ज्ञानस्वरूप या जगत में, देव न गुरू समान ।
अनायास दे आसरा जीव करे कल्याण । ।
अंग्रेज साम्राज्याधीन 19वीं शताब्दी में जब गाँवों में शिक्षा का अभाव था तथा यातायात के साधनहीनता युग में एवं विषय परिस्थितियों में ‘शक्ति को जगाने हेतु विक्रम सम्वत् 1952 अश्विन शुक्ला त्र्योदशी शुक्रवार तदानुसार 21 अक्टूबर 1895 को ग्राम गोहाना जिला अजमेर (राजस्थान) में एक महापुरूष, स्वामी ज्ञानस्वरूप जी महाराज का जन्म हुआ । स्वामी जी के बचपन का नाम ‘गेना राम’ था ।
अजमेर जिला ब्यावर सूं , दिक्षण तरफ है धाम ।
स्वामी ज्ञानस्वरूप का, जन्म गोहाना ग्राम । ।
स्वामी जी के माता-पिता का नाम श्रीमती मेदी बाई और श्री उदा राम जी था । आपका जन्म रैगर समाज के गुसाईवाल गोत्र में हुआ । आपके दो भाई – श्री पहाड़ाराम तथा गुमानराम तथा एक बहिन सेजांबाई थी । आप भाईयों में सबसे छोटे होने से आपको घर में सबसे अधिक लाड़-प्यार मिला । माता-पिता की रामस्नेही सम्प्रदाय में अनन्य श्रद्धा होने से स्वामी जी का रुझान भी बाल्यकाल से ही धर्म की ओर प्ररित हो गया । परिणामस्वरूप स्वामी जी ने अध्यात्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में अभूतपूर्व योग्यता प्राप्त की । अंग्रेजी शासनाधीन व्यवस्था में कठिन प्रयासों से स्वामी जी के जन्म स्थान ग्राम गोहाना में एक विद्यालय खुला । उसमें श्री माल सिंह लोरा जी को अध्यापक नियुक्त किया गया । स्वामी जी के पिता को भक्त ध्रुव प्रहलाद आदि के चरित्र और रामायण, महाभारत, गीता आदि सुनने की बहुत रूचि थी । इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु स्वामी जी को विद्यालय पढ़नें भेजा । इसमें परिवार वाले अपार प्रसन्न हुए कि उनका पुत्र उन्हें स्वयं पढ़कर कथा सुनाएगा । स्वामी जी की स्मरण शक्ति अद्भुत थी स्कूल में जो कुछ पढ़ाया जाता वह दूसरे दिन कण्ठस्य करके सुना देते थे अत: मात्र 5-7 वर्ष की आयु में स्वामी जी ने हिन्दी में विशेष योग्यता प्राप्त कर ली ।
मर रे, निज वैरागी होना ।
राजा रंक एक कर जानो, ज्यूं कंकर त्यूँ सोना । ।
उनकी माता जी ने उन्हें तुरन्त टोकते हुए कहा कि इस तरह के पद तो सन्यासियों को ही शोभा देते हैं । अत: सन्यास की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ नहीं पढ़ा करो, इतना कहकर स्वामी जी के पास से योगशिष्ट छीन लिया । साथ ही खड़े स्वामी जी के बड़े भाई पहाड़ा राम जी ने कहा कि अभी तो यह बालक है । पढ़ रहा है । तो पढ़ने दो ; पढ़ने के लिए तो स्कूल में प्रवेश दिलवाया था । यह सुनकर स्वामी जी की माता जी शान्त हो गईं परन्तु कुछ देर बाद फिर कहा कि इस तरह की पुस्तकें पढ़कर यह उदासीन बना रहता है । एक दिन स्वामी श्री मुक्त राम जी सत्संग हेतु खेतों के रास्ते से जा रहे थे उस समय स्वामी जी के परिवार के सभी सदस्य खेत पर कार्य कर रहे थे, सभी ने उनका अभिवादन किया कुशल क्षेम पूछने