बाबा रामदेव : परचा – चमत्कार – लीला

बाल लीला में माता को परचा

भगवान नें जन्म लेकर अपनी बाल लीला शुरू की । एक दिन भगवान रामदेव व विरमदेव अपनी माता की गोद में खेल रहे थे, माता मैणादे उन दोनों बालकों का रूप निहार रहीं थीं । प्रात:काल का मनोहरी दृश्य और भी सुन्दरता बढ़ा रहा था । उधर दासी गाय का दूध निकाल कर लायी तथा माता मैणादे के हाथों में बर्तन देते हुए इन्हीं बालकों के क्रीड़ा क्रिया में रम गई । माता बालकों को दूध पिलाने के लिये दूध को चूल्हे पर चढ़ाने के लिये जाती है । माता ज्योंही दूध को बर्तन में डालकर चूल्हे पर चढ़ाती है । उधर रामदेव जी अपनी माता को चमत्कार दिखाने के लिये विरमदेव जी के गाल पर चुमटी भरते हैं इससे विरमदेव को क्रोध आ जाता है तथा विरमदेव बदले की भावना से रामदेव जी को धक्का मार देते हैं । जिससे रामदेव जी गिर जाते हैं और रोने लगते हैं । रामदेव जी के रोने की आवाज सुनकर माता मैणादे दूध को चुल्हे पर ही छोड़कर आती है और रामदेव जी को गोद में लेकर बैठ जाती है । उधर दूध गर्म होन के कारण गिरने लगता है, माता मैणादे ज्यांही दूध गिरता देखती है वह रामदेवजी को गोदी से नीचे उतारना चाहती है उतने में ही रामदेवजी अपना हाथ दूध की ओर करके अपनी देव शक्ति से उस बर्तन को चूल्हे से नीचे धर देते हैं । यह चमत्कार देखकर माता मैणादे व वहीं बैठे अजमल जी व दासी सभी द्वारकानाथ की जय जयकार करते हैं ।


बाल लीला में कपड़े के घोड़े को आकाश में उड़ाना

एक दिन रामदेव जी महल में बैठे हुए थे उस समय रामदेव जी 5 वर्ष के थे । एक घुड़सवार को देखकर रामदेव जी ने बाल हठ किया कि मैं भी घोड़े पर बैठुंगा । रामदेव जी को मनाने के लिये माता ने खूब जत्न किये पीने के लिये दूध, खेलने कि लिये हाथी-घोड़े उँट आदि के खिलौने सामने रखे किन्तु अपने बाल हठ को नहीं छोड़ा । माता ने दासी को भेजकर राजघराने के दर्जी को बुलाया और समझाया कि कुंवर रामदेव के लिये कपड़ों का सुन्दर घोड़ा बनाकर लाओ उस पर लीला याने हरे कपड़े का झूल लगाकर लाना ।

माता जी ने दर्जी को सुन्दर कपड़े दिये और कहा कि जाओ इन कपड़ों का घोड़ा तैयार करके लाओ । दर्जी के मन में लालच आया और उसने पुराने कपड़े का घोड़ा बनाकर उपर हरे रंग की झूल लगा दी और घोड़ा लेकर राजदरबार पहुँचा तथा रामदेव जी के सामने रखा तभी रामदेव जी ने अपना हठ तोड़ा ।

श्री रामेदव जी कपड़े के बने घोड़े को देखकर बहुत खुश हुए और घोड़े पर सवारी करने लगे । ज्यूंहि भगवान श्री रामदेव जी घोड़े पर सवार हुए कपड़े का घोड़ा हिन हिनाता और आगे के दोनों पैर खड़ा होकर दरबार में ही नाचने लगा, कपड़े के घोड़े को नाचता देखकर सारा दरबार हिनले लगा । नाचते नाचते बालक को लेकर आकाश मार्ग की ओर घोड़ा उड़ चला । इसको देखकर सब घबराने लगे । माता मैणादे,राजा अजमल जी व भाई वीरमदेव सब ही अचम्भे में पड़ गए । राजा अजमल जी को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने दर्जी के घर एक सेवक को भेजा और उस दर्जी को बुलाया । जब राज दर्जी दरबार में पहुँचा,दरबार खचाखच भरा हुआ था । तब अजमल जी ने कहा कि हे राज दर्जी सच सच बताना कि तुमने उस कपड़े के घोड़े पर क्या जादू किया है ? सो मेरे कुंवर को लेकर आकाश में उड़ा ।

राज दर्जी कपड़े के घोड़े को आकाश में उड़ता देखकर दंग रह गया और डर के मारे थर थर कांपने लगा और कहने लगा मैने काई जादू नहीं किया । दर्जी की बात का राजदरबार में कोई असर नहीं हुआ । क्योंकि दूसरा कारण था । जो घोड़ा दर्जी ने बनाया था । उसमें पुराने कपड़े लगाकर भगवान के साथ छल किया था । अजमल जी ने कहा यह सब तेरी करामात है इसलिये हुक्म है कि इस दर्जी को पकड़कर कारागृह में डाल दो और सिपाहियों को आदेश दिया कि जब तक रामा कंवर घोड़े से नीचे ना आये तब तक इस दर्जी को अंधेरी कोठरी से बाहर मत निकालना । तब दर्जी कोठरी में पड़ा रोने लगा और भगवान को सुमरन करने लगा ।

इस प्रकार दर्जी ने भगवान को पुकारा तब भगवान श्री रामदेव जी ने दर्जी पर कृपा करी । क्योंकि भगवान हमेशा भक्तों के वश में हुआ करते हैं । जब दर्जी ने विनती की तब भगवान रामदेवजी घोड़े सहित काल कोठरी में गए । रामा राज कंवर के कोठरी में आते ही चान्दनी खिल गई और रामदेव जी ने दर्जी से कहा तुमने पुराने कपड़ों का घोड़ा बनाया इसलिये तुम्हे इतना कष्ट उठाना पड़ा । जा मैनें तेरे सारे पाप खत्म किये । तुमने घोड़ा बहुत सुन्दर बनाया और हरे रंग की रेशमी झूल ने मेरा मन मोह लिया । हे दर्जी आज से यह कपड़े का घोड़ा लीले घोड़े के नाम से प्रसिद्ध होगा । जहां पर मेरी पूजा होगी,वहीं पर मेरे साथ इस घोड़े की भी पूजा होगी ।


