पेरियार ई. वी. रामास्वामी

दक्षिण भारत में दलितों के हकों की रक्षा के लिए जूझने वाले पेरियार ई.वी. रामास्वामी नायकर का जन्म 17 नवंबर, 1879 को पश्चिमी तमिलनाडु स्थित इरोड में एक सम्पन्न, परम्परावादी हिन्दू परिवार में हुआ था । इनका पूरा नाम इरोड वेंकट नायकर रामास्वामी था । इनके पिता वेंकटाप्पा नायकर एक उच्चकुलीन ब्राह्मण थे । 1885 में उन्होंने एक स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में दाखिला लिया । पर कोई पाँच साल से कम की औपचारिक शिक्षा मिलने के बाद ही उन्हें अपने पिता के व्यवसाय से जुड़ना पड़ा । उनके घर पर भजन तथा उपदेशों का सिलसिला चलता ही रहता था । बचपन से ही वे इन उपदशों में कही बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे । हिन्दू महाकाव्यों तथा पुराणों में कही बातों की परस्पर विरोधी तथा बेतुकी बातों का माखौल भी वे उड़ाते रहते थे । बाल विवाह, देवदासी प्रथा, विधवा पुनर्विवाह के विरूद्ध अवधारणा, स्त्रियों तथा दलितों के शोषण के पूर्ण विरोधी थे । उन्होने हिन्दू वर्ण व्यवस्था का भी बहिष्कार किया । उनकी बढ़ती सामाजिकता से चिंतित उनके पिता ने १९ वर्ष की अल्पायु में ही नागअम्भाल नामक 13 वर्षीय लड़की से इनका विवाह कर दिया । उन्होने अपना पत्नी को भी अपने विचारों से ओत प्रोत किया । लेकिन वैवाहिक बंधन भी नायकर को ब्राह्मण विरोध से न रोक सका । अध्ययन पूरा करते ही पेरियार जी जान से सामाजिक सुधारों में जुट गये । अपार वैभव में पले रामास्वामी को किसी तरह की कमी नहीं थी । परंतु कट्टरता के भयानक परिणामों को देख कर बचपन से ही नायकर के मन में हिन्दू रूढ़िवाद के प्रति अक्रोश उत्पन्न होने लगा । तमिल दलितों की पीड़ा का अहसास कर वह क्षुब्ध हो जाते थे । उन्हें लगता था कि उत्तर भारतीय ब्राह्मणों का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक वर्चस्व ही दलितों की पीड़ा का मुख्य कारण है । इन बातों से दुःखी होकर पेरियार ने यह संकल्प लिया कि वह इस अन्याय को मिटा कर रहेंगे । पेरियार के इस निश्चय से ब्राह्मणों के एक बड़े वर्ग में खलबली मच गयी और उन्होंने पेरियार को ब्राह्मण विरोधी व नास्तिक करार दिया ।

कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर पेरियार ने स्वतंत्राता आंदोलनों में भाग लिया और दलितों के हितों की लड़ाई भी लड़ते रहे । 1923 ई. में वायकोम मन्दिरों में हरिजनों के प्रवेश को लेकर इन्होंने ‘आत्म सम्मान’ आन्दोलन चलाया । इन्होंने सामाजिक समानता पर बल दिया, मनुस्मृति को जलाया तथा ब्राह्मणों के बिना विवाह करवाए । इन्होंने ‘कुदी अरासु’ नामक ग्रंथ लिखा । ईश्वर विरोधी समिति के निमंत्रण पर वे रूस गए तथा लौटने के बाद वे काँग्रेस से अलग हो गए एवं द्रविड़ मुनेत्र कडगम की स्थापना की । लेकिन कुछ मतभेदों के चलते बाद में उन्होंने खुद को कांग्रेस से अलग कर लिया । 1926 में पेरियार ने न्याय पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली । बाद में वे इसके अध्यक्ष भी बने । इस पार्टी के माध्यम से उन्होंने गैर-ब्राह्मणों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग की।

तमिलनाडु के 93 प्रतिशत गैर-ब्राह्मणों को सत्ता में स्पष्ट भागीदारी देने के लिए पेरियार ने 1927 में दलितों के लिए अलग तमिल राज की मांग की । उन्होंने द्रविड़ कड़गम्‌ नाम के राजनैतिक दल का गठन किया ।

