ज्ञान भजन प्रभाकर सटीक

भूमिका

प्रात: स्‍वमरणीय ब्रह्मनेष्टि श्री श्री 108, धर्मगुरू स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी महाराज को शतशत् नमन करता हूँ । सर्वप्रथम मेरा अपना कर्तव्‍य है कि मैं अपने सतगुरू महाराज को हृदय से श्रद्धांजली अर्पित करूँ ।

श्री ज्ञान भजन प्रभाकर के आधार पर ”ज्ञान भजन प्रभाकर सटीक” का प्रथम संस्‍करण प्रस्‍तुत करने का छोटा सा प्रयास किया जा रहा है । प्रस्‍तुत टीका संत महन्‍तों, सत्‍संग प्रेमियों एवं कतिपय प्रबुद्धजनों के आग्रह पर कुछ नवीनतम प्रणाली के भजनों की टीका का गठन कर किया गया है । आज संसार के समस्‍त प्राणी सुख शान्ति अभिलाषा करते हैं । अज्ञान के वश जीव ईश्‍वर से विमुख होकर चौरासी के जन्‍म मरण का महादुख भोगते हैं । इसलिए विचारशील व्‍यक्तियों को चाहिए कि भय, मैथुन, आहार, निन्‍द्रा आदि विषय वासनाओं के वशीभूत होकर यह सुरदुर्लभ मानव जीवन वृथा नष्‍ट नहीं करें और पद, हरिभजन, किर्तन श्रवणादि भक्ति से अपने जीवन को सार्थक बनाने का प्रयास करें ।

संसार से अज्ञान और असत्‍य होकर यदि सभी को ईश्‍वर ज्ञान और सत्‍य का परिचय हो जाय तो मानव मात्र दुख और अशांति से छुटकारा पाकर अपने जीवन लक्ष्‍य को प्राप्‍त कर सकता है । इस तथ्‍य को भलि-भांति समझकर सत्‍यज्ञान अंतरात्‍मा के तथा ईश्‍वर गुण गायक परम प्रसारक धर्मगुरू स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी ने अपने महान ग्रंथ ”भजन प्रभाकर” की महती रचना की जो आज भी युग प्रवर्तक है ।

स्‍वामी जी राम, हरि, निर्गुण, निराकार, ब्रह्मा आदि श‍ब्‍दों का प्रयोग परमात्‍मा अंतरात्‍मा के निमित्त करते हैं । वे द्वैतवाद, अलौकिकता तथा आडम्‍बर के विरोधी और जगत के मूल द्रव्‍यों जड़-चेतन के अपने स्‍वगत गुण धर्मों से मानते हैं । स्‍वामीजी सदाचार को पूजा मानते थे और जीवन के समस्‍त सद्गुणों का आचरण करना कल्‍याण का साधन मानते थे । वे समाज सुधार व अपनी योग्‍यतानुसार शिक्षा व प्रगति के पथ पर अग्रसर होने के लिए हर व्‍यक्ति के समान अधिकार के प्रबल समर्थक थे ।

स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी का बाह्माडम्‍बरों का खण्‍डन किसी मत या सम्‍प्रदाय विशेष के प्रति विरोध का सूचन नहीं था बल्कि वे सम्‍पूर्ण समाज में अज्ञान, अधर्म, कुसंस्‍कार की समाप्‍ति एवं शिक्षा के प्रसार के पक्षधर थे । वे चाहते थे कि मनुष्‍य अपने जीवन का लक्ष्‍य समझें और एक परमात्‍मा को अपना उपास्‍य देव मानकर मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हो । मनुष्‍य और मनुष्‍य के मध्‍य भेदभाव की दीवार को वे मानव मुल्‍यों के पतन और परस्‍पर द्वैष का कारण मानते थे । वे एक ऐसी सामाजिक व्‍यवस्‍था के समर्थक थे जिसमें व्‍यक्ति, देश काल, जाति वर्ग विशेष के आधार पर कोई भेदभाव या पक्षपात न हो । उनके भजन पद एवं सतसंग प्रवचन ही उनके अस्‍त्र थे जो आडम्‍बर व भेदभावविहीन सुसंस्‍कृत सामाजिक व्‍यवस्‍था का सन्‍देश जन जन तक पहुँचाते हैं और इसी के बल पर वे एक भगवान में आस्‍था, मानव मात्र की उन्‍नति, सुसंस्‍कार तथा समाज सुधार का मार्ग प्रशस्‍त करते हैं जो स्‍वामीजी का परम लक्ष्‍य था उनके विचार और दर्शन आज भी अनेकानेक सामाजिक बुराईयों के उन्‍मूलन के लिए प्रासंगिक हैं ।

