रैगर समाज की नृत्य कला व खेल कूद

नृत्य कला- रैगर जाति की महिलाओं में नृत्य कला का भी गुण विद्यमान है। रैगर जाति संघर्षशील जाति रही है फिर भी इस जाति के लोगो में जीवन जीने की कला सीख ही ली थी। इस जाति की महिलायें नृत्य सीखने के लिये किसी प्रशिक्षण संस्था से प्रशिक्षण नही लिया करती है। अधिकतर नृत्य उत्सवों, त्यौहारों और ऋतुओ से सम्बन्ध रखते है। इन में विवाह आदि पर नाचे गाये जाने वाले नृत्य, महिलाओं द्वारा विवाह के अवसर पर कुम्हार के यंहा ‘चाक‘ पूजते समय गीत गाने, बारात रवाना होने के बाद दुल्हे के घर की स्त्रियों द्वारा किये जाने वाले ‘टूंटिया‘ नृत्य, होली आदि त्यौहारों पर किये जाने वाले नृत्य आदि सम्मिलित है।

रैगर जाति में नृत्य व गान कला- इस जाति में अत्यधिक समृद्वः नृत्य व गान परम्परा की सभ्य संस्कृति विद्यमान रही है जिस से कि इस जाति के गानो में रोज मर्रा की जिन्दगी जीने का आभास स्पष्ट नजर आता है। ये राजपूत जाति के घूमर, जैसलमेर के कालबेलिया नृत्य, भोपा के सांकिल बांध कर नृत्य व गान करने, शेखावाटी के पुरूषो के चांग बजाने और सामुहिक गान तथा तेराताल, गींदड़, कच्ची घोड़ी, तेजाजी आदि से भिन्न है। इनके द्वारा किये जाने वाले गायन धार्मिक व भजन से ज्यादा सम्बन्ध रखते है जिन को इस जाति के पुरूष वर्ग द्वारा ढौलक और हारमोनियम पर गाया जाता है जिस में पुरूष व स्त्रियां ष्शान्ति से सुनती है। ये अपने भजनो में सितार व सारंगी का उपयोग नही करते।

रैगर जाति के बच्चो के खिलोने– यह वह जमाना था जब दुनिया में प्लास्टिक का आविष्कार नही हुआ था। राजस्थान और दिल्ली में रैगर जाति के बच्चे लकड़ी के खिलोनो से खेल खेला करते थे। इन लकड़ी के खिलोनो पर बिना उतरने वाला एक विशेष किस्म का रंग किया होता था। इन खिलोना में लकड़ी का लट्टू, घोड़ा. आदि होते थे। बालिकाओं के लिये घर की रसोई के सामान जैसे चकला, बैलन आदि लकड़ी में हुआ करते थे जिस से वह घर को सजाने व सम्भाल कर रसोई के सामान को रखने में व सब्जी पकाने आदि में माहिर हो जाये। उस जमाने मे पुरानी साईकिल के पहिये को गोल गोल चलाने और उस के साथ साथ दौड़ने का भी रिवाज था।

रैगर जाति के पुराने खेलकूद– पुराने समय में रैगर जाति में खेलकूद दो प्रकार के होते थे -(1) बैठे बैठे के खेल और (2) भागदौड़ के खेल। पहली तरह के खेलों में चैपड़, शतरंज, चैसर आदि खेल उल्लेखनिय है। बालिकाओं द्वारा गट्टे खेलना, वर्षा में गीली मिट्टी से घर ख्बनाना भी प्रसिद्व रहे है। दूसरी तरह के भागदौड़ अर्थात उछल-कूद के खेलों में लुका-छिपी, मारदड़ी, कच्छी घोड़ी, लूण-क्यार आदि कुछ खेल इस जाति के बालको और बालिकाओ द्वारा खेले जाते रहे है। उस समय में ‘अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो‘ नाम का खेल भी बच्चे खेला करते थे।

