संस्कृति किसी भी समाज की श्रेष्ठतम धरोहर मानी गई है। रैगर जाति की संस्कृति उच्चतम आदर्शों और शाश्वत् मूल्यों से भीर हुई है जिसके आन्तरिक और बाह्य दो पक्ष है जो इस कौम की जीवन जीने की शैली को उजागर करते है। जूतियों और मौचड़ियों के चमड़े पर गोटा कारीगरी कर उसे सुन्दर बनाना बाह्य संस्कृति के प्रतिक मात्र है जबकि इस जाति के चरित्र को संस्कृति का आन्तरिक पक्ष माना जा सकता है। अभी तक रैगर जाति की संस्कृति के आन्तरिक बाह्य पक्षों को प्रकाश में लाने का कोई प्रयास नही किया गया है। दुर्भाग्य यह रहा है कि रैगर जाति का न तो ठीक ढंग से कोई इतिहास लिखा गया है ओर ना ही इस समाज की परम्पराओं का कोई अध्ययन किया गया है जबकि रैगर जाति ने हजारों वर्षों तक संघर्ष कर अपने चरित्र की सबलता को बनाये रखा है।
शरणागत की रक्षा और उसको सम्मान देना रैगर जाति का मुख्य गुण रहा है। यह क्षत्रिय गुण ही है। यदि पौराणिक गाथाओं का अध्ययन किया जाये तो नरेश शिवि ने अपनी शरण में आये कबूतर की रक्षा के लिये अपने अंग का मांस तक दे दिया था। इसी प्रकार रणथम्भौर के राव हम्मीर ने दो शरणागत मुसलमानों की रक्षा के लिय अपना पूरा कर्तव्य निभाया था।
अपने धर्म पर टिका रहना भी रैगर जाति का अपना गुण रहा है। इस जाति पर हर प्रकार के अत्याचार हुये फिर भी इस जाति के लोगों ने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया। स्वर्ण हिन्दुओं ने भी इन पर हजारों सालों तक अत्याचार किये परन्तु फिर भी ये लोग हिन्दू धर्म में ही बने रहे। यहां तक कि इन्होंने अपने मौहल्ले और बस्तियों में हिन्दू देवी देवताओं और गंगा माता को अपने इन मन्दिरों में स्थापित कर हिन्दू धर्म की परम्पराओं को निभाया । इन्होंने गंगा जल उठकर यदि कोई कसम ले ली तो यह मान लिया गया कि गंगा जल उठाने वाला व्यक्ति शाश्वत सत्य बोल रहा है।
रैगर जाति एक ईमानदार जाति रही है और वह अपनी मेहनत की कमाई खाना ही अपने जीवन का लक्ष्य समझती रही है। यहां तक कि इस जाति के लोग चमड़े की रंगत का कार्य भी ईमानदारी से करते रहे हैं। इस जाति के लोग आपराधिक प्रवृत्ति के नही रहे हैं बल्कि अपने वचन पर कायम रहकर जीवन जीने में माहिर रहे हैं। इनका जीवन अभावों और संघर्षों की जीती जागती मिसाल रहा है परन्तु फिर भी इन्होंने धोखा देकर अपनी ठगी करके धन उपार्जित नहीं किया है। वास्तव में रैगर जाति के लाग भोले लोग है। यह इनकी आन्तरिक शक्ति का प्रतीक है।
इस कौम में अतिथि सत्कार भी ऐसा आदर्श रहा है कि जिसमें अतिथि को भगवान के रूप में देखा गया है। व्यवसायिक ईमानदारी और पारस्परिक सहयोग का सांस्कृतिक गुण भी रैगर जाति के लागों में रहा है।
रैगर संस्कृति के बाह्य पक्ष के कई आयाम है जिनमें इनके द्वारा चमड़े की जूतियों पर कारीगरी करना, शादी में ‘टूंटया’ करना और खुशी के मौके पर नृत्य करना आते है। लोकगीत तथा मुहावरे, लोरियां, भजन, हरजस आदि इस जाति का लोक साहित्य है। तीज, गणगौर, दशहरा, होली, दीपावली आदि उत्सव ये बड़े हर्षों-उल्लास से मनाते है। धार्मिक आस्थाओं मे रामदेव बाबा (रूणिचा रे श्याम) जैसे धार्मिक मेले आते हैं। इस जाति मे लोकजीवन के अनेकों आदर्शों पर चलने की जीवन शैली विद्यमान है।
