पुरूषों का पहनावा और जेवर

रैगर जाति में काम करने का अलग पहनावा:- रैगर जाति चमड़े की रंगत करने के कारण सर्वण हिन्दु इसे एक शुद्र व अछूत जाति ही मानते थे। इन के कपड़े प्रायः गन्दे और फटे हुये ही हुआ करते थे। उस जमाने में रैगर जाति के लोग मोटा सूत से बना हुआ ही कपड़ा पहना करते थे। कपड़ो का इतना अभाव था कि रैगर महिलायें और पुरूष कपड़ो की दो जोड़ी से अधिक नही रखा करते थे। एक कपडो की जोड़ी को विशेष माना जाता था जिसे वे किसी स्थान या बक्से में रखा करते थे। इन कपडो को विशेष प्रकार के अवसरो पर ही पहना जाता था। मैने स्वयम् रायसर गांव में देखा कि रैगर जातिध् के लोग फटे व मेले कुचली सफेद कमीज और सफेद धोती पहन कर रंगत किया करते थे। वे चमड़ा रंगने के लिये बनाई गयी ‘कुण्डी‘ की जमीन से लगती हुयी छोटी डोली अर्थात छोटी दीवार के साथ बैठ कर हुक्का या बीड़ी पीते रहते थे। इस ‘कुण्डी‘ में जानवर की खाल पकाने के लिये जो पानी भरा रहता था उस पानी के कुण्डी में टपकने से बहुत बुरी बदबू आया करती थी। इस के अलावा मैने रैगर पुरा दिल्ली में भी ‘आढे‘ देखे थे। वास्तव में जब करोल बाग बसाया गया था तो उस में जानवर की खाल रंगने के लिये अर्थात ‘आढे‘ के लिये कुछ प्लाट जो 80 गज या इस से अधिक के थे वे भी रैगर जाति के लोगो को दिये गये थे। मैने बचपन में देखा कि जब जानवर की खाल पक जाया करती थी तो उस में कीकर की पीसी हुयी छाल जिसे ‘बूचा‘ कहा जाता था उसे कई रैगर महिलायें बहुत कम कीमत देकर ‘आढे‘ से खरीद लाया करती थी और उसे गली में फैला कर सुखा दिया करती थी। मेरे बचपन की गली नम्बर 50 रैगर पुरा में कई बार ‘बूचा‘ सुखाते हुये रैगर महिलाओ को मैने देखा था। पूरी गली में बहुत बदबू हो जाया करती थी। ‘बूचा‘ सूखने के बाद ष्रात को ‘सीगड़ी‘ में आहिस्ते आहिस्ते जलता रहता था और पूरा परिवार इस ‘सीगड़ी‘ के चारो तरफ सर्दी में बैठ कर अपनी ठंड दूर भगाने का प्रयास करता रहता था। कई बुजूर्ग महिलाये तो इस सीगड़ी के आगे कोई छोटी ‘गूदड़ी‘ औढ कर बैठ जाया करती थी। परिवार की इस ‘सीगड़ी‘ के आगे बातचीत के दौरान एक बुजूर्ग महिला कोई कहानी सुनाया करती थी। मैं भी मेरे बचपन में कहानिया सुनता रहता था तथा कहानी के दौरान ही ‘हां‘ ‘हां‘ करता रहता था जिस से कहानी सुनानी वाली बुजूर्ग महिला को यह लगता था कि मैं कहानी सुनने के दौरान सोया नही हूं। इस ‘बूचे‘ की बात को यंहा लिखने का मेरा अभिप्राय यह है कि उस जमाने में रैगर महिलाये ‘बूचा‘ गली में फैलाते समय अपनी पुरानी ‘घाघरी‘ व पुरानी ‘लूगड़ी‘ ही पहन कर यह काम करती थी। उसे मालुम था कि ‘बूचा‘ फैलाने के दौरान जानवर की खाल के रंगने में प्रयोग लिया गया कीकर की पिसी हुयी छाल जिसे ‘बूचा‘ कहा जाता था उस के गीलेपन से उस के कपड़ो में बहुत बदबू आ जायेगी। जब ‘बूचा‘ सूख जाया करता था तो महिला झाड़ू से एकत्रित कर अर्थात ‘सौर‘ कर अपने घर के आगे इक्कठा कर लिया करती थी। इस कार्य में पुरूषो का कोई योगदान नही हुआ करता था। परन्तु जब कभी कोई परिवार में शुभ कार्य सम्पन्न होता था तो महिला अपने दूसरे नये कपड़े पहन कर उस में सम्मिलित होती थी। इसी प्रकार पुरूष वर्ग भी दूसरे कपड़े डाल कर परिवार के अथवा अन्य किसी शुभ कार्य में शामिल हुआ करता था। उस जमाने में घर में कोई अलमारी नही हुआ करती थी। इस लिये रैगर पुरूष और महिलायें अच्छे समझे जाने वाले कपड़ो को या तो खूंटी में टांग कर रखती थी अन्यथा किसी लोहे के बक्से में दबा कर रखती थी। इस प्रकाऱ काम करने के अलग कपड़े और शुभ कार्य में सम्मिलित होने के अलग कपड़े हुआ करते थे। उस जमाने को मैने देखा है जिस में रैगर पुरूष व महिलायें ‘मोटा सोचती थी, मोटा पहनती थी और मोटा खाती थी।‘ यह ही रैगर जाति की जीवन जीने की एक कला थी जिस में संतोष और सुख भरपूर भरा हुआ था। दो जोड़ी कपड़ो में जो आनन्द आता था वह आज कई प्रकार की ष्वेशभूषा रखने में भी आनन्द और सुख नही प्राप्त होता है।