रैगर जाति के बुजूर्गो की ताश-पत्ती : इस संबंध में मैने देखा कि दिल्ली में बुजूर्ग लोग गली में या तो ताश पत्ती खेल कर अपना समय व्यतीत किया करते थे। इस खेल के दौरान गली के सारे बुजूर्ग एकत्रित हो जाया करते थे। इस ताश पत्ती के खेल में चार खिलाड़ी खेल खेला करते थे। आमने सामने बैठे हुये खिलाड़ी एक दूसरे के साथी होते थे तथा दूसरी तरफ बैठे आमने सामने वाले खिलाड़ी इन के विरूद्व ताश के पत्ते फैंक कर ज्यादा अंक प्राप्त कर अपने विरोधी टीम को हराने के प्रयास में लगे रहते थे। इस खेल को देखने वाले गली के बुजूर्ग लोग भी दो भागो में बंट कर अपनी टीम के जीतने की खुशी जाहिर करते रहते थे। यदि किसी टीम के खिलाड़ी ने ताश के गलत पत्ते फैंक दिये तो उस पर खेल देखने वाले बाकी के लोग अपनी राय की बौछार करते रहते थे जिस से ताश-पत्ती का खेल खेलने व इस खेल को देखने वालो को बहुत आनन्द आया करता था।

रैगर जाति के अन्य आनन्द पूर्ण खेल- उस जमाने में रैगर जाति में ‘चैपड़‘ का खेल बहुत की प्रसिद्व हुआ करता था जिसे बुजूर्ग व अधेड़ उम्र के लोग बड़े ही चाव से खेला करते थे। कई हिन्दू चित्रो मे भगवान शिव व पार्वती आपस में ‘चैपड़‘ खेलत हुये दिखाई देते है। मुगल ष्शसन काल में भी ‘चैपड़‘ का खेल खेला जाता था। कुछ दिनो के बाद ष्शतरंज का खेल भी रैगर समाज के दिल्ली के नवयुवको में प्रसिद्व हो गया था। शतरंज (चैस) दो खिलाड़ियो के बीच खेला जाने वाला एक बौद्विक एवम् मनोरंजक खेल होता है। ष्शतरंज एक चैपाट (बोर्ड) के ऊपर दो व्यक्तियों के लिये बना खेल है। चैपाट के ऊपर कुल 64 खाने या वर्ग होत है, जिस में 32 चौरस काल या अन्य रंग और 32 चौरस सफेद या अन्य रंग के होते है। प्रत्येक खिलाड़ी के पास एक राजा, वजीर, दो ऊंट, दो घोड़े, दो हाथी और आठ सैनिक होते है। बीच में राजा व वजीर रहता है। बाजू में ऊंट, उस के बाजू में घोड़े और अंतिम कतार में दो दो हाथी रहते है। उन की अगली रेखा में आठ पैदल या सैनिक रहते है। खैल की ष्शुरूआत सफेद खिलाड़ी से की जाती है। सामान्यतः वह वजीर या राजा के आगे रखे गया पैदल या सैनिक का दो चैरस आगे चलता है। प्यादा दो विशेष चाल ‘एन पासांत‘ और ‘पदोन्नति-चाल‘ भी चल सकता है। हिन्दी में एक पुरानी कहावत पैदल की इसी विशेष चाल पर बनी है – ‘प्यादा से फर्जी भयो, टेढो-टेढो जाय‘। राजा किसी भी दिशा में एक खाने में जा सकता है। अगर राजा को चलने पर बाध्य किया और किसी भी तरफ वह चल नहीे पाये तो मान लिया जाता है कि खेल समाप्त हो गया। नही चल सकने वाले राजा को खिलाड़ी हाथ में लेकर बोलता है – ‘मात‘ या ‘मैं हार स्वीकार करता हूं‘।

Website Admin

BRAJESH HANJAVLIYA



157/1, Mayur Colony,
Sanjeet Naka, Mandsaur
Madhya Pradesh 458001

+91-999-333-8909
[email protected]

Mon – Sun
9:00A.M. – 9:00P.M.

Social Info

Full Profile

Advertise Here