स्‍वामी जी के भजन एवं पद समाज में दूर-दूर तक लोकप्रिय है । उनके प्रतिशील विचारों और वैराग्‍य से परिपूर्ण उनके गीतों के स्‍वर हर जगह लहराते हैं । उनका मन निश्‍छल तथा सत्‍य से ओतप्रोत था । अतएव उनके हृदय से वैसे ही वचन निकले और जन मानस में रचते बसते चले गये । समाज के सभी वर्गों व विभिन्‍न संप्रदायों के लोग स्‍वामीजी की गंभीरता को स्‍वीकारते रहे हैं और उनके सरल विचारों तथा सुग्राह्म भजनवाणी को पूर्ण मनोयोग से आत्‍मसात करते रहे हैं । ज्ञान भजन प्रभाकर की यथा सामर्थ्‍य टीका करने में मेरी श्रद्धेय स्‍वामीजी के प्रति कृतज्ञता तो है ही, इस निमित्त कुछ समाज सुधारकों, सत्‍संग प्रेमियों एवं प्र‍बुद्धजनों का आग्रह भी मेरे जीवन के उत्तरार्द्ध में यह प्रयास करने में उत्‍साहवर्धक रहा है । हस्‍तलिखित सामग्री को छपवाने में राजस्‍थान प्रशासनिक सेवा के सेवा निवृत्त वरिष्‍ठ अधिकारी श्री माधोलाल भट्ट एवं उनके सुपुत्र नरेन्‍द्र भट्ट का सहयोग रहा है । मेरे सुपुत्र ललित कुमार, आनन्‍द कुमार, गजराज, महेन्‍द्र कुमार एवं ईश्‍वर शरण जाटोलिया का सक्रिय सहयोग रहा है जिनका मैं हृदय से आभारी हूँ । अब यह पुस्‍तकाकार में छपकर उचित मूल्‍य पर आप प्रबुद्धजनों के कर कमलों में पहुँच रही है ।

स्‍वामी जी के तर्क, उनके विवेक की पराकाष्‍ठा और उनके सारगर्भित आध्‍यात्मिक विचारों को समझने के लिए यह टीका सहित भजन प्रभाकर सत्‍संगप्रेमियों, प्रबुद्ध पाठकों एवं आगजन के लिए भी सहयोगी बन सके तो मैं अपने सद्गुरू स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी के प्रति अपनी कृतज्ञता की सार्थकता एवं उनके सम्‍मान में किए गए इस तुच्‍छ प्रयास की सफलता समझूंगा । मेरे इस मामूली प्रयास में रही त्रुटियों एवं स्‍वामीजी महाराज के आध्‍यात्मिक विचारों की बहुआयामी गहनता की ओर मेरा ध्‍यानाकर्षण कर विद्वज्‍जन मेरे ज्ञान की अल्‍पता में कमी करने की महती कृपा कर मुझे अनुगृहीत करें तो मैं उन सब का आभारी होऊंगा ।

कुल पृष्‍ठ 335

मुल्‍य 70/-

दिनांक 03 मार्च, 2008

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महन्‍त सुआलाल तंवर (जाटोलिया) : (सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)
सुरजपोल गेट, रैगरान बड़ावास, ब्‍यावर, जिला अजमेर, पिन कोड – 305901
मोबाइल नम्बर 07597875327, घर – 01462-251017