रैगर पुरूषो के पहनावे में अन्य सभ्यताओं के असर:- यह वह समय था जब भारत स्वतन्त्र हो गया और दिल्ली में पाकिस्तान से पंजाबी शरणार्थी आकर बसने लग गये। उस समय तक रैगर जीवन शैली पर पाकिस्तान व पंजाब के पहनावे को कोई असर नही हुआ था। रैगर जाति के लोग दिल्ली में मूलतः राजस्थान से आये थे अतः उन के पहनावे व रीति रिवाजो पर राजस्थान की संस्कृति का ही असर विद्यमान रहा था। अंग्रेजी शासन काल में भी रैगर पहनावे में कोई अंग्रेजी सभ्यता का असर देखना नही मिलता। मैंने सन् 1947 के पहले और कई वर्षो बाद तक रैगर जाति के लोगो के पहनावे में इस्लाम व अंग्रेजी सभ्यता को कोई असर नही देखा था। मैने देखा था कि प्रायः रैगर समाज के पुरूष धोती और कमीज पहनते थे। किसी प्रकार की पतलून और उस के अन्दर डाली गयी कमीज का रिवाज नही था। तब तक रैगर जाति के नवयुवको में पायजामा पहनने को रिवाज आ गया था।

रैगर जाति की ‘बन्डी‘ व ‘अंगरखी‘:- राजपूत जीवन शैली में ‘अंगरखी‘ का बड़ा महत्व होता था। ‘अंगरखी‘ कटार या अन्य छोटा धारदार हथियार कमर में बांधने के लिये राजपूत यौद्वाओ द्वारा पहनी जाती थी। ‘अंगरखी‘ राजपूत पहनावा का एक अभिन्न भाग हुआ करती थी। रैगर जाति का उदगम भी मूलतः राजस्थान से ही हुआ है अतः रैगर जाति की वेशभूषा में राजपूत संस्कृति का प्रभाव आना आवश्यक था। ‘अंगरखी‘ का पहनना राजपूत शासन काल के अतिम समय से ही हुआ है। इस का अभिप्राय यह है कि रैगर जाति द्वारा ‘अंगरखी‘ पहनने का रिवाज उन्नीसवीं शताब्दी के अंितम दौर से ही हुआ था। इस दौर में अंग्रेज शासको की वेशभूषा को राजपूत शासक अपना चुके थे अतः उन्होने ‘अंगरखी‘ के बदले रूप को रैगर समाज द्वारा पहनने से सम्भवतः कोई एतराज नही किया होगा। इस प्रकार रैगर जाति के लोगो द्वारा साधारण किस्म की कमीज पहनने के बदले रूप वाली ‘अंगरखी‘ पहनना प्रारम्भ किया। इस अंगरखी में कटार तथा अन्य धारदार हथियार रखने का कोई स्थान नही हुआ करता था। इस के पहनने से ष्बदन चुस्त लगने लगता था परन्तु यह साधारण सूत के कपड़े की बनी हुई होती थी। इस में किसी भी प्रकार की कोई सजावट नही हुआ करती थी जब कि राजपूत ‘अंगरखी‘ में सजावट के अलावा हथियार रखने के भी स्थान हुआ करते थे। रैगर जाति द्वारा जो ‘अंगरखी‘ में पहनने में बदलाव किया गया उस को बदलाव को देखते हुये इसे ‘बन्डी‘ भी कहा जाने लगा। यह भी ‘अंगरखी‘ का विकसित रूप ही कहा जा सकता है। ‘बन्डी’ में बाकयदा अन्दर की तरफ जेबें होती थी। इस का कारण यह था कि रैगर जाति के लोग जानवर की खाल रंगने के लिये खरीदने और जूती बना कर बेचने के लिये ‘बन्डी‘ की अन्दर की जेबो का उपयोग कर अपने पैसो को सुरक्षित रख लिया करते थे। इस प्रकार रैगर जाति द्वारा ‘बन्डी‘ व ‘अन्गरखी‘ पहनने का रिवाज राजपूत सभ्यता से ही लिया गया था जिस में ‘अंगरखी‘ पहनना उस जीवन शैली का एक अभिन्न अंग रहता था। वास्तव में जब कोई राजपूत किसी लड़ाई के लिये जंग के मैदान में जाता था जो प्रायः वह ‘अंगरखी‘ ही पहन कर युद्व में जाया करता था। इस लिये रैगर जाति में भी ‘बन्डी‘ व ‘अंगरखी‘ पहनने का रिवाज राजपूत जाति से ही ग्रहण किया गया था।