के पश्चात् स्वामी जी की माता जी ने स्वामी मुक्त राम जी से स्वामी जी को शिकायत करते हुए कहा कि यह रात-रात भर सत्संगों में गुजारता है तथा वैराग्य की शिक्षा देने वाली पुस्तकों को पढ़ता है जिससे यह उदासीन बना रहता है । प्रत्युतर में स्वामी श्री मुक्त राम जी ने स्वामी जी से कहा कि सत्संग के साथ-साथ माता-पिता की भी आज्ञा माना करो तथा स्वामी जी की माता जी को भी कहा कि बहिन यह बुरी बात नहीं है । अच्छी बात है ।
पुत्रवती युवती जग सोई । रघुवर भक्त जासु सुत होई । ।
नातर बांझ भली बांझ बीयानी । राम विमुख सुत हे अति हानि । ।
इस प्रकार श्री मुक्त राम जी ने माता जी को समझाया तथा सतसंग हेतु प्रस्थान किया । उस दिन सत्संग में काफी भक्तगणों ने भाग लिया सत्संग का मुख्य उद्देश्य ही ईश्वर का भजन करना है । भजन में ही कल्याण होता है न कोई त्याग में यदि त्याग करना है तो बुराईयों का त्याग करना चाहिए जैसे काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि का, चाहे दूध सोना-चाँदी या मिट्टी के बर्तन मे पिये स्वाद तो दूध में है न कि बर्तन में इसी प्रकार ईश्वर भजन करने का फल भी एक सा है । चाहे गृहस्थ में या त्याग में रह कर करें ।
क्या जामा क्या पगड़ी क्या टोपी लंगोट ।
हरि भजन बिन उतरे नहीं अध पापन की पोट ।।
अध पापन की पोट खोट तो देह में भारी ।
कपड़ा में क्या चूक ताहि की देह उतारी ।।
जन रामा हरि भजन बिन मिटे न जम की चोट ।
क्या जामा क्या पगड़ी क्या टोपी लंगोट ।।
इन उपदेशों का स्वामी जी पर काफी प्रभाव पड़ा और माता जी को विश्वास हो गया कि अब मेरा पुत्र घर का ही काम-काज करेगा । एक दिन ग्राम गोहाना में जगद्गुरू शंकराचार्य के जोशी मठ से दीक्षित पुष्कर निवासी परमहंस स्वामी श्री ब्रह्मानन्द जी महाराज के परमशिष्य श्री मौजी राम जी महाराज पधारे । स्वामी मौजी राम जी के नाम की उन दिनों काफी प्रसिद्धि थी । स्वामी मौजी राम जी के प्रवचन स्वामी ज्ञानस्वरूपजी ने सुने । स्वामी मौजी राम जी ने कहा कि व्यक्ति को अपने अच्छे विचारों पर दृढ़ रहना चाहिए; उसके अतिरिक्त वैराग्य के प्रचार की अधिकता थी जिसे सुन कर स्वामी जी के मन में वैराग्य की धारणा हो गई तथा स्वामी ज्ञानस्वरूपजी ने एक भजन में लिखा है ।
गुरू बाण मार्या ज्ञान का मेरे लागा उर बिच तीर ।
मम भ्रम स्थल छेदिया हृदय में घाव गम्भीर । ।
एक दिन स्वामी जी जीवन को सार्थक बनाने हेतु घर से निकल पड़े तथा मीरपुर खास सिंध स्वामी जी श्री मौजी राम जी के दरबार में जा ठहरे, वहाँ आपकी कठोर परीक्षा लेने के उपरान्त तय किया गया कि गुरू दीक्षा श्रवण शुक्ला पूर्णमासी को दे दी जाएगी । महान संतों एवम् विद्वानों की उपस्थिति में जिनमें श्री हंस निर्वाण जी, स्वामी श्री परमानन्द जी एवं गुरू भाई मुख्य थे विक्रम सम्वत् 1974 के श्रवण शुक्ल पूर्णमासी गुरूवार तदानुसार दिनांक 12 अगस्त, 1917 को रक्षाबंधन के