श्री बजरंगलाल लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थान की जातियों’ मे रेहगर (रैगर) नाम तथा जाति की उत्पत्ति मालवा प्रान्त के मदूगढ़ स्थान में स्थित रैदास जाति के लोगों से बताई है । उनका मत है कि रैगर नाम की उत्पत्ति रैदास के नाम पर आश्रित है । इसी तरह मरदुम शुमारी राज मारवाड़ सन् 1891 में लिखा है कि रैदासजी की दो पत्नियां थी । एक की औलाद मेघवाल रही और दूसरी की रैगर हुई । कोई यह भी कहते है कि भगत कहलाने से पहले रैदास मेघवाल कहलाते थे । तथा भगत कहलाने के बाद रैगर । इस तरह कई इतिहासकारों तथा अन्य लोगों ने रैगर जाति का सम्बंध रैदास तथा मेघवाल जाति से बिना किसी आधार के जोड़ने की मिथ्या कोशिश की है । ऐसा करने में उन्होंने इतिहास के खुले तथ्यों से भी आंखें बन्द कर ली । इन भ्रांतियों को दूर करने के लिए रैदास था मेघवालों के साथ रैगरों का क्या सम्बंध है – देखना आवश्यक है ।
भारत के विभिन्न प्रान्तों में संत रविदास को – रविदास, रूईदास, रोहीदास, रायदास तथा रैदास आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं । सभी नाम रविदास तथा रैदास के अपभ्रंस रूप है । उनका नाम रैदास भले ही प्रचलित हो गया हो मगर असली नाम रविदास ही था । ‘रैदास-रामायण’ तथा ‘रैदासजी की बनी’ में भी रविदास नाम का ही प्रयोग हुआ है । संत रविदास के सम्बंध में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे जाति से मेघवाल थे । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में अपने को मेघवाल घोषित किया है।
ऐसी मेरी जाति विख्यात चमारं, हृदय राम गोविन्द गुन सारं ।
(रैदासजी की बानी, पृष्ठ सं. 21)
नीचे से प्रभु ऊंच कियो है, कह रविदास चमारा ।
इस तरह प्रमाणित है कि संत रविदास मेघवाल जाति में पैदा हुए । मेघवाल जाति रैगरों से भिन्न जाति है । इसलिए रैदास का रैगरों से कोई सम्बंध नहीं है । मेजर ब्रिग्स ने अपनी पुस्तक ‘दी चमार्स’ में लिखा है कि संत रविदास का जन्म ‘चमकटैया’ नामक मेघवालों की उप जाति में हुआ था । ‘राजस्थानी जातियों की खोज’ के लेखक रमेशचन्द्र गुणार्थी ने संत रविदास का जन्म जैसवाल गोत्र के मेघवाल वंश में माना है । जैसवाल गोत्र रैगरों में नहीं है और न ही रैगरों में उप जाति चमकटैया है । यदि रविदास जाति से रैगर होते तो उनकी गोत्र और उप जाति रैगरों में अवश्य मिलती । इसलिए संत रैदास का रैगर जाति से कोई सम्बंध नहीं है ।
संत रैदास के जन्म स्थान के विषय में इतिहास मौन है । मगर यह निश्चित है कि उनके जीवन का महत्वपूर्ण भाग बनारस में व्यतीत हुआ । यदि रैदासजी रैगर होते तो बनारस में रैगर जाति के लाग मिलते । संत रविदास ने पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र तथा मद्रास का भ्रमण किया था । बजरंगलाल लोहिया ने मालवा प्रान्त के मदूगढ़ से रैदास जाति के लोगों से रैगरों की उत्पत्ति बताई है मगर उसका कोई कारण या आधार नहीं बताया । अत: यह मत कपोल कल्पित है । संत रविदास के माता-पिता के सम्बंध में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर पक्ष की प्रबलता के आधार पर उनके पिता का नाम रग्घू तथा माता का नाम करमा था । मेजर ब्रिग्स ने संत रविदास की पत्नि का नाम लोना बताया है । मरदुम शुमारी राज मारवाड़ सन् 1891 में रैदासजी की दो पत्नियां बताई है जबकि किसी भी इतिहासकार या रैदास सम्बंधी साहित्य में संत रविदास की दो पत्नियाँ नहीं बताई गई है । मरदुम शुमारी की इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि रैदासजी की एक ही पत्नि की औलाद मेघवाल रही तथा दूसरी की रैगर हुई । यह तो इतिहास से