1. गीतों का वर्गीकरण :- रैगर जाति के गीत त्यौहारों और पर्वों से जुड़ी कथाओं की अभिव्यक्ति है । ये गीत ‘रजवाड़ों के गीत’ नहीं है इसलिये ये गीत महलो, हवेलियों, किलों की चारदिवारियों में नहीं पनपे । ये गीत हंसी-खुशी, क्रोध-करूणा, मिलन-बिछोह जैसी भावनाओं को स्पष्ट बताते है । रैगर जाति में गाये जाने वाले लोकगीतों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है । पहले भाग में ऐसे गीत है जिनका मूल तत्व भक्ति रस है । इस वर्ग में राम, कृष्ण, शंकर, हनुमान, गणेश तथा अन्य लोकप्रिय देवी देवताओं जैसे भैरू जी, भेमिया जी, रामदेव जी के कीर्तिमान सम्बन्धी और कबीर, मीरा आदि संतों की छाप के लोकभजन गाये जाते है जैसे- ‘रींगस का भैरू लाडला, म्हारी अरज सुनलो कांइ रे’ तथा ‘हेलो म्हारे सुनियो रे बाबा रूणीचे रा नाथ, हुकम देवो तो धणी रे आउंला दरबार, म्हारो हेलो सुणो जी रामा पीर’ ।
दूसरे भाग में वे गीत आते हैं जो रैगर जाति की जीवन क्रियाओं, प्रणय, ऋतुओं, पर्वों, त्यौहारों आदि विषयों पर आधारित होते हैं । सास-बहु, समधी-समधन, ननद-भौजाई, ननदोई-देवर, भाभी, बड़सासू के रिशतों पर गाये जाने वाले गीत भी इसके अंतर्गत आते हैं जैसे – ‘तीन पाव का चांवल-रांद्या, बांदरा खागा, तो सूं भाग्यों जाय तो भाग, घर में बांदरा आगा, रे बैरी पावणा आगा’ । तथा ‘भाया की बड़ सासू रै, दो दन रहजा पावणी, थारे कड्यां घड़ा द्यू रे ।’ इस भाग में संस्कारों के गीत भी सम्मिलित किये जा सकते हैं । जन्म-मरण व लौकिक 16 संस्कारों पर ये गीत जैसे तेल, हल्दात, घोड़ी, बन्ना-बन्नी, मेहंदी, पीला उढाना, कामण, तोरणियों, बधावा इसी वर्ग में आते हैं । ये सभी गीत संस्कारों के गीतों की श्रेणी में आते हैं जैसे – ‘उंचलिये मंगरे री मेंहदी, जैसाणे री ढेल, म्हारी मेहंदी रंगी राचणी ।’ तथा ‘खातीडा रा बेटा चतुर सुजान, तोरणियां घड़ल्या द, महाने चंदन कके रे रूख रो हो राज ।’ ये गीत जिन रागों पर आधारित होते हैं उनमें पहाड़ी, दुर्गा, भूपाली, सारंग, पीलू, गारा, झिझोटी देश, सोरठ, मांड, काफी, खमाज तथा तिलककामोद प्रमुख है जैसे ‘गोरी थारे श्याम को परवाणों आयो रे, परवाणो आयो रे, संदेसो आयो रे’ ।
तीसरे भाग में अलग-अलग राग के अशुद्ध मिश्रण पाये जाते हैं जो प्राय: दुर्गा, पहाड़ी तथा भूपाली में अपने ही ढ़ंग से गाये जाते हैं । इस रीति से गाये जाने वाले गीतों की धुनों को आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता । इन गीतों की मधुरता अपने आप में बड़ी ही मिठी होती है ।