◈ भजन वाणी ◈

करो संचय धर्म यही तेरे संग एक जावे ।। टेर ।।
कर्मभूमि है सुखदाई बीज वो सत्त सुकृत का ।
पिला जल प्रेम भक्ति से अटल पद मोक्ष फल पावे ।। 1 ।।
विषय सुख है क्षणिक जिसमें जनम अनमोल क्‍यों खोता ।
बने जो कर भजन जप तप पाप दु:ख दोष भग जावे ।। 2 ।।
मात पितु दास सुत नारी कुटुम्‍ब घर सम्‍पदा तन धन ।
अन्‍त में सर्व संग छुटे कोई तेरे काम नहीं आवे ।। 3 ।।
चलना दूर दिसावर को पास सामान कुछ करले ।
ज्ञानस्‍वरूप भज ईश्‍वर वक्‍त फिर हाथ नहीं आवे ।। 4 ।।

शब्‍दार्थ : संचय = इक्‍ठठा करना, सतसुकृत = ईश्‍वरीय शुभकर्म, अटल = स्थिर, क्षणिक = थोड़ा, खाता = नष्‍ट करना, सम्‍पदा = धन दौलत, दिसावर = दूसरे देश ।

भावार्थ : प्रिय साधकों मानव जीवन पाकर सतसंग ज्ञान, धर्म का ज्ञान प्राप्‍त करो यही अंत समय आपके साथ जायेगा । गुरू जी के उपदेशानुसार यह जगत ही कर्मभूमि है जहां आपको अपने सच्‍चे भले कर्मों का फल, उपकार करने का समय है जो आगे भी आपके साथ जायेगा । इसलिए भोजन, जल व सेवा भक्ति करो ताकि आपको स्‍थाई मोक्ष प्राप्‍ति का फल मिले । विषय वासना का सुख तो क्षणिक है इसमें आप अपना अमूल्‍य जीवन क्‍यों खो रहे हो इसे बेकार मत जाने दो, इसलिए जितना बन सके सतसंग, ईश्‍वर भजन तप आदि करो जिससे सांसारिक पाप दोष, दुख, भाग जावेंगे । याद रखों माता-पिता-पुत्र-पत्नी-भाई-बंधु-कुटम्‍ब परिवार सब लोग अपने स्‍वार्थ के साथी हैं । यह धन सम्‍पत्‍ती आदि सब यही पर छूट जायेंगे यह सब तेरे काम नहीं आवेंगे । अभी बहुत दूर दिवासर को जाना है काफी ऊमर व्‍यतीत करनी है इसलिए कुछ सामान सदाचार ज्ञान धर्म नीति व्‍यवहार गुरू शरण में बैठकर प्राप्‍त कर लो । स्‍वामी जी कहते हैं कि साधकों अपने आत्‍मस्‍वरूप का ज्ञान प्राप्‍त करने के लिए ईश्‍वर भक्ति करो हाथ से गया हुआ समय फिर नहीं आयेगा ।

(साभार : श्री ज्ञानभजन प्रभाकर सटीक – पेज नम्‍बर 17 – गजल ताल धमाल)


