परबतसर काण्ड

परबतसर काण्‍ड (27 जून, 1945)

दौसा, प्रथम अखिल भारतीय रैगर महासम्‍मेलन के पारित प्रस्‍तावों का रैगर बंधुओं द्वारा कार्यान्वित करते हुए देखकर स्‍वर्ण हिन्‍दू समुदाय व रावत, महरावत ठाकर ईर्ष्‍या से जल उठा एवं प्रतिक्रिया स्‍वरूप रैगरों पर अमानुषिक अत्‍याचार करने लगे । रैगरों का उन्‍होंने जाति बहिष्‍कार कर दिया जिससे कि रैगरों को खाने-पीने का सामान भी नहीं मिल पाता था । यहाँ तक कि रैगर भाईयों का जंगल में जाना, खेती करना, पर भी उन्‍होंने बंदी लगा दी । स्‍वर्ण हिन्‍दुओं ने रैगरों का गांव छोड़कर समीप के गांव में जाना तक बन्‍द कर दिया था । इस प्रकार उन्‍होंने रैगरों के चारों तरफ घेरा डाल रखा था । और नाना प्रकार की यातनांए दे रहे थे । परबतसर के रैगर निवासियों ने अपनी दु:खद घटना की सूचना महासभा त‍क पहुँचाई । महासभा ने जब इस घटना को सुना तो बड़ा दुख हुआ और उन्‍होंने श्री नवल प्रभाकर जी एंव श्री कँवरसेन मौर्य को शिष्‍टमण्‍डल परबतसर भेजा जब यह शिष्‍टमण्‍डल बोरावड पहुँचा तो वहाँ इन्‍हें अपने सजातीय बन्‍धुओं से ज्ञात हुआ कि परबतसर में तो रैगरों पर बहुत ही क्रूर अत्‍याचार हो रहे है और उन्‍होंने शिष्‍टमण्‍डल के सदस्‍यों से कहा कि वह परबतसर न जाये अन्‍यथा उनके साथ भी स्‍वार्थी स्‍वर्णों द्वारा बुरा बर्ताव किया जायेगा । लेकिन इनके हृदयों में तो समाज सेवा की तीव्र लगन थी और इनका तो लक्ष्‍य था सजातीय बन्‍धुओं को सवर्णों के अत्‍याचारों से शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा दिलवाना । इन्‍होंने केवल यही कहा कि बिना कोई विलम्‍ब किए हमें जल्‍दी ही परबतसर जाने का प्रबंध कर दो । परबतसर जाने के लिये ऊंटोंवालों ने भी इनकार कर दिया लेकिन बड़े परिश्रम के उपरान्‍त एक बीमार लंगड़े ऊंट की सवारी मिलीं । इस प्रकार 12 कोस के लम्‍बे सफर को तय करके ग्राम परबतसर पहुँचे । परबतसर पहुँचने पर शिष्‍टमण्‍डल के माननीय सदस्‍य वहाँ के स्‍थानीय स्‍वर्णों, ठाकुरों से मिले और उन्‍हें समझाने का प्रयास किया और कहा कि ये मरे पशुओं को उठाने आदि कार्यों को बुरा समझते हैं । इसलिए हमारे यह रैगर बंधु उक्‍त कार्यों को करने में सर्वथा असमर्थ हैं लेकिन इसके प्रत्‍युत्‍तर में स्‍वर्ण हिन्‍दुओं ने कहा कि इन्‍हें अगर यहां रहना तो यह सभी कार्य करने पड़ेंगे इस प्रकार शिष्‍टमण्‍डल तत्‍काल ही जोधपुर जाने के लिए परबतसर से बिदा हो गया । रास्‍ते में ये लोग रघुनाथपुरा गांवों में रूके और रात्रि को विश्राम किया । वहाँ के सजा‍तीय बन्‍धुओं को संगठन एवं एकता का प्रचार किया और महासम्‍मेलनों के प्रस्‍तावों पर अमल करने पर जोर दिया । उन्‍होंने बताया कि उन्‍हें इन प्रस्‍तावों पर चलने में अगर कोई कठिनाईयां भी आए तो उनका दृढ़ता, धैर्य एवं एकता के साथ मुकाबला करना चाहिए लेकिन हमें अपने आदर्शों से पदच्‍युत नहीं होना चाहिए । दूसरे ही दिन प्रात: ही शिष्‍टमण्‍डल जोधपुर के लिए रवाना हो गया वहाँ पहुंचकर राजस्‍थान प्रजामण्‍डल के अध्‍यक्ष श्री जयनारायण व्‍यास से मिले और उनको वस्‍तुस्थिति से पूर्णतया अवगत करा दिया । इसी सम्‍बंध में शिष्‍टमण्‍डल जोधपुर के प्राइममिनिस्‍टर से मिला और मौखिक के साथ-साथ लिखित ओवदन पत्र भी दिया । जिसमें उन्‍होंने परबतसर काण्‍ड की वस्‍तुस्थिति पूर्णतया व्‍यक्‍त कर दी और शीघ्र ही कार्यवाही करने की प्रार्थना की । प्राइम मिनिस्‍टर महोदय ने वस्‍तुस्थिति की जांच कराई एवं तुरन्‍त ही रैगर बन्‍धुओं को स्‍वर्णों के पाशविक अत्‍याचारों से मुक्‍त कराया । इस प्रकार सजातीय बन्‍धुओं का दुख दूर हुआ और महासभा के इस शिष्‍टमण्‍डल को अपने कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्‍त हुई ।

(साभार – अखिल भारतीय रैगर महासभा संक्षिप्‍त कार्य विवरण पत्रिका 1945-1964)

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