रैगर जाति का उद्गम मूलत: राजस्थान से ही हुआ है अत: इस जाति के लोगों की बोली भी राजस्थान के विभिन्न प्रान्तों से ही सम्बन्ध रखती है । राजस्थानी भाषा का उद्गम संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश के विकास क्रम से हुआ है । आभरी अपभ्रंश राजस्थानी की जन्मदात्री है क्योंकि शूरसेन प्रदेश जो मथुरा के इर्द-गिर्द था उसमें शौरसेनी बोली ही बोली जाती थी । आभारी लोग रामायण के समय से ही पश्चिमी राजस्थान में बसे हुए थे और धीरे-धीरे समूचे गुजरात व आंध्रप्रदेश तक इनका विस्तार हो गया था । वास्तव में राजस्थानी के उद्गम व विकास पर विस्तृत शोध की आवयश्कता है फिर भी विस्तृत अध्ययन करने के बाद मेरी राय में बारहवीं शताब्दी ई. के अंतिम चरण को राजस्थानी का उत्पत्ति काल माना जा सकता है । पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद राजस्थानी साहित्य में लौकिक शैली के साथ-साथ डिंगल नामक शैली का जन्म हुआ जो प्रधानत: चारण कवियों द्वारा इस शैली में शब्दों के मन चाहे अनपढ़ रूप अपनाने व निरन्तर प्रयोग के कारण इनमें एक अद्भूत ओज और माधुर्य की सृष्टि हुई । डिंगल के समानान्तर ‘पिंगल’ नामक शैली आई जिसके आविष्कार्त्ता भाट लोग रहे जिन्हें राव, भट्ट, बम्भ, बरदाई आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया । डिंगल साहित्य का अध्ययन करने पर मैंने यह पाया कि इस साहित्यिक शैली के दोहों, सोरठो, गीतों, कवित्तों, छन्दों और काव्य ग्रंथों में रैगर जाति के सम्बन्ध में चारणों द्वारा कुछ नहीं लिखा गया है । रैगर जाति के अपने राव, राणा, भाट आदि थे और आज भी है जो अपने रैगर ‘जजमानों’ का प्रशस्ति गायन कर अपनी जीविका उपार्जन करते हैं, अत: इस जाति द्वारा विभिन्न रैगर परिवारों, गोत्रों, व्यक्तियों, दानवीरों, शूरवीरों आदि का भाट बहियों में विस्तृत विवरण पिंगल साहित्य में किया गया है जिस पर शोध करना अत्यावश्यक है । मेरी यह भी दृढ़ मान्यता है कि समय में तेज गति और आर्थिक युग के कारण रैगर जाति संबंधी भाट-बहियां और भाटों द्वारा रैगर प्रशस्ति गायन का लोक साहित्य भी समाप्त हो जायेगा अत: ”रैगर शोध संग्रहालय” बनाकर इनका संरक्षण अत्यावश्यक है ।
(क). राजस्थान में
(अ). पश्चिमी राजस्थानी-
1. मारवाड़ी (जटिया रैगर)
2. मेवाड़ी (बोळा रैगर)
3. शेखावटी (सीकर, झुंझुनूं व शेखावाटी के रैगर)
(ब). पूर्वी राजस्थान
1. ढूढांड़ी (जयपुर, दौसा, किशनगढ़, टोंक, सवाई माधोपुर, अजमेर मेरवाड़ा के रैगर)
2. हाड़ोती (कोटा, बूंदी, झालावाड़ के रैगर)
3. मेवाती (पूर्वातन राजस्थान मे अलवर, भरतपुर की कामा, डीज तथा नगर तहसील हरियाणा का गुड़गावं, उत्तर प्रदेश के कोसी व मथुरा के रैगर)
4. अहीरवाटी – यह बागरू (हरियाणवी) और मेवाती के मध्य अधिनस्थ की बोली है जो राजस्थान के जिला अलवर की तहसील बहरोड़, मुण्डावर, बानसूर तथा किशनगढ़ का पश्चिमी भाग, जिला जयपुर की तहसील, कोटपूतली का उत्तरी भाग के रैगरों द्वारा बोली जाती है ।
(ख) दिल्ली: यहां प्राय: रैगर घरों व सामाजिक अवसरों पर ढूढाड़ी राजस्थानी बोली जाती है परन्तु नई पीढ़ी अब हिन्दी बोलने लगी है । दिल्ली के कई रैगर अब घर के बाहर पंजाबी भी बोलने लगे है ।
(ग) पंजाब, गुजरात, मध्य प्रदेश व अन्य राज्य: रैगर जाति राजस्थानी के साथ-साथ पंजाब में पंजाबी, गुजरात में गुजराती, मध्य प्रदेश में मालवी तथा अन्य प्रदेशों में उस प्रदेश की बोली भी बोलते हैं । हिन्दी भाषा प्राय: अधिकतर प्रयोग में लाई जाती है ।
जटिया रैगर की मारवाड़ी बोली की विशेषताएँ : –
