रैगर जाति का प्राचीन पहनावा

इतिहास की दृष्टि से रैगर महिलाओ का पहनावा- सिन्धु सभ्यता में रैगर महिलाओ के वस्त्रो का कोई चित्र नही पाया जाता। इसी प्रकार मिट्टी के बर्तनो आदि पर उभारे गये हस्तकलाके नमूनो में भी रैगर महिलाओ के वस्त्रो के बारे में भी कुछ नही मिलता है। हड़प्पा काल के हस्तकलाओं के चित्रो को देखने से यह साफ नजर आता है कि पुरूष वर्ग एक लम्बा सा कपड़ा अपनी कमर में लपेट कर अपने शरीर के चारो तरफ बांधा करते थे जिसे धोती का ही एक रूप माना जा सकता है। सिन्धु व हड़प्पा सभ्यता में किसी चर्मकार का कोई चित्र अथवा मिट्टी के बर्तनो आदि पर कोई वर्णन नही मिलता।

वैदिक काल जो 1500 से 500 ईसा पूर्व माना जाता है का यदि अध्ययन किया जाये तो रैगर पुरूष व महिलओ की वेशभूषा का कोई वर्णन नही मिलता। ़ऋगवेद में आदि वस्त्र, कुरलरा और अन्दपरिधि का वर्णन तो है जिस का सीधा सम्बन्ध रैगर जाति से नही जोड़ा जा सकता। मौर्य काल जो 322 से 185 ईसा पूर्व का है में ‘यक्षिणीः नामक स्त्री की मूर्ति में जो वेशभूषा दर्शायी गयी है वह भी किसी रैगर महिला की नही हो सकती है क्यांेे कि इस वेशभूषा में विभिन्न प्रकार के आभूषण पहनना बताया गया है जो उस समय की चर्मकार महिलाये नही हो सकती थी परन्तु इस मूर्ति से महिलाओ के ‘अन्तारिय‘ और ‘उतारिय‘ पहनावे का अन्दाज लगाया जा सकता है। इस युग में रेशम, ऊनी, सूती आदि विभिन्न प्रकार के वस्त्रो के उपयोग का भी अन्दाज लगाया जा सकता है। गुप्त काल 320 से 550 ईस्वी तक माना जा सकता है। इस युग में उच्च कुल की सम्भ्रान्त स्त्रिया सिलाई किये हुये कपड़े पहनने लग गयी और ‘अन्तारिय‘ ने अब ‘घाघरी‘ का रूप ले लिया जिसे आज भी रैगर महिलाये गांव में पहनती है। मौर्य काल में कई मुर्तियो को देखने से साफ होता है कि स्त्री व पुरूष एक कपड़ा बिना सिला हुआ शरीर के चारो तरफ लपेट रखा है। इसी समय में विभिन्न प्रकार की ‘चोली‘ का जन्म हुआ जो अन्ततः रैगर महिलाओ की ‘कांचली‘ के रूप में परिवर्तित हो गयी। मुगल शासन मे मुस्लिम महिलाये प्रायः ‘पेशवाई‘, ‘पाजामा‘, ‘चूड़ीदार‘, ‘सलवार‘, ‘गरारा‘, ‘ढीलजा‘ और ‘ फशाी पहना करती थी तथा पुरूष वर्ग ‘जामा‘, ‘पटका‘ ‘चोगा‘ और मुस्लिम पगड़ी पहना करते थे। मुगल शासन के पहनावे का कतई भी कोई असर रैगर जाति की महिलाओ पर नही आया।