प्रमाणित हो चुका है कि संत रविदासजी की एक ही पत्नि थी जिसका नाम लोना था । ‘रैदास-पुराण’ नामक हस्त लिखित ग्रन्थ में यह उल्लेख है कि संत रविदास के एक पुत्र था जिसका नाम विजयदास था । इस ग्रन्थ में यह उल्लेख है कि संत रविदास के एक पुत्र था जिसका नाम विजयदास था । इस ग्रन्थ के अलावा संत रविदास की संतानों के सम्बंध में कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है । इतिहास संत रविदास की एक ही औलाद होना सुनिश्चित करता है फिर रविदास की एक औलाद मेघवाल तथा दूसरी रैगर कहलाने का प्रश्न ही कहां पैदा होता है । रैगरों की उत्पत्ति सम्बंधी यह उल्लेख मात्र भ्रांतियें पैदा करने के अलावा कुछ भी नहीं है । संत रविदास के पुत्र का नाम विजयदास था । इससे स्पष्ट होता है कि संत रविदास और उनकी संतान ने अपने नाम के पीछे ‘दास’ दास लगाने की परम्परा चलाई । यदि रैगर जाति का सम्बंध संत रविदास से होता तो रैगरों के नाम के पीछे भी दास शब्द अवश्य लगता मगर रैगरों के नाम के पीछे दास शब्द लगाने की परम्परा कभी नहीं रही है । संत रविदास के जन्म, जीवन तथा मृत्यु के सम्बंध में एक निश्चित मत नहीं है । इस सम्बंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं । कबीर पंथियों तथा डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार कबीर का जन्म सम्वत् 1456 में हुआ । यदि रविदास को कबीर से 15 वर्ष भी बड़ा माना जाय तो उनका जन्म सम्वत् 1441 ठहरता है । मगर रैगर जाति की उत्पत्ति तो संत रविदास के जन्म से लगभग 1400 वर्ष पूर्व ही हो चुकी थी । इतिहास से पता चलता है कि संत रविदास के 1400 वर्ष पूर्व भी रेहगरान वंश था अर्थात् राजा विक्रमाजीत के राज्यकाल में रेहगर थे । हुरड़ा में आज से दो हजार वर्ष पूर्व रैगरों के वहाँ रहने के प्रमाण मिले हैं । गुन्दी में सम्वत् 989 से, भानगढ़ में सम्वत् 577 से, पुष्कर राज में सन् 900 से, जयपुर जिले के चाड़सु गांव से सन् 953 से, अजमेर में सन् 1115 तथा जयपुर में सन् 1392 से रैगरों के रहने के प्रमाण मिलते हैं ।
संत रविदास का व्यवसाय उपानह (जूते) बनाना तथा मरम्मत करना था । रैगरों का यह व्यवसाय कभी नहीं रहा । इस तरह जाति, गौत्र, जन्म स्थान तथा व्यवसाय की दृष्टि से रैदासजी का रैगरों से कोई सम्बंध नहीं था । मगर प्रश्न यह है कि साधु संतों की न जाति होती है और न गोत्र । भगवान की भक्ति ही उनका व्यवसाय होता है । इस दृष्टि से रैदासजी जैसे महान भक्त के प्रति रैगरों की आस्था हमेशा रही है और रहेगी । रैगरों की तरह रैदासजी ने भी गंगा में आस्था प्रकट की जिससे वे रैगरों के और भी नजदीक आ गए । कई रैगर तो अपने को रैदासिया ही कहते और मानते हैं । अनेकों रैगर आज भी रैदासजी के अनुयायी हैं । इस तरह रैगर रैदासजी को अपना ही मानते हैं । रैगरों की तरह अन्य जातियें भी रैदासजी को पूरी श्रृद्धा के साथ मानती हैं । मीरां रैदासजी की शिष्या थी । स्पष्ट है कि रैदासजी जैसे महान भक्त जाति, क्षेत्र तथा व्यवसाय आदि बंधनों से मुक्त थे । इसलिए रैदासजी हर जाति, वर्ग तथा व्यवसाय के लोगों के लिए पूजनीय है ।
मेघवाल और रैगर