2. भाषाओं और बोलियों पर आधारित गीत :- रैगर जाति के लोग राजस्थान के विभिन्न जिलों में निवास करते हैं अत: वहां की बोली वाले लोकगीत भी उन्होंने अपना लिये है । हाड़ौती, मवाड़ी, ढूंढारी, मारवाड़ी, शेखावटी, बागड़ी व बृज आदि विभिन्न आंचलिक भाषाओं के आधार पर इनका वर्गीकरण किया जा सकता है । हर बारह कोस पर बोली तथा पानी बदल जाता है इसीलिए रैगर जाति के गीतों के बोल तथा धुनों में भी थोड़ा अन्तर आ जाता है । इन गीतों में भूगोल का भी प्रभाव पड़ा है । इसके अलावा जिस स्थान में रैगर जाति के लोग रहते हैं वहां की महत्वपूर्ण घटनाओं और नये संचार साधनों को भी अपने गीतों में समावेश कर लिया गया है । राजस्थान में कौन-कौन से भाग में कौनसा मौसम हितकारी है के सम्बंध में एक दोहा प्रचलित है – सीयाले खाटू भली, उन्हाले अजमेर, जोधाणी नित को भलो, सावण बीकानेर । मोटे तौर पर रैगर जाति के गीतों के निम्न आंचलिक भेद माने जा सकते हैं :
1. ढूंढाड़ी : जयपुर, दौसा, सवाई माधोपुर का एक भाग ।
2. हाड़ोती : कोटा, बूंदी, झालावाड़ ।
3. मेवाड़ी : उदयपुर, भीलवाड़ा, चित्तोड़गढ ।
4. मारवाड़ी : जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, पाली, नागौर ।
5. मेवाड़ी : अजमेर, ब्यावर, किशनगढ़ ।
6. सिरोही : आबू अंचल के गीत, बागड़ी भी, गुजराती भी ।
7. पूर्वाचंल के गीत : करौली, भरतपुर, धोलपुर, कोटा कुछ भाग, अलवर जिले का कुछ भाग, सवाई माधोपुर जिले का एक भाग ।
8. मेवाती क्षेत्र : अलवर जिला, भरतपुर का कुछ क्षेत्र, सवाई माधोपुर जिले का एक भाग, हरियाणा का एक भाग ।
9. उत्तर पश्चिमी राजस्थान : जिसमें पुराने बीकानेर डिवीजन तथा शेखावटी व तोरावटी के बीच में रहने वाले रैगर जाति के गीत : सीकर, झुंझुनूं, चूरू, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़ तथा हरियाणा का एक भाग ।
10. दिल्ली के रैगर गीत : दिल्ली में रैगर जाति के लोग आकर बस गये थे फिर उनके गीतों में राजस्थानी भाषा का ही बोलबाला रहा ।
11. सिंध से आने वाले रैगर जाति के गीत : आजादी और भारत विभाजन से पहले रैगर जाति के लोग सिंध पाकिस्तान में रहते थे इसलिए अनके गीतों में सिंधी भाषा के बदले राजस्थानी भाषा ही का पुट हुआ करता था । अब इस सम्बंध में कुछ भी जानकारी मिलना मुश्किल हो गया है ।
12. पंजाब के रैगर जाति के गीत : पंजाब में भी रैगर जाति के लोग रहते हैं उनके गीतों में पंजाबी भाषा का ही बाहुल्य है ।
3. प्राचीन गीत : रैगर समाज के प्राचीन गीतों के बारे में अब बहुत कम जानकारी उपलब्ध है । ये वो गीत थे जो रैगर महिलायें विभिन्न उत्सवों पर गाया करती थी । ये गीत तत्कालीन स्थितियों को बताते थे । मुझे अच्दी तरह याद है जब मेरी माताजी स्व. श्रीमती खेमली देवी रछोया मुझे बचपन में कई गीत सुनाया करती थी । इन गीतों में एक गीत आज भी मेरे मन: स्थल पर विद्यमान है :-
”पीतल की चिमनी में, मटिया को डाल्यो तेल ।
वा तो जूपैगी रंगमहल में, सारी रात ।।
डट जा ऐ रेल भवानी म्हारा मारूजी को आयो देस ।
मैं तो डाटी ना ही डटूंगी, डटूंगी अजमेर ।।