प्राचीन काल में रैगर जाति का पहनावा. हिन्दू धर्म की वर्ण वयवस्था में रैगर जाति एक शुद्र जाति मानी गयी है। हिन्दु धर्म के विभिन्न शास्त्रो व धर्म ग्रन्थो में शूद्र जातियों के पहनावे के बारे में कुछ भी स्पष्टतः नही मिलता। इन विभिन्न ग्रन्थो व शास्त्रों मे केवल शूद्र जातियों से भेदभाव व अमानविय व्यवहार का ही वर्णन मिलता है। वास्तव में हिन्दु धर्म के उच्च जाति के लोग किसी भी कीमत पर नीच कहे जाने वाली जातियों को बराबरी व समानता का अधिकार नही देते थे। रैगर व अन्य दलित व अछूत जातियों के लोग गांव के बाहर ही रहा करते थे। इन के मौहल्ले में कोई सर्वण जाति का व्यक्ति नही आया करता था और न ही शूद्र व अछूत जाति का व्यक्ति गांव के मुख्य बाजार या अन्य किसी सर्वण जाति की बस्तियों में आ सकता था। यंहा तक कि अछूत जाति के व्यक्ति को किसी सर्वण जाति के व्यक्ति से कोई सामान खरीदना होता था तो वह सिक्के भी दूर से फैंक कर दिया करता था जिसे सर्वण जाति का व्यक्ति पानी से धोकर ही हाथ लगाया करता था। यही कारण था कि रैगर व अन्य अछूत जातियों के लोगो का पहनावा भी बदहाल और पूरी तरह लीर-लीर हुआ करता था। रैगर महिलाये अन्य अछूत महिलाओ और कन्याओ की तरह शरीर पर कम से कम कपड़े पहना करती थी। इस के अलावा रैगर जाति के लोगो को बलपूर्वक चमड़ा रंगने के कार्य में देखल दिये जाने के कारण इन का पहनावा भी बदबूदार हुआ करता था। इन के नाखुन तक चमड़े की खाल रंगने के कारण पीले हो जाया करते थे। उच्च जाति के लोग रैगर जैसी दलित जातियों को रंगीन कपड़े नही पहनने दिया करती थी। ये नीच व अछूत कहे जाने वाली जातियां केवल फटे हुये सफेद कपड़े ही पहन सकती थी। सर्वण जातियों के अत्याचारो की परकाष्ठा इस हद तक हुआ करती थी कि यदि कोई रैगर या दलित जाति का व्यक्ति अच्छे कपड़े किसी भी हिन्दु त्योंहार पर पहन लेता था तो सर्वण जाति के लोग इसे अपना अपमान समझते हुये उस रैगर व दलित व्यक्ति को इस तरह की शारीरिक व मानसिक यातनाये दिया करते थे जो उसे मृत्यू तक ले जाया करती थी। प्राचीन काल में अछूत जातियों के लोग प्रायः फटी हुई धोती और कमीज ही पहना करने थे। मैने रैगर जाति के लोगो की प्राचीन पहनावे की एक झलक भारत की आजादी के कई सालो बाद तक देखी थी। मुझे यह अच्छी तरह से याद है कि जब मैं 1954 में मेरे पैतिृक गांव रायसर, तहसील जमुवा रामगढ, जिला जयपुर में मेरे पिताश्री स्वर्गीय कालु राम रछोया के साथ रैगर मौहल्ले में गया था तो मैने रैगर जाति के लोगो की गरीबी हालात देख कर बड़ा आश्र्चय किया था। रैगर प्रायः फटा हुआ फैंटा अपने सिर पर पहने रखते थे। उन की धोती भी पांव के घुटने तक ही आ रही थी। रैगर महिलायें प्रायः सादा सिला हुआ एक घाघरा और पुराने वस्त्रो को जोड़ कर बनाई गई ‘कांचली‘ पहनी हुयी थी जो ब्लाउज का काम कर रही थी। कांचली से ही बदन के स्तन ढके हुये रहते थे।

इस्लाम धर्म का पहनावे पर असर. भारत में इस्लाम धर्म के आने के उपरान्त मुस्लिम महिलाये प्रायः बुरका, खीमर, अबाया, नकाब, शलवार-कमीज आदि पहना करती थी। इसी प्रकार मुस्लिम पुरूषो द्वारा थोबे, सलवार कुर्ता, सेरवाल, इजार आदि पहना जाता था। परन्तु इस्लाम धर्म के पहनावे का अछूत व दलित जातियों पर कोई असर नही रहा बल्कि इन का पहनावा फटी धौती, फटा हुआ फैंटा आदि ही बने रहे। दलित महिलाओ के पहनावे पर भी इस्लाम धर्म के पहनावे का कोई असर नही हुआ था। रैगर महिलायें अपने पुराने पहनावे में अपने शरीर को ढकती रही।

