रैगर समाज की हस्तशिल्प कला

रैगर जाति की हस्तशिल्प कला:- रैगर जाति चमड़े की रंगत के अलावा जूतियां बनाने का भी कार्य करती रही है। इन की कलात्मक अभिरूचि विभिन्न प्रकार की जूतियां बनाने तथा अन्य हस्तशिल्पों में प्रदर्शित होती है। ये पुराने जमाने में लाव-चड़स बनाने में भी बड़ा ही हुनर रखते थे। इन की लगन, निष्ठा और श्रम से तैयार की गई जूतियां केवल कुछ लोगोें के मन बहलाव अथवा वैभव के प्रतीक न बन कर जन जन के उपयोग के लिये बन गई है। जूतियांे पर हस्तशिल्प कला की विशेषता केवल रैगर जाति के स्त्री और पुरूषों में ही विशेष रूप से पाई जाती है। इनके द्वारा बनाई गई कशीदाकारी जूतियां अत्यंत लुभावनी होती है। इन जूतियों के ऊपरी भाग पर प्रायः फूल पत्तियां, मोर आदि कलात्मक रूप से बनाई जाती है। यह कशीदाकारी रैगर जाति की स्त्रियां ही चमड़े पर किया करती है। आजकल रैगर जाति के लोग कालीन भी बनाते है जो अत्यंत ही कलात्मक होते है। हालांकि इस काम में छोटे छोटे बच्चे ही कार्य करते है जो अत्यंत दुख का विषय है। इसी कलात्मक हस्तशिल्प के संदर्भ में यह लेख है कि पहले के समय मे रैगर जाति की महिलायें ‘कांचली‘ पहना करती थी जो विभिन्न रंगो के टुकड़ो को कलात्मक रूप से सुई से सिल कर बनाई जाती थी। इन में रैगर जाति की महिलाओं की कलात्मक कल्पना स्पष्ट झलकती थी। इसी प्रकार पहले विभिन्न रंगो के कपड़ो के टुकड़ो को जोड़ कर ‘कौथली‘ और ‘गूदड़ी‘ भी बनाई जाती थी। इस प्रकार बनाई गयी ‘कौथली‘ में विभिन्न प्रकार की वस्तुये रखी जाती थी।

‘पलड़ी‘ बनाने की कला:- रैगर महिलाये ‘पलड़ा‘ व ‘छाबड़ी‘ बनाने की कला में भी बहुत माहिर हुआ करती थी। यह एक तरह से रैगर महिलाओ के लिये कुटीर उद्योग हुआ करता था। ‘पलड़ी‘ चुल्हे पर रोटी सिक अर्थात पक जाने के बाद रोटी रखने के काम आती थी। ‘पलड़ी‘ खजूर की मुलायम पत्तियों के बीच में घास-फूस या खजूर की पत्तियों का भूसा डाल कर गोल गोल बना कर खजूर की पत्तियों से सिल दी जाती थी। इस के उपर के गोल के बीच बीच में लाल व नीले रंग से रंगंी गयी खजूर की पत्तियां भी सिल दी जाती थी। इस तरह रैगर महिलाओे के लिये ‘पलड़ी बनाना एक छोटा घरेलु उद्योग ही हुआ करता था।

रैगर समाज में ‘जेवड़ी‘ बनाने की कला:- पहले के समय में रैगर जाति के लोग किसी व्यापार में नही हुआ करते थे। चमड़े के रंगने के काम के अलावा भी वे अपना गुजर बसर करने के लिये कोई छोटा कार्य भी कर लिया करते थे। उस जमाने में आज की तरह के लकड़ी के पंलग नही हुआ करते थे बल्कि प्रत्येक घर में खटिया, ‘पीढा‘, ‘माचना‘ या ‘मचला‘ हुआ करता था। खटिया तो सोने के काम आती थी और बाकी बैठने आदि के काम आया करते थे। इन सब में ‘सान‘ की ‘जेवड़ी‘ से बुनाई हुआ करती थी। यह ‘जेवड़ी‘ घास को सुखा कर कई बार ‘बळ‘ देकर बनाई जाती थी अर्थात इस सूखी घास को कई परतो में मरोड़ मरोड़ कर एक रस्सी के रूप में बनाई जाती थी जिसे ‘जेवड़ी‘ कहा जाता था। ‘जेवड़ी‘ से ही खटिया, मचला आदि पर बैठने, लेटने और सोने के लिये बुनाई की जाती थी। मुझे आज भी याद है कि मेरी मां कहा करती थी कि मेरे नाना जयपुर के गांव ‘बळेसर‘ से आकर दिल्ली में बसे थे। दिल्ली में कई रातावाल परिवार ‘बळेसर‘ गांव से ही निकले हुये है। मां की यह कही गयी कहावत आज तक मेरे कानो में गूंजती रहती है – ‘मैड़, बळेसर और तेवड़ी, ये तीनो बांटे जेवड़ी‘। इस का अभिप्राय यह है कि मैड़, बळेसर और तेवड़ी नाम के तीन गांव खाट की ‘जेवड़ी‘ बनाने की कला अत्यंत निपुण हुआ करते थे।

