उपनाम (Surname) और जाति व्यवस्था

उपनाम की परिभाषा :- नाम के साथ प्रयोग हुआ दूसरा शब्द जो नाम कि जाति या किसी विशेषता को व्यक्त करता है उपनाम (Surname / सरनेम) कहलाता है। जैसे महात्मा गाँधीमें दूसरा शब्द गाँधी उपनाम हैं।

भारत में जाति व्‍यवस्‍था एक सच्‍चाई है। जितने भी परिवार और समाज के कार्य होते हैं, उन सभी में जाति ही मूल आधार है। यहां तक कि राजनीति में चाहे टिकट मिलने की बात हो या हार-जीत का समला हो, उसमें भी जातिगत समीकरण की प्रमुख भूमिका है। ‘जाति तोड़ो आन्‍दोलन’ के पक्षधर अपनी ओर से हर संभव प्रयास कर रहे हैं, लेकिन इसका टूटना संभव नहीं हो पा रहा है। जाति एक कटु यर्थार्थ है और जीवन में इसका अहम रोल है।

जहाँ तक सरनेम (उपनाम) लगाकर जाति की प्रभावोत्‍पादकता को कम करने का जो प्रयास किया गया या किया जा रहा है, उससे बात बनी नहीं । वैसे भी उपनाम (सरनेम) लगाने की प्रथा भारतवर्ष में चन्‍द्रगुप्‍त मौर्य को छोड़कर कहीं दिखाई नहीं पड़ती ।

हाँ, अंग्रेजों के नाम के साथ उवश्‍य ही सरनेम थे । शायद उनसे स्‍वतंत्रता पाने और प्रशासन के हस्‍तांतरण के साथ ही सरनेम लगाने की परम्‍परा भी हमने ले ली । उस समय स्‍वर्ण लोग शासन में अए, उन्‍होंने सरनेम की जगह अपने गौत्र, जाति या उपजाति का प्रयोग किया । इसके बाद जब बहिष्‍कृत भारत यानी अछूत समाज थोड़ा बहुत पढ़ा और छोटी-मोटी सरकारी नौकरियों में आया, तो वर्ग-व्‍यवस्‍थानुसार जो नाम दास या राम से सुसज्जित उनके होते थे, तो लोगों ने उनसे दास व राम हटाकर आधे-अधुरे नाम जैसे नत्‍थूराम की जगह ‘नत्‍थू’ तथा रामदास की जगह ‘रामे’ आदि से पुकारा जाने लगा तो ये बातें उनकेा अच्‍छी नहीं लगी चूंकि पांडेजी, गुप्‍ता जी, वर्मा जी, शर्मा जी आदि से लोग आपस में सम्‍बोधित करते हैं, जबकि उनके पूरे नाम की जगह आधे-अधूरे नाम से ही पुकारा जाने लगा, तो अगली-पीढ़ी में नाम रखने की कला में क्रांति आई । गन्‍दे नाम या नाम के साथ सरनेम (उपनाम) न होना अनुसूचित जाति से सम्‍बन्धित होने की पहचान बन गई थी । अनुसूचित जाति के लोगों ने शुरूआत में गस्‍से वाले आजादी को प्रदर्शित करते हुए उपनाम लगाए जैसे- बेचैन, जख्‍़मी, प्‍यासा, अनजाना, निर्भीक, अशान्‍त, निर्मोही, जाहिल, परदेशी, दु:खी, बागी, आजाद, बेदर्दी, परवाना, विद्राही आदि।

दूसरी क्रांति नाम को सुन्‍दर व अर्थपूर्ण बनाने हेतु जैसे- राकेश, भास्‍कर, शान्‍त, दिवाकर, शशी भूषण, दीपक, कुसुम, सुमन, सुमनाक्षार, प्रेमी, प्रियदर्शी, सुखी, पंकज, पुष्‍पांकर, हंस कँवल आदि गांव व राष्‍ट्र से सम्‍बन्धित गौरवपूर्ण भारती, भारतीय, हिन्‍दुस्‍तानी, माधोपुरी, देहलवी, चित्तौड़िया, अगरिया आदि सरनेम लगाए।

