नारायण गुरु

नारायण गुरु का जन्म दक्षिण केरल के एक साधारण परिवार में 1854 में हुआ था । भद्रा देवी के मंदिर के बगल में उनका घर था । एक धार्मिक माहौल उन्हें बचपन में ही मिल गया था । लेकिन एक संत ने उनके घर जन्म ले लिया है, इसका कोई अंदाज उनके माता-पिता को नहीं था । उन्हें नहीं पता था कि उनका बेटा एक दिन अलग तरह के मंदिरों को बनवाएगा । समाज को बदलने में अहम भूमिका निभाएगा ।

नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे । कन्याकुमारी जिले में मारुतवन पहाड़ों की एक गुफा में उन्होंने तपस्या की थी । गौतम बुद्ध को गया में पीपल के पेड़ के नीचे बोधि की प्राप्ति हुई थी । नारायण गुरु को उस परम की प्राप्ति गुफा में हुई । उस परम तत्व को पाने के बाद नारायण गुरु अरुविप्पु…रम आ गये थे । उस समय वहां घना जंगल था । वह कुछ दिनों वहीं जंगल में एकांतवास में रहे । एक दिन एक गढ़रिये ने उन्हें देखा । उसने बाद में लोगों को नारायण गुरु के बारे में बताया । परमेश्वरन पिल्लै उसका नाम था । वही उनका पहला शिष्य भी बना । धीरे-धीरे नारायण गुरु सिद्ध पुरुष के रूप में प्रसिद्ध होने लगे । लोग उनसे आशीर्वाद के लिए आने लगे । तभी गुरुजी को एक मंदिर बनाने का विचार आया । नारायण गुरु एक ऐसा मंदिर बनाना चाहते थे, जिसमें किसी किस्म का कोई भेदभाव न हो । न धर्म का, न जाति का और न ही आदमी और औरत का ।

दक्षिण केरल में नैयर नदी के किनारे एक जगह है अरुविप्पुरम । वह केरल का एक खास तीर्थ है । नारायण गुरु ने यहां एक मंदिर बनाया था । एक नजर में वह मंदिर और मंदिरों जैसा ही लगता है । लेकिन एक समय में उस मंदिर ने इतिहास रचा था । अरुविप्पुरम का मंदिर इस देश का शायद पहला मंदिर है, जहां बिना किसी जातिभेद के कोई भी पूजा कर सकता था । उस समय जाति के बंधनों में जकड़े समाज में हंगामा खड़ा हो गया था । वहां के ब्राह्माणों ने उसे महापाप करार दिया था । तब नारायण गुरु ने कहा था – ईश्वर न तो पुजारी है और न ही किसान । वह सबमें है ।

दरअसल वह एक ऐसे धर्म की खोज में थे, जहां आम से आम आदमी भी जुड़ाव महसूस कर सके । वह नीची जातियों और जाति से बाहर लोगों को स्वाभिमान से जीते देखना चाहते थे । उस समय केरल में लोग ढेरों देवी-देवताओं की पूजा करते थे । नीच और जाति बाहर लोगों के अपने-अपने आदिम देवता थे । ऊंची जाति के लोग उन्हें नफरत से देखते थे । उन्होंने ऐसे देवी-देवताओं की पूजा के लिए लोगों को निरुत्साहित किया । उसकी जगह नारायण गुरु ने कहा कि सभी मनुष्यों के लिए एक ही जाति, एक धर्म और एक ईश्वर होना चाहिए ।

उसी दौर में महात्मा गांधी समाज में दूसरे स्तर पर छुआछूत मिटाने की कोशिश कर रहे थे । वह एक बार नारायण गुरु से मिले भी थे । गुरुजी ने उन्हें आम जन की सेवा के लिए सराहा भी था । नारायण गुरु ने ही गांधीजी से कहा था कि अपने अखबार नवजीवन का नाम बदल कर हरिजन कर लें । गांधीजी ने खट से उनकी बात मान ली थी । नीची जातियों के लिए हरिजन तभी से कहा जाने लगा ।

नारायण गुरु मूर्तिपूजा के विरोधी नहीं थे । लेकिन वह ऐसे मंदिर बनाना चाहते थे, जहां कोई मूर्ति ही न हो । वह राजा राममोहन राय की तरह मूर्तिपूजा का विरोध नहीं कर रहे थे । वह तो अपने ईश्वर को आम आदमी से जोड़ना चाह रहे थे । आम आदमी को एक बिना भेदभाव का ईश्वर देना चाहते थे।

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