रैगर महिलाओ का ‘बीजणी‘ व ‘बुहारी‘ बनाने की हस्तकला:- ‘बीजणी‘ रैगर महिलाओ द्वारा खजूर के पत्तों को उस की डंडी सहित गूथ कर गर्मी में हवा करने के लिये एक पंखा का काम करती थी। जब ‘बीजणी‘ को हाथ से हिलाते या घुमाते थे तब गर्मी में शरीर को ठंडक का एहसास होता है। इस की बुनाई में एक पत्ता लाल अथवा नीले रंग में रंग कर तथा दूसरा पत्ता खजूर के पत्तों के प्राकृतिक रंग में बुना होता है। जब मैं भारतीय पुलिस सेवा में राजस्थान कैडर में नियुक्त होकर आया तो मैने जयपुर के रामगंज चैपड़ पर रैगर महिलाओ को ‘बीजणी‘ बेचते हुये देखा था। वास्तव में घाटगेट जयपुर मे रैगरो का मौहल्ला‘ नामक मोहल्ला है जिस को जयपुर महाराजा ने इसी नाम से बसाया था। यंहा रैगर जाति के लोग काफी संख्या में निवास करते थे जो बाद में जयपुर के अन्य मौहल्लो में जाकर बस गये है। यह मौहल्ला रामगंज चौपड़ के भी नजदीक पड़ता है। इस के अलावा मैरे जन्म स्थान रैगरपूरा और इस के साथ बसे हुये बीड़न पुरा व देव नगर में रैगर समाज के प्रत्येक घर में ‘बीजणी‘ देखी थी जो प्रायः जयपुर से खरीद कर लाई जाती थी अथवा जयपुर राजस्थान से परिावार का कोई रिशतेदार दिल्ली आता था तो वह जयपुर से ‘बीजणी‘ सौगात में लेकर आता था। उस जमाने मे रैगर जाति के कई घरो में बिजली भी नही हुआ करती थी और न ही एयर कंडीशनर हुआ करते थे इस लिये ‘बीजणी‘ का प्रत्येक रैगर के घर में बड़ा ही महत्व हुआ करता था। वास्तव में खजूर राजस्थान में हुआ करती थी जिस के पेड़ सीधे खम्भे की तरह ऊपर चले जाते है और उन के सिरे पर पत्तायां बहुत कड़ी चार अंगुल से छह अंगुल तक लंबी पतली और नुकीली होती है और एक सींके या छड़ी के दोनो ओर लगती है। पत्ते की यह छड़ी दो तीन हाथ लम्बी होती है। ‘बीजणी‘ बनाने के लिये काफी मात्रा में रैगर पुरूष वर्ग खजूर के पत्तों को उन गांवो से खरीद कर लाता था जंहा यह इस के पेड हुआ करते है। बाद में घर की महिलाये इन की पत्तियों को चीर कर रख लेती है तथा कुछ चीरी गयी पत्तियों को विशेष प्रकार के लाल या नीले रंग के घोल में रंग लेती है। इस के उपरान्त इन खजूर की पत्तियों को ‘बीजणी‘ बनाते समय इस की अनुपात अनुसार डंडी चाकू से काट का इन को अति सुन्दर डिजायन में गूथती है जिस से हवा करते समय और इस से पहले भी यह सुन्दर नजर आये। ‘बुहारी‘ भी घर में झाड़ू देने के काम आती थी और यह भी खजूर की पत्तियों से बनाई जाती थी। वास्तव में यह रैगर महिलाओ की हस्तकला का ही नमूना था जो धीरे धीरे समाप्त हो गया है। इस हस्तकला से रैगर महिलाओ की आर्थिक स्थिति में अति सुधार होता था।

