रैगर समाज का खान पान

प्राचीन समय में रैगर जाति का खान पान पुरातन समय में रैगर जाति का खानपान भी मूलतः मांसाहारी होता था। इस का मुख्य कारण इन की गरीबी और खाल रंगने के व्यवसाय से जुड़ी जिन्दगी ही थी। गरीबी के कारण ये किसी भी प्रकार की ताजा सब्जी नही खरीद सकते थे इस लिये मजबूरन जो भी इनको उपलब्ध होता था उसी से ही ये अपना जीवन यापन किया करते थे। हालांकि खान पान में कई चीजे सम्मिलित होती थी परन्तु संक्षिप्त में निम्न लिखित वस्तुये ही इनके खानपान की मुख्य चीजे हुआ करती थी:-

(1) ‘बड़ी‘: सर्दी में बांस पर कच्चे मांस के लम्बे टुकड़ो को छांव में सुखा दिया जाता था और गर्मी के मौसम में चने की सूखी कोंपलो जिन्हे ये हरी भाजी कहते है अथवा सूखी ग्वांर फली या चने की दाल आदि में इसे डाल कर बर्तन में चुल्हे पर एक मांसाहारी सब्जी की तरह खाने को पकाते थे। बारिश के मौसम में ‘बड़ी’ जो मूलतः सूखा हुआ मांस ही था को नही खाया करते थे क्यों कि बारिश के मौसम में मांस बदबूदार और किटाणु युक्त हो जाता है। इस के अलावा ‘बड़ी’ को चुल्हे की आग पर सेक कर भी खाया करते थे।

(2) ‘छाछ‘ राबड़ी‘: मक्का, जौ, बाजरा को धीमी आंच में पका कर राबड़ी बनाई जाती थी। उस जमाने में छीना जो अकाल के समय का अनाज माना जाता था और मोटे अनाज की श्रेणी में आता था उस की भी राबड़ी बनाई जाती थी। यह पौधा करीबन दो -ढाई ऊचा होता था। आजकल इसे कोई नही बोता और न ही इस्तेमाल करता है क्योंकि देश में अकाल पड़ना ही बन्द हो गया है और हर प्रकार का अनाज गांव में आसानी से मिल जाता है। राबड़ी में ताजा छाछ डाल कर सुबह सुबह कलेवा किया जाता था। यदि किसी के कोई मेहमान आ भी जाता था तो उसे कलेवे में छाछ राबड़ी ही दी जाती थी। कलेवा सुबह के नाशते को कहा जाता था। उस जमाने में चाय का बिल्कुल भी रिवाज नही था। चाय का प्रचलन तो आजादी के बाद में आया है।

(3) सीरा और लापसी: मक्का अथवा ज्वार की गुड़ डाल कर लापसी बनाई जाती थी। गेंहु और गुड़ को कड़ावे में पका कर सीरा बनाया जाता था। सीरा मृत्यु भोज जिसे नुक्ता भी कहा जाता है के समय बना कर मेहमानो को खिलाया जाता था। पैसे वाले लोग नुक्ते पर पुआ भी बनाया करते
थे। पुआ मूलतः गुड़ मे गेंहु के आटे के घोल को मिला कर तेल में तल कर बनाया जाता था। पहले के जमाने में घी के बदले तेल में ही पुरी, साग, मालपुअे आदि बनाया करते थे। विवाह के अवसर पर भी मीठा सीरा परोसने का रिवाज होता था। सीरा ही मिठाई के बतौर काम में लिया जाता था। इस का मुख्य कारण निर्धनता ही था। नुक्ता और विवाह के समय में सीरा का कांसा भरने का भी रिवाज था। पैसे वाले लोग अपनी लड़कियो के विवाह में तखड़ी अर्थात तराजु से तोल कर सवा सेर का कांसा अपने सगे सम्बन्धियों और बस्ती में भेजा करते थे।

(4) तिल्ली का तेल:- पहले रैगर समाज के लोग तिल्ली का तेल का ही अधिक प्रयोग किया करते थे। राजस्थान से दिल्ली आने के उपरान्त भी काफी समय तक तिल्ली के तेल का ही खाने में प्रयोग किया जाता रहा था। यंहा तक की सर्दियो में तिल्ली के तेल को चुल्हे की मोटी रोटियों में डाल कर भी खाया जाता रहा था। इस का मुख्य कारण यह रहा था कि देसी घी प्रायः हरेक को आसानी से नही मिलता था जब कि घानी से निकला तिल्ली का तेल आसानी से मिल जाता था जो देसी घी से भी सस्ता हुआ करता था। इस के अलावा तिल्ली का तेल खाने में स्वादिश्ट होता था जिस की तासीर गर्म हुआ करती थी।