इस गीत से स्पष्ट होता था कि उस समय रेल राजस्थान में प्रारम्भ ही हुई थी परन्तु वह अजमेर जैसे बड़े स्टेशनों पर ही रूका करती थी । इसके अलावा उस जमाने में रोशनी चिमनी में मिट्टी का तेल डालकर ही की जाती थी । तब तक बिजली नहीं आई थी ।
इसी प्रकार उस जमाने में रैगर महिलायें सुबह-सुबह दो पाटों वाली पत्थर की चक्की पर आटा पीसती हुई, शाम को एकत्रित होकर शुभ अवसर पर राति जगा करते हुए मेलों आदि पर हरजस और भजन गया करती थी । मुझे मेरी सास माता जी स्व. श्रीमती रामदेवी खोरवाल के द्वारा गाये गये हरजस गीत आज भी याद है जो निन्न प्रकार से थे :
गया रे काला केश, धोळा न तज रे, थारी उम्र बीती जाये, भज्ये लो कद रे ।।
थारी परणी छोड़ी प्रेम कदर थारी ना ही रे, झूठ कपट ने छोड़, रा नै भज रे ।।
थारी उम्र बीती जाये, भज्य लो कदरे ।।
थारी बहुआ छोड़ी लाज, शर्म गई तज रे । थारो बेटा बोल्या बोल, मरे रो कदरे ।।
तू झूंठ कपट न छोड़, राम नै भज रे । थारी उम्र बीती जाये, भज्ये लो कदरे ।।
”भाई रै मत दे मायड़ ने दोष, कर्मा री रेखा न्यारी न्यारी ।
एक मायड़ रै बेटा चार, चारां ही रेखा न्यारी न्यारी…… ।।
उस जमाने में रैगर छैल छबीले नवयुवक भी मैलों में निम्न प्रकार गीत गाये थे :-
”टाटा गैन्दाला री छोरी गंगली, तूनै लेर तो चालुगो ऐ, तूनै लेर तो चालुंगो रे ।।
4. रैगर जाति में गाये जाने वाले गीत : रैगर जाति में आजकल विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले कुछेक गीत निम्न प्रकार से है :-
1. विनायक (राग:पीलू /ताल:दीपचन्दी) : रैगर जाति में विवाह उत्सव का प्रारम्भ गणेश जी को नौतने से प्रारम्भ होता है । विवाह का कार्ड अथवा हल्दी में किये गये पीले चावल का न्यौता गणेश जी को दिया जाता है । तेल की रस्म के दिन तेल में पुड़ी और गुड़ के मीठे पूये तल कर एक लौहे के सुये में पिरो कर घर में बनाये गये गणेश जी के सामने रखते हैं । गीतों में विवाह का कार्य निर्विघ्न समाप्ति की प्रार्थना की जाती है:-
‘छाजे रे छाजे नौबत बाजे, म्हारे घर आणंद बधावो विनायक, छाजे रे छाजे ।
कंवर लाडलड़ा रो बिड़द उपाई, रणत भंवर सूं आवो विनायक, छाजे रे छाजे ।
भवार्थ : मरे घर के द्वार पर शहनाई व नगाड़े बज रहे हैं । हे गणेश जी ! मेर घर पर पधारे तथा कार्य साधकर लाडले कुंवर की कीर्ति बढावें ।
2. आज बागां में रिमझिम हो रही (राग : शिवरंजनी/ताल: कहरवा) : प्रस्तुत गीत अलवर जिले में गया जाता है । सावन में नवविवाहित लड़की को ससुराल में चूंदड़ी भेजने का पुराना रिवाज़ है :-
आज बागां में, रिमझिम हो रही जी, आयो म्हारी मां को जायां बीर,
हीराबंद लियायो चूंदड़ी जी । आज ………..
जैरे पहरूं तो मोती झर पड़े, बुगचे धरूं तो तरसे जीव,
सादी क्यूं न लयायो चूंदडी जी ।। आज …….