महन्‍त श्री सुआलाल जाटोलिया : एक परिचय

धर्मगुरू स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी के कृपा पात्र शिष्‍य श्री सुआलाल जी जोटोलिया (तंवर) का जन्‍म 3 अगस्‍त 1933 ई. केा रैगरान बड़ावास, ब्‍यावर में पिता श्री हंसराज जी जाटोलिया के एक अत्‍यंत साधारण से परिवार में हुआ । इनका जीवन कुसुम कंटकों में विकसित हुआ । इनकी माता श्रीमती बिरजी देवी इनके बाल्‍यावस्‍था में ही इन्‍हें पिता के हवाले कर स्‍वर्ग सिधार गई । पिता का सम्‍बल भी इन्‍हें लम्‍बे समय तक नसीब नहीं हो सका और वे इनकी किशोरावस्‍था में चल बसे, ऐसे में इनका जीवन दूभर हो गया, और शिक्षा अध्‍ययन बीच में ही छोड़ना पड़ा । उन्‍हीं दिनों राष्‍ट्रीयता व प्रगतिशील सामाजिक विचारों के उन्‍नायक इनके शिक्षा गुरू श्री सिद्धेश्‍वर शास्‍त्री के सम्‍पर्क एवं मार्गदर्शन से इनमें न केवल शिक्षा प्राप्ति को जारी रखने का साहस जाग्रत हुआ बल्कि किशोरावस्‍था से ही स्‍वावलम्‍बन व आत्‍मविश्‍वास की भावना का भी विकास हुआ । किसी ने ठीक ही कहा है, ‘निहायत तंगगस्‍ती में जो पढकर थाम ले, मीना उसी का है’ । श्री शास्‍त्री जी के मार्गदर्शन में इन्‍होंने हाई स्‍कूल परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी वर्ष बेसिक ट्रेनिंग पास करके ये राजकीय सेवा में अध्‍यापक बने । राजकीय सेवा में रहते हुए ही इन्‍होंने उत्तरोत्तर स्‍नातक, स्‍नातकोत्तर एवं बी.एड. उपाधियां हांसिल की । राजकीय सेवा में व्‍यस्‍त रहते हुए इनकी यह सफलता उनकी व इनके बाद की पीढ़ियों के उन नौजवानों के लिए प्रेरक, मार्गदर्शक उदाहरण है जो अपने कंधों पर बिना किसी खास जिम्‍मेदारी के होते हुए भी विद्यार्जन में ऐसी सफलता हांसिल नहीं कर पाते ।

आपके जीवन में काफी उतार चढ़ाव आये पर दृढ इच्‍छा शक्ति एवं उत्तरोत्तर प्रगतिपथ पर अग्रसर होते हुए कुछ कर गुजरने की धुन के धनी श्री सुआलाल जी के कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा । अपने आत्‍मबल, सूझबूझ, साहस दृढ़ता व धैर्य पूर्वक काम करते हुए उन्‍होंने न केवल राजकीय कर्तव्‍यों का निष्‍ठापूर्वक निर्वहन किया बल्कि अपने परिवार जनों में सामाजिक मर्यादा व उत्तम संस्‍कारों का बीजारोपण एवं विकास किया । जैसा कि यह माना जाता है, कि हर सफल व्‍यक्ति की सफलता के पीछे महिला का सहयोग भी महत्‍वर्पण होता है, श्री सुआलाल जी की बहु-आयामी सफलता के पीछे भी इनकी धर्मपत्नि श्रद्धेय श्रीमती गंगा देवी के सहयोग को भी कम महत्‍वपूर्ण नहीं आंका जा सकता । उन्‍होंने न केवल घर को पूरी तरह सम्‍हाला, अपने पति के अध्‍ययनकाल और फिर बाहरवास के दौरान परिवार की दैनिक जिम्‍मेदारियां बखूबी निभाई अपितु इन्‍हें स्‍वाभाविक तौर पर पढ़ने, सोचने, समझने और प्रगतिपथ पर निरन्‍तर अग्रसरित होते रहने में अनुकरणीय सहयोग दिया जिससे ये इतनी ऊचाईयों को छू सके । अन्‍यथा अधिकांश व्‍यक्ति राजकीय सेवा में अपने कार्य-समय के बाद परिवार के मामूली छोटे-मोटे कार्यों में ही इतने उलझे रह जाते हैं कि कुछ और सोचने और करने के लिए समय ही नहीं बचता ।