धोती:- राजपूत शासक अपन शरीर की छाती को अंगरखी से ढका करते थे। वे इस के साथ अपने पांवो में धोती पहना करते थे। यह इस तरह से पहनी जाती थी कि लड़ाई या अन्य कठिन समय में किसी भी रूप में नही खुले। रैगर जाति में भी धोती पहनने की परम्परा राजपूत शासको से ही ग्रहण करी थी। इस प्रकार पुराने समय में रैगर समाज के लोग घुंडीदार अंगरखी और धोती पहना करते थे। धोती प्रायः सूती लठ्ठे की हुआ करती थी। रैगर जाति में उस समय निर्धनता थी अतः लम्बी पूरी धोती नही पहन कर उस के दो टुकड़े कर लिया करते थे। इस प्रकार एक धोती प्रायः तीन-चार फुट की बांधने हेतु हो जाया करती थी। दूसरी धोती को धोकर सुखा दिया करते थे। इस प्रकार अपना जीवन बसर आसानी से हो जाया करता था।

पग, साफा और पगड़ी के प्रकार:- वास्तव में पगड़ी पहनने का रिवाज राजपूतो द्धारा प्रारम्भ किया गया था। उदयपुर की उमराव पगड़ी, जयपुर रियासत का शाही साफा, जोधपुर का शाही जसवन्त पेच, सामौद, टोंकी, धोलपुरी, जालोरी और मालानी पगड़िया राजस्थान की संस्कृति को बताती है। चन्देरी, लहरिया, मोठड़ा, पचरंगा और सतरंगा से विभिन्न प्रकार की पगड़ियो का पता पड़ता है। जयपुर के शाही परिवार में पाग लफदार और शाहीगढ पाग आज भी प्रसिद्ध पगड़ी है। जोधपुर में दुल्हा शादी के लिये घोड़े पर बैठते समय साफा पहनता है जो 27 फीट लम्बा और 41 इन्च चैड़ा होता है। जब लड़ाई के लिये योद्धा जाते थे तो उन के साफे को ‘अमशाही साफा’ कहा जाता था। रैगर समाज के व्यक्तियो को इन को पहनने की राज के द्धारा सख्त मनाही थी। परन्तु आज के युग में किसी मेहमान, नेता अथवा विशेष व्यक्ति को पगड़ी या साफा पहना कर उस का स्वागत किया जाता है। यंहा तक कि आज के युग में बारातियों को भी रैगर समाज की बारात में राजस्थानी पगड़ी पहनाने का रिवाज है।

