समाज का व्यवसाय

रैगरों का पारम्‍परिक धंधा चमड़े की रंगाई करना है । उनका चमड़े रंगने का धंधा पीढ़ि दर चला आ रहा है । चमड़े की रंगाई अभी भी देशी तरिके से ही करते आ रहे हैं । रैगरों ने अभी भी चमड़े की रंगाई में आधुनिक तकनिक को नहीं अपनाया है । इसलिए उनका यह व्‍यवसाय भी पिछड़ गया है । सरकार ने भी इसकी तरफ विशेष ध्‍यान नहीं दिया । लाखों लोगों के भरण-पोषण का यह धंधा खत्‍म होता जा रहा है । देशी तरीके से रंगाई करने में देशी बबूल या आंवल की छाल (रांग), धमासा, नमक तथा तेजाब वगैरा काम में लिए जाते हैं । चमड़ा आज महंगा होते हुए भी घृणित समझा जाता है । इसलिए आज की पीढ़ि के रैगर नवयुवक इस धंधे को छोड़कर सरकारी नौकरियों में या अन्‍य व्‍यवसायों में जा रहे हैं । चमड़ा रंगाई का कार्य रैगर जाति में धीरे-धीरे समाप्‍त होता जा रहा है । इस व्‍यवसाय का कोई भविष्‍य नहीं है ।

रैगर चमड़े रंगने के अलावा चमड़े की जूतियें तथा चप्‍पल बाने का कार्य भी करते हैं । चमड़े की जूतियें बनाने का कार्य प्राय: ग्रामीण इलाकों में किया जाता है । शहरों में चप्‍पलें बनाने का काम रैगर बड़े स्‍तर पर करते हैं । दिल्‍ली, मुम्‍बई, अहमदाबाद तथा जोधपुर वगैरा में रैगर चप्‍पलें बनाने का कार्य करते हैं । इनकी बनाई हुई चप्‍पलें विदेशें तक जाती है । इस व्‍यवसाय में भी बिचोलिये मुनाफा ज्‍यादा कताते हैं और रैगरों को अपनी मेहनत का पूरा पैसा नहीं मिल पाता ।

रैगर खेती का काम भी करते हैं । आजादी से पहले इन्‍होंने जमीन और खेती की तरफ ध्‍यान नहीं दिया मगर बाद में इनका ध्‍यान इस धंधे की तरफ गया । अभी भी इनके पास कृषि के लिए पर्याप्‍त जमीन नहीं है । उपलब्‍ध जमीन पर खेती करके अपना भरण पोषण करते हैं । फिर भी यह कौम खेतीहर कौम नहीं कही जा सकती क्‍योंकि इनका मुख्‍य धंधा खेती करना नहीं है ।

शहरों में बारदानें का व्‍यवसाय भी रैगर लोग करते हैं । इस व्‍यवसाय में लगे अधिकांश रैगर दैनिक मजदूरी पर जाते हैं । कुछ लोगों की अपनी निजी दुकानें भी हैं । इस व्‍यवसाय में लाखों रूपयों की जरूरत होती है । पैसों के अभाव में ये लोग स्‍वयं का धंधा चलाने में सक्षम नहीं हैं । कई लोग दिन में दुकानों, फेक्ट्रियों, सरकारी कार्यालयों वगैरा में घूम-घूम कर फैरी का काम भी करते हैं । जिससे दिन भर में गुजारे लायक कमा लेते हैं ।

शहरों में रैगरों की औरतें बीड़ियें बनाने तथा खजूर की पंखियें बनाने का काम भी करती हैं । इस कार्य में औरतें अच्‍छा पैसा कमा लेती है । और अपना घर खर्च आसानी से चला लेती है ।

आज कल रैगर सभी तरह के व्‍यवसायों में प्रवेश कर चुके हैं । दुकानें, कारखानें, बस, ट्रक आपरेटर, ठेकेदारी, वगैरा सफलता पूर्वक कर रहे हैं । रैगर प्रमुख रूप से व्‍यवसायिक कौम है । इसलिए वायदे और वचन के पक्‍के होते हैं । हजारों रूपयों के सौदे बिना लिखा पढ़ी के हो जाते हैं मगर बात में कभी अंतर नहीं डालते हैं । इसलिए रैगरों की अच्‍छी साख है ।

शिक्षित रैगर सरकारी नौकरियों में आ रहे हैं और अच्‍छे पदों पर नियुक्‍त है । भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, राजस्‍थान प्रशासनिक सेवा, राजस्‍थान पुलिस सेवा, डॉक्‍टर, इंजिनियर तथा बैंको आदि में महत्‍वपूर्ण पदों पर नियुक्‍त हैं और सफलता पूर्वक अपना दायित्‍व निभा रहें हैं ।

समाज के उच्‍च वर्ग के लागों ने, जो कार्य कला का था, कौशल का था, उसे नफरत का आवरण पहना दिया । यह कैसी विडम्‍बना है कि जब यही कार्य विप्र वर्ग अपने हाथों से करते थे, चमड़ा अपने घर ले जाते थे और उसे साफ करके उपयोग में लाते थे, त‍ब किसी प्रकार का भेदभाव की कल्‍पना नहीं की जा सकती थी, परन्‍तु कालान्‍तर में जब चमड़ा घरेलू उपयोग में कम हो गया, तब यह काम चौथे वर्ग (शूद्र) के इस क्षेत्र में प्रवीण लोगों को सौंप दिया गया, तो यह कार्य और उसके करने वाले घृणा के पात्र समझे जाने लगे और हजारों वर्षों की अवधि बीत जाने के बाद भी उनकी स्थिति में कोई विशेष अन्‍तर नहीं आया ।

रैगरों का पारम्‍परिक धंधा चमड़े की रंगाई करना है जो आधुनिक तकनिक से नहीं किया जाने से इसमें मजदूरी के अलावा कुछ नहीं मिलता । वैज्ञानिक तरीके से चमड़े की जो रंगाई होती है उसकी तुलना में देशी रंगाई का कोई स्‍थान नहीं रह गया है । इसलिए रैगरों का पारम्‍परिक धंधा स्‍वत: समाप्‍त हो जाएगा । पढ़े लिखे रैगर नवयुवकों को उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त करके ऊची सरकारी नौकरियों में पहुंचाना चाहिए तभी रैगर जाति की प्रगति हो सकेगी ।

(साभार- चन्‍दनमल नवल कृत रैगर जाति का इतिहास एवं संस्‍कृति)

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