रूपा दर्जी को परचा

बाबा रामदेव ने बचपन में अपनी माँ मैणादे से घोडा मंगवाने की जिद कर ली थी । बहुत समझाने पर भी बालक रामदेव के न मानने पर आखिर थक हारकर माता ने उनके लिए एक दर्जी (रूपा दर्जी) को एक कपडे का घोडा बनाने का आदेश दिया तथा साथ ही साथ उस दर्जी को कीमती वस्त्र भी उस घोड़े को बनाने हेतु दिए ।घर जाकर दर्जी के मन में पाप आ गया और उसने उन कीमती वस्त्रों की बजाय कपडे के पूर (चिथड़े) उस घोड़े को बनाने में प्रयुक्त किये और घोडा बना कर माता मैणादे को दे दिया । माता मैणादे ने बालक रामदेव को कपडे का घोडा देते हुए उससे खेलने को कहा, परन्तु अवतारी पुरुष रामदेव को दर्जी की धोखधडी ज्ञात थी । अतःउन्होने दर्जी को सबक सिखाने का निर्णय किया ओर उस घोडे को आकाश मे उड़ाने लगे । यह देख माता मैणादे मन ही मन में घबराने लगी उन्होंने तुरंत उस दर्जी को पकड़कर लाने को कहा । दर्जी को लाकर उससे उस घोड़े के बारे में पूछा तो उसने माता मैणादे व बालक रामदेव से माफ़ी माँगते हुए कहा की उसने ही घोड़े में धोखधड़ी की हैं और आगे से ऐसा न करने का वचन दिया । यह सुनकर रामदेव जी वापस धरती पर उतर आये व उस दर्जी को क्षमा करते हुए भविष्य में ऐसा न करने को कहा ।


मिश्री को बनाया नमक

एक बार ऐसा हुआ कि लाखु बंजारा नाम का व्यापारी बैलगाड़ी पर मिश्री बेचने हेतु बाबा के नगर मे पहुंचा ओर उसने नगर के नियम की अवहेलना करते हुए कुछ पैसे बचाने के लोभ में अपने व्यापार से सम्बंधित तत्कालीन चुंगी कर नहीं चुकाया । ओर बाबा को उसके इस लालच का पता लगा त‍ब बाबा ने जब उस बंजारे से चुंगी कर न चुकाने का कारण पूछा तो उसका जवाब आया कि मे तो नमक बेचने आया हॅू ओर यह तो नमक है, उसने ऐसा इसलिए कहा की नमक पर कोई चुंगी कर नहीं लगता और वह बाजार में जाकर मिश्री को बेचने लगा, इस घटना क्रम के द्वारा बाबा ने उसे सबक सिखाने हेतु सारी मिश्री को नमक में बदल दिया । ओर व्‍यापारी को इस बात की भनक त‍क नहीं लगी ओर वह उस नमक को बाजार में बेचने लगा जब खरिदारों को मिश्री के नाम पर नमक मिला तो उन्‍हानें उसकी पिटाई करना चालू कर दी, रामदेवजी शीघ्र ही वहां पहुंचे व सभी पिटाई करने वालों को शांत किया व उसने रामदेवजी से माफ़ी मांगी और चुंगी कर चुकाया । सभी लोगो को शांत करवाते हुए इस घटनाक्रम के बारे में अवगत कराया व कहा कि इसको अपनी गलती का पश्चाताप है, अतः इसे मैं माफ़ करता हूँ, और फिर से वह सारा नमक मिश्री में बदल गया ओर उसने अपना व्‍यापार उस नगर में किया अर्थात् कर की चोरी करने वाले को परचा देकर सभी को हमेशा सही मार्ग पर चलने हेतु प्रेरणा प्रदान की ।


बाबा ने कियां भैरव राक्षस का वध

जब बाबा रामदेव जी बालक थे तब कि बात है कि वे अपना खेल खेलते हुए जंगल में चले गए । जंगल में पहुंचने पर बाबा जी को सामने पहाड़ नजर आया । बाबा ने उस पहाड़ पर चढ़ाई ओर वहां से देखा तो कुछ दूरी पर एक कुटिया नजर आयी बाब ने उस कुटिया में प्रवेश किया ओर वहां देखा की एक सिद्ध पुरूष ध्‍यान मग्न होकर अपनी उपासना कर रहे थे । भगवान रामदेव जी ने उनके चरणों में सिर झुकाकर नमस्कार किया । उनकी आखें खुली ओर उन्‍होने प्रशन किया कि बालक कहां से आये हो तुम्हें मालूम नहीं यहां पर एक भैरव नाम का राक्षस रहता है जो जीवों को मारकर खा जाता है । तुम यहां से जल्दी चले जाओ उसके आने का वक्त हो गया है । वह तुम्हें भी मारकर खा जाएगा और इस बाल हत्या दोष मुझ पर आजायेगा कि मेने तुम्‍हे सचेत नहीं किया, इसलिये तुम इस कुटिया से कहीं दूर चले जाओ । रामदेव जी मीठे शब्दों में अपना जबाव दिया कि – मैं क्षत्रिय कुल का सेवक हूँ स्वामी ! भाग जाउंगा तो कुल पर कलंक का टीका लग जायेगा । मैं रात्री भर यहाँ रहूँगा प्रभात होते ही चला जाउंगा । उनके साहस व तेज को देखते हुए उन्‍होने बाबा को वहां रूकने की अनुमति प्रदान कर दी कुछ देर बाद भैरव राक्षस वहां पर पहुंचा व उसने बाबा को खाने हेतु प्रयास किया व बाबा रामदेव जी ने उसका वध कर प्रजा का कल्याण किया ।