रैगर जाति का लोक साहित्य: लोक गीतों के अतिरिक्त कथायें, मुहावरें, कहावतें, पहेलियां, लोरियां, सबद, हरजस, भजन, प्रवाद, चुटकुलें, गाथायें आदि भी लोक साहित्य के विशिष्ट अंग है । रैगर समाज में अन्य समाजों की तरफ इनकी जाति के लोक कथाओं में इन लोगों के अनुभव, ज्ञान और कल्पना का निचोड़ है । इन कथाओं में समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए पृथक-पृथक कथायें है । बालोपयोगी कथाओं की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति प्रंशसनीय कही जा सकती है । इनमें परियों की कहानियां, बाल कल्पना को जागृत करने के लिये रची गई विलक्षण कथायें, पशु पक्षियों की नीति संबंधी कथायें और इसी प्रकार की बालकों के कोमल मन को सही दिशा में प्रेरित और प्रवाहित करने वाली कथायें आती है । प्रौढों के लिये नीति, भूत-प्रेत, चोरी-धाड़ा, हास्य व्यंग्य, विभिन्न जातियों के गुण दोष आदि विभिन्न प्रकार की कथाओं के अतिरिक्त ऐतिहासिक और रूमानी कथायें भी प्रचूर परिमाण में उपलब्ध है । ऐतिहासिक कथाओं का प्रचलन जो बहुत कुछ प्रवादात्मक होती है, समाज के बड़े बूढों द्वारा कहे सुने जाने से होता है । वास्तक में रैगर समाज की गतिविधियां जितनी विविधता लिये हुये है वही लोक कथाओं में भी प्रतिबिम्बित होती है ।
रैगर जाति में लोक कथाओं के कहने का अपना एक विशिष्ट ढंग होता है और कई लोग इस कला में बड़े ही प्रवीण होते है । ऐसी कथायें एक बार में पूरी न की जाकर अनेक बार में सम्पूर्ण होती है । इन कथाओं को सुनने वाला व्यक्ति हुंकारे भरता रहता है जिससे कि सुनाने वाले को यह मालूम पड़ता रहे कि सुनने वाला व्यक्ति नींद में तो नहीं आ गया है । लोक कथायें रात को ही साधारणतया सुनाई और सुनी जाती है । रैगर जाति में प्रचलित लोक कथाओं और साहित्य को निम्नलिखित भागों में प्रस्तुत किया जा सकता है :-
प्रवाद: यह भी एक प्रकार की ऐतिहासिक कथा होती है जो आकार में छोटी और घटना विशेष पर ही कही जाती है । प्रवाद ऐतिहासिक और काल्पनिक दोनों ही प्रकार की होती है । अनेक प्रवादों की कहावतें भी प्रचलित है और उनमें कथा सूत्र का संकेत भी रहता है । प्रवादों की यह परम्परा सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही है । इन प्रवादों में रैगर जाति के बुजुर्ग पुरूष और महिलायें अपने गोत्र की उत्पत्ति और गोत्र में उत्पन्न महान व्यक्तियों व उनके द्वारा किये गये कार्यों के वर्णन के अलावा रैगर जाति पर हुये अत्याचारों का भी वर्णन किया करते है ।
कहावतें व मुहावरें : कहावतें और मुहावरे लोक भाषा के विभिन्न अंग समझे जाते है । मुहावरों से भाषा में एक जीवन्तता और विलक्षणता आती है । जातियों, त्यौहारों, स्त्रियों, खानपान, शिक्षा, धर्म, लोक विश्वास, जीवन दर्शन, शगुन और जातिगत भेदभावों से सम्बिन्धित कहावते ही रैगर समाज में प्रचलित रही है ।
पहेलियां : प्राय: बच्चों के मनोरंजन और युवा प्रेमियों तथा सखी सहेलियों के हास-परिहास के रूप में इनका प्रयोग किया जाता है । ससुराल में दूल्हे को पूछी जाने वाली पहेलियां उसकी बुद्धि परीक्षा के लिये ही प्रयुक्त होती है ।
लोरियां: रैगर समाज में वास्तिविक लोरियां भी मिलती है । इन लोरियों को महिलायें जच्चा के गीतों में ही परिणित कर लेती है । लोरियों का उपयोग रोते हुये बच्चों को सुलाने और रिझाने के कारण ही प्रधानत: किया जाता है ।
हरजस: भगवान के गुणगान से संबंधित भक्ति पूर्ण पद हरजस कहलाते हैं । इन्हें प्राय: बड़ी बूढी स्त्रियां प्रभातकाल में चक्कियों पर आटा पीसते तथा अन्य दैनिक कार्य करते हुये अथवा विश्राम के क्षणों में गाती है । रैगर जाति में विवाह अथवा अन्य कोई शुभ कार्य पर ‘राती जगा’ के समय भी हरजस गाने का रिवाज़ है । इसमें ‘भौमिया’ का गीत गाते हुये उसके बस्ती अर्थात मौहल्ले और परिवर के सभी सदस्यों की रक्षा की विनती की जाती है । इसके बोल इस प्रकार से है- ‘बस्ती की रक्षा करो रे भौमिया, थे गुवाड़ी की रक्षा करो रे भौमियां, बहनों की रक्षा करो रे भोमियां………. ‘ इस प्रकार से कई कड़िया हरजस में जुड़ती जाती है ।