इसके बाद एक दौर आया, जब तथाकथित नीची जातियों में शिक्षा का अच्‍छा प्रचार हुआ तो उन्‍होंने गीता एवं रामचरित्र मानस, गीता प्रेस से खरीदकर सुबह-शाम पाठ किया और माथे पर तिलक भी लगाया । परन्‍तु लोगों से फिर भी घृणा ही मिली । जातिवादी नामों से पुकारना नहीं छूटा । उनके नाम के साथ जो सरनेम लगे थे, उनसे पुकारने की जगह उनकी छानबीन होनी शुरू हुई, कहाँ से हैं आप ? आपके पिताजी क्‍या करते हैं ? घर में खेती-बाड़ी होती होगी, इन सब प्रश्‍नों के पूछने का केवल एक ही मकसद होता है कि आप किस जाति से है सफर करते हुए बगल में बैठे आदमी से जब तक उसकी जाति के विषय में न जान लिया जाए, तब तक पेट दर्द ही बना रहता है।

इस समस्‍या के समाधान हेतु लोगों ने प्रतिक्रिया ही, जिसके फलस्‍वरूप कई परिणाम सामने आए । डॉ. अम्‍बेडकर के बाद बौद्ध धर्म में दीक्षित एवं उसमें आस्‍था रखने वालों ने गौतम, सिद्धार्थ, बौद्ध, अशौक, मौर्य, आनन्‍द, राहुल आदि से अपने को सम्‍बोधित करने वाले उपनाम लगाए और जाति पूछने पर बताया कि हम बौद्ध धर्मी है । कुछ लोगों ने सीधी प्रतिक्रिया करते हुए जातिवादी उपनाम चौहान, चन्‍देल, जटिया, रविदास, रैगर, जाटव, मेघवाल, बाल्‍मीकि, दुसाध, पासी आदि लिखकर दी ।

इसी प्रकार कुछ लोगों ने प्रकृति से सम्‍बन्धित पीपल, नीम, सागर, पुस्‍कर, कमल, सुमन, कर्दम, निशांत आदि और कुछ लोगों ने गुप्‍ता, गोयल, वर्मा, शर्मा, भारतद्वाज और भार्गव आदि तथाकथित उच्‍च जाति उपनाम भी लगाए (चूंकि उपनाम लगाने पर बंदिश तो है नहीं), परन्‍तु सलूक उनके साथ भी वही हुआ । फिर भी उनसे पूछा जाता है कि वे किस वर्ग से हैं, कागजों में जाति प्रमाण-पत्र तो होता ही है, उसकी भनक पाते ही लोग उनसे ज्‍यादा नफरत करना शुरू कर देते हैं । यहाँ से एक अर्थ निकलता है कि अछूतों ने समाज में मिलना चाहा, परन्‍तु लोगों ने मिलाने की अपेक्षा ज्‍यादा अपमानित करने का प्रयास किया।

जाति एक ऐसी लाइलाज बीमारी है, जिसका कोई अस्तित्‍व नहीं, परन्‍तु भारतीय समाज में जाति ही उसका स्‍थान निर्धारित करती है, जो एक कटु सत्‍य है, जबकि आज के समाज में संविधान के अनुसार कोई भी अपना धर्म, पहनावा, निवास-स्‍थान, कार्य करने का स्‍थान, यहाँ तक कि नाम भी बदल सकता है, परन्‍तु जाति नहीं बदली जा सकती । जाति कहने को तो ‘जाति’ की तरह उच्‍चारित की जाती है, जिसका अर्थ निकालना है, ‘जाना’, परन्‍तु जाति मरने के बाद भी नहीं बदली जा सकती।

जिस तरह से तथाकथित उच्‍च जातियाँ निम्‍न जातियों को फंसाये रखने के लिए तरह-तरह के जा‍ल बिछाती रहती है उसी तरह शोषित-‍पीड़ित, निम्‍न जातियाँ भी अपनी जाति का नाम बदलने, पेशे बदलने तथा स्‍थान बदलने से लेकर धर्म परिवर्तन तक की रीति-रिवाज़ अपनाए । बाबा साहेब डॉ. अम्‍बेडकर ने बौद्ध धम्र को अपनाकर उनकी उम्‍मीदों पर तो पानी फेरा ही, बल्‍कि अनुसूचित जाति के लोगों को एक छतरी के नीचे इकट्ठा होने व जीवन को सुखी एवं सफल बनाने का रास्‍ता भी दिया, परन्‍तु इस दिशा में आशा के अनुकूल परिणाम सामने नहीं आया और लोग जाति के दामन से पूर्णत: विमुख नहीं हुए, जो चिन्‍तनीय पहलू है ।