रैगर महिलाओ की ‘मोचड़ी‘ पर सुन्दर आकृति बनाना:- मध्य काल की कलाकृति का
असर रैगर महिलाओ द्वारा औरतो की जूतियो पर रंग बिरंगे सूत के धागो से विभिन्न प्रकार के फूल पत्तियां बनाना प्रारम्भ हो गया था। रैगर महिलाओ ने कभी भी किसी देवी देवता की आकृति किसी भी जूती या मौचड़ी पर नही बनाई। बचपन में मैने मेरे गांव रायसर में रैगर महिलाओ द्वारा इस प्रकार की जूतिया बनाती हुई देखी थी। प्रायः इन सुन्दर जुतियो को रैगर पुरूष गांव गांव में लेजाकर बेचा करते थे। आजकल जूतियां बनाने में काफी बदलाव आ गया है। अब मारवाड़ी जूती, जयपुरी जूती और पंजाबी जूती भी लोग बनाने लग गये है।। ‘बिच्छू वाली जूती‘ में ‘चड़-चूं‘, चड़-चूं‘ की आवाज आती है। वास्तव में जूती बनाने से पहले औजार से चमड़े की सिलावट को समाप्त किया जाता है। उस के बाद आदमी के पाँव के नम्बर के अनुसार जूती बनाई जाती है। प्रत्येक मोचड़ी में तलवे होते है। महिलाओ की मोचड़ी पर रैशम का कशीदा महिलायें ही बनाती है। आजकल जोधपुर ‘मोचड़ी‘ बनाने के लिये प्रसिद्व है।

रैगर महिलाओ और बालिकाओं द्वारा गलीचा निर्माण:- आजकल विभिन्न प्रकार के गलीचा बनाने की हस्तकला. जयपुर, अलवर और आस पास के गांवो में रैगर महिलाओ और बालिकाओं द्वारा रंग बिरंगे ऊन की सूत के गलीचो का निर्माण किया जाने लगा। यह ऊन के धागे प्रायः गलीचा बनवाने वाले ठेकेदार ही दिया जाता है। इस गलिचा निर्माण के कार्य में गरीबी से जूझ रही रैगर महिलाओ को आर्थिक सबलता प्रदान तो की परन्तु बालिकाओ की शिक्षा और सेहत पर विपरीत प्रभाव अत्यधिक पड़ा जो केवल इन की मजदूरी को गलीचा ठेकेदार द्वारा शोषण कहा जा सकता है।