अपने सम्‍पूर्ण जीवन काल में आपने अपने व्‍यक्तित्‍व में तुलसी दास के इस कथन को चरितार्थ किया है – ‘सरल सुभाव छुयौ छल नाहीं ।’ वे ‘सादा जीवन और उच्‍च विचार’ सिद्धांत की प्रतिमूर्ति हैं । सरलता, सौम्‍यता और सद्भाव के धनी श्री सुआलाल जी स्‍वभाव से ही सुचिता हैं । आपके व्‍यक्तित्‍व में अध्‍यात्मिक उदात्‍तता और सात्विकता का अनोखा संगम सुदृष्‍य है जो इनके समान स्थिति वाले व्‍यक्तियों में दुर्लभ होता है । उनके व्‍यक्तित्‍व की बात करते समय गीता का यह श्‍लोक याद आता है – सद्भावे साधुवावे च सदित्‍येत प्रयुज्‍यते । आपने सादा जीवन और उच्‍च विचार के सिद्धान्‍त को वास्‍तविक अर्थों में आत्‍मसात किया और अपने सम्‍पर्क में आने वाले अन्‍य लोगों को भी इसके लिए प्रेरित किया । लम्‍बे समय तक राजकीय सेवा में रहते हुए प्रशासनिक कार्य एवं समाज सेवा में स्‍वार्थ इन्‍हें स्‍पर्श तक नहीं कर पाया । आपने अपने जीवन में अपने कर्तव्‍यों के प्रति सदा समर्पण भाव ही रखा और सरकारी सेवा और समाज में सुस्‍थापित सिद्धांतों के अनुरूप ही कार्य किया और सरकारी सेवा और समाज में सुस्‍थापित सिद्धांतों के अनुरूप ही कार्य किया और अब भी गिरते मानवमूल्‍यों की पुनर्स्‍थापना के प्रयास में जब भी मौका मिलता है, समाज को लाभान्वित करने का अवसर नहीं चूकते ।

राजस्‍थान लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित प्रधानाध्‍यापक परीक्षा में उत्‍कृष्‍ट परिणाम का दिन इनकी प्रेरणा का श्रोत बना, जिसने इनके जीवन को एक अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण मोड़ दिया । शिक्षा विभाग की सेवा में रहते हुए ये सीधे प्रधानाध्‍यापक पद पर नियुक्त हुए, तदन्‍तर पदोन्‍नत्ति पाकर प्राचार्य पद को सुशोभित किया और इसी पद से सेवा निवृत्त हुए । अपने सेवाकाल में अध्‍यापक, प्रधानाध्‍यापक और फिर प्राचार्य पद पर जगह-जगह पदस्‍थापित रहते हुए इन्‍होंने अपनी उत्‍कृष्ठ कार्य प्रणाली, व्‍यवहार कुशलता व वाक्चातुर्य की छाप छोड़ी एवं समाज के विभिन्‍न वर्गों की प्रशंसा एवं विश्‍वास हांसिल करते रहे । इन्‍होंने न केवल अपने सरकारी कर्तव्‍य मात्र की निष्‍ठापूर्वक पालना की अपितु सभी जगह समाज सेवा के क्षेत्र में भी अनेक अविस्‍मरणीय उदाहरण कायम किए ।

श्री सुआलाल जी ने समाज द्वारा सौंपे गये विभिन्‍न पदों पर रहते हुए निष्‍ठापूर्वक समाज की सेवा की । इनकी उत्‍कृष्‍ट योग्‍यता, निष्‍पक्षता, स्‍पष्‍टवादिता को स्‍वीकारते हुए इन्‍हें अखिल भारतीय रैगर महासभा का महामंत्री बनाय गया । समाज की निस्‍वार्थ सेवा, त्‍याग और मानवमूल्‍यों की पुनर्स्‍थापना के प्रति इनके सार्थक प्रयासों एवं इनकी योग्‍यता के सम्‍मान स्‍वरूप भारत के तत्‍कालीन महामहिम राष्‍ट्रपति ज्ञानीजेल सिंह जी ने इन्‍हे ‘रैगर विभूषण’ के आंलकरण से ताम्रपत्र प्रदान कर सम्‍मानित किया ।

