रैगर जाति का विस्तार पूरे राजस्थान में है । इसके अतिरिक्त यहीं से गये हुये लोग देहली, पंजाब, हरियाणा, जम्मू, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश में बहुतायात में बसे हुए है । इनके सामाजिक रीति-रिवाज भी सभी जगह एक से ही है । रैगर समाज में गोत्र भी लगभग 350 से भी अधिक ही है जबकि अग्रवाल समाज में तो मात्र 17 गोत्र ही है । अत: हमारे समाज में वैवाहिक सम्बंध जोड़ने में कहीं भी कोई परेशानी नहीं आती । अब हम हमारी जाति के विभिन्न रिश्तों सम्बंधी कुछ विशेष बातों की ओर भी कुछ प्रकाश डालना चाहते है –
गोत्र मिलान :- समाज में लड़के-लड़कियों के सम्बंध निश्चित करने से पूर्व पहले आपसी स्तर पर गोत्र मिलाये जाते है फिर पंचों के मध्य दोनों पक्षों के गोत्र मिलाये जाते है और गोत्र नहीं टकराने की स्थिति में ही पंचों की सहमति के पश्चात् रिश्ता तय किया जाता है ।
हमारे समाज में मुख्य रूप से लड़के व लड़की दोनों ही पक्ष के चार-चार गोत्र मिलाये जाते है । इनमें दो पित्र पक्ष के अर्थात् खुद (दादा) का व दादी का तथा दो गोत्र मातृ पक्ष के अर्थात् माँ का व नानी का गोत्र मिलाया जाता है । इसके अतिरिक्त माँ व दादी दो-तीन भी आई हो अथवा पिता कही गोद गया हो व पगड़ी बंधी हो उनका गोत्र भी टाला जाता है, इन बातों का स्पष्ट मिलान किया जाता है । किन्तु यदि कहीं जाने अनजाने गोत्र बताना रह गया तो कई बार बने बनाये रिश्ते टूट जाते है । यदि शादी भी हो गई हो तो सम्बन्ध विच्छेद भी देखे है किन्तु आज इनमें कई स्थानों पर थोड़ी शिथिलता आने लग गई है और लोग कुछ अनदेखी करने लग गये है जबकि अब तो समाज में उपयुक्त लड़के-लड़कियों की कमी नहीं है तथा रिश्ते भी अब लोग दूर-दूर तक करने लग गये है । समाज का विस्तार होने के कारण अब रिश्ता मिलने में कोई परेशानी नहीं होती है ।
कुछ स्थानों का विशेषकर अजमेर क्षेत्र में कहीं-कहीं नानी के गोत्र की अनदेखी होती है और नानी कानी कह देते है । इस विषय में थोड़ा विचार करना बहुत ही आवश्यक है ।
अब स्त्री एवम् पुरूष दोनों को समान अधिकार है । अत: पुरूष की माँ का गोत्र टाला जाता है तो स्त्री की माँ का गोत्र भी टालना भी न्यायोचित है इसमें भेदभाव करना उचित नहीं है । नानी, दादी से कम स्नेह नहीं रखती ।
वैसे जैविक विज्ञान की दृष्टि से भी देखा जाये और यह मान लें कि सन्तानोत्पत्ति में पुरूष का अंश 60% तथा स्त्री का 40% हो तो दोनों पीढ़ियों का प्रतिशत निकालने पर पुत्रजन्म में दादी व नानी दोनों का ही अंश 24, 24 प्रतिशत होगा किन्तु पुत्री जन्म में पुरूष का 40% और स्त्री का 60% अंश माना जाये तो उसमें तो दादी का अंश मात्र 16 और नानी का 36 अंश प्रतिशत होगा । अत: सन्तान का रिश्ता कायम करते समय दोनों ही पक्ष के गोत्रों को समान रूप से मानकर मातृ व पितृ पक्ष के दो-दो गोत्र ही टालना उचित व न्याय संगत होगा । यह भी देखा गया है कि नानी दादी से अधिक प्यार व स्नेह रखती है वह दोहिते को तो गोद में रखती है और पोते को अंगुली पकड़ाकर ही चलती देखी जाती है । अपराधी को भी यही कहते है कि चोर को क्यो मारो, चोर की नानी को मारो । कठिन काम पड़ने पर भी लोग कहते है कि अब नानी याद आ जायेगी । अत: नानी के गोत्र की अनदेखी उचित नहीं है । उसका गोत्र अवश्य टाला जाए ।