बोहिता को परचा व परचा बावड़ी

एक समय रामदेव जी ने दरबार बैठाया और निजीया धर्म का झण्डा गाड़कर उँच नीच, छुआ छूत को जड़ से उखाड़कर फैंकने का संकल्प किया तब उसी दरबार में एक सेठ बोहिताराज वहां बैठा दरबार में प्रभू के गुणगान गाता तब भगवान रामदेव जी अपने पास बुलाया और हे सेठ तुम प्रदेश जाओ और माया लेकर आओ । प्रभू के वचन सुनकर बोहिताराज घबराने लगा तो भगवान रामदेव जी बोले हे भक्त जब भी तेरे पर संकट आवे तब मैं तेरे हर संकट में मदद करूंगा । तब सेठ रूणिचा से रवाना हुए और प्रदेश पहुँचे और प्रभू की कृपा से बहुत धन कमाया । एक वर्ष में सेठ हीरो का बहुत बड़ा जौहरी बन गया । कुछ समय बाद सेठ को अपने बच्चों की याद आयी और वह अपने गांव रूणिचा आने की तैयारी करने लगा । सेठजी ने सोचा रूणिचा जाउंगा तो रामदेवजी पूछेंगे कि मेरे लिये प्रदेश से क्या लाये तब सेठ जी ने प्रभू के लिये हीरों का हार खरीदा और नौकरों को आदेश दिया कि सारे हीरा पन्ना जेवरात सब कुछ नाव में भर दो, मैं अपने देश जाउंगा और सेठ सारा सामान लेकर रवाना हुआ । सेठ जी ने सोचा कि यह हार बड़ा कीमती है भगवान रामदेव जी इस हार का क्या करेंगे, उसके मन में लालच आया और विचार करने लगा कि रूणिचा एक छोटा गांव है वहां रहकर क्या करूंगा, किसी बड़े शहर में रहुँगा और एक बड़ा सा महल बनाउंगा । इतने में ही समुद्र में जोर का तुफान आने लगा, नाव चलाने वाला बोला सेठ जी तुफान बहुत भयंकर है नाव का परदा भी फट गया है । अब नाव चल नहीं सकती नाव तो डूबेगी ही । यह माया आपके किस काम की हम दोनों मरेंगे ।

सेठ बोहिताराज भी धीरज खो बैठा । अनेक देवी देवताओं को याद करने लगा लेकिन सब बेकार, किसी भी देवता ने उसकी मदद नहीं की तब सेठजी को श्री रामदेव जी का वचन का ध्यान आया और सेठ प्रभू को करूणा भरी आवाज से पुकारने लगा । हे भगवान मुझसे कोई गलती हुयी हो जो मुझे माफ कर दीजिये । इस प्रकार सेठजी दरिया में भगवान श्री रामदेव जी को पुकार रहे थे । उधर भगवान श्री रामदेव जी रूणिचा में अपने भाई विरमदेव जी के साथ बैठे थे और उन्होंने बोहिताराज की पुकार सुनी । भगवान रामदेव जी ने अपनी भुजा पसारी और बोहिताराज सेठ की जो नाव डूब रही थी उसको किनारे ले लिया । यह काम इतनी शीघ्रता से हुआ कि पास में बैठे भई वीरमदेव को भी पता तक नहीं पड़ने दिया । रामदेव जी के हाथ समुद्र के पानी से भीग गए थे ।

बोहिताराज सेठ ने सोचा कि नाव अचानक किनारे कैसे लग गई । इतने भयंकर तुफान सेठ से बचकर सेठ के खुशी की सीमा नहीं रही । मल्लाह भी सोच में पड़ गया कि नाव इतनी जल्दी तुफान से कैसे निकल गई, ये सब किसी देवता की कृपा से हुआ है । सेठ बोहिताराज ने कहा कि जिसकी रक्षा करने वाले भगवान श्री रामदेव जी है उसका कोई बाल बांका नहीं कर सकता । तब मल्लाहों ने भी श्री रामदेव जी को अपना इष्ट देव माना । गांव पहुंचकर सेठ ने सारी बात गांव वालांे को बतायी । सेठ दरबार में जाकर श्री रामदेव जी से मिला और कहने लगा कि मैं माया देखकर आपको भूल गया था मेरे मन में लालच आ गया था । मुझे क्षमा करें और आदेश करें कि मैं इस माया को कहाँ खर्च करूँ । तब श्री रामदेव जी ने कहा कि तुम रूणिचा में एक बावड़ी खुदवा दो और उस बावड़ी का पानी मीठा होगा तथा लोग इसे परचा बावड़ी के नाम से पुकारेंगे व इसका जल गंगा के समान पवित्र होगा । इस प्रकार रामदेवरा (रूणिचा) मे आज भी यह परचा बावड़ी बनी हुयी है ।


पांच पीरों से मिलन व परचा

चमत्कार होने से लोग गांव गांव से रूणिचा आने लगे । यह बात मौलवियों और पीरों को नहीं भाई । जब उन्होंने देखा कि इस्लाम खतरे में पड़ गया और मुसलमान बने हिन्दू फिर से हिन्दू बन रहे हैं और सोचने लगे कि किस प्रकार रामदेव जी को नीचा दिखाया जाय और उनकी अपकीर्ति हो । उधर भगवान श्री रामदेव जी घर घर जाते और लोगों को उपदेश देते कि उँच-नीच, जात-पात कुछ नहीं है, हर जाति को बराबर अधिकार मिलना चाहिये । पीरों ने श्री रामदेव जी को नीचा दिखाने के कई प्रयास किये पर वे सफल नहीं हुए । अन्त में सब पीरों ने विचार किया कि अपने जो सबसे बड़े पीर जो मक्का में रहते हैं उनको बुलाओ वरना इस्लाम नष्ट हो जाएगा । तब सब पीर व मौल्वियों ने मिलकर मक्का मदीना में खबर दी कि हिन्दुओं में एक महान पीर पैदा हो गया है, मरे हुए प्राणी को जिन्दा करना, अन्धे को आँखे देना, अतिथियों की सेवा करना ही अपना धर्म समझता है, उसे रोका नहीं गया तो इस्लाम संकट में पड़ जाएगा । यह खबर जब मक्का पहुँची तो पाँचों पीर मक्का से रवाना होने की तैयारी करने लगे । कुछ दिनों में वे पीर रूणिचा की ओर पहुँचे । पांचों पीरों ने भगवान रामदेव जी से पूछा कि हे भाई रूणिचा यहां से कितनी दूर है, तब भगवान रामदेवजी ने कहा कि यह जो गांव सामने दिखाई दे रहा है वही रूणिचा है, क्या मैं आपके रूणिचा आने का कारण पूछ सकता हूँ ? तब उन पाँचों में एक पीर बोला हमें यहां रामदेव जी से मिलना है और उसकी पीराई देखनी है । जब प्रभु बोले हे पीरजी मैं ही रामदेव हूँ आपके समाने खड़ा हूँ कहिये मेरे योग्य क्या सेवा है ।