रैगर की जूती और दो सेठो की लड़ाई:- भारतीय पुलिस सेवा, राजस्थान कैडर में प्रथम नियुक्ति सहायक पुलिस अधिक्षक, अजमेर के पद पर हुई जंहा से मैने व्यावाहरिक पुलिस प्रशिक्षण भी प्राप्त किया जिस के कारण मैं अजमेर जिले में चार साल से अधिक तक पुलिस अधिकारी के रूप में तैनात रहा। मेरा पहली पदोन्नति कमाण्डेन्ट, सैकिंड बटालियन, राजस्थान आर्मड कांस्टेबलरी (आर.ऐ. सी.) जयपुर में हुयी। मुझे जयपुर के बारे में ज्यादा ज्ञान नही था क्यों कि मैने अपनी शिक्षा दिल्ली से ही प्राप्त की थी। परन्तु मेरे पिताश्री कालू राम रछोया, गांव रायसर, तहसील जमुवा रामगढ, जिला जयपुर से ही दिल्ली गये थे अतः मै अपने आप को बहुत सौभाग्यशाली मानता था कि मेरे बुजूर्गो के राज्य में मैं भारतीय पुलिस सेवा का एक उच्च पुलिस अधिकारी बन कर आया हूं। इस लिये मेरे अन्दर बहुत जिज्ञासा थी कि मैं राजस्थान की प्राचीन संस्कृति को जान कर अपने आप को अनुगृहित महसूस करू। इस के अलावा राजस्थान में विभिन्न प्रकार के वास्तविक व सच्चे किस्से लोग आपस में सुनाया करते थे। मुझे इन किस्सो को सुनने में बहुत आनन्द आता था। ऐसा ही एक सच्चा किस्सा मैने सुना जिस के अनुसार जयपुर में एक सेठ रहा करता था। वह प्रारम्भ में एक साधारण ही व्यक्ति था परन्तु समय व तकदीर से उस ने अपने व्यापार में काफी रूपया और धन दौलत कमाई। इसी प्रकार काठियावाड़, गुजरात में भी एक सेठ था जिस ने व्यापार में अपार धन दौलत कमाई थी। एक बार उसे किसी ने कहा कि जयपुर में भी एक सेठ है जिस की तकदीर बहुत उज्जवल है और उस ने अपनी तकदीर के सहारे से अपार धन दौलत अपने व्यापार में कमाई है। काठियावाड़ गुजरात के सेठ को बात सुनने के बाद लगा कि जयपुर के सेठ से मिल कर यह देखना चाहेगा कि किस की तकदीर ज्यादा अच्छी है क्यों कि उस ने भी अपनी तकदीर के सहारे से ही व्यापार में बेशुमार धन दौलत कमाई है। जयपुर वाला सेठ उस की तकदीर से ज्यादा का नही हो सकता। उस जमाने में परिवाहन के साधनो की कमी थी और काठियावाड़ से जयपुर तक कोई सीधा रास्ता नही था अतः उस ने तकदीर आजमाने की ठानने के कारण अपने मुनीम को कुछ सौगात के सामान सहित जयपुर के सेठ के पास ऊंट बैलगाड़ी आदि साधनो से भेजा। कुछ महिनो के बाद काठियावाड़ के सेठ का मुनीम जयपुर पंहुचा और काठियावाड़ के सेठ द्वारा भेजे गयी सौगात को जयपुर के सेठ को देने के बाद अपने सेठ द्वारा तकदीर आजमाने की बात कही जिसे जयपुर के सेठ ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। जयपुर के सेेठ ने भी काठियावाड़ वाले सेठ को जयपुर आने का निमंत्रण देते हुये उस मुनीम के साथ जयपुर की कुछ सोने चांदी आदि की चीजे सौगात के रूप में भिजवाई। वह दिन आ गया जब काठियावाड़ वाला सेठ तकदीर आजमाने के लिये जयपुर के सेठ की हवेली पर आ गया। जयपुर के सेठ ने उस की काफी खातिरदारी की। जब काफी दिन गुजर गये तो काठियावाड़ वाले सेठ ने जयपुर के सेठ को कहलवा भेजा कि वह उस से तकदीर आजमाना चाहता है। इस पर काठियावाड़ और जयपुर के सेठ हवेली के सभागह में बैठ गये। पान-बीड़ा, सुपारी आदि उसे पेश करने के बाद दोनो सेठ अपनी अपनी कहानी सुनाते रहे कि गरीबी से प्रारम्भ किये जीेवन में उन दोनो ने कैसे अपार धन दौलत एकत्रित की है। दोनो सेठ यह कहते रहे कि वे जिस मिटटी को छू लेते है वह सोना बन जाती है। इस अपार धन दौलत की तुलना से दोनो सेठो में किस की तकदीर ज्यादा तेज है का फैसला नही हो पाया और दोनो सेठ किस की तकदीर ज्यादा तेज है के बारे में कोई फैसला नही कर पाये और उन्होने अगले दिन तकदीर किस की तेज है का फैसला करने की ठानी। अब फिर दोनो सेठ हवेली के सभागार में बैठे परन्तु कोई तकदीर संबंधी फैसला नही कर पाये। इस पर जयपुर वाले सेठ ने अपने पास खड़े मुनीम को हुकूम दिया कि वह जूती हाथ में ले। इस पर काठियावाड़ वाला सेठ चैंका परन्तु जयपुर वाले सेठ ने कहा कि हुजूर आप मेरे मेहमान है और मेरा मुनीम इस जूती को उपर उछालते हुये जमीन पर फैंकेगा। आप चित और पट में कोई एक मांग ले। यदि आप के अनुसार यह जूती जमीन पर पड़ गयी तो मैं यह मान लुंगा कि आप की तकदीर मेरे से अच्छी है। इस पर काठियावाड़ वाले सेठ ने काफी सोच समझ के बाद ‘चित‘ (Head) मांगा तब जयपुर के सेठ ने उसे कहा कि आप जयपुर में मेरे मेहमान है इस लिये आप की इज्जत करते हुये मैं यह मान रहा हूं कि ‘चित‘(Head) और ‘पट‘ (Tail) दोनो आप की है। इस पर जयपुर के सेठ ने अपने मुनीम को कहा कि वह जूती आकाश की तरफ उछाल कर जमीन पर फैंके। मुनीम ने ऐसा ही किया। दोनो सेठो का अचम्भा तब हुआ जब वह जूती न तो ‘चित‘ पड़ी और न ही ‘पट‘ पड़ी। वह जूती जमीन पर सीधी की सीधी खड़ी अवस्था में ही खड़ी पड़ी। तब काठियावाड़ के सेठ ने मान लिया कि जयपुर के सेठ की तकदीर उस की तकदीर से अच्छी है। इस प्रकार रैगर की जूती ने दोनो सेठो की तकदीर का फैसला कर दिया।

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