प्राय: रैगर जाति के घरों में चित्रकला को कहीं न कहीं स्थान अवश्य मिला है । ये चित्र या तो भित्तियों पर बने होतु है या फिर चौक एवं द्वार पदों पर । विवाह के समय तोरण माने से पहले वधू पक्ष की महिलाओं द्वारा आटे से ‘चौर परूने’ की रस्म करना भी चित्रकला की एक शैली ही मानी जा सकती है । इसके अलावा विवाह के समय दीवार पर खड़िया मिट्टी अथवा लाल रंग से अपने देवी देवताओं की निशानी बनाना भी चित्रकला का ही एक भाग है । हथेलियों पर ‘मेहन्दी’ द्वारा सुन्दर अलंकरण, चौकों में ‘मांडणे’ के विविध नमूने एवं शुभ अवसरों व त्योहारों पर मंगल-चित्र रैगर जाति की लोककला के विशेष स्वरूप है ।
रैगर जाति में चित्रकला वास्तव में स्त्री-कला ही है जिसमें रैगर महिलाओं की वह कला सम्मिलित है जिसके द्वारा वे अपने घरों को और स्वयं अपने हाथ-पैरों को सजाती है और जिसको ‘माण्डणा’ अथवा ‘मेहन्दी लगाना’ कहा जाता है । माण्डणा का अभिप्राय है कि घरों को सजाना और मेहन्दी लगाने का मतलब है हाथ-पैरों को सजाने के लिय जिस कला का उपयोग किया जाता है वह ज्यामितीय प्रतीक प्रधान होती है । इसमें आकृतियां प्राय: सभी प्रकार जैसे त्रिकोण, चतुष्कोण, षड्भुज, व्रत्त, स्वास्तिक, सर्वतोभद्र आदि होती है । माण्डणा मांढने और महन्दी लगाने की क्रिया मांगलिक अवसरों अथवा त्यौहारों पर ही की जाती है ।
रैगर जाति चमड़े की रंगत के अलावा जूतियां बनाने का भी कार्य करती रही है । इनकी कलात्मक अभिरूचि विभिन्न प्रकार की जूतियां बनाने तथा अन्य हस्तशिल्पों में प्रदर्शित होती है । ये पुराने जमाने में लाव-चड़स बनाने में भी बड़ा ही हुनर रखते थे । इनकी लगन, निष्ठा और श्रम से तैयार की गई जूतियां केवल कुछ लोगों के मन बहलाव अथवा वैभव के प्रतीक न बनकर जन-जन के उपयोग के लिये बन गई है । ये कशीदाकारी जूतियां अत्यंत लुभावनी होती है । इन जूतियों के ऊपर प्राय: फूलपत्तियां मोर आदि कलात्मक रूप से बनाई जाती है । यह कशीदाकारी रैगर जाति की स्त्रियां ही चमड़े पर किया करती है । आजकल रैगर जाति के लोग कालीन भी बनाते है जो अत्यंत ही कलात्मक होते है । हालांकि इस काम में छोटे-छोटे बच्चे ही कार्य करते हैं जो अत्यंत दुख का विषय है ।
पहले के समय में रैगर जाति की महिलायें ‘कांचली’ पहना करती थी जो विभिन्न रंगों के के कपड़ों के टुकड़ों को कलात्मक रूप से सुई से सिलकर बनाई जाती थी । इनमें रैगर जाति की महिलाओं की कलात्मक कल्पना स्पष्ट झलकती है । इसी प्रकार पहले विभिन्न रंगों के कपड़ों के टुकड़ों को जोड़ कर ‘कौथली’ भी बनाई जाती थी । इस ‘कौथली’ में विभिन्न प्रकार की वस्तुयें रखी जाती थी । ‘कौथली’ रैगर जाति की महिलाओं की कपड़े पर उभारी गई कला को बताती है ।
रैगर जाति की महिलाओं में नृत्य कला का भी गुण विद्यमान है । रैगर जाति संघर्षशील जाति रही है फिर भी इस जाति के लोगों में जीवन जीने की कला सीख ली है । इस जाति की महिलायें नृत्य सीखने के लिय किसी प्रकार का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया करती है । अधिकतर नृत्य उत्सवों, त्यौहारों और ऋतुओं से सम्बन्ध रखते है । इनमें विवाह आदि पर नाचे गाये जाने वाले नृत्य, महिलाओं द्वारा विवाह के अवसर पर कुम्हार के यहां ‘चाक’ पुजते समय गीत गाने, बारात रवाना होने के बाद दुल्हे के घर की स्त्रियों द्वारा किये जाने वाले ‘टूंटिया’ नृत्य, होली आदि त्यौहारों पर किये जाने वाले नृत्य आदि सम्मिलित है ।
पुराने समय में रैगर जाति में खेलकूद दो प्राकर के होते थे एक तो बैठ-बैठ के खेल और दूसरे भागदौड़ के खेल । पहली तरह के खेलों में चौपड़, शतरंज, चौरस आदि खेल उल्लेखनिय है । बालिकाओं द्वारा गट्टे खेलना, वर्षा में गीली मिट्टी से घर बनाना भी प्रसिद्ध रहे है । उछल-कूद के खेलों में लुका-छिपी, मारदड़ी, कच्छी घोड़ी, लूण-क्यार, सितोलिया आदि कुछ खेल है।
157/1, Mayur Colony,
Sanjeet Naka, Mandsaur
Madhya Pradesh 458001
+91-999-333-8909
[email protected]
Mon – Sun
9:00A.M. – 9:00P.M.