श्री रामदेव जी के वचन सुनकर कुछ देर पाँचों पीर प्रभु की ओर देखते रहे और मन ही मन हँसने लगे । रामदेवजी ने पाँचों पीरों का बहुत सेवा सत्कार किया । प्रभू पांचों पीरों को लेकर महल पधारे, वहां पर गद्दी, तकिया और जाजम बिछाई गई और पीरजी गद्दी तकियों पर विराजे मगर श्री रामदेव जी जाजम पर बैठ गए और बोले हे पीरजी आप हमारे मेहमान हैं, हमारे घर पधारे हैं आप हमारे यहां भोजन करके ही पधारना । इतना सुनकर पीरों ने कहा कि हे रामदेव भोजन करने वाले कटोरे हम मक्का में ही भूलकर आ गए हैं । हम उसी कटोरे में ही भोजन करते हैं दूसरा बर्तन वर्जित है । हमारे इस्लाम में लिखा हुआ है और पीर बोले हम अपना इस्लाम नहीं छोड़ सकते आपको भोजन कराना है तो वो ही कटोरा जो हम मक्का में भूलकर आये हैं मंगवा दीजिये तो हम भोजन कर सकते हैं वरना हम भोजन नहीं करेंगे । तब रामदेव जी ने कहा कि हे पीर जी राम और रहीम एक ही है, इसमें कोई भेद नहीं है, अगर ऐसा है तो मैं आपके कटोरे मंगा देता हूँ । ऐसा कहकर भगवान रामदेव जी ने अपना हाथ लम्बा किया और एक ही पल में पाँचों कटोरे पीरों के सामने रख दिये और कहा पीर जी अब आप इस कटोरे को पहचान लो और भोजन करो । जब पीरों ने पाँचों कटोरे मक्का वाले देखे तो पाँचों पीरों को अचम्भा हुआ और मन में सोचने लगे कि मक्का कितना दूर है । यह कटोरे हम मक्का में छोड़कर आये थे । यह कटोरे यहां कैसे आये तब पाँचों पीर श्री रामदेव जी के चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे और कहने लगे हम पीर हैं मगर आप महान् पीर हैं । आज से आपको दुनिया रामापीर के नाम से पूजेगी । इस तरह से पीरों ने भोजन किया और श्री रामदेवजी को पीर की पदवी मिली और रामसापीर, रामापीर कहलाए ।


भाभी को परचा

भाई वीरमदेव की धर्म पत्नी अर्थात रामदेवजी की भाभी को एक बछड़ा बहुत ही प्रिय था, लेकिन दुर्भाग्यवश वह बछड़ा किसी रोग से ग्रसित हो कर मर गया । रामदेवजी ने जब यह समाचार सुने तब वे अपनी भाभी को सांत्वना देने पहुंचे । भाभी ने रामदेव जी के आते ही उनसे उस मरे हुए बछड़े को जीवित करने के लिए प्रार्थना करने लगी, और कहने लगी कि आप तो सिद्ध पुरुष हो आप मेरे बछड़े को कृपया पुनः जीवित कर दे और अश्रुधारा बहाने लगी । रामदेवजी को अपनी भाभी का यह दुःख देखा नहीं गया और उन्होंने पलक झपकते ही उस बछड़े को पुनः जीवित कर दिया । यह देखकर भाभी अति हर्षित हुई और रामदेवजी को धन्यवाद अर्पित करने लगी ।


जाम्भोजी को परचा

एक जनश्रुति के अनुसार जम्भेश्वर महाराज ( जाम्भोजी ) ने “जम्भलाव” नामक तालाब खुदवा कर वहां पर रामदेवजी को निमंत्रित किया । रामदेवजी ने अपने चमत्कार से “जम्भलाव” नामक तालाब का पानी कड़वा (खारा) कर दिया जो कि आज तक कड़वा है । तत्पश्चात रुणिचा आकर रामदेवजी ने “रामसरोवर” तालाब खुदवाया और जम्भेश्वर महाराज को रुणिचा में रामसरोवर तालाब पर निमंत्रित किया । जम्भेश्वर ने अपने चमत्कार से रामसरोवरतालाब में बालू रेत उत्पन्न कर दी और श्राप दिया कि इस तालाब में छः (6) महिने से अधिक पानी नहीं रहेगा ।


खाती को पुनर्जीवित किया

रामदेवजी का सारथीया नामक एक बाल सहचर (मित्र) था । एक दिन सवेरे खेल के समय खाती पुत्र सारथीया को अपने सखाओं के बीच नहीं देख कर रामदेवजी दौड़े हुए अपने मित्र के घर पहुंचे तथा उसकी माँ से सारथीया के बारे में पूछा तो सारथीया की माँ बिलखती हुई कहने लगी की सारथीया अब इस संसार में नहीं रहा । वह अब केवल स्वप्न में ही मिल सकेगा । रामदेवजी सारथीया की मृत देह के पास पहुंचकर उसकी बाह पकड़ कर उठाते हुए बोले कि “हे सखा ! तूं क्यों रूठ गया ? तुम्हें मेरी सौगंध है, तू अभी उठ कर मेरे साथ खेलने को चल ।” रामदेवजी की कृपा से सारथीया उठ कर उनके साथ खेलने को चल पड़ा ।वहां पर सभी लोग यह देख कर रामदेवजी की जय-जयकार करने लगे ।


पूंगलगढ़ के पड़िहारों को परचा

रामदेव जी की बहिन सुगना का विवाह पूंगलगढ़ के कुंवर उदयसिंह पड़िहार के साथ हुआ था। इन पड़िहारों को जब ज्ञात हुआ कि रामदेव जी शुद्र लोगों के साथ बैठ कर हरी कीर्तन किया करते हैं तो इन्होने रामदेव जी के यहाँ अपना आना जाना बंद कर दिया तथा उन्हें हेय दृष्टि से देखने लगे । रामदेव जी ने अपने विवाह के उत्सव पर रत्ना राइका को पूंगलगढ़ भेज कर सुगना को बुलाया, तब सुगना के ससुराल वालों ने सुगना को भेजने की बजाय रत्ना राइका को कैद कर लिया । सुगना को इस घटना से बहुत दुःख हुआ और वह अपने महल में बैठी-बैठी विलाप करने लगी । रामदेवजी ने अपनी अलौकिक शक्ति से सुगना का दुःख जान लिया और पुंगलगढ़ की और जाने की तैयारी करने लगे । पूंगलगढ़ पहुँचने पर पड़िहारों के महल के आगे स्थित एक उजड़ स्थान पर आसन लगा कर बैठ गये । देखते ही देखते वह स्थान एक हरे-भरे बाग़ में तब्दील हो गया । कुंवर उदयसिंह ने जादू टोना समझकर सिपाहियों से तोप में गोले भर कर दागने को कहा । सिपाहियों ने ज्योंही गोले दागे वे गोले रामदेवजी पर फूल बनकर बरसने लगे । यह देखकर कुंवर उदयसिंह रामदेवजी के चरणों में जाकर गिर गया और अपने किए पर पश्चाताप करने लगा । रामदेवजी ने उन्हें अपने गले लगाकर माफ़ किया और अपनी बहिन सुगना एवं दास रत्ना राईका के साथ विदा ली ।