रैगर और राजपूत शासको का पहनावा आदि. रैगर जाति एक गरीब और अछूत जाति रही थी जब कि राजपूत एक शासक वर्ग से संबंध रखता था। इस प्रकार समाज के दोनो वर्गो में सामान्य रूप से कोई असर देखने को नही मिलता। परन्तु रैगर जाति द्वारा बनायी गयी जूतियों का प्रचलन राजपूत पहनावे पर जरूर देखा जा सकता है। इस के अलावा राजपूत शासको की तलवार का कवच तथा बारूद रखने के कवच, ढोल-नगाड़ो पर चमड़ा चढाने का कार्य आदि पर रैगर समाज की चर्म कला का असर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यही कारण है कि रैगर जाति के लोगो को प्रत्येक राजपूत ठिकानेदार ने बसाने का कार्य किया था।

राजपूती सभ्यता का रैगर पहनावे पर असर. छटी व सांतवी सदी में राजपूत एक क्षत्रिय शासक रूप में उभरे जिन्होने बहादुरी, साहस व पारम्पारिक संस्कार का पालन किया। रैगर जाति मूलतः राजस्थान की एक जाति है इस लिये राजपूत शासन काल का इस जाति के रहन सहन और पहनावे पर असर आना लाजिमी था। राजपूत शासको और ठिकानेदारो का पहनावा भी शहनशाही तौर तरीके वाला ही होता था जिसमे पुरूष वर्ग द्वारा ‘अंगरखी‘, पगड़ी, चूड़ीदार पायजामा और कमर में एक ‘कमर बैल्ट‘ हुआ करती थी। पुरूष वर्ग का पहनावा उस की राज दरबार में सामाजिक, आर्थिक स्थिति व पदवी को दर्शाता था। राजपूत शासन काल में राजपूत शासको
द्वारा ‘शेरवानी‘, ‘चूड़ीदार पायजामा‘ के अलावा भी अपनी कमर के नीचे पांवो के हिस्से मे ‘धोती‘ पहनी जाती थाी जिस को मारवाड़‘ में ‘टेवटा‘ अंदाज में बांधा जाता था जब कि राजपुताना के अन्य इलाको में इसे ‘तिरंगी‘ अन्दाज से पहना जाता था। रैगर जाति के पुरूष वर्ग में धोती पहनने की परम्परा राजपूती शासनकाल की ही देन है। रैगर जाति के लोग एक लम्बी धोती के दो टुकड़े कर सादी तरीके से ही एक टुकड़े को ही पहना करते थे। जब जरूरत होती अथवा कोई शुभ अवसर होता तभी वे दूसरे धोती के टूकड़ा, जो प्रायः नया ही रहता था, उस को उपयोग में लाते थे। राजपुताना को रजवाड़ा भी कहा जाता था। इस प्रदेश का आधुनिक नाम राजस्थान है जो उŸार भारत के पश्चिमी भाग में अरवाली की पहाड़ियो के दोनो और फैला हुआ है। राजपूत शासन काल की पेन्टिग को देखने के बाद यह अहसास होता है कि राजपूत महिलाये विभिन्न रतन जड़ित साड़िया पहना करती थी। इस के अलावा वे ‘लहंगा‘ और ‘अंगिया‘ भी पहनती थी। विवाह के उपरान्त राजपूत महिलाये ‘कांचली‘, ‘कुर्ती‘ और ‘अंगिया‘ मुख्य रूप से पहना करती थी। वेजवान बच्चियां शरीर के ऊपरी भाग में ‘पुथिया‘ और शरीर के निचले भाग में ढीला पायजामा जिसे ‘सुलहनी‘ कहा जाता था उसे पहना करती थी। राजपूत महिलाये सिर पर ‘औढनी‘ भी औढा करती थी। राजपूत शासको की महिलाओ के वस्त्र प्रायः सिल्क अर्थात रेशम के ही हुआ करते थे। ये महिलाये अन्य जेवर के अलावा आम तौर से सिर पर ‘रखड़ी‘, कान में ‘मची-सूलिया‘, गले में टेवटा और ‘आड़‘ पहना करती थी। राजपूत पुरूष व महिलाये अपने पांवो में किसी रैगर द्वारा चमड़े में बनाई गयी सुन्दर व कशिदाकारी ‘जूतिया‘ और ‘मोचड़ी‘ पहना करती थी। इस प्रकार काफी समय से ही रैगर समाज पर राजपूती सभ्यता का उस के पहनावे पर असर रहा है। प्रारम्भिक काल में रैगर महिलायें और पुरूष गांव के स्तर पर जुलाहे द्वारा बनाई गयी सूत के कपड़ो को ही पहना करते थे। ये वस्त्र प्रायः बिना सिले ही पुरूषो के शरीर से घेर देकर बांधे और लिपटे हुआ करते थे।
धीरे धीरे पुरूष वर्ग में ‘फैंटा‘ और ‘धोती‘ पहनने की प्रथा चल निकली। बाद के सालो में इस वर्ग के पुरूष व स्त्री चमड़े की रंगत के कार्य में लग गये तो इन के कपड़े भी मैले कुचले और बदबूदार रहने लग गये।