थारी तो बधियों रे बीरा बेलड़ी जी, अमर रहो रे थारी काय,
पंचा में उंचा तैकरी जी ।। आज…
थारी तो बधियों रे बीरा बेलड़ी जी,
अमर रहो रे थारो मान । भायां में उजली तैं करी जी ।
भावार्थ : आज पावन काल में मेरा भाइ्र मेरे लिये चूंदड़ी लाया है जो हीरों से जड़ी हुई है । यदि इसे पहनती हूं तो इसके हीरे झड़झड़ पढ़ते हैं । यदि उतारकर रखती हूं तो जी तरसता है कि भाई द्वारा लाई चूंदड़ी क्यूं नहीं पहनी । ऐ भाई, तेरी वंश बेल बढ़े तूने मेरा नाम ऊंचा रखा । तूने समाज में मेरी बात रखी है, जात विरादरी में मेरी प्रतिष्ठा रखी है । हे भाई तेरी काया, तेरा नाम अमर रहे ।
3. खा गयो बैरी बीछूड़ो (राग : तिलक कामोद/ताल : कहरवा) : बचपन में यह गीत मैंने दिल्ली के टूंट्या में रैगर महिलाओं के मुखारविन्द से सुना था । यह मनमोहक भावनाओं का मोहक चित्रण है ।
”मैं तो मरी होती राज मरी होती, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
बीछूड़ो डंक लगाय गयो सा, खा गयो बैरी बीछूड़ो,
आगे आगे चाले म्हारै वैद जी को लड़कों,
पाछा सूं आया म्हारा प्यारा लखपतियां, खा गयो बैरी बीछूड़ों,
वैद जी बुलाया म्हारे डाक्टर आया, पाछा सा आया म्हारे ससुरो सा,
पिलगां पर बैठे म्हारे वैद जी को लड़को,
फरसा पर बैठे म्हारा आलीजा, खा गयो बैरी बीछूड़ों,
नाड़ी तो देखे म्हारे वैद जी को लड़को, टप टप रोवै म्हारा आलीजा,
म्हारे परणेतो कब्जा ने लाहड़ी पहरेगी । खा गयो बैरी बीछूड़ों,
भावार्थ : पत्नी को विषैले बिच्छू ने डस लिया है अपना मरण निश्चित समझती हुई यह कह रही है कि मैं पति, ससुर सबकी लाड़ली हूं । मुझे बचाने के प्रयत्नों में सम्मानित वैद्य, डाक्टर, हकीम सभी लगे हुए हैं लेकिन मेरा बचना न हो । मेरे प्रियतम को कोई बछुआ कह कर न चिढ़ावे अत: मैं उन्हें दूसरे विवाह की सलाह दे रही हूं तथा मेरी इच्छा है कि मेरी शादी के समय के वस्ताभूषण मेरे बाद में आने वाली पत्नी को पहना दे ।
4. उड़ जाऊंगी मां पांख लगाय (राग:तिलक कामोद/ताल:कहरवा) : रैगर बालिका अपनी मां से कहती है कि मां मुझ से कोई भी ईष्या क्यों रखे क्योंकि हम तो परदेशी चिड़िया है, पंख लगाकर उड़ जाने वाली है ।
उड़ जाऊं ओरी मां पांख लगाय, चली जाऊंगी री मां पांख लगाय,
थोड़ा सा दणा री पावणियां, म्हारा दादा जी गढ़ावे सोना सांकलयां,
म्हारी जीजा हो राज, मूड़े तो बोल, अम्बर जैसी कोयलड़ी ।
म्हारी काकाजी गढावे, सोना बोरला,
म्हारी काक्यां हो राज, मूड़े तो बोल हें परदेशी चिड़कल्यां ।
म्हारी बीराजी मढ़ावै सोना झूठण्या, म्हारी भौजायां हो राज, मूड़े तो बोल,
अम्बर जैसी कोयलड़ी, म्हारा पड़ौसी चढ़ावै सोना टेवट्या,
म्हारी पड़ोसन हो राज, मूड़े तो बोल, महें परदेशी चिड़कल्या ।