मुस्लिमशाह को परचा

जब रामदेवजी का दास, रामदेवजी की बहिन सुगना को उसके ससुराल से लेकर वापिस आ रहा था तब रास्ते में कुछ सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया वे सिपाही किसी मुस्लिमशाह बादशाह के थे, और वह बादशाह रत्ना राईका और सुगना बाई को बंदी बनाकर लूटना चाहता था । सुगना बाई मन ही मन अपने भाई रामदेव का स्मरण करने लगी अपनी रक्षा हेतु अपने भाई को बुलाने लगी । उसी समय रामदेवजी कि विवाह के रस्मे चल रही थी । रामदेव जी को अपनी अलौकिक शक्ति से ज्ञात हुआ कि बहिन सुगना खतरे में हैं । देर न करते हुए विवाह की रस्मो को छोड़कर रामदेव जी शीघ्र ही उस मुस्लिम बादशाह के ठिकाने पर पहुँच गये । रामदेव जी के वहां पहुँचने पर सभी सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया और अपनी-अपनी तलवारें निकाल ली परन्तु प्रभु के चमत्कार से वे तलवारें फूलों की माला में परिवर्तित हो गयी । यह देख मुस्लिम बादशाह बाबा से रहम की भीख मांगने लगा । रामदेव जी ने उसे नारी का आदर्श करने एवं अपना कर्त्तव्य निभाने का आदेश देकर उसे माफ़ कर दिया ।


सालियों को परचा

रामदेव जी जब बारात लेकर अमरकोट (अभी पाकिस्तान में स्थित) पहुंचे तब उनका वहां पर बहुत आदर सत्कार के साथ स्वागत हुआ । सभी बाराती बारात स्थल पर ठहरे । रामदेव जी अपने निश्चित स्थान पर विश्राम कर रहे थे तभी रामदेव जी की कुछ सालियाँ मजाक करने के लिए एक थाल में मरी हुई बिल्ली ढक कर ले आई और रामदेव जी के आगे फलों का थाल कह कर रख दी और एक तरफ खड़ी हो गयी । रामदेवजी अपनी अलौकिक शक्ति से उस कपडे से ढके थाल का राज़ जान गये । उन्होंने ज्योंही उस कपडे को हटाया वह मरी हुई बिल्ली जीवित होकर वहां से भाग गयी । यह देख कर वहां खड़ी रामदेवजी की सभी सालियाँ दंग रह गयी । वे समझ गयी कि यह रामदेव जी का ही चमत्कार है और वे रामदेव जी के आगे नतमस्तक हो गयी ।


नेतल को स्वस्थ किया

नेतलदे का विवाह रामदेव जी के साथ हुआ था । यह अमरकोट के राजा दलजी सोढा की पुत्री थी । लोक मान्यता के अनुसार यह रुक्मणी का अवतार कही जाती हैं । कहते हैं कि पक्षाघात के कारण नेतलदे पंगु हो गयी थी, किन्तु पाणिग्रहण संस्कार होते ही, रामदेव जी की अलौकिक शक्ति से उनकी पंगुता दूर हो गयी । रामदेव जी कहने पर वे जब फेरों के लिए उठने का प्रयास करने लगी तो सहसा ही उनमे उठने की शक्ति आ गयी और उन्होंने उठकर रामदेव जी के साथ फेरे लिए, यह देख लोगों के हर्ष का पार नहीं रहा, सभी लोग रामदेव जी का जयघोष करने लगे ।


भाणु को परचा

जिस रात अमरकोट में रामदेव जी का विवाह हुआ, उसी रात को सुगना बाई के पुत्र की सांप के काटने से मृत्यु हो गयी । अन्तर्यामी भगवान रामदेव जी ने सुगना के दुःख को जान लिया और नेतलदे रानी एवं बारात सहित प्रातः से पूर्व वापिस पहुँच गये । विवाह के मांगलिक अवसर पर विघ्न न डालने के लिए सुगना बाई ने अपने मरे पुत्र के बारे में किसी को भी नहीं बताया । रामदेव जी व पानी नेतलदे को बढाने के लिए जब सुगना नहीं आई तो रामदेव जी ने सुगना को बुलाया और उसकी उदासी का कारण पूछा तो कुछ देर तक सुगना मौन रही फिर उसने कृत्रिम प्रसन्नता लाने का प्रयास किया, किन्तु अश्रुधारा प्रवाहित हो गयी वह कुछ न बोल सकी, उसका कंठ रुंध गया सिसकती हुई पुत्र को पुकारने लगी । रामदेव जी बधावे से पूर्व ही अन्दर गये और अपनी दैवीय शक्ति से परिपूर्ण हाथ से मृत बालक को स्पर्श किया और अपने भांजे को आवाज देकर उठाने लगे । रामदेवजी के आवाज देते ही वह बालक पुनर्जीवित हो गया । रामदेव जी ने उसे अपनी गोदी में बिठा उसे खेलाने लगे, यह देख बहिन सुगना के चेहरे पर ख़ुशी कि लहर दौड़ गयी और अपने भाई रामदेव को धन्यवाद देते हुए अपने पुत्र को अपने सीने से लगा लिया ।


रानी नेतल को परचा

कहते हैं एक समय रंग महल में रानी नेतलदे ने रामदेव जी से पूछा ” हे प्रभु ! आप तो सिद्ध पुरुष हैं बताइये मेरे गर्भ में क्या हैं (पुत्र या पुत्री)?” इस पर रामदेव जी ने कहा कि “तुम्हारे गर्भ में पुत्र हैं उसका नाम ‘सादा’ रखना हैं ।” रानी का संशय दूर करने के लिए रामदेव जी ने अपने पुत्र को आवाज दी । इस पर अपनी माता के गर्भ से बोल कर उस शिशु ने अपने पिता के वचनों को सिद्ध कर दिया । ‘साद’ अर्थात आवाज के अर्थ से, उनका नाम सादा रखा गया । रामदेवरा से 25 किमी. दूर ही उनके नाम से ‘सादा’ गाँव बसा हुआ हैं ।