स्वतन्त्रता से पूर्व व बाद के सालो मे रैगर जाति की महिलाओं का पहनावा:- रैगर जाति की महिलायें पहले ’घाघरा’, ‘कुर्ती’, ‘कांचली’ और ‘लूगड़ी’ पहना करती थी। लाल लूगड़ी को पहले ‘टूल’ भी कहा जाता था। भारत की आजादी के प्रारम्भिक सालो में दिल्ली में मुलतान में बनी ‘छींट‘ की लूगड़ी का काफी प्रचलन रहा था। विवाह में लाल रंग का ‘घाघरा’ दिया जाता था। महिलायें
‘कब्जा’ भी पहना करती थी जो मूलतः महिलाओं की कमीज ही हुआ करती थी। उस दौर में महिलाओं के कपड़े सूत के और मोटे कपड़े के ही हुआ करते थे। राजस्थान में महिलायें चमड़े पर हाथ से रंग बिरंगे सूत से सूअे द्धारा कढाई की हुई पांव की जूतियां पहना करती थी। वे हाथों में लाख का चूड़ा पहना करती थी। बाद के सालो में कांच की चूड़िया भी पहनी जाने लगी थी। पीळा’ खास खुशी के मौके पर वही महिलायें पहना करती थी जिन की ‘आढ’ उस के पीहर वालो द्वारा खोली जा चुकी होती थी। ‘आढ’ खोलने का अभिप्राय यह होता था कि महिला के ससुराल में कोई विवाह या महिला के स्वयम् कोई बच्चा होने पर उस के पीहर से उस के मां-बाप अथवा भाई अपने सगे-संबंधियों और बस्ती के पुरूषो और स्त्रियों को साथ लेकर वह महिला जो उन की बहन अथवा बेटी होती है उस के स्वयम् के लिये तथा उस के पति, बच्चों, सास-ससुर और अन्य रिशतेदारों के लिये पहनने-औढने के कपड़े लेकर आते हैं जिस में ‘पीळा’ भी होता हैं। वे इन कपड़ो को सब को ससम्मान औढाते हैं। पहले के समय में यह सर्व स्वीकार था कि अपनी बहिन-बेटी के घर का पानी पीना भी ठीक नहीं माना जाता था इस लिये ‘आढ’ खोलने की रस्म को पूरी करने के उपरान्त ही महिला के पीहर वाले खाना खा सकते थे। यह प्रचलन आज भी चालू है। कपड़े औढाने की रस्म पुरी होने के बाद समाज के सभी व्यक्तियों के सामने महिला के पीहर वालो की तरफ से भेेंट स्वरूप महिला और उस के ससुराल वालो को सोने-चांदी के गहने के अलावा रूपये भी दिये जाते हैं जिस से महिला के इस शुभ अवसर पर जो खर्चा हुआ है उस में उसे कुछ आर्थिक सहयोग मिल सके। ‘आढ’ खोलने की रस्म के उपरान्त वह महिला अपने माता-पिता, भाई-भाभी, और अन्य रिशतेदारो से गले मिलती थी और उन सब का धन्यवाद करती थी। तत््पश्चात महिला के ससुराल के मुखिया और अन्य खास रिशतेदारो द्वारा आये हुये मेहमानो को खाना खाने का निमंत्रण दिया जाता था जो खुशी खुशी स्वीकार करते हुये खाना खा लिया जाता है। इस ‘पीळे की आढ’ खोलने का महिला के पीहर और ससुराल वालो के लिये अपना एक खास महत्व हुआ करता था। ‘पीळ‘े की आढ’ खुलने के बाद ही महिला ‘पीळा’ औढ सकती है। बाद के सालो में बालिकायें सलवार कुर्ता और चुन्नी तथा महिलायें ब्लाउज, साड़ी और पेटीकोट पहनने लग गई हैं।