भावार्थ : ओ मेरी मां पंख लगा के उड़ जाऊंगी । मैं थोड़े से दिनों की मेहमान हूँ । मेरे दादाजी, काकाजी, भाईजी, पड़ोसी मेरे विवाह में देने हेतु क्रमश: सोने की जंजीर, झुठलिया आदि जेवर घड़वाये हैं लेकिन मेरी काकी, भाभी, पड़ोसिन तथा मां ने इस पर अप्रसन्नता प्रकट की तथा मुझ से बाली भी नहीं । ओ मेरी मां मुझसे मुंह से तो बोल मैं परदेशी चिड़िया हूं, फुर्र से उड़ जाऊंगी । गांव में कन्या, न केवल उसके माता पिता को सभी को प्यारी लगती है ।
5. कोयल बाई सिध चाल्या (राग: वृन्दावनी सांरग/ताल: दीपचन्दी) : कन्या पक्ष की ओर से विवाह के समय स्त्रियां इस कोयलड़ी गीत को गाती है । अत: खोला भरने जाती हुई, बाइ को विदाई के समय, करूण रस से पूर्ण निम्न गीत गया जाता है –
म्हें थाने पूछा म्हारी कंवर बाई ओ ।
अतरो बाबा जी रो लाड़, छोड़ बाइ, सिध चाल्या ।
आंबो पाक्यो ओ, आमली, पाक्यो-पाक्यो नीबूड़ा रो रूख,
म्हे थाने पूछां ओ, राधा बाइ, इतरो बाबाजी रो हेत,
छोड़ री बाइ सिध चाल्या, हे आओ परदेशी सूवटो,
लेग्यो टोली में सूं टाल, कोयलड़ी अब बोलो
आपरां माउजी रो लाड़, छोड़ रे बाइ सिध चाल्या ।
आयो सगां रो सूवटो, ले गयो टोली में सूं टाल, कोयल बाइ सिध चाल्या ।
भावार्थ : आम, इमली पक गये तथा नींबूओं में रस भर गया, अर्थात् कन्या युवती हो चली । ऐ बाई अपने पिता का इतना स्नेह छोड़ कर तुम कहां चल दी ? अपनी माता का प्यार छोड़कर कहां जा रही हो ? कन्या ने बताया कि समधाने सूवटा अर्थात पक्षी मुझ कोयल को लिवाने आया हे तथा वह पूरी टोली में से मुझे छांट कर ले जा रहा है । रैगर संस्कृति की यह परम्परागत विवशता है कि कन्या को विवाह के पश्चात ससुराल, अपरिचितों में जाना पड़ता है, चाहे माता पिता ने कितने ही लाडो से उसे पाला हो ।
6. खाटू श्यामजी : खाटू श्याम जी के मन्दिर में जात, जडेूले के लिये यहां दूर दूर से यात्री आये है ।
धन खाटू, धन सांवला नन्दलाल, जी परभु, धन रै ढूंढाड़ी लोग,
स्याम सुहावणा, बाबा स्याम, कै रे कोसा में थारो देवरो, बाबा स्याम,
जी, परभु, कै रे कौसां में जगाजोत, स्याम सुहावणा, बाबा स्याम ।
अस्सी ऐ कोसां में थारो देवरो, बाबा स्याम, जी परभु, सगली सिस्टी से जगाजीत,
कुण चिणयों थारो देवरो, बाबा स्याम, जी परभु, सेवकां दिवाइ गज नीव ।
राजाजी चिणायों म्हारों देवरो, बाबा स्याम, जी परभु, सेवकां दिवाइ गजनीव,
7. घी ही पी : रैगर जाति में विवाह के पहले वर तथा कन्या को अपने-अपने घर घी तथा शक्कर पिलाई जाती है तथा उनकी पीठ पर थप्पी देते हैं ।
घी ही पी, म्हारा आछया लाड़ा घी ही पी,
थारी दाद्यां पावे, माया पावै, डोर हिलावै । हमसूं रलिया रंग करे ।
मंजीरा बाजै घी ही गुड़ बाजै, वेला सबद सुणावै (म्हारा आछया…)