दिल्ली में रैगर जाति का खान पान:- यंहा मैं जो भी लेख कर रहा हूं वह मेैने मेरे बचपन से अब तक जो देखा है वही मेरा आधार है। बचपन में मैने देखा कि दिल्ली के मकानो के आंगन में ही रसोई हुआ करती थी। राजस्थान के मकानो में रसोई अलग से हुआ करती थी। प्रारम्भ में मिट्टी की ‘कुण्डी‘ मे ही हाथो से आटा गूंदा जाता था। बाद के वर्षाे में पीतल की परात का उपयोग किया जाने लग गया था। रैगर महिलाये पहले घर पर बनाये गये मिट्टी के चुल्हा में ही लकड़ी जलाया करती थी और इस की ‘आंच‘ में ही चुल्हे पर ही रोटी बनाया करती थी। लकड़ी चुल्हे में डालने से धुंआ निकला करती थी और रोटी सेकने वाली महिला के आंखो से पानी निकलता रहता था। रोटी सिक अर्थात पक जाने के बाद इन रोटियों को एक ‘पलड़ी‘ अथवा ‘छाबड़ी‘ में रख दिया करती थी।
‘पलड़ी‘ और ‘छाबड़ी‘ प्रत्येक रैगर के घर में मिला करती थी। बाद के वर्षो में कागज को पानी में गला कर लुपदी बनाने के बाद रोटी रखने के लिये एक बर्तन बनाने लग गये थे। रैगर महिलायें पीतल के ‘कटोर दान‘ में रोटी इस लिये नही रखा करती थी कि रोटी ‘कटोर दान‘ में रखने के बाद गिली होकर खराब हो जाया करती थी। प्रारम्भ में चुल्हा मिट्टी का ही हुआ करता था जिस में लकड़ी या कंडे की आग जला कर खाना पकाया जाता थी। बाद के सालो में लोहे का चुल्हा भी रैगर महिलाओ द्वारा प्रयोग में लाया जाने लगा।

रोटी पकाने से पहले घर की अंगीठी जिसे रैगर समाज की महिलाये ‘सिगड़ी‘ के नाम से पुकारा करती थी उस पर मिट्टी की ‘हांडी‘ में सब्जी पकाने के लिये रख दी जाती थी। यह सब्जी गोबर के कंडो पर ही पकायी जाती थी। रैगर जाति के लोग प्रायः मांसाहारी है इस लिये आमतौर से पाव या आधा किलोग्राम बकरे के मांस के साथ आलू आदि सब्जियां डाल कर धीमी आंच पर पूरे परिवार के लिये शाम को ‘हांडी‘ में पका ली जाती थी जो अगले दिन सुबह भी खाने के काम आती थी। इस चुल्हे की बेवणी में बची आग की ताप में ये बकरे की कलेजी, आलू, शक्कर कन्दी आदि सेका करते थे। उस जमााने में ‘पोलेटरी‘ का मुर्गा नही मिला करता था और देशी मुर्गा के मांस को खाना रैगर समाज में पसन्द नही किया जाता था क्यों कि मुर्गा गन्दगी खाता है। उन में भूख लगने पर ठंडी रोटी पŸो वाली प्याज अथवा प्याज को फोड़ कर अथवा मूली से या सूखी मिर्च की लहसून और पोदीना से पत्थर के ‘सिल-बट्टा‘ पर पीसी हुई चटनी से खा लिया करते थे। यह सरल जीवन जीने की जीवन प्रक्रिया थी जिस से सेहत भी ठीक रहा करती थी। प्रायः खाना कांसे के बर्तन जैसे कांसे का कचोला, कांसे की थाली आदि में ही परसो जाया करता था। किसी भी प्रकार से चीनी मिट्टी की कप-प्लेट आदि का उपयोग नही किया जाता था। यंहा तक कि शीशा के ग्लास के बदले पानी या दूध पीने के लिये पीतल का ग्लास उपयोग में लाया जाता था। प्रत्येक रैगर समाज के घर में ‘परिण्डा‘ हुआ करता था जिस में दो या तीन मिट्टी की मटकी में पानी भर कर रखा जाता था। इन मटकियो से ग्लास से पानी निकाल कर पिलाया जाता था जो अत्यंत ठंडा हुआ करता था।

