला है । इनके अतिरिक्‍त हमारे समाज में फैली हुई कुरितियां, दहेज प्रथा तथा रीति-रिवाजों पर अपनी हैसियत से अधिक खर्च करने के लिए कुछ उपाय भी सुझाऐं है ।
श्री जलुथरिया जी ने इस पुस्‍तक में शिक्षा के महत्‍व पर विशेष बल दिया है । मैं इनके प्रयास की प्रशंसा करते हुए रैगर जाति के शिक्षित वर्ग से अनुरोध करता हुँ कि आप भी अपनी लेखनी का जौहर दिखाकर इस समाज को सही दिशा की और जाने के लिए प्रेरित करें ।

गंगाराम आलोरिया
(आइ.ए.एस.)


श्री रमेश चन्‍द्र जलूथरिया : एक परिचय

श्री रमेशचन्‍द जलुथरिया का जन्‍म एक सम्‍पन्‍न परिवार में श्री रामजीलाल के घर 18 मई 1940 को हुआ । इनकी प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्‍कूलों में ही हुई क्‍योंकि उन दिनों पब्लिक स्‍कुल नहीं होते थे ।

इनका विवाह केवल 14 वर्ष की उम्र में सन् 1954 में श्री छोटूरामजी बारोलिया निवासी बीडनपुरा दिल्‍ली की सुपुत्री देवकी रानी के साथ हुआ । यह परिवार भारत पाकिस्‍तान के विभाजन पर सन् 1947 में पाकिस्‍तान के कराची शहर से विस्‍थापित होकर दिल्‍ली आया था । इस समय देवकी रानी केवल तीन वर्ष की थी । (इनकी लिखित पुस्‍तक ”आसौज में दिवाली” के कवर पेज पर इन्‍होंने अपनी पत्‍नी श्रीमति देवकी रानी को दीप मालाओं में मध्‍य हाथों में दीप लिए दर्शाया है)।

सन् 1959 में पंजाब युनिवर्सिटी से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की, परन्‍तु इसी वर्ष इनका गौना होने के कारण यह आगे की पढाई से वंचित हो गये ।

सन् 1962 में इन्‍होंने मोटर पार्टस बनाने की फैक्‍ट्री लगाई, परन्‍तु 1965 में भारत-पाकिस्‍तान की लड़ाई के कारण इनकी रकम व्‍यापारियों द्वारा दबा जी गई जिसे कारण इन्‍हें बहुत हानि उठानी पड़ी और फलस्‍वरूप अपना कारोबार भी बंद करना पड़ा । कारोबार के समय यह रैगर शिक्षित समाज के सक्रिय सदस्‍य थे और दान स्‍वरूप बहुत सी पुस्‍तकें रैगर शिक्षित समाज के पुस्‍तकालय को दी ।

सन् 1966 में पोस्‍ट एण्‍ड टेलीग्राफ के टेलीफोन विभाग (आजकल महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड के नाम से जाना जाता है) में क्‍लर्क के पद पर नौकरी करना प्रारम्‍भ की तथा सन् 2000 में सीनियर सैक्‍शन सुपरवाईजर के पद से रिटायर हुए ।

प्रारम्‍भ से ही इन्‍हे चित्रकारी व लिखने की रूची थी । रिटायरमैन्‍ट के पश्‍चात् इन्‍होंने ”असौज में दिवाली” तथा ”गंगा भागीरथ और रैगर” नाम की दो पुस्‍तकें लिखी तथा इन्‍हें छपवाकर समाज में वित्रित की ।
प्राय: यह देखा गया है कि रैगर समाज में लोग अनावश्‍यक कार्यो पर फिजूल खर्च कर देते हैं, परन्‍तु पुस्‍तक खरीदकर पढ़ना नहीं चाहते, इसलिए लेखक को न तो उचित पारिश्रमिक मिल पाता है ओर ना ही उसे प्रोत्‍साहन मिलता है । इनके द्वारा लिखित कुछ लेख और अन्‍य सामग्री नहीं छपवाई जा सकी ।

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