थारी भुआ पावै, माम्या पावै, मास्यां पावै, डोर हिलावै ।
म्हांसूं रंग रलिया करै, म्हारा आछया लाड़ा घी ही पी ।
भावार्थ : मेरे अच्छे लाड़ले तू घी ही पी, तेरी दादियां, माताजी, भुआ, मामी, मांसी घी पिला रही है तथा मनोरंजन कर रही है, हंसी मजाक किया जा रहा है । विवाह के अवसन पर यह एक सामान्य प्रक्रिया है । इस गीत को काफी लम्बे समय तक गाया जाकर घी पीलाने की रस्म पूरी की जाती है ।
8. चटणी (राग : सांरग/ताल : कहरवा) : रैगर जाति में मिर्च मसाले से बनी हुई चटनी से बाजरे की रोटी स्वादपूर्वक खाकर वह आनन्दित हो जाया करती है ।
चटणी में इमरत घोल ल्याइ नार, चटणी में ।
बाजरियारी रोटी खाणे, चटणी म्हानै चोखी लागे ।
तरसै तरसै दोनूं म्हारी जाड । चटणी खाता खाता म्हारो मन नहीं धापै ।
म्हारो जीवड़ों हो रहयो निहाल । चटणी ढब सू पीसी,
ढबसूं नान्ही-नान्ही पीसी ।
जीवडा में छू की, ढब सूं राम रस भाखयौ म्हारा स्याम । चटणी में ….. ।।
छीक छीक चटणी रोटी सूं जीमी जिण में, भरियों खटरस सुवाद ।
उपर ठण्ड़ो नीरज पीओ, म्हारो हिवड़ो भयो ऐ निहाल चटणी में ….. ।
9. छोटी सो बन्नो आंगणा रे गिल्ली खेले (ताल कहरवा) : रैगर जाति में पहले बहुत छोटी उम्र में ही विवाह हो जाया करता था । प्रस्तुत गीत में बनड़ा अर्थात पति तो बालक और पत्नी युवती है । ससुराल के घर के प्रांगल में जाकर भी बालक बन वह दूसरे बालकों के साथ गिल्ली डंडा खेल रहा है ।
छोटो सो बन्ना, म्ळारे आंगणिये में गिल्ली खेले, आंगणा में गिल्ली खेले, आंगणा में गुच्ची खोदे,
पनिया भरन जाऊं कहे मन्ने गोदी लेले, मारूंगी बतियन की मार बालमो बचतो डोले ।
रसोई बनवण जाऊं, यूं कहे मन्ने गोदी लेले, मारूंगी फुलकनि की मार, बनड़ो भगती डोले,
सेजां विछावण जाऊं यूं कहे मन्ने गोदी लेले, मारूंगी छतियन की मार, बन्नो बचतो डोले ।
भावार्थ : छोटा सा बन्ना, मेरा बालक पति, मेरे घर के आंगण मे गिल्ली डंडा खेल रहा है । जब मैं पानी भरने जाती हूँ तो मुझे कहता है कि गोदी में उठा लो, मैं बातों बातों में उसे बहलाती हूँ । रसोई बनाने जाती हूं तो भी गोदी में लेने की रट लगाता है । मैं उसे फुलकों की ऐसी मार मारूंगी कि मेरा बालक पति भगता फिरेगा । सेज बिछावे के समय मेरा छोटा सा प्रियतम मुझ से कहता है कि गोदी मे ले लो । मेरा बालक पति नासमझ है । वह मेरे यौवन की मार भी क्या समझेगा या झेलेगा, वह बचता फिरेगा ।
10. बांगा म बाजे जंगी ढोल (रागमिश्र जयवन्ती / झिझोड़ी : दीपचन्दी ) : रैगर जाति में अन्य जातियों की तरह भात भरने का रिवाज है । भांजी के विवाह पर भार भरने पीहर से भाई आये हुये है । अपने पीहर के प्रति स्नेह व प्रेम के उद्गार इस गीत में है ।