समाज में ऐसे व्‍यक्ति विरले ही मिलते हैं जो पूरे समय निष्‍ठा एवं सफलता पूर्वक के राजकीय सेवा से निवृत्त होकर राजनीति में भी उतने ही सफल रहें । अपने जीवन के उत्तरायण में राजकीय सेवा से निवृत्ति के पश्‍चात् श्री सुआलाल जी ब्‍यावर नगर परिषद में पार्षद चुने गये और अपने पांच वर्षों के कार्यकाल में इन्‍होंने लगभग पूरे वार्ड में स्‍थाई महत्‍व के चिरप्रतीक्षित ऐसे कार्य करवाए जो आज भी इन्‍हें लोगों की प्रसंशा का पात्र बनाए हुए है । विचारशील लोगों ने आगे भी जनसेवा करते रहने का आग्रह किया, परन्‍तु राजनीति में घटते मुल्‍यों और स्‍वस्‍थ परम्‍पराओं के हृास के कारण इन्‍होंने अपने आप को राजनीति से अलग कर लिया और आम जन के हितार्थ, सामाजिक मूल्‍यों की पुनर्स्‍थापना, लोगों में फैले अंध विश्‍वास, समाज में व्‍याप्‍त कुरूतियों के प्रति लोगों को सचेत करने के लिए अपने आप को सत्‍संग भजन के प्रति समर्पित कर दिया और सत्‍संग के दौरान प्रवचनों को इसका माध्‍यम बनाया ।

इन्‍होंने गुरू महाराज ज्ञानस्‍वरूप जी से बाल्‍यकाल में ही दीक्षा ले ली थी । समय-समय पर स्‍वामी जी से भेंट हुआ करती थी, स्‍वामी जी सुप्रसिद्ध धर्म तत्‍वेत्ता, दार्शनिक, विद्वान, ईश्‍वर भक्त थे । उन्‍होंने श्री सुआलाल जी को तत्‍समय सुशिक्षित नवयुवक पाकर समय-समय पर आध्‍यात्मिक ज्ञान व भजन, सतसंग की ऐसी प्रेरणा दी जो इनके लिए सर्वथा अविस्‍मरणीय है । ”धन्‍य जन्‍म जगतीतल वासु परहित सर्व निछावर जासु” स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी समाज की उन इनी गीनी विभूतियों में से एक थे जिन्‍होंने समाज हित व परहित को अपने जीवन का लक्ष्‍य बनाया । ‘तमसो मां ज्‍योतिर्गमय’ उनका लक्ष्‍य था । उन्‍होंने सम्‍पूर्ण समाज को ज्ञान का प्रकाश दिया ।

स्‍वामी जी ने जीवन के किसी क्षेत्र को नहीं छोड़ा जो उनकी प्रतिभा की पहुँच में था । सौभाग्‍य से ऐसे कर्मयोगी, त्‍यागी महात्‍मा के शिष्‍य रहे श्री सुआलाल जी । यह पूज्‍य स्‍वामी जी के तप:पूत और तेजस्‍वी व्‍यक्तित्‍व के सानिध्‍य का ही परिणाम है कि आपने अपने सेवाकाल में जितनी सफलता और प्रसंशा प्राप्‍त की उससे कहीं अधिक सत्‍संग, प्रवचन, ज्ञानचर्चा, भजनों और वाणियों की आम जन को आसानी से समझ में आने वाली सरल से सरल भाषा में इस प्रकार सहज व्‍याख्‍या की कि ये लम्‍बे समय सन्‍यास ग्रहण किए सन्‍तों के भी प्रशंसा के पात्र हुए । सत्‍संगों में इन्‍हें न केवल गूढार्थ वाली वाणियों की व्‍याख्‍या करने के लिए प्रमुखता से अवसर दिया जाता है बल्कि अपने सरल किन्‍तु प्रभावोत्‍पादक प्रवचनों से ये आम जन के मन को छू लेने वाली बातों के द्वारा समाज सुधार के कार्य में भी अनवरत लगे हुए है । श्री सुआलाल जी ने न केवल टीका के रूप में यह साहित्‍य सृजन किया है, वे संगीत में भी निष्‍णांत हैं । उनकी गायन शैली अत्‍यंत मधुर, स्‍पष्‍ट एवं श्रोताओं को सुग्राह्म है । उन्‍होंने सत्‍संग की शाश्र्वत सार्थकता को हृदयंगम और आत्‍मसात किया और फिर उस शाश्र्वत सत्‍य को हृदय की समग्र निष्‍ठा से इस टिका में प्रस्‍तुत किया है ।