पावन पर्व पर श्री श्री 108 श्री स्वामी मौजी राम जी से दीक्षा ली और सन्यास का नाम स्वामी ज्ञानस्वरूपानन्द रखा गया । उपस्थित संत महात्माओं ने आशिर्वाद दिया । स्वामी श्री मौजी राम जी ने अपनी गुरू दीक्षा में कहा कि मानव जीवन निर्माण में यह संस्कार एक उत्तम पद्धति है । दीक्षा उपरान्त स्वामी जी ने गुरू आश्रम में रहकर ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि की शिक्षा ग्रहण की तथा शास्त्रों का गहन स्वाध्याय किया । स्वामी जी ने अपनी लगन और अथक परिश्रम से साधना की अनन्त ज्ञानराशि अर्जित की । भारत विभाजन से पहले स्वामी श्री ज्ञानस्वरूपजी का आश्रम टंडू आदम (सिंध) में था तथा विभाजन के बाद आपने अपना आश्रम ब्यावर में स्थातिप किया । ब्यावर के अतिरिक्त स्वामी जी का एक आश्रम महाराज ज्ञानस्वरूप शिवाला । प्रेटाबाद फुलेली पार, पो. हैदराबाद (सिंध) में भी था ।
स्वामी ज्ञानस्वरूपजी ने कई वर्षों तक ईश्वर उपासन तथा अध्ययन कर, स्वामीजी ने भारत भ्रमण करके देखा कि समाज आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यंत दुर्दशाग्रस्त है तब आपने समाज के कायाकल्प करने का संकल्प लेकर समाजोत्थान के कार्य में लग गये । आपने सामाजिक कुरीतियों का अंत करने के लिए संत्सगों, सम्मेलनों व जुलसों के माध्यम से जन जागृति पैदाकर सामाजिक उत्थान कार्य किया । उस समय रैगर समाज को रास्ता दिखाने वाला कोई कोई नहीं था । शिाक्षा का नितांत अभाव था । स्वामीजी ने धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा तथा उपदेश देकर लोगों को मार्ग दर्शन दिया । स्वामी ज्ञानस्वरूपजी एक मात्र ऐसे स्पष्टवादी महात्मा थे जिन्होंने बिना किसी दबाव के हमेशा निष्पक्ष रहकर निर्भयता से सत्य बात कही । रैगर समाज पर उनका जबरदस्त प्रभाव था । आज रैगर जाति का जो भी सुधार और उत्थान नजर आ रहा है उसका श्रेय सबसे पहले स्वामी श्री ज्ञानस्वरूपजी को ही जाता है ।
महानगर दिल्ली में 18 रैगरपुरा, करोल बाग स्थित एक विशाल श्री विष्णु मन्दिर बना हुआ है । जिसका निमार्ण सन् 1925 में स्वामी श्री मौजी राम जी महाराज एवं स्वामी ज्ञानस्वरूप जी महाराज के दिल्ली निवासी शिष्यों के अथक प्रयासों से हुआ । जिसमें हमारें गुरूजन दिल्ली प्रवास के समय आ कर ठहरते थे । इसलिए पूर्व में इसे गुरू मन्दिर के नाम से जाना जाता था । इसका पुनर्निर्माण सन् 1949 में हआ । इसका संचालन स्वामी मौजी राम सत्संग सभा ट्रस्ट (रैगर समाज) करती है । अत: यह संस्था अब इसका जीर्णोद्धार एवं पुनर्निर्माण कार्य दिनांक 13 मार्च 1999 से किया गया । जिसमें ”धर्मगुरू ज्ञानस्वरूप सत्संग सभागार” का निर्माण किया गया है । इसका जीर्णोद्धार कार्य लगभग पूरा हो चुका है । इस सभा में स्वामी मौजी राम जी व स्वामी ज्ञानस्वरूपजी में श्रद्धा व विश्वास रखने वाले भक्तजन हैं । यह मन्दिर स्वामी मौजी राम जी, स्वामी ज्ञानस्परूप जी, स्वामी रामानन्द जी ‘जिज्ञासु’, स्वामी आत्माराम जी ‘लक्ष्य’ तथा संत अनन्तानन्द जी (पं. चुन्नी लाल सौकरिया) का विश्राम स्थल रहा है ।