मेवाड़ के सेठ दलाजी को परचा

कहा जाता हैं कि मेवाड़ के किसी ग्राम में दलाजी नाम का एक महाजन रहता था । धन सम्पति की उसके पास कोई कमी नहीं थी किन्तु संतान के अभाव में वह दिन रात चिंतित रहता था । किसी साधू के कहने पर वह रामदेव जी की पूजा करने लगा उसने अपनी मनौती बोली की यदि मुझे पुत्र प्राप्ति हो जाए तो सामर्थ्यानुसार एक मंदिर बनवाऊंगा।

इस मनौती के नौ माह पश्चात उसकी पत्नी के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ । वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तो सेठ और सेठानी उसे साथ लेकर कुछ धन सम्पति लेकर रुणिचा के लिए रवाना हो गये । मार्ग में एक लुटेरे ने उनका पीछा कर लिया और यह कह कर उनके साथ हो गया कि उसे भी रुणिचा जाना हैं । थोड़ी देर चलते ही रात हो गयी और अवसर पाकर लुटेरे ने अपना वास्तविक स्वरुप दिखा ही दिया उसने सेठ से उंट को बैठाने के लिए कहा और कटार दिखा कर सेठ की समस्त धन सम्पति हड़प ली तथा जाते-जाते सेठ की गर्दन भी काट गया । रात्री में उस निर्जन वन में अपने बच्चे को साथ लिए सेठानी करूण विलाप करती हुई रामदेव जी को पुकारने लगी । अबला की पुकार सुनकर दुष्टों के संहारक और भक्तों के उद्धारक भगवान, रामदेव जी अपने लीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां आ पहुंचे । आते ही रामदेव जी ने उस अबला से अपने पति का कटा हुआ सर गर्दन से जोड़ने को कहा सेठानी ने जब ऐसा किया तो सर जुड़ गया तत्क्षण दला जी जीवित हो गया । बाबा का यह चमत्कार देख दोनों सेठ सेठानी बाबा के चरणों में गिर पड़े । बाबा उनको सदा सुखमय जीवन का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गये । उसी स्थल पर दलाजी ने बाबा का एक भव्य मंदिर बनवाया ।


अजमल जी को परचा

रामदेव जी ने जब सभी गाँव वालों को इकठ्ठा करके अपनी समाधी लेने की सूचना दी तब सभी गाँव वालों की आँखों में आंसू आ गये और सभी रुआंसे गले से बाबा को इतनी छोटी अवस्था में समाधी लेने से मना करने लगे और समझाईस करने लगे । बाबा ने सभी के प्यार को सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि- “हे प्यारे बंधुओं! मेरा अवतरण इस संसार में किसी कारणवश हुआ था, जो की मेने पूर्ण कर दिया, और अब मेरा यहाँ रुकने का कोई औचित्य नहीं हैं ।” इतना कहने के बाद वे सभी ग्रामवासीयों को अपने जाने के बाद भी सत्य वचन और धर्म के मार्ग पर चलने का आग्रह करने लगे ।

रामदेव जी के समाधी लेने का समाचार सुनकर पिता अजमल शीघ्र ही रामसरोवर तालाब पहुंचे । उन्होंने अपने पुत्र रामदेव को गले लगा लिया और न छोड़कर जाने कि विनती करने लगे। रामदेव जी ने अजमाल जी को शांत करवाते हुए कहा कि “हे राजन! में तो आपका आज्ञाकारी सेवक हूँ आपको दिए गये वचनानुसार मेने अपना वादा पूर्ण किया और आपके महल में आपके पुत्र के रूप में अवतार लिया, परन्तु अब मेरा कार्य पूर्ण हो गया हैं, और अब मुझ आज्ञाकारी पुत्र को जाने की आज्ञा दीजिये ।” इतना कहकर रामदेव जी ने अजमाल जी को एक बार पुनः द्वारिकाधीश के दर्शन दिए और समाधी में लीं हो गये


डाली बाई को परचा

बाबा ने समाधी के वक्त अपने सभी ग्रामीणों को यह समाचार दिए कि अब मेरे जाने का वक्त आ गया हैं, आप सभी को मेरा राम राम । बाबा ने जाते-जाते अपने ग्रामीणों को कहा कि इस युग में न तो कोई ऊँचा हैं, और न ही कोई नीचा, सभी जन एक समान हैं, और सभी को सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि- “हे जन ईश्वर के प्रतीक हैं अतः उन्हें एक समान ही समझना और उनमे किसी भी प्रकार का भेद न करना । बाबा को रोकने के सभी प्रयास विफल होने पर सभी ग्रामीणों ने डाली बाई को इस दुःखद समाचार के बारे में जाकर बताया कि वे ही कुछ करे । डाली बाई समाचार सुनकर शीघ्र ही नंगे पाँव रामसरोवर की तरफ चली आई । डाली बाई ने आते ही रामदेव जी से कहा कि “हे प्रभु ! आप गलत समाधी को अपना बता रहे हो । ये समाधी तो मेरी हैं ।” रामदेव जी ने पूछा “बहिन, तुम कैसे कह सकती हो कि यह समाधी तुम्हारी हैं?” इस पर डाली बाई ने कहा कि अगर इस जगह को खोदने पर “आटी, डोरा एवं कांग्सी” निकलेगी तो यह समाधी मेरी होगी । ग्रामीणों द्वारा समाधी को खोदने पर वे ही वस्तुएं जो कि डाली बाई ने बताई थी उस समाधी से प्राप्त हुई तो रामदेव जी को ज्ञात हुआ कि सत्य ही यह समाधी तो डाली बाई की हैं । डाली बाई ने अपनी सत्यता दर्शाकर प्रभु से कहा कि “हे प्रभु ! अभी तो आपको इस सृष्टि में कई कार्य करने हैं, और आप हमसे विदा ले रहे हो?” रामदेव जी ने अपनी मुंहबोली बहिन डालीबाई को अपने इस सृष्टि में आने का कारण बताते हुए कहा कि “मेरा अब इस सृष्टि में कोई कार्य बाकी नहीं रहा हैं, में भले ही दैहिक रूप से इस सृष्टि को छोड़कर जा रहा हूँ, परन्तु मेरे भक्त के एक बुलावे पर में उसकी सहायता के लिए हर वक्त हाजिर रहूँगा ।” रामदेव जी और कहने लगे कि “हे डाली ! मैं तुम्हारी प्रभु भक्ति से बहुत प्रसन्न हुआ हूँ और आज के बाद तुम्हारी जाति के सभी जन मेरे भजन गायेंगे और ‘रिखिया’ कहलायेंगे.” इतना कहकररामदेव जी ने डालीबाई को विष्णुरूप के दर्शन दिए, जिसे देख डाली बाई धन्य हो गयी, और रामदेव जी से पहले ही समाधी में लीन हो गयी ।