समय बदलता गया। लकड़ी जला कर चुल्हे पर रोटी सेकने के बदले स्टोव का जमाना आ गया। स्टोव एक पीतल का उपकरण होता था जिस में इस नली में हाथ से हवा भरने के बाद इस के ऊपर की बŸाी को माचिस से जला दिया जाता था। इस में प्रायः आग के ताप की लौ को कम या तेज इस की हवा भरने की नली को कम या ज्यादा करने से की जाती थी। इस पीतल के स्टोव के अलावा लोहे का स्टोव भी रैगर महिलाये उपयोग में लेने लग गयी थी। इस में आग के ताप की लौ रूई लगे कई सुराखो से कम या ज्यादा करने वाले एक लोहे के घुमाऊ छोटे उपकरण से की जाती थी। इन दोनो प्रकार के स्टोव में आग की ताप प्राप्त करने के लिये मिट्टी के तेल का ही प्रयोग होता था। रैगर महिलायें अब स्टोव पर तव्वा रख कर रोटी बनाने लग गई थी हालांकि सब्जी अब भी ‘सीगड़ी‘ की धीमी आंच में पकायी जाती थी। दिल्ली के अलावा राजस्थान में भी धीरे धीरे स्टोव पर रोटी बनाने को प्रचलन प्रारम्भ हो गया था। यह रैगर समाज की महिलाओं में आर्थिक विकास का ही प्रतीक था। समय ने फिर पलटा खाया और अब रैगर महिलाओ की रसोई में गैस चुल्हे आ गये और रोटी तथा सब्जी गैस पर ही बनने लग गयी। इस के अलावा धीरे धीरेेेे ‘सिल-बट्टा‘ के बदले बिजली की ‘मिक्सी‘ तथा ग्राईन्डर और बिजली का माइक्रोवेेेव प्रयोग में आने लग गया। स्टोव भी एक अतीत का ही उपकरण बन गया।

उस जमाने में दिल्ली में किसी भी रैगर की रसोई में कड़ाही, थाली, चकला-बेलन, लोटा, चिमटा, लकड़ी का चमचा, बड़ा चमचा, छलनी, कचोला, कटोरदान, ग्लास, करछल, माचिस, आदि हुआ करते थे। इन आवश्यक बर्तनो के अलावा प्रत्येक रैगर समाज के घर में पुरानी रखी हुई आटा पीसने के लिये चक्की जो बिजली की चक्की आने के बाद अनोपयगी हो गई थी, अचार डालने के लिये मर्तबान, मोटा अनाज कूटने के लिये ओखली-मूसल, प्लास या संडसी, तराजू, केंची आदि घरेलु सामान हुआ करता था। आज के युग मे।इन की रसोई में प्लाटिक की बोतल, कांटा, फ्रिज, गैस चुल्हा, जग, माइक्रोवेव, तंदूर, प्रेशर कुकर, साॅस पेन, कुर्सी मेज, ट्रे आदि उपलब्ध है।

रैगर महिलाओ द्वारा विशिष्ट वयंजन बनानाः- पहले के जमाने में रैगर महिलायें दिल्ली में निम्न प्रकार के खास व्यंजन बनाने में माहिर होती थी जो निम्न प्रकार से थेः-

(1) आलू मीट व पूड़ी. बात ज्यादा पुरानी नही है जब दिल्ली में रैगर महिलाये ‘सीगड़ी‘ अर्थात अंगीठी पर मिट्टी की हांडी में शाम की सब्जी बनाया करती थी। यह सब्जी इतनी बनाई जाती थी कि यह सुबह भी रोटी खाने के काम में आ जाती थी। इस का मुख्य कारण यह था कि रैगर पुरूष सवेरे से ही अपने काम में लग जाते थे जिस के कारण सब्जी शाम को ही बना ली जाती थी। जब कोई खास दिन या कोई मेहमान आता था तो घर में आलू मीट की सब्जी और साधारण रोटी के बदले पूड़ी बनाई जाती थी जो बड़ी ही स्वादिष्ट बना करती थी।