इसके अतिरिक्त हमारे समाज के पूर्वजों का पारस्परिक रिश्तों के सम्बंध में बहुत ही अच्छा दृष्टिकोण रहा है जिसकी अत्यधिक प्रशंसा की जानी चाहिए । हमारे ये विचार व दृष्टिकोण व अन्य अनेक हिन्दू जातियों से सर्वोत्तम है । इस विषय में नई पीढ़ि को तथा बोलचाल व व्यवहार में रिश्तों की अनेदखी करने वाले लोगों को, इस विषय की जानकारी देना आवश्यक है ।
साली का रिश्ता :- हम बड़े भाई को पिता के समान व छोटे भाई को पुत्रवत् मानते है इसी प्रकार महिलायें भी बड़ी बहिन को मातृवत व छोटी को पुत्री समान मानती है । इसी प्रकार अपनी अर्धांगिनी की छोटी बहिन को भी पुत्रीवत् व बड़ी बहन को बड़ सास यानी सासवत् मानते है ऐसी ही पत्नी भी जेष्ठ को पिता समान व देवर को पुत्रवत् ही मानते है रामचरित्र मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है कि-
”तात तुम्हारि मातु वैदेही, पिता राम सब भाँति स्नेही ।”
इसी प्रकार फिर कहा है कि –
अनुज बधु भगिनी सुतनारी, सुनहू सठ कन्या समचारी ।
इनही कुदृष्टि विलाकत सोई, ताहि बधे कछु पाप न होई ।।
इसलिये घर परिवार में किसी काम काज के समय साली को बुलाते है तथा उसको बहिन की तरह ही कपड़े देते है, कई लोग तो पूरी पहरावणी भी देते है, बल्कि मजबूरी में आवश्यकता होने पर कई लोगों ने तो अपने स्वयम् के खर्चें पर अपने घर पर साली का ब्याह रचा कर विदा भी किया है ।
इसलिए उक्त मर्यादा का पालन करते हुये हमारे समाज में साली से पुनर्विवाह नहीं करते । यदि किसी ने किया हो तो वह अनुचित व निन्दनीय है ।
भौजाई (भाभी) से रिश्ता :- हम लोग इसी प्रकार भौजाई को भी माँ के समान ही मानते है । यदि किसी लड़के के विवाह पूर्व उसकी माँ का स्वर्गवास हो चुका हो तो दुल्हे की बारात रवाना होने से पूर्व माँ के स्थान पर अपनी भौजाई का आंचल मुँह में लेकर आगे बढ़ता है । हमारे यहाँ बड़े भाई की मृत्यु हो जाने पर यह देखा गया है कि भौजाई को पत्नी रूप में स्वीकार नहीं करते उसे मातृवत् ही मानते है । यदि वह ससुराल में रहे तो उसको ससम्मान रखा जाता है और यदि वह पुर्नविवाह करना चाहे तो उसे पूरी छूट होती है किन्तु नाता या स्त्री का पुर्नविवाह करने वाली अनेक जातियों में तो देखने में आया है कि बड़े भाई की मृत्यु होने पर छोटा भाई हो तो भौजाई को देवर की चूड़ी पहनाकर पत्नी बना दी जाती है । कई देवर तो शादीशुदा भी ऐसा कर लेते है । कई जगह तो देवर भाभी की आयु में बहुत ज्यादा अन्तर होने पर भी रिश्ता कर देते है । यह बहुत ही अनुचित व निन्दनीय है । किन्तु हमारे समाज मे ऐसा रिश्ता नहीं करते । हमारे समाज में तो पूर्व रिश्ते की पवित्रता को बनाये रखते है जो बहुत ही उत्तम व प्रशंसनीय है ।