हरजी भाटी को परचा

रामदेवरा से कुछ ही मील दूर एक स्थान पर उगमसी भाटी नामक एक क्षत्रिय भेड़-बकरियां चरा कर जीवन यापन करते थे । वे रामदेव जी के परम भक्त थे और नित्य ही रामदेव जी का कीर्तन करते थे । बाबा की कृपा से उनको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, उसका नाम हरजी रखा। हरजी जब 15 साल के थे तब वे एक दिन जंगल में भेड़ बकरियां चरा रहे थे । तभी वहां पर रामदेव जी साधू वेश धारण करके पधारे उन्होंने हरजी से भूख मिटाने के लिए बकरी का दूध माँगा । हरजी ने कहा ” महाराज ! मेरी बकरी तो अभी ब्याही नहीं हैं और बिन ब्याही बकरी के थनों से दूध कैसे आएगा? आप का सत्कार न करने से में बड़े संकट में पड़ गया हूँ ।”

साधू ने कहा “भक्त ! इस गर्मी में तपती रेत पर चलकर में बड़ी दूर से आया हूँ । मुझे तो तुम्हारी समस्त बकरियों के थनों में दूध दिख रहा हैं, परन्तु तुम मना कर रहे हो । लो यह कटोरा, इसमें दूध निकाल लाओ ।” योगी से डरता हुआ कि कहीं यह शाप न दे दे हरजी कटोरा लेकर एक बकरी के पास आकर उसको दुहने लगा । देखते ही देखते वह कटोरा बकरी के दूध से भर गया । यह देख हरजी को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने उस साधू को वह कटोरा देकर कहा ” हे महाराज ! आप कौन हैं? में अज्ञानी आपको पहचानने में गलती कर रहा हूँ ।” तभी रामदेव जी ने हरजी को अपने असली रूप में दर्शन दिए और हरजी को आशीर्वाद देते हुए अंतर्ध्यान हो गये । उसी दिन से हरजी भाटी प्रभु की भक्ति में लग गया और आगे चलकर बाबा के सेवक के रूप में जाना गया ।निकाल लाओ ।”


हाकिम को परचा

एक समय हरजी भाटी एक बाग में बैठकर रामदेवजी का सत्संग कर रहे थे । कुछ लोगों ने वहां के तत्कालीन हाकिम हजारीमल से हरजी कि शिकायत की जिसके कारण हाकिम ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि उस पाखंडी पुजारी हरजी को पकड़कर काल कोठारी में डाल दिया जाए । जब हाकिम व सिपाही उस बाग में पहुंचे तब हरजी अपने श्रोताओं के आगे बाबा का सत्संग कर रहे थे । उनके पास ही बाबा का लीला घोड़ा स्थापित था एवं गुग्गल धुप हो रहा था । हाकिम ने क्रोध में कहा “पाखंडी धूर्त ! तू ये कपडे का घोड़ा पुजवाकर जनता को धोखा दे रहा हैं । अगर तेरे इस घोड़े और सत्संग में इतनी ही सच्चाई हैं तो मुझे इसका चमत्कार दिखा । अगर तेरा यह घोड़ा दाना-पानी ले लेगा तो में समझूंगा कि तू सच्चा भक्त हैं अन्यथा तुम्हारी गर्दन कटवा दूंगा ।” इतना कहकर हाकिम ने हरजी को कपडे के घोड़े के साथ काल कोठारी में बंद करवा दिया और उस घोड़े के आगे दाना-पानी रख दिया । हरजी अपने प्रभु रामदेव जी को अरदास करने लगे । हरजी की पुकार सुनकर व्याप्य सिद्धि से रामदेव जी ने हाकिम को स्वप्न में कहा – “उठो ! काल कोठारी में जाकर मेरे भक्त हरजी को मुक्त करो अन्यथा तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा ।” इसके साथ ही हाकिम दुस्वप्न से डरकर दो बार पलंग से उछल उछल कर गिर पड़ा वह घबराकर भगवान से क्षमा मांगता हुआ कल कोठारी की तरफ भागा । काल कोठरी में जाकर उसने देखा कि घोड़ा दाना-पानी ले रहा हैं और अपनी टापों से पृथ्वी में खड्डे कर रहा हैं । इस चमत्कार को देख हाकिम आश्चर्य करने लगा और हरजी भाटी से हाथ जोड़कर माफ़ी मांगने लगा । उस दिन से वह हाकिम रामदेव जी का भक्त बन गया तथा हरजी भाटी के साथ-साथ रामदेव जी की महिमा का प्रचार करने लगा ।


हडबू जी को परचा

हडबू जी सांखला रामदेव जी के मौसी के बेटे भाई थे । जब उन्होंने रामदेव जी के जीवित समाधी लेने का समाचार सुना तो वे शीघ्र ही अपने घोड़े पर सवार होकर रूणीचा की तरफ निकल पड़े । थोड़ी दूर तक जाने के बाद उन्हें एक पेड़ के नीचे रामदेव जी दिखाई दिए यह देख हडबू जी की ख़ुशी का पार नहीं रहा और वे वहीँ उतर कर रामदेव जी के गले लग गये । हडबू जी ने जब रामदेव जी को जब जीवित समाधी की अफवाह के बारे में पूछा तब रामदेव जी ने उन्हें यह कहते हुए उत्तर दिया कि इस संसार में जितने मुंह उतनी बाते हैं, हम यह नहीं कह सकते कि कौन सत्य हैं और कौन मिथ्या । इतना कहकर रामदेव जी ने हडबू जी को रतन कटोरा और सोहन चुटिया अजमाल जी को देने के लिए कहा और कहा कि वे स्वयं घोड़ा ढूंढकर आ रहे हैं।

