संत रविदास जी

महान संत रविदास भारत के कई संतों ने समाज में भाईचारा बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है । ऐसे संतों में संत कुलभूषण कवि रैदास उन महान् सन्तों में अग्रणी थे । वे बचपन से समाज के बुराइयों को दूर करने के प्रति अग्रसर रहे । उनकी लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग था, जिसका मानव धर्म और समाज पर अमिट प्रभाव पड़ता है । उन्होंने समाज में फैली छुआ-छूत, ऊँच-नीच दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया । इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है । मधुर एवं सहज संत रैदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है।

प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं । इन सब में मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है । ऐसे सन्तों में रैदास का नाम अग्रगण्य है । रविदास कबीरदास के समकालीन थे । रविदास भी स्वामी रामानन्द जी के शिष्य थे । रैदास ने अपनी जीविका के लिये पैतृक व्यवसाय को ही अपनाया था । *गुरु ग्रंथ साहिब* में धन्ना भगत को रविदास का समकालीन बताया है । धन्ना ने रविदास को अपना ज्येष्ठ कहा है और आदरपूर्वक उनका उल्लेख किया है । *गुरु ग्रंथ साहिब* में रविदास की वाणियों का भी संकलन है । रविदास ने मथुरा, प्रयाग, वृन्दावन तथा हरिद्वार आदि तीर्थ स्थानों की यात्राएँ की थीं । रविदास की योग्यता एवं महत्ता से प्रभावित होकर मीराबाई ने उन्हें अपना गुरु स्वीकारा था और उनसे दीक्षा ली । रविदास मूल रूप से एक भक्त और साधक थे । रैदास की वाणियों और पदों में दैन्य भावना शरणागत, ध्यान की तल्लीनता तथा आत्म निवेदन की भावना प्रमुखता से पाई जाती है । भक्ति के सहज एवं सरल मार्ग को इन्होंने अपनाया था । सत्संग को भी इन्होंने महत्त्व दिया है । रविदास ने अपने ज्ञान तथा उच्च विचारों से समाज को लाभान्वित किया ।

जीवन: सन्त रविदास (रैदास) का जन्म एक चर्मकार परिवार में माघ पूर्णिमा को काशी के निकट माण्डूर नामक स्थान पर सन् 1398 में हुआ था । उनके पिता का नाम संतो़ख दास (रग्घु), माता का नाम कर्मा देवी तथा पत्नी का नाम लोना बताया जाता है । आज से लगभग छ: सौ पचास वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था । उसी समय रैदास जैसे समाज-सुधारक संत का जन्‍म इस धरती पर हुआ । रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था । जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया । वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे । उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे । प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था । साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था । वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे । उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे । कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया । रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे ।

स्वभाव: उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे । उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है । एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे । रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है । यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा । गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है । मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है । कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि –

” मन चंगा तो कठौती में गंगा । ”

वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे । उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं । वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है । उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है । अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया । अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-

कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै ।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै ।।

उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है । अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है । इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है । रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी । इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था । उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे । उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये । कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं ।

रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया ।

वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे । उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं । वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है ।

“कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा ।

वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा ।।”

उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सदव्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है । अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया । अपने एक भजन में उन्होंने कहा है –

“कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै ।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै ।”

उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है । अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है । इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है ।

रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी । इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था । उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे ।

उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।

‘वर्णाश्र अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।”

आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं । उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है । विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं । इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं ।

संत कुलभूषण कवि रैदास उन महान् सन्तों में अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है।

मधुर एवं सहज संत रैदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है।

मालवीय सूचना प्रौद्योगिकी केन्द्र द्वारा प्रस्तुत संत रैदास की रचनाओं का यह संकलन `गागर में सागर’ समाहित करने का एक लघु प्रयास है जिसके अन्तर्गत संत रैदास के १०१ पदों को सम्मिलित किया गया है।


ऐसे महान संत को शत् शत् नमन


रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं ।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि ।।

हिन्दु तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा ।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा ।।

मुसलमान सो दास्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत ।
रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत ।।

रैदास एक बूंद सो सब ही भयो वित्थार ।
मूरखि है जो करति है, वरन अवरन विचार ।।

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात ।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात ।।


प्रभुजी तुम चंदन हम पानी ।
जाकी अंग अंग वास समानी ।।

प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा ।
जैसे चितवत चन्द्र चकोरा ।।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती ।
जाकी जोति बरै दिन राती ।।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा ।
जैसे सोनहि मिलत सुहागा ।।

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा ।
ऐसी भक्ति करै रैदासा ।।

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