संत कबीरदास जी

कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे । कबीर का अर्थ अरबी भाषा में ‘’महान’’ होता है । कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति किसी की भी चर्चा, बिना कबीर की चर्चा के अधूरी ही रहेगी । कबीरपंथी, एक धार्मिक समुदाय जो कबीर के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन शैली का आधार मानते हैं, ‘कबीर’ भक्ति आन्दोलन के एक उच्च कोटि के कवि, समाज सुधारक एवं संत माने जाते हैं। संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है । कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है। लोक कल्याण के हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था । कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व – प्रेमी का अनुभव था । कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे । अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है । कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी । समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है ।

जीवन: कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं । कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में सन् १३९८ में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ । कबीर के माता – पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है । “नीमा’ और “नीरु’ की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या लहर तालाब के समीप विधवा ब्राह्मणी की पाप – संतान के रुप में आकर यह पतितपावन हुए थे, ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है । कई मत यह है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था । कबीर दास संत रामानंद के शिष्य बने और उनसे शिक्षा प्राप्‍त की । कबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या ‘लोई’ के साथ हुआ था । कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी । कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे । हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया । अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर लिया । कबीर की वाणी उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी में देखें जा सकते हैं । गुरु ग्रंथ साहब में उनके २०० पद और २५० साखियां हैं । काशी में प्रचलित मान्यता है कि जो यहॉ मरता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है । रूढ़ि के विरोधी कबीर को यह कैसे मान्य होता । काशी छोड़ मगहर चले गये और वहीं देह त्याग किया । मगहर में कबीर की समाधि है जिसे हिन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं । ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था । हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से । इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा । बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने । मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया । मगहर में कबीर की समाधि है । जन्म की भाँति इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद हैं किन्तु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी (सन 1518 ई.) मानते हैं, लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु ११९ वर्ष की अवस्था 1448 में मानते हैं । मगहर में कबीर की समाधि है जिसे हिन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं।

हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व कबीर के सिवा अन्य किसी का नहीं है। कबीर की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उसी ने उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। कतिपय कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नामक देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रहलाद ही संवत् 1455 ज्येष्ठ शुक्ल 15 को कबीर के रूप में प्रकट हुए थे।


कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं ।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं ॥

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ।।

चलती चक्‍की देख कर, दिया कबीरा रोए ।
दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोई ।।

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह ॥

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥


कबीर वाणी

माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर ।
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर ।।

मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला ।
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला ।।

कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी ।
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो ।।

आया है किस काम को किया कौन सा काम ।
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम ।।

कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी ।
झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी ।।

कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी ।
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी ।।

चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय ।
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय ।।

साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो ।
जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो ।।

कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी ।
जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी ।।

कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर ।
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर ।।

ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे ।
भूला भटका जो होय राह ताही बतलावे ।।

बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा ।
बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा ।।

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