(2) हरी भाजी, सूखी गाजर या सूखी फळी का मीट के साथ की सब्जी. प्रायः उस जमाने में दिल्ली मे रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का राजस्थान के गांव से संबंध होता था जंहा से उस के रिशतेदार अथवा अपने मूल गांव के गोत्र वाले सूखी हरी भाजी या गवार की सूखी फळी अपनी ओर से सोगात के रूप में कपड़े की सीली हुई थैली में लेकर आते थे। हरी भाजी उसे कहा जाता था जब खेतो में चना उगाया जाता था और उस की कच्ची कोंपलो को धूप में सुखा दिया जाता था। इन कौपलो मे हल्का सा खट्टापन होता था जिन में मांस डाल कर पकाया जाता था। कई बार राजस्थान के गांव के सगे संबंधी गवार की सूखी फळी अथवा कटी हुई सूखी काली गाजर लेकर आते थे जिस में भी मांस डाल कर पकाया जाता था और हल्का देसी घी लगा कर रोटी के साथ खाया जाता था। इस प्रकार की सब्जी बनाने में रैगर महिलाये अति उत्तम होती थी।

(3) बकरे के अंदर के विभिन्न अंगो का सेवन. उस जमाने में रैगर जाति के लोग काफी गरीब थे अतः वे बकरे के विभिन्न अंगो जैसे पेट जिसे वे ‘पेट्या‘ या ‘औजड़ी‘ के नाम से सम्बोधित करते थे, साफ की आंते, कलेजी आदि का अपने खान पान में प्रयोग करते थे। इस के अलावा वे बकरे की टांगे जिसे वे ‘खरोड़ा‘ अथवा ‘पाया‘ के रूप से सम्बोधित करते थे तथा बकरे के सिर जिसे वे ‘सीरी‘ के नाम से सम्बोधित करते थे तथा सिर के अन्दर के दीमाग जिसे वे ‘भेजे‘ से सम्बोधित किया करते थे उस का भी अपने खान पान में उपयोग करते थे।

(4) ‘करीने‘ के लड्डू. सर्दियो के दिनो में प्रायः प्रत्येक रैगर के घर में ‘करीन‘ के लड्डू बनाये जाते थे। यह गेंहू के महीन आटे को देसी घी सहित बड़ी ‘देगची‘ में डाल कर गर्म किया जाता था जिस में गुड़ अथवा चीनी भी आवश्यकतानुसार मिला दी जाती थी। उस के बाद इस में पेड़ से निकला
‘लाल गून्द‘ अथवा ‘सफेद गून्द‘ काजू,किशमिश, नारियल के साथ डाल दिये जाते थे। जब यह पूरी तरह मिल जाता था और थोड़ा ठन्डा हो जाता था तो इस के हाथ से गोल लड्डू बना दिये जाते थे जिन का सेवन सर्दियो में प्रत्येक सुबह को किया जाता था।