स्‍वामी ज्ञानस्‍वरूप जी द्वारा रचित ज्ञान भजन प्रभाकर में सम्मिलित भजन वाणियों की गहराई प्राय: आम जन की समझ के बाहर है । सुआलाल जी ने इसका सरल भावर्थ करके वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के आध्‍यात्मिक ज्ञानवर्धनक जो प्रयास किया है । बाह्म जगत का अन्‍तर्जगत से सम्‍बंध सत्‍संग के माध्‍यम से ही सम्‍भव है । अनुभूति प्रकाशित होने के लिए अनुभूति मांगती है – इसे ही दैहिक स्‍तर पर अनुभव कहते हैं । और मानसिक स्‍तर पर रचना प्रक्रिया । इस टीका के अध्‍ययन से यह स्‍पष्‍ठ है की श्री सुआलाल जी आध्‍यात्‍म, तत्‍वबोध और सत्‍संग की सार्थकता के पर्याप्‍त अनुभवी है । स्‍वानुभूति के रस में सुग्राह्म शब्‍दों को निमग्‍न कर जिस सरलता से इन्‍होंने यह टीका प्रस्‍तुत की है, वह आमजन के दिलोदिमाग में सत्‍संग की सार्थकता को पुन: प्रमाणित करने के लिए पर्याप्‍त है । मुझे इसमें सबसे बड़ी विशेषता यह लक्षित हुई कि इसमें कहीं भी व्‍यर्थ शबदाडम्‍बर एवम् आत्‍मश्‍लाघ नहीं है । मिश्री के कूंजे की भांति सम्‍पूर्ण टीका अत्‍यंत मधुर और प्रभावक है । यह टीका साहित्‍य, संगीत और अध्‍यात्‍म का ऐसा संगम है जो न केवल साहित्‍यविदों, संतों, चिन्‍तकों, जनसेवकों के लिए सहायक सिद्ध होगी अपितु इसमें जीवन के प्रत्‍येक पक्ष का ऐसा समुज्‍जवल स्‍वरूप प्रस्‍तुत हुआ है कि वह आम जन के लिए प्रेरणा का श्रोत और अपने जीवन को सार्थक बनाने का माध्‍यम बन सकेगी ।

श्री सुआलाल जी के द्वारा यह टीका लिखने का प्रमुख कारण स्‍वामी जी के प्रति आस्‍था समाज कल्‍याण तथा समाज की सुव्‍यवस्‍था के लिए गुरूजनों, अपने बड़ों का आदर, विद्वानों का सम्‍मान, माता-पिता के प्रति श्रद्धा, छोटों के प्रति प्रेम है । श्री सुआलाल जी एक शिक्षक, राजनीतिज्ञ, सत्‍संगी, साहित्‍यकार, उत्‍कृष्‍ट काव्‍यगायक, आध्‍यात्‍म चिन्‍तक, समाज सुधारक के साथ-साथ एक सुहृदय मानुष भी हैं । इतनी विशिष्‍टताएं एक ही व्‍यक्ति में होना उनके लिए सौभाग्‍य की बात है तो हमारे समाज के लिए गर्व की । श्री सुआलाल जी के व्‍यक्तित्‍व और उनके द्वारा इस टीका की आत्‍मविभोर प्रस्‍तुती ने हमारे रैगर समाज को गौरवान्वित किया है । आपकी वृद्धावस्‍था से अप्रभावित रह कर आपकी सृजनशील यात्रा समृद्धतर हो, आप सत्‍संग की सार्थकता को और अधिक अनुप्रमाणित करते रहें, यही मन: कामना है !

परिचय अनुवादक
एम.एल. भट्ट,
सेवानिवृत्त आर.ए.एस. अधिकारी,
बी-21, सरस्‍वती नगर, जोधपुर

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