ब्याण-ब्याई बुढ़ा-बुढी का रिश्ता :- हमारे यहाँ से रिश्ते भी बहुत ही आदर्श रूप में कहने चाहिये । लड़के व लड़की के माता-पिता, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, बुआ-फूफा, मौसा-मौसी तथा मामा-मामी आदि एक पक्ष के दूसरे पक्ष को ब्याई व ब्याण यानी समधी जी व समधिन जी कहते है । यह समधी, समधिन समान रिश्ते होने पर ही बोलते है असमानता पर नहीं । अन्य सभी हिन्दू जातियों में ऐसा नहीं कहते है वे समान रिश्तों व असमान रिश्तों सभी में समधी समधिन ही कहते है ।
हमारे यहाँ रिश्तों के स्तर में यदि समानता नहीं हो तो बोलचाल व व्यवहार मे अन्तर किया जाता है जैसे लड़के व लड़की के सभी रिश्तों के बहिन भाई, विपरीत रिश्ते के बुजुर्गों को यानी उनके बहिन भाई के सास-ससुर व उनके समान रिश्तेदारों को बुढ़ाजी व बुढ़ीजी ही कहते है जबकि अन्य लोग ब्याई जी ही बोलते है । हमारे वे बुजुर्ग भी उन्हें पुत्र व पुत्री समान ही मानते है इसी तरह लड़की की ननद व देवरानी जिठानी केा भी पुत्री बतौर व जेठ देवर ननदोई को पुत्र व दामाद के समकक्ष मानते है । इसी प्रकार लड़के की साली व बड़मास को पुत्री समान व उसके साढू को पुत्रवत् मानते है । इसके विपरीत कई अन्य समाजों मे लड़के की साली व सालाहेली को भी ब्याण जी और वह भी उन्हें ब्याई जी ही कहते है, जबकि दोनों रिश्तों के स्तर में तो अन्तर होता ही है उम्र में भी चाहे चालीस-पचास वर्ष का अन्तर हो वे आपस में ब्याई-ब्याण ही कहते हैं । यह ठीक नहीं । हमारे यहां रिश्तों की समानता रखते हुये बुढ़ा-बुढ़ी कहना बहुत ही उत्तम व श्रेष्ठ बात है । इसमें स्वयं तथा बड़ों का पूर्ण सम्मान का ध्यान भी रखा गया है । इसी प्रकार ”साख में साढू व भोजन में लाडू” कहकर इस रिश्ते को बहुत ही मधुर सम्बंध बना दिया है । एक साढू दूसरे साढू को भार्इ-भाई के समान मानते है । साढू के माँ-बाप को माता-पिता और वे भी उसे पुत्रवत् मानते है । साढू के भाई-बहिन को वह भी भाई बहिन तथा भाभी को भाभी ही मानता है ।
अन्य रिश्ते :- चाचा-ताऊ के लड़के-लड़की तो आपस में बहिन-भाई होते ही है किन्तु बहन-भाई, बहन-बहन, व मामा-बुआ के लड़के भी आपस में बहन-भाई ही होते है और उनमें सगे बहिन-भाईयों जैसी ही आत्मीयता व मधुरता होती है । इसी प्रकार चाची-ताई की बहिन मौसी तथा उनके भाई-भौजाई भी मामा-मामी व भुआ की ननद व देवर आदि भी बुआ व फूफा ही माने जाते हैं । इनमें भी वैसी ही मधुरता व प्यार होता है और इसी प्रकार पारस्परिक व्यवहार में प्रेम व्यवहार होता रहता है ।
(साभार- श्री रूपचन्द्र जलुथरिया कृत ‘रैगर जाति का इतिहास’)
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