आज जिस जाति को ‘मेघवाल’ नाम से पुकारते हैं उसका परम्परागत कार्य मरे हुए पशुओं को उठाना तथा उनकी खालें निकालना आदि रहा है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से शुद्ध संस्कृत शब्द ‘चर्मकार’ अपभ्रंस होते-होते ‘चम्म-आर’ ‘चम्मार’ तथा आज ‘मेघवाल’ बन गया । चर्म शब्द की उत्पत्ति ‘चर’ धातु से है । चर धातु से ही ‘चरसा’ शब्द की उत्पत्ति भी है जो आज भी गाय, बैल व भैंस वगैरा के चमड़े के लिए प्रयुक्त होता है । वैदिक युग में बैल, मृग और व्याघ्र चर्म का प्रयोग धार्मिक संस्कारों में होता था । ऋषि चमड़े के वस्त्रों का प्रयोग करते थे । महाभारत काल में चमड़े का उद्योग अपना विशिष्ट महत्तव रखता था । कवचों, दस्तानों, ढालों तथा चण्डाली के गर्भ से बताई है । दी ‘चमार्स’ के लेखक ब्रिग्स ने इसका समर्थन किया है । ब्राह्मणी माता तथा शूद्र पिता से उत्पन्न चाण्डाल माता और मछुआ पिता से ‘मेघवाल’ की उत्पत्ति है । मनु ने निषाद के औरस और विदेह नारी के गर्भ से मेघवाल की उत्पत्ति मानी है । चवर वंश से भी मेघवालों की उत्पत्ति मानी जाती है । मेघवालों की उत्पत्ति को लेकर बहुत सी कथाएं भी प्रचलित हैं । कालान्तर में श्रम का महत्व ज्यों-ज्यों घटता गया मेघवालों को मरे हुए पशुओं को उठाने तथा उनकी खालें सम्बंधी व्यवसाय के कारण और भी निम्न समझा जाने लगा ।
स्वयं रविदासजी ने कहा है कि-
जाति भी आछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा ।
नीचे से प्रभु ऊंच कियो है, कह रविदास चमारा । ।
यहां यह स्वीकार कर लेने में किसी को आपत्ति नहीं है कि शास्त्रीय-निर्णय तथा लोक कथाओं से यह सिद्ध हुआ है कि मेघवाल जाति में उच्च वर्ण के रक्त का समावेश है । मगर रैगर जाति मेघवालों की एक शाखा है या रैगरों की उत्पत्ति मेघवालों से हुई यह कहना गलत है । रैगरों की उत्पत्ति का अपना अलग इतिहास है, उनकी अलग परम्परायें और अपनी पहचान है । मेघवाल और रैगरों के व्यवसाय भी एक नहीं है । मेघवालों का पारम्परिक व्यवसाय मरे हुए मवेशियों को उठाना तथा उनकी खालें निकालना है जबकि रैगरों का पारम्परिक व्यवसाय चमड़े की रंगाई करना है । यदि चमड़े का धन्धा करने से ही रैगरों को मेघवाल माना जाय तो चमड़े का व्यवसाय करने वाली अन्य जातियें भी हैं- खटीक बकरों की खालों (चमड़े) का व्ययापार करते हैं, मोची चमड़े की जूतियाँ बनाते हैं । कानपुर तथा गुजरात के कई शहरों में मुसलमान चमड़े का व्यापार करते हैं, फलोदी (राज.) में कुछ ब्राह्मण परिवार रंगे हुए चमड़े का व्यापार करते हैं । उन्हें भी मेघवालों में क्यों नहीं माना गया । इस तरह चमड़े का व्यवसाय करने वाली सभी जातियों को मेघवाल नहीं माना जा सकता । इसलिए रैगरों को भी मेघवाल नहीं माना जा सकता ।
यदि रैगरों की उत्पत्ति मेघवाल जाति से हुई होती या रैगर जाति मेघवालों की ही शाखा होती तो उनके गोत्र एक समान होते । मगर रैगरों और मेघवालों के गोत्रों में कहीं समानता नहीं है । उनके गोत्र भिन्न-भिन्न हैं । इतना ही नहीं यदि दोनों जातियों में किसी तरह का सम्बंध होता तो उनमें आपस में खान-पान तथा विवाह सम्बंध भी अवश्य होते मगर इनमें विवाह सम्बंध अपनी-अपनी जातियों में ही होते हैं । इससे स्पष्ट है कि रैगर जाति और मेघवाल जाति में कोई समानता नहीं है । कई लोगों द्वारा रैगरों की उत्पत्ति मेघवालों से होना तथा मेघवालों की एक शाखा मानना या इन दोनों के एक ही व्यवसाय बताना मिथ्या भ्रान्तियों उत्पन्न करने के सिवाय कुछ नहीं है । रैगर जाति का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है । रैगर जाति का समाज में हमेशा सम्मान का दर्जा रहा है । रैगरों की शानदार परम्पराएं रही हैं । इतिहास से प्रमाणिक रूप से सिद्ध है कि रैगर क्षत्रिय थे और सूर्यवंशी क्षत्रिय थे । आज भी रैगर जाति विकास की दौड़ में अन्य जातियों से पीछे नहीं है।
इन सम्पूर्ण तथ्यों से इस भ्रान्ति का निराकरण हो जाता है कि रैगर जाति का रैदास या मेघवाल जाति से कोई सम्बंध नहीं है।
(साभार- चन्दनमल नवल कृत ‘रैगर जाति : इतिहास एवं संस्कृति’)
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