हडबू जी जब रामदेव जी की दी हुई वस्तुएं लेकर रूणीचा पहुंचे तब वहां पर सभी गाँव वालों को मायूस पाया । हडबू जी ने इसका कारण पूछा तो उन गाँव वालों ने बताया कि रामदेव जी ने जीवित समाधी ले ली हैं । हडबू जी ने उन गाँव वालों की बात को काटकर उन्हें रतन कटोरा व सोहन चुटिया दिखाया जो कि रामदेव जी ने उन्हें दिया था, परन्तु गाँव वालों ने कहा कि ये रतन कटोरा व सोहन चुटिया तो रामदेव जी की जीवित समाधी के साथ ही दफना दिए थे । उसी समय तुंवरों को रामदेव जी के समाधी लेने पर भ्रम हो गया और वे इसकी वास्तविकता जानने के लिए समाधी को खोदने लगे । समाधी खोदते समय आकाशवाणी हुई और रामदेव जी बोले की आपने मेरे मना करने के बावजूद भी मेरी समाधी खोदकर मेरे विश्वास को खंडित किया हैं । इसलिए आज से आपकी आने वाली पीढ़ियों में कोई पीर नहीं होगा ।


लंगड़े को स्वस्थ किया

एक समय एक ग्राम में कोई मुस्लिम समुदाय का व्यक्ति था । उसके एक ही संतान थी और वह भी विकलांग । उसके पुत्र के दोनों पैर किसी रोग के कारण निशक्त हो गये थे । कई हकीमों से इलाज़ करवाकर भी उसके पुत्र के पैरों में कोई फर्क नहीं पड़ा था । उसने हिम्मत हार दी थी, कि शायद ही उसके पुत्र के पैरों का इलाज हो । एक बार उसके ग्राम में बाबा के कीर्तन करते हुए कुछ लोग जा रहे थे । उस मुस्लिम ने उन सब लोगों से उस कीर्तन के बारे में पूछा तो उन लोगो ने बताया की रुणिचा के पीर रामदेवजी सभी भक्तों के दुखों को हरते हैं, और जो कोई भी उन्हें सच्चे मन से ध्याता हैं, उस भक्त को बाबा कभी निराश नहीं करते । यह सुनकर वह मुस्लिम भी अपने पुत्र को लेकर रुणिचा कि तरफ चल पड़ा. काफी दूर तक चलने के बाद वे एक जगह विश्राम करने हेतु पेड़ के निचे बैठे थे । उसी समय वहां पर रामदेव जी अपने लीले घोड़े पर सवार होकर आए । रामदेवजी को देखकर वह मुस्लिम बाबा के चरणों में जा गिर कर अपने पुत्र को स्वस्थ करने की विनती करने लगा । रामदेव जी ने उस मुस्लिम को उठाया और कहा “हे भक्त ! तू क्यूँ दुखी हो रहा हैं? देख तेरा पुत्र तो चल सकता हैं ।” इतना कहते ही रामदेव जी के चमत्कार से वह लड़का बिना बैसाखी उठ खड़ा हुआ और चलने लगा । दोनों पिता-पुत्र बाबा के आगे आकर शीश नमन करने लगे और पुष्प वर्षा होने लगी ।


रूपादे व रावल मालजी को परचा

रावल मालजी मारवाड़ के शासक थे, महवे नगर में इनकी राजधानी थी । इनकी रानी रूपादे रामदेव जी की अनन्य भक्त थी, और माल जी रामदेव जी की भक्ति को मात्र आडम्बर समझते थे और हमेशा ही रानी की बाबा के प्रति श्रद्धा का विरोध करते थे । एक समय उस नगर में किसी मेघवाल जाति के घर में बाबा के जम्मे का आयोजन था । रानी रूपादे ने मालजी से जम्मे में जाने की अनुमति मांगी, परन्तु मालजी ने उन्हें जाति-धर्म की कुरीतियों के कारण उस जम्मे में जाने से सक्त मना कर दिया और रूपादे को एक कमरे में बंद कर दिया । रूपादे बाबा का मन ही मन में स्मरण करने लगी, तभी बाबा के चमत्कार से उस कमरे के ताले स्वतः ही खुल गये एवं सभी सिपाही मूर्छित हो गये । रानी मौका पाकर उस मेघवाल के घर पहुँच गयी जहाँ पर जम्मा हो रहा था । सभी ने रूपादे का बहुत सत्कार किया । परन्तु वहां पर मालजी का एक गुप्तचर भी उपस्थित था, उसने रानी रूपादे कि चुगली राजा से करने की सोची और साक्ष्य के रूप में रानी की मोजडी उठा के महल की तरफ गया । महल पहुंचते ही वह ज्योंही राजा को वह मोजडी दिखाने लगा तो उसके सम्पूर्ण शरीर में छाले हो गये और वह अन्धा हो गया, तभी रूपादे वहां पर पहुंची, रानी को उस गुप्तचर पर दया आ गयी और उसने बाबा से उसकी भूल पर स्वयं क्षमा मांगी एवं उसे पुनः स्वस्थ करने की प्रार्थना करने लगी । देखते ही देखते वह गुप्तचर बाबा के चमत्कार से पुनः स्वस्थ हो गया और अपनी गलती के लियी रानी रूपादे से क्षमा माँगने लगा । यह सब देख रावल मालजी के आँखों पर बंधी आडम्बर की पट्टी खुल गयी, और वे बाबा कि लीला के आगे नतमस्तक होकर बाबा का जयगान करने लगे । यही रावल मालजी आगे उगमसी भाटी से दिक्षा प्राप्त करके मल्लीनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए ।


सिरोही निवासी एक अंधे साधु को परचा

कहा जाता है कि एक अन्धा साधु सिरोही से कुछ अन्य लोगो के साथ “रूणिचा” के लिए रवाना हुआ था । ये पैदल चलकर रूणिचा आ रहे थे । थक जाने के कारण इन्होने एक गाँव में पहुँचकर रात्रि विश्राम किया । रात को जगने पर ये लोग अंधे को वाही छोड़कर चले गये । आधी रात को जब अंधा साधु जगा तो वहां पर कोई नहीं मिला और इधर-उधर भटकने के पश्चात् वह एक खेजड़ी के पास बैठकर रोने लगा । उसे अपने अंधेपन पर आज इतना दुःख हुआ जितना और कभी नहीं हुआ था । रामदेवजी ने अपने भक्त के दुःख से द्रवीभूत होकर उसके नैत्र खोल दिए और उसे दर्शन दिए । उस दिन के बाद वह साधु वहीँ रहने लगा । उस खेजड़ी के पास रामदेवजी के चरण (पघलिए) स्थापित करके उनकी पोजा किया करता था । कहा जाता है वही पर उस साधु ने समाधी ली थी ।

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