रामास्‍वामी पेरियार बीसवीं सदी के तमिलनाडु के एक प्रमुख राजनेता थे । इन्होने जस्टिस पार्टी का गठन किया, जिसका सिद्धान्त रुढ़िवादी हिन्दुत्व का विरोध था । हिन्दी के अनिवार्य शिक्षण का भी उन्होने घोर विरोध किया । भारतीय तथा विशेषकर दक्षिण भारतीय समाज के शोषित वर्ग को लोगों की स्थिति सुधारने में इनका नाम शीर्षस्थ है । 1973 ई. में इनकी मृत्यु हो गई । जाति भेद के विरोध में इनका संघर्ष उल्लेखनीय रहा ।

काशी यात्रा और परिणाम – 1904 में पेरियार ने एक ब्राह्मण, जिसका कि उनके पिता बहुत आदर करते थे, के भाई को गिरफ़्तार किया जा सके न्यायालय के अधिकारियों की मदद की । इसके लिए उनके पिता ने उन्हें लोगों के सामने पीटा । इसके कारण कुछ दिनों के लिए पेरियार को घर छोड़ना पड़ा । पेरियार काशी चले गए । वहां निःशुल्क भोज में जाने की इच्छा होने के बाद उन्हें पता चला कि यह सिर्फ ब्राह्मणों के लिए था । ब्राह्मण नहीं होने के कारण उन्हे इस बात का बहुत दुःख हुआ और उन्होने हिन्दुत्व के विरोध की ठान ली । इसके लिए उन्होने किसी और धर्म को नहीं स्वीकारा और वे हमेशा नास्तिक रहे । इसके बाद उन्होने एक मन्दिर के न्यासी का पदभार संभाला तथा जल्द ही वे अपने शहर के नगरपालिका के प्रमुख बन गए । चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के अनुरोध पर 1919 में उन्होने कांग्रेस की सदस्यता ली । इसके कुछ दिनों के भीतर ही वे तमिलनाडु इकाई के प्रमुख भी बन गए । केरल के कांग्रेस नेताओं के निवेदन पर उन्होने वाईकॉम आन्दोलन का नेतृत्व भी स्वीकार किया जो मन्दिरों कि ओर जाने वाली सड़कों पर दलितों के चलने की मनाही को हटाने के लिए संघर्षरत था । उनकी पत्नी तथा दोस्तों ने भी इस आंदोलन में उनका साथ दिया ।

कांग्रेस का परित्याग – युवाओं के लिए कांग्रेस द्वारा संचालित प्रशिक्षण शिविर में एक ब्राह्मण प्रशिक्षक द्वारा गैर-ब्राह्मण छात्रों के प्रति भेदभाव बरतते देख उनके मन में कांग्रेस के प्रति विरक्ति आ गई । उन्होने कांग्रेस के नेताओं के समक्ष दलितों तथा पीड़ितों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव भी रखा जिसे मंजूरी नहीं मिल सकी । अंततः उन्होने कांग्रेस छोड़ दिया । दलितों के समर्थन में 1925 में उन्होने एक आंदोलन भी चलाया । सोवियत रूस के दौरे पर जाने पर उन्हें साम्यवाद की सफलता ने बहुत प्रभावित किया । वापस आकर उन्होने आर्थिक नीति को साम्यवादी बनाने की घोषणा की । पर बाद में अपना विचार बदल लिया । फिर इन्होने जस्टिस पार्टी, जिसकी स्थापना कुछ गैर ब्राह्मणों ने की थी, का नेतृत्व संभाला । 1944 में जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर द्रविदर कड़गम कर दिया गया । स्वतंत्रता के बाद उन्होने अपने से कोई 20 साल छोटी स्त्री से शादी की जिससे उनके समर्थकों में दरार आ गई और इसके फलस्वरूप डी एम के (द्रविड़ मुनेत्र कळगम) पार्टी का उदय हुआ । 1937 में राजाजी द्वारा तमिलनाडु में आरोपित हिन्दी के अनिवार्य शिक्षण का उन्होने घोर विरोध किया और बहुत लोकप्रिय हुए । उन्होने अपने को सत्ता की राजनीति से अलग रखा तथा आजीवन दलितों तथा स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए प्रयास किया।