1. सम्बंध कारक में रो, रा, री प्रत्यय का प्रयोग ।
2. उत्तम एवं मध्यम पुरूष वाचक सर्वनामों के लिए म्हारो, थारो व बहुवचन रूपों के लिए ‘म्हे’, ‘म्हां’ का प्रयोग ।
3. वर्तमान के लिए है, छै, भूतकाल के लिए ‘हो’ तथा भविष्यत काल के लिए ‘स्यु’ आदि रूपों का प्रयोग ।
4. सम्प्रदान के लिए ‘नै’ अपादान के लिए ‘सूं’, ‘ऊं’ रूप प्रचलित है ।
5. ‘न’ का ‘ण’ तथा ‘ल’ का ‘ल’ ध्वनि रूपों का प्रयोग । रैगर जाति की ढूढाडी बोली में वर्तमान के लिए ‘छै’ एवं भूतकाल के लिए ‘छी’ ‘छो’ का प्रयोग होता है । सर्वनाम के तिर्यक रूप में एक वचन में ऊ, ई, दूरवाचक ओ, यो, वे तथा स्त्री रूप आ या वा का प्रयोग होता है । जब, कब व तब के लिए ‘जद’, ‘तद’ तथा ‘कद’ रूपों का व्यवहार दृष्टव्य है । रैगर जाति की मेवाती बोली में कर्मकार में ‘लू’ विभक्ति एवं भूतकाल में हो, हो, ही सहायक क्रिया का प्रयोग विशेष उल्लेखनीय है ।
अहीवाटी में बसने वाले रैगर जाति की बोली की विशेषताएँ :-
1. पश्चिमी राजस्थानी के प्रभाव से ‘न’ को ‘ण’ बोला जाता है।
2. वर्तमान में सहायक क्रिया के सूं, सां, सै, भूतकाल में थो, था, थी एवं भविष्यत् काल में गो, गा, गी रूप प्रयुक्त होते हैं।
3. असमायिका क्रिया के लिए ‘कै’ रूप का प्रयोग होता है जैसे जाके-जाकर के, खाकै-खाकर के आदि।
4. ‘वाला’ अर्थ- धोतन के लिए ‘णो’ प्रत्यय का प्रयोग होता है।
रैगर जाति की बोलियों का संक्षेप में परिचय दिया है। ध्वनि भेद व भाषा विज्ञान के मापदण्डों पर रैगर जाति की बोलियों पर विस्तृत बोध एवं शोध की आवश्यकता है।
रैगर जाति में बोले जाने वाले शब्द व उन के अर्थ. रैगर जाति के बोले जाने वाले शब्द प्रायः राजस्थानी भाषा के ही है। रैगर जाति के कुछ आम शब्द इस प्रकार से है: भावज (भाभी), छोरा-छोरी (लड़का-लड़की), डांगरा (पशु), ढोर (मवेशी), बीन्द(पती/दुल्हा), बींदणी (बहु/दुल्हन), लालजी
(देवर), लाडो (बेटी), लाडलो (प्रिये), गीगलो/टाबर (बच्चा), लाडी (सोतन), गेलड़ (दूसरे विवाह में स्त्री के साथ जाने वाला बच्चा), बावनो (लम्बाई में छोटा पुरूष), भूडोजी (फूफाजी), धणी-लुगाई (पती-पत्नी), कलेवो (नाश्ता), गंवार (अनपढ), बेगा बेगा (जल्दी जल्दी), गूदड़ा (छोटा गद्दा), हरजस (भजन), पतड़ी (पंचांग), मीती (तीथी), शाल (सामने का बड़ा कमरा), तखड़ी (तराजू), पसेरी/धड़ी (पांच सेर का वजन), मण (चालीस सेर का वजन), सेर (आजकल का एक किलोग्राम के लगभग का वजन), घड़ची (पानी का मटका रखने की वस्तु), ओरा (कोने का कमरा), परिंडा (पानी का मटका रखने की जगह), खेळ (पशुओ के पानी पीने का स्थान), कोटड़ी (छोटा बाक्स रूम), मालया (छत का कमरा), गाुम्हारिया (तलधर), कब्जा (ब्लाउज), मटकी (मिट्टी का बड़ा घड़ा), ठाटो (कागज गला कर अनाज रखने का बर्तन), उन्द्दालो (गर्मी का मौसम), सियालो (सर्दी का मौसम), चैमासो (बारिश का मौसम), तिस लगना (प्यास लगना), गिट्ना (खाना), ठिकाना (पता), अमूण (पूर्व), आथूण (पश्चिम), झरोखा (खिड़की), बाजोट (लकड़ी की बड़ी चैकी), मांढणो (लिखना), मायरो (भात), मुकलाओ (गोणा/बाल विवाह के उपरान्त पहली बार पीहर से पत्नी को घर लाना), पावणा (जवाई) यसूतली (रस्सी), मुशल (बेवकूफ), लूण (नमक), कांदो (प्याज), खूटी (वस्त्र लटकाने का स्थान), जापो (बच्चा पैदा होना), ओबरो (अनाज रखने का स्थान), खाट/माचो (बड़ी चारपाई), खटुलो (छोटी चारपाई), चूण (आटा), सांकली (सरकंडा), होद (पानी रखने का भूमिगत टंकी), उन्दरो (चूहा), बीरा (भाई) आदि।
(साभार- डॉ. पी. एन. रछोया कृत रैगर जाति का इतिहास एवं संस्कृति)
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