रैगर जाति की पुराने समय में सामान्य वेशभूषा:- रैगर जाति के लोगो की पुरानी वेशभूषा का जो कलात्मक पक्ष है वह उन के जीवन के अभावो की पूर्ति, उन की कामनायें और उन के जीवन की ललक को प्रकट करती है। स्त्रियों के वेशों में विविध रंगो की ‘ओढनियां‘, ‘लूगडीयां‘ ‘घाघरे‘ और ‘कांचलिया‘ जीवन के अभावों को पूरा करने के प्रयत्न है। इन के कसूमल, हरे और नीले रंगों में बादलो की छटा, जलाशयों की सरसता, वनो की हरीतिमा और फूलो की लालिमा एकत्रित हो गई है। इसी प्रकार रैगर महिलाओं के अलंकरण जो नख से लेकर शिख तक के प्रचूर श्रंगार मेे झलकते हैं और उन के अभावग्रस्त जीवन को समृद्धि प्रदान करने के संकेत है। इसी के साथ इन की बोल-चाल, ऊठ-बैठ आदि में जो एक शालीनता और वैभव की झलक है वह भी रैगर जाति के लोगो के चिंतन की इस मूल धारा से हट कर नही है।

रैगर जाति के लोगो का जीवन संघर्षमय रहा है इसी कारण इन की वेशभूषा पर भी युद्धकालीन परिस्थितियां प्रतिबिम्बित है जो मौलिकता दर्शाती है। नगरों में अधिकांश शिक्षित लोगों ने अपनी संस्कृति को त्याग दिया, किन्तु रैगर जाति के पुराने लोग उसी वेशभूषा में देखे जा सकते हैं। कानो में ‘मुरकियां‘, ‘लोंग‘, ‘झाले‘ तथा अंगूठी आदि रैगर पुरूषों के आभूषणो में प्रमुख है। साधारणतया ये लोग सादा पेचों की पगड़िया ही पहनते है। धोतियां भी घुटनो तक ही पहनते है जिस पर सफेद रंग का सूती कुरता पहना होता है। मूछें झुकी हुयी होती थी।

रैगर जाति की महिलाओं की वेशभूषा बड़ी कलामय और रंगीन होती है। ये घेरदार घाघरा पहनती है और इस पर लूगड़ी या ओढनी ओढती है। शरीर पर अंगिया पहनी जाती है जिसे कांचली भी कहते है जो केवल स्तनो और आधी बाहो को ढकती है। बाद के वर्षो में लहंगों, ओढनियों, अंगियों तथा कांचलियों को गोटा किनारी लगा कर सजाया जाता रहा है। आजकल रैगर जाति की स्त्रियों व बालिकाओं की वेशभूषा में साड़ियों व सलवार कमीज का प्रचलन भी बहुत बढ गया है।

रैगर जाति की वेशभूषा में इतना सार्मथ्य है कि जिस में सोलह श्रंगार से सज्जित होकर नखशिख पर्यन्त आभूषण धारण किये जा सकते है। आभूषण में बंगड़ी, हथफूल, बोरला, रखड़ी, गोखरू, बाजूबन्द, कड़े आदि प्रमुख है। रैगर जाति की महिलायें बोरला को सुहाग का प्रतीक मानती है। लाख की चूड़िया भी सुहाग की प्रतीक मानी जाने से विशेष रूप से प्रचलित है। महिलाओं द्धारा हथेली पर मेंहदी के मांडने विशेष आर्कषक होते हैं। मेहन्दी को सुहाग का चिन्ह माना जाता है। त्यौंहार, पर्व व हर हर्ष के समारोह पर मेंहदी के मांडने मांडे जाते है जो काफी आकर्षक और प्रिय
होते है।