(5) विवाह के खाने. मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है कि दिल्ली में पहले रैगर जाति की बारात दो दिन रूका करती थी जिस में बारात के आने की रात से अगले दिन सुबह का ‘कंवर कलेवा‘ कराने के बाद दोपहर का खाना खाने के बाद दुल्हा दुल्हिन की विदाई तक बारात रूका करती थी। राजस्थान में बारात तीन या चार दिन तक वधु के घर पर ठहरा करती थी। उस में दुल्हा व बारात का खाना भी तीन चार दिन के अनुसार ही दिया जाता था। आजकल तो बारात जिस दिन शाम को आती है उसी दिन की रात को सात फेरे दिला कर दुल्हा-दुल्हिन और बारात को विदा कर दिया जाता है। मुझे यह भी याद है कि प्रायः रैगर जाति में दुल्हे की बारात रैगर पुरा, बीडन पुरा व देव नगर में पैदल ही आया करती थी। दुल्हा घोड़ी पर बैठ कर बैंड-बाजे के साथ नही आया करता था। रैगर जाति के लोगो का बड़ा ही सादा जीवन होता था और किसी भी प्रकार का कोई दिखावा नही हुआ करता था। मैने अच्छी तरह से देखा था कि प्रत्येक गली में ‘बस्ती के बर्तन‘ होते थे जो गली के किसी व्यक्ति के घर पर रखे हुआ करते थे। इन बर्तनो का उपयोग गली में सम्पन्न कराये जाने वाले विवाह, गंगोज आदि अवसरो पर किया जाता था। पुराने समय में दिल्ली में जब बारात आती थी तो दुल्हे व उस के बाप व बारातियो के दुल्हिन के परिवार और गली-मोहल्ले वालो व रिशतेदारो द्वारा उन का स्वागत के उपरान्त ‘वर-वधु‘ पक्ष के पुरूषो द्वारा ‘सावला‘ की रस्म अदा करने के बाद दुल्हा व बारातियो को जमीन पर बिछायी गयी ‘दरी‘ पर बिठा कर प्रेम से प्रसन्नता पूर्वक ‘पत्तल‘ पर खाना परोस कर खिलाया जाता था। पत्तल पत्तों को जोड़ कर बनाया गया एक पात्र होता था जो भोजन सामग्री को परोसने के लिये एक थाली का काम किया करता था। उस समय रैगर जाति में एकता देखने वाली हुआ करती थी। गली के कुछ पुरूष सब्जी मण्डी दिल्ली में सुबह ही जाते और वंहा से बैगन, आलू और पालक खरीद कर लाते थे। फिर वे जब ये सब्जी लेकर गली में आते थे तो गली के सभी पुरूष मिल कर इस सब्जी को साफ कर चक्कु से काटा करते थे। मैने अच्छी तरह देखा था कि आपस में गली के सभी रैगर जाति के लोग सब्जी काटने के लिये एक दूसरे से चक्कु मांगते रहते थे और आपस में बाते करते रहते थे। कई बुजूर्ग लोग जो हुक्का पीते थे वे हुक्के की घूंट लेकर दूसरे हुक्का पीने वाले को दे दिया करते थे। इस प्रकार इन लोगो में गप्प-शप्प चलती रहती थी। परन्तु गली के रैगर सब यह मानते थे कि बारातियों को किसी भी प्रकार की कोई तकलीफ नही होनी चाहिये क्यों कि दुल्हा और बारात के सभी लोग उन की गली की बेटी से विवाह करने उन की गली में आ रहे है इस लिये प्रत्येक घर की जिम्मेवारी बनती है कि वे यह माने कि इस में पूरी गली की इज्जत का प्रशन है। शाम को बारात आने के बाद जो खाना बारातियो को परोसा जाता था उस में आलू बैंगन और पालक का साग, लड्डू और पूड़ी परोसी जाती थी। खाना परोसने के लिये गली के अधेड़ उम्र के व्यक्ति और बच्चे हुआ करते थे। बारात में भिन्डी, करेला, घिया, तुरअी, आदि की सब्जी नही परोसी जाती थी। इस का कारण यह था कि पूड़ी के साथ केवल आलू-बैंगन का साग ही स्वादिष्ट लगता है। यह साग बेगचो में लकड़ी की धीमी आंच में पकाया होने के कारण अत्यन्त सराहा जाने वाली सब्जी बना करती थी। जंहा तक लड्डू का प्रशन है इस संबंध में बारात आने से पहले ही हलवाई लड्डू दो तीन पहले ही बना कर वधु पक्ष के घर में रख दिया जाता था और उस कमरे को विवाह का ‘कोठयार‘ भी कहा जाता था। इस ‘कोठयार‘ के कमरे में विवाह के दिन बारातियो को लड्डू परोसने हेतू भेजने के लिये एक वृद्व महिला को जिम्मेवारी सौंप दी जाती थी जो वह परातो में आवश्यक्ता अनुसार पत्तल में परोसने के लिये ‘कोठयार‘ से भेजती रहती थी। लड्डू बनवाते समय भी गली का कोई बुजूर्ग व्यक्ति हलवाई के पासव बैठ जाया करता था जो यह घ्यान रखता था कि लड्डू में चीनी की मात्रा आवश्यकता के अनुसार ही हलवाई डाले जिस से लड्डू स्वादिष्ट बने। इसी प्रकार पूड़ी बनाते समय भी