दौसा (जयपुर) में स्वामी ज्ञानस्वरूप जी के सभापतित्त्व में दिनांक 28-29 मई 1944 को एक कार्यकर्ता सम्मेलन किया गया जिसमें यह निर्णय लिया गया कि दिनांक 2-3-4 नवम्बर 1944 को दौसा (जयपुर) में प्रथम अखिल भारतीय रैगर महासम्मेलन किया जाए । तथा दूसरा कार्यकर्ता सम्मेलन बौरावड़ में, यह निर्णय लिया गया कि प्रथम अखिल भारतीय रैगर महासम्मेलन का झण्डाभिवादन स्वामी ज्ञानस्परूपजी के कर कमलों द्वारा करवाया जाएगा । अत: अखिल भारतीय रैगर महासभा के प्रथम दौसा महासम्मेलन के अवसर पर स्वामी ज्ञानस्वरूप जी को एक भव्य रथ पर बैठा कर विशाल शोभा यात्रा दिनांक 2 नवम्बर 1944 को निकाली गयी, स्वामी जी के साथ स्वामी आत्माराम जी लक्ष्य व श्री चांद करण शारदा जी विराजमान थे शोभा यात्रा के पश्चात् स्वामी ज्ञानस्वरूप जी ने महासम्मेलन की शुरूआत करते हुए ध्वजारोहण किया । तथा उन्होंने सत्संगों के माध्यम से समाज की कुरीतियों से दूर रहते हुए सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया । अत: स्वामी ज्ञानस्परूप जी ही अखिल भारतीय रैगर महासभा के जन्मदाता थें । इसी महासभा का द्वितीय महासम्मेलन जयपुर में किया गया जिसमें स्वामी ज्ञानस्परूप जी का विक्टोरिया रथ पर विशाल जनसमूह के मध्य शोभा यात्रा निकाली गयी । स्वामी जी के साथ आत्माराम जी लक्ष्य द्वितीय महासम्मेलन के अध्यक्ष चौधरी श्री कन्हैया लाल रातावाल, श्री गौतम सिंह सक्करवाल, श्री आशा राम सेवलिया भी विराजमान थे दिनांक 13-04-1946 को ब्रह्म-मुहूर्त में करतलध्वनियों एवं जातीय उद्घोषें के मध्य स्वामी जी ने अपने कर कमलो से ध्वजारोहण किया तथा सम्बंधित प्रस्तावों पर प्रेरणादायक प्रवचन दिया । जिसमें ज्ञानस्वरुपजी ने दूरदर्शी मार्गदर्शक के रुप में अपने विचार समाज के सम्मुख रखा और शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि- ‘‘शिक्षा शून्य कौम, कभी भी धन सम्पन्न व सभ्य नहीं हो सकती, जैसे करोड़ों उपाय करने के पर भी बिना सूर्य उदय हुए रात्रि का अंत नहीं होता, अगर अपनी कौम का भविष्य सुखमय और सम्मानमय देखना चाहते हो तो अपने बच्चों को विद्या पढ़ाईये ।’’ स्वामी श्री आत्माराम जी लक्ष्य का भी स्वामी जी की प्रेरणा व आर्शीवाद से इस महासभा के दोनों महासम्मेलनों में बहुत बड़ा योगदान रहा है । इन दोनों महासम्मेलनों की सफलता का श्रेय स्वामी श्री ज्ञानस्वरूपजी महाराज व उनके परमशिष्य स्वामी आत्मा राम जी लक्ष्य को जाता है ।
शिक्षा के प्रसार हेतु स्वामीजी ने सन् 1950 में जोधपुर के नागोरी गेट स्थित श्री ज्ञान गंगा छात्रावास की स्थापना कर स्वामीजी ने शिक्षा के प्रसार हेतु अपना अतुलनीय योगदान दिया ।