रैगर महिला पहनावा पर शोध का निष्कर्ष– रैगर जाति के पुरूषो और महिलाओ पर राजपूती वेशभूषा का काफी असर पड़ा जिस के कारण रैगर जाति की महिलाओ की वेशभूषा में निम्न वस्त्र देखने को मिलते है जो प्रायः साधारण सूती कपड़ो के ही हुआ करते थे जो निम्न प्रकार से है-

(1) ‘घाघरा‘ और ‘घाघरी‘:- यह वह चुननदार और घेरदार पहनावा है जिसे रैगर महिलाये अपने कमर में पहनती है और जिस से कमर से लेकर एड़ी तक का अंग ढका रहता है। ‘घाघरा‘ में ज्यादा ‘घेर‘ होत है जब कि ‘घाघरी‘ कम लम्बाई के कपड़ो में हुआ करती है और इस में घुमावदार ‘घेर‘ भी कम होते है। रैगर जाति की बोली में साधारण रूप में ‘घाघरा‘ को स्त्री लिंग मानते हुये ‘घाघरी‘ भी कहा जाता है।

(2) लंहगा:- यह कभी भी गेरूआ रंग का नही होता था। यह रैगर महिलाओ द्वारा खास अवसरो जैसे विवाह, मन्दिर पूजन आदि पर ही पहना जाता था जब कि ‘घाघरा‘ और ‘घाघरी‘ प्रतिदिन पहनी जाती थी। यह अति सून्दर और आकर्षक हुआ करता है जिस से महिला के श्रंगार में चार चांद लग जाते है।

(3) लंहगा-चोली:- यह आधुनिक युग की देन है जो रैगर महिलाये किसी शुभ अवसर पर पहनने लग गयी है।

(4) ओढनी:- यह रैगर महिलाओ के ओढने का दुप्पटा हुआ करता था जो प्रायः विवाहित स्त्रियां की उपयोग में लाया करती थी। इस प्रकार यह रैगर महिलाओ के शरीर के ऊपरी भाग पर ओढी जाने वाली छोटी, हलकी (झीनी) चादर ही हुआ करती थी। रैगर जाति की महिलाओ में ओढनी बदलने की परम्परा भी पाई जाती है जिस के अधीन दो रैगर अथवा गैर रैगर स्त्रियां परस्पर ओढनी बदल कर आपस में सखियां बन कर अपनी मित्रता जताया करती है।

(5)लूगड़ी:- प्रायः रैगर महिलाये सिर पर ‘लूगड़ी‘ ओढा करती थी। पर्दा प्रथा का रैगर महिलाओ में बहुत प्रचलन हुआ करता था। गांव, मोहल्ला और गली के बुजुर्ग व्यक्तियो से रैगर जाति की महिलाये पर्दा किया करती थी। यंहा तक वे अपने बुजुर्ग रिशतेदारो से भी पर्दा किया करती थी। मैने देखा था कि अन्य महिलाओ की तरह मेरी सासु माता जी भी मुझ से पर्दा किया करती थी। उस जमाने में यह प्रथा कि सासु जी भी अपने दामाद से पर्दा किया करती थी जब कि दामाद तो उस के पुत्र समान ही हुआ करता था। यह पर्दा ‘लूगड़ी‘ को मुंह पर डाल कर मुंह नही दिखाने से हुआ करता था। इस प्रकार ‘लूगड़ी‘ सिर पर ओढने का वह वस्त्र हुआ करता था जो कि पर्दा करने के काम में भी आता था। इस के अलावा विवाहित रैगर महिलाये प्रायः अपना सिर नंगा नही रखा करती है। वे अपने सिर पर ‘लूगड़ी‘ डाल कर रखती है जो रैगर महिला की मर्यादा की निशानी ही कही जा सकती है।

(6) कांचली:- यह रैगर महिलाये स्वयम् सूई धागे से अपने स्तनो को ढकने के लिये कांचली की सिलाई किया करती थी। कांचली में विभिन्न रंगो के कपड़े सिले जाते थे। पहले के समय में सिली सिलाई कांचली, अंगिया अर्थात महिलाओ का अन्दरूनी वस्त्र (ठतं) नही मिला करती थी जो आजकल बाजार में हर साइज की मिल जाती है।

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