हलवाई के पास गली का कोई बुजूर्ग व्यक्ति बैठ जाया करता था जिस से कि वह बारात को उचित मात्रा में परातो में भर भर कर परोसवाता रहे। बारात को भोजन बड़े ही मनुहार से कराया जाता था। लड्डू खाने के लिये बार बार मनुहार की जाती थी। उस जमाने में लड्डू के अलावा बर्फी, जेलेबी, रसगुल्ले आदि किसी भी प्रकार की कोई मिठाई न हलवाई से बनवाई जाती थी और न ही परोसी जाती थी। दिल्ली में आजकल जो छोले व किस्म किस्म की मिठाई परोसने की व खड़े खड़े खाना खिलाने की परम्परा चल रही है वह रैगर संस्कृति का भाग नही है अपितु यह पाकिस्तान व पंजाब के आये लोगो की परम्परा व रीति रिवाज का ही असर है। इस प्रकार रैगर जाति होने वाले पहले के विवाहो में बारात द्वारा खाना खा लेने के उपरान्त गली के अधेड़ उम्र के लोग तथा लड़के पत्तलो को उठाया करते थे और उन्हे गली के नुक्कड़ पर फैंक दिया करते थे। जीवन का यह तारतम्य ही रैगर जाति की संस्कृति का एक अभिन्न अंग था। यह तारतम्यपूर्ण जीवन की रैगर एकता, समता और शक्ति को जन्म देता था। रात में फेरो के उपरान्त दुल्हे को उसी गली के किसी कमरे में रात्रि विश्राम के लिये ठहरा दिया जाता था जिसे ‘डेरे का घर‘ कहा जाता था।
अगले दिन सुबह दुल्हे को ‘कंवर कलेवा‘ करवाया जाता था जिस में हलवाई से जलबी आदि खरीद कर खिलाई जाती थी। अधिकतर ‘कंवर कलेवा‘ में दही के साथ लड्डू अथवा जलेबी के साथ मलाई वाला गरम दूध दिया जाता था। ‘कंवर कलेवा‘ में छाछ नही पिलाई जाती थी। ‘कंवर कलेवा‘ के बाद वधु पक्ष की सभी छोटी बड़ी बहिन-बेटिया तीन चार चुल्हो पर लकड़ी डाल कर पतली पतली रोटिया सेकने लग जाती थी। इन पतली रोटियो को ‘फल्के‘ कहा जाता था जिन पर देसी घी लगाया जाता था। इन ‘फल्को‘ को बनात समय कोई गीले आटे की ‘लोई‘ बनाती तो कोई इन्हे ‘चकले‘ पर रख कर पतली पतली रोटिया बनाती। कुछ इन रोटियो को सेका करती तो कुछ इन पर देसी घी ‘चोपड़ा‘ करती थी। इस सारे काम के दौरान औरते आपस में कोई भजन भी गाती रहती थी जिस से किसी भी प्रकार की कोई थकान इन को महसूस नही होती थी। बीच में कोई औरत किसी दूसरी औरत के काम में नुस्ख निकाल कर मिठी चुभन भी दे दिया करती थी। इस वातावरण में घरेलु प्रेम साफ नजर आता था। जब ये ‘फल्के‘ काफी मात्रा में तैयार कर लिये जाते थे तो दुल्हे व बारातियो को भोजन खाने के लिये आमंत्रण किया जाता था। इस खाने में हलवाई का कोई काम नही होता था। गली के अन्दर ही एक ‘बेगचे‘ में चने की दाल के साथ मीट का कीमा गली के लोगो की सहायता से लकड़ी की धीमी आंच पर पकाया जाता था जो देसी घी से चुपड़ी पतली रोटी अर्थात फल्के के साथ खाने से अत्यंत स्वादिष्ट लगा करते थे। इस खाने में किसी भी प्रकार की कोई मिठाई नही दी जाती थी। इस के उपराप्न्त दुल्हे को पंलग पर और दुल्हिन को चौकी पर बिठा कर ‘पग-धोई‘ की जाती थी जिस में वधु पक्ष की सभी बहिन -बेटियां व रिशतेदार अपनी धर्मपत्नियों सहित मिट्टी की ‘कुंडी‘ में दुध और घास की दूब से दुल्हा दुल्हिन के पांव धोकर आर्शीवाद दिया करते थे। दुल्हे के हाथ में कांसे की एक थाली व लोटा होता था जिस में ‘पग-धोई‘ करने के उपरान्त भेंट स्वरूप कुछ चांदी सोने के जेवर व चीजे, नगद रूपये, गिलास आदि बर्तन दुल्हा दुल्हिन को घर बसाने के लिये दिये जाते थे। चुल्हा बिलकुल नही दिया जाता था क्यों कि चुल्हा देने का अभिप्राय यह था कि दुल्हिन अपने ससुराल में जाते ही अपने सास ससुर से अलग हो जाये जो रैगर संस्कृति का हिस्सा नही होता था। ‘पग-धोई‘ की रस्म की अदायगी के बाद दुल्हे का बाप व उस की तरफ के खास रिश्तेदार तथा इसी प्रकार दुल्हिन का बाप व उस के रिशतेदार एक कमरे में जमीन पर बैठ कर एक गिलास मे शराब डाल कर एक रूपये से पांच रूपये तक दुल्हे के बाप और अन्य सगे संबंधियो को दिया करते थे।

(6) नमकीन व मीठे चावल बनाना. किसी खास अवसर पर रैगर महिलाये नमकीन व मीठे चावल बनाया करती थी। मीठे चावल में पीला रंग भी डाला जाता था।

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