बागां में बाजे जंगी ढोल (झालर झिणका करे जी),
दरवाजे बाजे शहनाई, आयो म्हारी मां को जायो बीर,
चूंदड़ ल्यायो रेसमी जी (चूंदड़ ल्याओ मौज की जी),
नापूं तो हाथ पचास, तोलूं तो तोला तीस की जी, (या साठ की जी),
ओढूं तो हीरा झरपड़ै, मेलूं तो डब्बो भर जाय, (चूंदड़ ल्याओ),
ओढा म्हारे सुगना बाइ रे ब्याव जनेती देखे जीमता जी,
ओढा म्हारे लोडकंवर रा ब्याव साजन देखे मुलकता जी,
धन ये गोरी थारो भाग, बीरो तो ल्यायो चूंदीड़ी जी ।
भावार्थ : मेरे घर पर शहनाई तथा ढोल बज रहे हैं । मेरी लाडो बेटी का विवाह है । मेरा भाई जो भात में रेशम की चूंदड़ी लाया है । वह बहुत महंगी है । हीरों से जड़ी है । नापती हूं तो पचास हाथ की व तोलने पर तीस तोले की है । इसे पहनकर जब इतराती फिरूंगी तो जनवासे में आये बराती इसको शान से देखेंगे तथा मेरे पति भी मुस्कराकर इसकी प्रशंसा करेंगे । मेरे पीहर वालों की इससे शान बढ़ेंगी कि सभी लोग मेरे लिये इतनी महंगी चूंदड़ी लेकर आये है ।
11. शीतला माता : शीतला मां की पूजा के लिये शीतला अष्टमी प्रति वर्ष आती है । रैगर जाति में इस दिन एक दिन पूर्व पकाया हुआ (बासी), भोजन (बासोड़ा), खाया जाता है । शीतला के मन्दिर में कुम्हार पूजापा लेते हैं । माता जी के राबड़ी तथा ठण्डी रोटी आदि चढ़ाई जाती है । शीतला मां कृपाकांक्षी, मां से पूत्र, पोत्र आदि संतानोत्पति के आशीर्वाद की अपेक्षा रखते हैं ।
रामचन्द्र जी ओ, दरवाजा खोल, थां पै मेहर करे छै: माता सीतला,
थां पै लेगी गडजोड़ा री जात, थां पै मेहर करे छै: माता सीतला,
म्हाने के फरमावे माता सीतला, थां जेसी राबड़ी रोटिया की जेठ,
थां पै मया ये करे छै: माता सीतला, थां पै मेहर करे छै: माता सीतला,
भावार्थ : ए भक्त, दरवाजा खोलो, तुम पर शीतला माता कृपा करने वाली है । तुम से केवल गडजोड़े की पूजा, बासी रोटी तथा राबड़ी के एवज में तुम्हारी गोद भरने हेतु बेटे देगी, पोता देगी ।
12. रंगीलो चंग बाजणो : इस गीत में रैगर जाति का विशेष बखान किया गया है । रैगर जाति चमड़े रंगने के अलावा चंग को मढ़ने का काम भी किया करती थी । मेरे गांव रायसर में बांकी माता का बहुत पुराना मन्दिर है जहां ढोल नंगाड़े आज भी बजते हैं । इन नंगाड़ों पर चमडा मंढने का काम केवल रायसर गांव के ‘रछोया’ गोत्र वाले ही किया करते थे । इस गीत में होली पर चंग बजाने और उस पर चमड़े मंढने का विवरण है । होली का डांड बसंत पंचमी को रूपने के बाद स्त्री-पुरूष टोलियां बनाकर होली के गीत गाते हुये चंग नृत्य करते हैं तो कहीं गींदड़ खेली जाती है ।
रंगीलो चंग बाजणू, म्हारे बीरो जी मंडायो चंग बाजणू,
म्हारे रैगर मंड के लायो जी, रंगीलो चंग बाजणू,
चंग आंगलियां बाजै, चंग मूंदडिया बाजै,
