स्वामी रामानन्द ‘जिज्ञासु’

स्‍वामी श्री रामानन्‍दजी ‘जिज्ञासु’

माता धन्‍या पिता धन्‍यो धन्‍यो वंश: कुलं तथा ।
धन्‍या च वसुधा देवी गुरूभक्ति: सुदुर्लभा ।।

स्‍वामी रामानन्‍दजी का जन्‍म सम्‍वत् 1972 कार्तिक वदी 14 को सिंध हैदराबाद (पाकिस्‍तान) में हुआ । आपका जन्‍म नाम टेकचन्‍द उर्फ भागचन्‍द था मगर पिताजी प्‍यार से राम के नाम से ही पुकारते थे । आपकी माता का नाम झमकू तथा पिता का नाम केशारामजी एवम् गोत्र मौसलपुरिया है । आपने शिक्षा बनारस तथा जयपुर में ग्रहण की । आपने हिन्‍दी में प्रभाकर तथा संस्‍कृत में प्रथमा की । सिंधी भी आठवीं तक पढ़ी । आप 1942 में प्रथम बार भ्रमण पर पीपाड़ पधारे थे मगर स्‍थाई रूप से 1948 में पीपाड़ शहर में आकर रहने लगे तथा आश्रम की स्‍थापना की । आप बचपन से ही संत महात्‍माओं के सम्‍पर्क में रहे । इन्‍होंने 6 वर्ष की अवस्‍था में पढ़ाई शुरू की तथा 13 वर्ष की अवस्‍था में समाप्‍त कर दी । पढ़ने में शुरू से ही मेधावी थे । इनकी प्रतिभा और प्रवृत्तियों को देखकर सिंध निवासी महात्‍मा तुलीदासजी ने इनके माता-पिता को बहुत पहले ही कह दिया था कि यह साधु बनेगा तथा होनहार होगा । जब ये 8 वर्ष के थे तभी खाना अलग बैठकर खाते थे तथा अलग रहते थे । इनकी प्रवृत्तियों को देखकर इनके माता-पिता ने इनको विवाह बंधन में बांध देना ही ठीक समझा । इसलिए इनका रिश्‍ता हैदराबाद (सिंध) निवासी गणेशरामजी फलवाड़िया की पुत्री तुलसी के साथ पक्‍का कर दिया गया विवाह की तिथि भी तय कर दी गई । विवाह का लग्‍न आ चुका था तथा पूरे उमंग के साथ विवाह की तैयारियां हो रही थी । विवाह का दिन नजदीक आ जाने के कारण घर में मेहमान भी आ चुके थे । यह देव योग ही था कि अचानक स्‍वामीजी के नैत्रों में दर्द शुरू हुआ और दोनों नैत्रों की ज्‍योति हमेशा के लिए चली गई । उस समय स्‍वामीजी की उम्र 20 साल 6 माह थी । इस तर‍ह सम्‍वत् 1992 में नैत्रों की रोशनी चले जाने के कारण स्‍वामीजी ने विवाह नहीं किया । इसके बाद तो स्‍वामीजी ने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी और सन्‍यास की तरफ उन्‍मुख हुए । सम्‍वत् 1999 में स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूपजी से दीक्षा ली । स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूपजी ने इनका नाम ‘स्‍वामी रामानन्‍द’ रखा । इनमें हर बात को जानने की जिज्ञासा की प्रवृत्ति को देखकर इनके साथवालों ने इन्‍हें जिज्ञासु कहना शुरू कर दिया तभी से स्‍वामी श्री रामानन्‍द जिज्ञासु के नाम से जाने जाते रहे हैं । दीक्षा के बाद स्‍वामीजी ने अपने जीवन को समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया । सामाजिक सम्‍मेलनों तथा गांव-गांव घूमकर सत्‍संग और भजनों के माध्‍यम से सामाजिक सुधार एवम् शिक्षा का प्रचार किया । औसर-मौसर, बाल-विवाह, अनमेह विवाह, मृत्‍युभोज आदि का विरोध किया । फिजूल खर्ची रोकने की प्रेरणा दी । बच्‍चों को स्‍कूल भेजने पर बल दिया । सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए निर्भय होकर आगे आए । मृत्‍यु भोज (गंगभोज) की कुरीति को मिटाने की शुरूआत आप ही ने पीपाड़ से शुरू की । इतना ही नहीं आपने रैगर जाति के विकास के हर कार्य में अहम भूमिका निभाई । ज्ञानगंगा छात्रावास, जोधपुर तथा हरिद्वार की रैगर धर्मशाला आदि के निर्माण में स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूपजी तथा स्‍वामी गोपालरामजी के साथ रहकर दानदाताओं से सक्रिय सहयोग लेने में सफल रहेा ज्ञानगंगा छात्रावास के आप अध्‍यक्ष तथा हरिद्वार ट्रस्‍ट के आप प्रधान रहे हैं । अखिल भारतीय स्‍तर पर अब तक चार सम्‍मेलन हुए हैं उनमें आपकी प्रेरणा ओर भरपूर सहयोग रहा, जिससे सम्‍मेलन पूर्णत: सफल हुए । इस तरह रैगर जाति के उत्‍थान ओर विकास में आपकी महत्‍वपूर्ण भूमिका रही है । आपने लगभग 6 लाख की लागत का पीपाड़ शहर में ही भव्‍य आश्रम का निर्माण करवाया है । इस आश्रम में बने मन्दिर में कांच (शीशा) की कलाकरी देखने लायक है । आप उच्‍च स्‍तर के नाड़ीवेद तथा आयुर्वेद चिकित्‍सक हैं । अनेकों असाध्‍य बिमारियों से ग्रसित रोगियों को आपने स्‍वस्‍थ किया है । यह कार्य भी आप मानव सेवा की भावना से ही करते आए हैं । इस तरह आप एक विद्वान संत महात्‍मा, समाज सुधारक, चिकित्‍सक तथा श्रेष्‍ठ वक्‍ता हैं । आपको वर्ष 1986 में अखिल भारतीय रैगर महासभा द्वारा विज्ञान भवन दिल्‍ली में आयोजित सम्‍मेलन में भारत के तात्‍कालीन राष्‍ट्रपति ज्ञानी जैलसिंहजी ने ‘रैगर रत्‍न’ की उपाधि से सम्‍मानित किया है ।

(साभार- श्री विष्‍णु मन्‍दिर, नई दिल्‍ली : स्‍मारिका 2011 एवं रैगर ज्‍योति)

Website Admin

BRAJESH HANJAVLIYA



157/1, Mayur Colony,
Sanjeet Naka, Mandsaur
Madhya Pradesh 458001

+91-999-333-8909
[email protected]

Mon – Sun
9:00A.M. – 9:00P.M.

Social Info

Full Profile

Advertise Here