फैंटा, पगड़ी और साफा में अन्तर:- फैंटा, साफा और पगड़ी में अन्तर होता है। पगड़ी और साफा बांधने में भी बहुत अन्तर है। ‘पगड़ी’ में कपड़ा काफी ज्यादा होता था तथा ‘साफे’ में कपड़ा कम होता था। साफा दस गज लम्बा और सवा गज चोड़ा अर्थात 1.25 गज चैड़ा होता है जब कि पगड़ी बीस गज लम्बी और सात इन्च चैड़े कपड़े की होती है। पगड़ी बांधने के लिये भी विशेष प्रकार की योग्यता व तकनीकि ज्ञान होना आवश्यक है। फैंटा दो हाथ लम्बा होता है। साफा नौ मीटर लम्बा होता है। पगड़ी प्रायः ऊंची जाति के लोग ही पहना करते थे जो विभिन्न रंगो और प्रकारो जैसे पंचरगी पगड़ी, लहरिया पगड़ी, केसरिया पगड़ी आदि की हुआ करती है। सिर पर बांधे गये फैंटे, साफे और पगड़ी से व्यक्ति की सामाजिक स्थिति और जाति का पता लग जाता था। इन को सिर पर पहनने से तत्कालीन राजपुताने में किस क्षेत्र का वह व्यक्ति है, इस का भी पता चल जाता था। पगड़ी के रंग से व्यक्ति की मानसिक स्थिति का भी पता पड़ जाया करता था। चमकीली रंग बिरंगी पगड़ी से किसी त्यौहार और अच्छे समय का भी अंदाज लगाया जा सकता था जब कि गहरे रंग जैसे मैरून और खाखी रंग साधारण पहनावे के समय को ही बताती थी। खाखी रंग की पगड़ी आमतौर से राजपूत ही पहना करते है। मेवाड़ी पगड़ी को बांधने का तरीका मारवाड़ी पगड़ी से अलग होता था। इसी प्रकार से शेखावाटी क्षेत्र में पगड़ी अलग किस्म से बांधी जाती थी। रैगर समाज के व्यक्ति प्रायः दो रंग के ही फैंटे पहनते थेा जो पीले और सफेद रंग के ही हुआ करते थे। यह माना जाता था कि जिस के पिता का स्वर्गवास हो गया है वह सफेद रंग का और जिस का पिता जीवित है वह पीले रंग का साफा या फैंटा पहना करता था। प्रायः रैगर नवयुवक फैंटा या साफा नही पहनते थे। केवल अधेड़ और बुजुर्ग ही अपने सिर पर फैंटा पहना करते है। इस के अलावा रैगर समाज के व्यक्ति को साफा और पगड़ी पहनने की तत्कालीन रियासतो के राजपुत राजाओ और ठिकानेदारो द्धारा मनाही हुआ करती थी।

पगड़ी की रस्म का महत्व:- रैगर जाति में पगड़ी की रस्म उस समय होती है जब किसी व्यक्ति के पिता का देहान्त हो जाता है और उस घर का सब से बड़ा बेटा परिवार की सारी जिम्मेवारियो को निभाने के लिये समाज के सभी व्यक्तियो के सम्मुख ‘पाटे’ पर बैठकर अपने रिशतेदारो की ओर से पहनाई गई पगड़ी को अपने सिर पर पहनता है। इस प्रकार की पगड़ी सफेद रंग की ही हुआ करती है। यह पगड़ी की रस्म अपने दिवंगत पिता के प्रति आस्था, इज्जत, व्यक्तिगत विश्वास और परिवार की जिम्मेवारियो को निभाने का फैसला, साहस और आत्मिक शक्ति को प्रर्दशित करती है। यह रस्म आज भी रैगर समाज में किसी के पिता के स्वर्गवास होने पर निभाई जाती है।

रैगर जाति का फैंटा:- पहले के समय में रैगर पुरूषो द्वारा अपने सिर पर फैंटा पहना जाता था। फैंटा सूती कपड़ा हुआ करता था जो सिर के चारो ओर लपेटा जाता था। उस जमाने में रैगर जाति के बुजूर्ग लोग सफेद या पीले रंग का मोटे सूत का फैंटा सिर पर पहना करते थे जो प्रायः काफी समय तक पहनने के कारण फट जाया करता था। इस लीर लीर हुये फैंटे से यह अन्दाज लगाना आसान हो जाता था कि फैंटा पहनने वाला कोई गरीब दलित जाति का व्यक्ति है।