स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप जी महाराज एवं स्वामी श्री रामानन्द जी महाराज अर्द्ध महाकुम्भ के अवसर पर हरिद्वार गये वहाँ उन्हें किराये पर भी किसी धर्मशाला में ठहरने के लिए लगह नहीं मिली तीन-चार दिन कठिनाईयों के बिताने के पश्चात् वह दिल्ली स्थित श्री विष्णु मन्दिर, रैगर पुरा पहुँचे । मन्दिर में अकस्मात आए हुए सुन कर सन्त श्री अनन्तानन्द जी महाराज (पं. चुन्नीलाल सौकरिया) स्वामी मौजी राम सत्संग सभा के तत्कालीन प्रधान श्री कंवर सेन मौर्य, श्री खुशहाल चन्द मोहनपुरिया, श्री कल्याण दास पीपलीवाल, श्री चिरंजी लाल तौणगरिया आदि भी मन्दिर पहुँचे और अकस्मात आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि हम ब्यावर से नही हरिद्वार से आ रहे हैं । तथा वहाँ इस प्रकार से कठिनाईयों का सामना करना पड़ा स्वामी ज्ञानस्परूप जी महाराज एवं स्वामी श्री रामानन्द जी ने कहा कि रैगर समाज की भी एक धर्मशाला हरिद्वार में होनी चाहिए । जिसका सभी ने समर्थन किया । इस प्रकार हरिद्वार में रैगर धर्मशाला का अंकुरण हुआ तत्पश्चात् परमहंस स्वामी ज्ञानस्परूप जी महाराज, महामण्डलेश्वर स्वामी श्री केवलानन्द जी महाराज, स्वामी श्री रामानन्द जी महाराज जिज्ञासु और स्वामी श्री गोपाल राम जी महाराज ने हरिद्वार में रैगर धर्मशाला की स्थापना हेतु आर्थिक सहयोग की शुरुआत ठक्कर बापानगर कॉलोनी मुम्बई निवासी सज्जनों से की तथा दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में रहने वाले रैगर बन्धुओं ने भी उदार हृदय से इस पवित्र कार्य में तन-मन-धन से सहयोग दिया । उनका सक्रिय सहयोग और उनका हाथ रहा है ।
स्वामी जी अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में अधिकांश समय भगवान नाम जप में व्यतीत करते थे । स्वामी जी अपने प्रिय शिष्य स्वामी रामानन्द जी ‘जिज्ञासु’ को राम कह कर पुकारते थे । स्वामी जी के मोक्ष प्राप्ती के कुछ दिन पूर्व ही स्वामी रामानन्द जी उनकी आज्ञा लेकर मुम्बई पधारे थे । स्वामी जी ने अपने मोक्ष प्रस्थान से तीन दिन पूर्व ही आश्रम को बता दिया था; उन्हे लेने आये भगवद् भक्तों (देवदूत) से उन्होने कहा कि जब तक मेरा राम नही आएगा तब तक अपने धाम के लिए प्रथान नहीं करुँगा । स्वामी जी के आदेश से स्वामी रामानन्द जी को मुम्बई तार भेजा गया अत: स्वामी रामानन्द जी हवाई यात्रा द्वारा जोधपुर पहुँचे वहाँ से पीपाड़ आश्रम पहुँचे राम को सामने पाकर दिनांक 25 फरवरी 1985 को स्वामी श्री रामानन्द जी महाराज द्वारा निर्मित जिज्ञासु आश्रम पीपाड़ शहर में महानिर्वाण को प्राप्त हो गये । स्वामीजी के ब्रह्मजीन होने की सूचना मिलते ही सारे देश से उनके श्रद्धालु शिष्य अंतिम दर्शनार्थ श्रद्धा सुमन अर्पित करने को जिज्ञासु आश्रम पहुंचे । जहां 26-27 फरवरी 1985 को हजारों श्रद्धालुओं द्वारा भव्य अंतिम यात्रा निकाली गई ओर स्वामीजी की पावन देह को वैदिक मंत्रोच्वार के साथ अग्नि को समर्पित की गई ।