चंग पूचे के बज से बाजै, रंगीलो चंग बाजणू,
म्हारो बीरो जी बजावै चंग बाजणू, सारा साथिड़ा मिल गावै धमाल अे ।
रंगीलो चंग बाजणू, बाजत बाजत वो गया,
कोइ गयो-गयो होलो डे रे पान ऐ, रंगीलो चंग बाजणू ।
भावार्थ : होली आ गई, रंगीलो चंग बज रहा है । मेर भैया ने चंग मढवाया, रैगर मढ़ के लाया । चंग अंगुलियों से, उंगली में पहने हुये छल्लो से तथा हाथों की ताकत से बजता है । मेरा भाई अपने साथियों के साथ चंग बजाता है ।
13. लागुंरिया (राग : पीलू / ताल : कहरवा) : राजस्थान के करौली क्षेत्र में देवी के सेवक या भक्त को लांगुर कहते हैं । कैला देवी के मेले पर लाखों स्त्री-पुरूष जिनमें रैगर जाति के लोग भी होते हैं लांगुरिया की धुन पर नाचते गाते देखे जा सकते हैं ।
चरखी चल रही बर के नीचे, रस पीजा लांगुरिया,
रस पीजा लांगुरिया अरे गुड़ खायजा लांगुरिया, चरखी चल रही …….
पोखरिये की पाल पै, लम्बो पेड़ खजूर बापै चढ़के
मेरे बलमा कित्ती दूर, चरखी चल रही ……
राम – नाम तो सब कहे, दशरथ कहे न कोय, एक बेर दशरथ कहे,
कोई अष्ट जज्ञ फल होय, चरखी चल रही……
चित्रकूट के घाट पर भइ सन्तन की भीर तुलसीदास चन्दन घिसे,
तिलक लेत रघुवीर, चरखी चल रही ……….
पत्ता टूट्यो डार पै, ले गई पवन उडाय,
अबके बिछुड़े नाय मिलेंगे, दूर पड़िंगे जाय, चरखी चल रही……..
भावार्थ : नायिका कह रही है कि वटवृक्ष के नीचे गन्ने के रस की चरखी चल रही है, गुड़ बनाने की तैयारी है । अरे लांगुर, आकर रस पी जा और गुड़ खाले । इस पर विभिन्न प्रचलित दोहे गाये जाते हैं ।
14. सात फेरे : अग्नि को साक्षी मान कर विवाह रैगर जाति में सम्पन्न होते हैं । हवन कुण्ड के चारों तरफ सम्तपदी की रस्म होती है तथा फेरे लिये जाते हैं । रैगर जाति में निम्नलिखित गीत फेरों के समय स्त्रियां गाती है जिसका अर्थ है कि सातवें फेरे के बाद कन्या मां-बाप की नहीं रह कर पराई हो जाती है । रैगर जाति में लड़की की विदाई के समय लड़की रोती है । तो औरते प्राय: उसको यह समझाती है कि राजा महाराजों के भी बेटियां पराई हो जाती है । तू तेरे ससुराल में खुशी-खशी जा और अपना नया संसार बसा ।
पहलो तो फेरो ए, लाडी बाबासा री प्यारी,
दूजो तो फेरो ए, लाडी दादासा री प्यारी,
तीजा तो फेरो ए, लाडी काकासा री प्यारी,
चौथो तो फेरो ए, लाडी बीरा जी री प्यारी,
पांचवों तो फेरो ए, लाडी मामाजी री प्यारी,
छठो तो फेरो ए, लाडी मावसा री प्यारी,
सातवों तो फेरो ए, लाडी हुइ री पराई ।
लाडी लगौ सहेलियां मय टाल, बागां मेली कोयल,
ए लाडी आयो सगा जी रे डाबरो
(साभार- डॉ. पी. एन. रछोया कृत रैगर जाति का इतिहास एवं संस्कृति)
157/1, Mayur Colony,
Sanjeet Naka, Mandsaur
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