देसी जोडी:- पुराने जमाने में रैगर पुरूष के सिर पर फैंटा, सफेद रंग की सूती कपड़े की कमीज या ‘बन्डी‘ तथा पांव में छोटी धोती ही हुआ करती थी। इस वेशभूषा पर पुरूष वर्ग देसी चमड़े की जूती जिसे ‘जोड़ी’ भी कहा जाता था पहना करते थे। रैगर महिलाओ की ‘जोड़ी‘ अर्थात जूतियों पर रंग बिरंगे सूत के धागो से कलात्मक रूप से कारीगरी की हुई होती थी। समय के बदलाव के साथ-साथ धीरे धीरे रैगर जाति में भी चप्पल-जुते पहनने का रिवाज आ गया था।

जेवर पहनने की मनाही व बदलाव:- रियासती काल में रैगर पुरूष व महिलाओं को किसी भी प्रकार के गहने पहनने की मनाही थी। परन्तु इस व्यवस्था में बदलाव जब ही सम्भव हो पाया जब भारत आजाद हो गया और राजपूत शासन का अन्त हो गया। इस बदलाव के कारण रैगर पुरूष वर्ग कानो में सोने की ‘मुर्की’ और कमीज में सोने के ‘बटन‘ भी पहनने लगा था परन्तु यह केवल अमीर रैगर
द्वारा ही पहना गया गहना था। इस के साथ साथ कई पुरूष अपनी अंगुली में सोने या चांदी की
‘अंगुठी‘ भी पहना करते थे। बाद के समय में दिल्ली में रैगर जाति की नयी पीढी के कई नवयुवकों ने गले में सोने की चेन पहनने का भी रिवाज स्वीकार कर लिया था जिस से वे अपनी सृमिद्ध को दिखा सके।

आर्य समाज के कारण रैगर वेशभूषा में बदलाव:- इतिहास के पन्नो को मेने देखा तो यह पाया गया कि दिल्ली में एक ऐसा दौर भी आया था जब रैगर समाज में आर्य समाज काफी लोकप्रिय हो गयी थी। वास्तव में सन् 1914 में स्वामी मौजी राम महाराज की सनातन धर्म सत्संग सभा रैगर समाज में सनातनी धर्म के सिद्वान्तो का काफी प्रचार कर चुकी थी। सनातन धर्म मूलतः हिन्दु धर्म की रूढिवादिता में विश्वास रखता था। इन रूढिवादी परम्पराओं के विरोध में वर्ष 1914 में ही महात्मा नारायण स्वामी की अध्यक्षता में रैगर समाज में आर्य समाज की स्थापना की गयी। उस समय रैगर जाति में आर्य समाज के मुख्य समर्थक व प्रचारक चै. कैन्हया लाल रातावाल, मोहन लाल कांसोटिया पटेल, चै. ग्यारसा राम चान्दोलिया, प्रभुदयाल रातावाल आदि थे जिन का सनातन धर्म सत्संग सभा के रूढिवादी लोगो ने काफी विरोध प्रारम्भ कर रखा था। मुझे मेरे बचपन में मेरे बुजुर्गो ने साफ बताया था कि आर्य समाज में विश्वास रखने वाले रैगर जाति का नवयुवक वर्ग कुर्ता और पायजामा पहनने लग गया था जिस का सनातनी रैगरो ने काफी विरोध किया था। इन दोनो के बीच कई बार आपस में झगड़े भी हुये। सनातनी विचार धारा रखने वाले रैगर जाति के व्यक्तियो द्वारा कुर्ता और पायजामा पहनने वालो को असामाजिक तत्व मान कर सामाजिक बहिष्कार भी किया जाता था। बाद के सालो में कुर्ता और पायजामा पहनने का रिवाज समाज में स्वीकार हो गया और नवयुवक वर्ग द्वारा सिर पर साफा पहनना भी बन्द हो गया। इस संबंध में प्रोफेसर श्यामलाल अपनी पुस्तक Untouchable Castes in India  –  The  Raigar  Movement  (1940-2004) में लिखते हैं -‘Delhi  Raigar excommunicated the

आज का समय. आजकल तो अन्य नागरिको की तरह कमीज-पेन्ट, सूट आदि पहना जाता है जो बिल्कुल ठीक है क्यों कि समाज पहनावे में अन्य समाजो से अलग नहीं दिख सकता। आजकल का पहनावा विश्वास और जागृति का प्रतीक है।

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