27 सितम्बर 1986 को दिल्ली के विज्ञान भवन में अखिल भारतीय रैगर महासभा द्वारा आयोजित पंचम अखिल भारतीय रैगर महासम्मेलन में गणतंत्र भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैल सिंह जी ने महासभा के अध्यक्ष श्री धर्मदास शास्त्री की अध्यक्षता में निर्वाणोपरान्त स्वामी ज्ञानस्परूप जी महाराज को ‘रैगर रत्न’ की उपाधि प्रदान की व स्वर्ण पदक उनके परम शिष्य स्वामी रामानन्द जिज्ञासु ने ग्रहण किया । 18 सितम्बर 1988 को नई दिल्ली के तालकटोरा इण्डोर स्टेडियम में आयोजित अखिल भारतीय सनातन धम्र प्रतिनिधि सम्मेलन में गणतंत्र भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी ने सनातन धर्म के प्रति की गई विशिष्ट सेवाओं के लिए स्वामी श्री ज्ञानस्परूप जी महाराज को निर्वाणोपरान्त श्रृंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य महास्वामी श्री श्री भारती तीर्थ महाराज के सानिध्य में तथा डॉ. गोस्वामी गिरधारी लाल जी की अध्यक्षता में ‘धर्मगुरू’ की उपाधि से सम्मानित किया । जिसे स्वामी मौजीराम सत्संग सभा के तत्कालीन प्रधान हेमेन्द्र कुमार मोहनपुरिया ने ग्रहण किया । स्वामी जी के शिष्य स्वामी रामानन्दजी जिज्ञासु ने पीपाड़ शहर में लगभग 6 लाख की लागत से एक भव्य आश्रम का निर्माण करवाया जिसमें स्वर्गीय स्वामी श्री ज्ञानस्वरूपजी महाराज की लगभग 35 हजार रूपयों की एक भव्य मूर्ति को प्रतिष्ठित किया है । धर्मगुरू स्वामी ज्ञानस्वरूप जी ने सोये हुए रैगर समाज को जगाया तथा इस समाज पर होने वाले तत्कालीन अत्याचारों के विरूद्ध संघर्ष करने का रास्ता दिखाया तथा उनके प्रवचनों में मुख्य उद्देश्य रहता था सामाजिक कुरीतियों को समाप्त किया जाए शिक्षा के प्रसार पर बल दिया, वे मांस व नशा सेवन के घोर विरोधी थे जिसका वर्णन उन्होंने जगह-जगह अपने भजनों में भी किया है । उन्होंने रैगर महासभा के माध्यम से सारे समाज को एकत्रित किया तथा एकता में रहने की प्रेरणा दी पूरे भारत में उनके लाखों अनुयायी हैं । उनके द्वारा रचित ग्रंथ :-
1. श्री ज्ञानभजन प्रभाकर
2. अध ज्ञान भास्कर
3. सन्ध्यादि नित्य कर्म
4. भक्ति प्रवेश भजनमाला
श्री ज्ञान भजन प्रभाकर के प्रथम भाग में प्रेमा भक्ति, योग उपासना की साधना तथा आत्मज्ञान सम्बंधी 400 भजन हैं तथा द्वितीय भाग में ईश्वर स्तुति, गुरू स्तुति, उपदेश एवं पतिव्रत धर्म संबंधी 375 छन्द हैं । भौतिकवाद से दुखी मनुष्य को इस ग्रंथ के मनन से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । यह ग्रंथ खूब प्रचारित हुआ । ऐसे तेजस्वी सन्त महात्मा को रैगर समाज सदियों तक याद रखेगी ।
(साभार- श्री विष्णु मन्दिर, नई दिल्ली : स्मारिका 2011 एवं रैगर ज्योति)
157/1, Mayur Colony,
Sanjeet Naka, Mandsaur
Madhya Pradesh 458001
+91-999-333-8909
[email protected]
Mon – Sun
9:00A.M. – 9:00P.M.