जहां तक रैगर जाति में उपनामों (सरनेम) की बात करे तो, रैगर जाति में वेसे तो अपनी गौत्र व जाति को अपने नाम के साथ उपनाम के रूप में लगाने का प्रचलन है लेकिन अब कुछ शिक्षित लोगों ने अपनी जाति को छुपाने के उद्देश्‍य से या किसी अन्‍य कारण से अपने नाम के साथ वर्मा, चौहान व आर्य को सरनेम के रूप में उपयोग करने लगे है । आर्य लगाने वाले बुद्धिजीवी लोगों का कहना है कि वे आर्य समाज से प्रभावित होकर ‘आर्य’ सरनेम लगाने लगे है । रैगर जाति में सबसे प्रचलित सरनेम ‘वर्मा’ है । इन सरनेम को लगाने से व्‍यक्ति की गौत्र का पता नहीं लगता और वह अपनी जाति को छुपाने में कामयाब हो जाता है इसलिए इसका प्रचलन बढता चला जा रहा है लेकिन इन सरनेम से इस बात का भी भय है कि रैगर जाति कही अपने मूल गौत्र की पहचान को ना नष्‍ट कर बेठे ।

प्राय: यह देखने में आता है कि रैगर जाति के अधिकांश लोग अपनी जाति को छिपाकर रहते हैं और रखते हैं और अगर कहीं जाति बताने का प्रश्‍न आता है तो जाति को बताने में बहुत ही दुविधा महसूस करते है और अगर बताते भी है तो, वो भी हिचकिचाहट के साथ आधी-अधुरी ही बातते है टालमटोल के साथ । तब दूसरे लोग इसे आपकी कमजोरी ही समझते हैं । यह प्रवृति शिक्षित और धनी लोगों में अधिक पाई जाती है, जबकि हमारी रैगर जाति संस्‍कृति, इतिहास, तर्कशीलता, बुद्धिमतता, तर्कशीलता, ईमानदारी व कर्मठता की दृष्टि से अन्‍य जातियों की तुलना में किसी भी रूप से कम नहीं है, फिर जाति को स्‍पष्‍ट रूप से बताने में लज्‍जा किस बात की, गर्व क्‍यों नहीं ? जब भी कोई जाति पुछे तो आप गर्व से कहे की ”मैं रैगर हुँ!” और अपनी इस हीन भावना का परित्‍याग कर देंवे । स्‍वयं को रैगर बताने में गौरव का ही अनुभव करे ।

इस तरह गोत्रों को संधोधित करने के दूरगामी परिणाम बहुत बुरे होंगे क्‍योंकि मूल गोत्र की पहचान खत्‍म हो जाएगी और सह गोत्र में ही रिश्‍ते होने की संभावना रहेगी । इसलिए अपने मूल गोत्रों को संशोधित नहीं किया जाना चाहिए ।

जाति को हथियार बना लो

सवाल उठता है कि ऐसे प्रयासों से आखिर मिला क्‍या ? क्‍या जिन सजातिय बंधुओं ने अपने गौत्र और उपनाम को बदल दिया है, वे अपनी जाति के नाम से पिछा छुड़ा पाए है ? नहीं । क्‍या यह सब करने के बाद भी वहाँ पर सामाजिक समानता हांसिल हुई ? यदि वहाँ भी यही सब सहना है तो फिर अपने भाईयों से दूर जाने से क्‍या फायदा ? मैं रैगर बंधुओं से मार्मिक अपील करना चाहूँगा कि बंधुओं आपके महान पुरखों ने घारे उत्‍पीड़न सहते हुए गाँवों की सीमाओं से बाहर रहना स्‍वीकार कर लिया था लेकिन किसी के सामने अपने हथियार नहीं डाले । आप क्‍यों आर्य समाजी बनते हो ? बेहतर होगा कि आप अपनी जाति को ही हथियार बनाओं । हमारा इतिहास कितना गौरवशाली है ? आप कितने महान पुरूषों की संताने हैं । आपके बीच कितने महान संत और राजनीतिज्ञ पैदा हए ? आपके बीच कितने समाजसेवी पेदा हुए ? क्‍यों न इसी जाति को अपना हथियार बनाते हुए अपनी चहुंमुखी उन्‍नती करें । और अपने हृदय के अन्‍त: स्‍थल से रैगर होने पर गर्व महसूस करें।

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