रैगर संस्कृति में रिशतो का महत्व

रैगर संस्कृति की जीवन शैली में रिशते. रैगर जाति में रिशते निभाने की बहुत अच्छी परम्परा है। ये रिशते ही रैगर संस्कृति के अभिन्न अंग है। इन रिशतों के आधार पर ही रैगर जाति हर प्रकार के अत्याचार सहते हुये भी युग युगो तक जीवित रही है। आज के इस आधुनिक युग में भी रैगर जाति में आपसी रिशतेदारी निभाई जाती है। रैगर जाति के लोग राजस्थान से निकल कर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, मघ्य प्रदेश और भारत के कई भागो में जाकर बस गये है परन्तु इन में अपनी जाति के प्रति अभी भी प्यार मौजुद है। रैगर संस्कृति में कुछ रिशतों की मुख्य विशेषतायें निम्नलिखित प्रकार से है:-

  1. सगाई-विवाह का रिशता करने से पहले गोत्र मिलाना- रैगर जाति में किसी भी युवक और युवति की सगाई करने से पहले अपने स्तर पर यह जानना जरूरी होता है कि उस लड़की और लड़के के गोत्र कौन कौन से है। इस गोत्र मिलाने की परम्परा में यह देखा जाता है कि लड़के और लड़की के गोत्र कंही आपस में टकरा तो नही रहे। रैगर जाति में दोनो पक्षो के चार-चार गोत्र मिलाये जाते है। इन मे दो गोत्र पितृ पक्ष के अर्थात खुद का व दादी का तथा दो गोत्र मातृ पक्ष के अर्थात मां व नानी का गोत्र मिलाया जाता है। इस के अलावा परिवार में मां व दादी दो-तीन भी आई हो तो उन का गोत्र भी टाला जाता है। यदि पिता कंही गोद गया हो और उस के वंहा की पगड़ी बंधी हो तो उन का अर्थात जंहा वह गोद गया है वहां का गोत्र भी टाला जाता है। यदि किसी कारण से बाद में यह मालुम हो जाये कि कोई गोत्र आपस में मिल रहा है तो सगाई तक छोड़ दी जाती है। यदि गलती से किसी गोत्र के मिलते हुये होने के कारण विवाह हो भी जाये तो समाज में इसे अच्छा नही समझा जाता। आजकल आपस में विवाह करते समय कई स्थानो पर नानी का गोत्र टालने लग गये है जिस की अच्छाई और बुराई दोनो ही है। इसे ‘नानी काणी‘ कहा जाने लगा है।
  1. बड़े भाई को पिता समान और छोटे का पुत्र समान मानना- रैगर जाति में बड़े भाई का पिता समान और छोटे भाई को पुत्र समान का संबध माना जाता है। बड़ा भाई अपने छोटे भाईयों को अपने बेटे समान मानते हुये उन की शिक्षा, विवाह तथा अन्य खर्चो तक को वहन करता है। छोटे भाई भी अपने बड़े भाई को पिता तुल्य मानते हुये उस का कहना मानते है तथा पिता के बराबर ही इज्जत देते है। यदि पिता की मृत्यु हो जाती है तो बड़ा भाई ही छोटे भाईयों का विवाह आदि सम्पन्न करवाता है।
  1. नन्द-भोजाई का बहनो समान रिशता- रैगर जाति में नन्द की भाभी का अपनी बड़ी बहिन समान इज्जत करती है। भाभी भी नन्द को अपनी बड़ी बहिन मानते हुये उस का पूरा सम्मान करती है। इस प्रकार रैगर जाति में नन्द-भौजाई सगी बहिनो के समान ही रिशता निभाती है।
  1. साली का रिशता- रैगर जाति में छोटी साली को छोटी बहिन के समान माना जाता है। परिवार में किसी भी कामकाज के समय बड़ी और छोटी सालीयों को भी बुलाते है। बड़ी साली को बड़ी ‘साळायळी‘ (सालाहेली) कहा जाता है। इस प्रकार रैगर जाति में साली के रिशते को बड़ा ही पवित्र माना गया है।
  1. भौजाई का मां समान रिशता- रैगर समाज में भौजाई को मां के समान मानते है। यदि किसी लड़के की मां का स्वर्गवास हो जाता है तो उस के विवाह के समय जब वह दुल्हा बनता है और दुल्हे की बारात रवाना होने से पहले वह मां के स्थान पर अपनी भौजाई को मां मान कर उस के आंचल में मुंह लेकर स्तनपान करने के उपरान्त ही बारात लेकर रवाना होता है। रैगर जाति में यह भी मान्यता है कि यदि बड़े भाई का देहान्त हो जाता है तो उस की पत्नी जो भौजाई होती है उस से छोटा भाई विवाह नही करता क्यों कि रैगर जाति में भौजाई को मां का ही दर्जा मिला हुआ है। यदि भौजाई विधवा हो गई है और वह पुर्नविवाह अर्थात ‘नाता‘ करना चाहती है तो उस के पुर्नविवाह पर उस के सुसराल वाले कोई एतराज नही करते। रैगर संस्कृति में यह भी आवश्यक है कि विधवा होने के बाद जिस गोत्र में पहले विवाह हुआ है उस गोत्र में वह नाते पर करने वाली स्त्री पुर्नविवाह नही कर सकती। कई जातियों में देवर की चूड़िया पहना दी जाती है लेकिन रैगर जाति में देवर ही नही अपितु उस गोत्र में भी नाता अर्थात पुर्नविवाह नही किया जाता है।
  1. ब्याण-ब्याई और बुढ़ा-बुढ़ी का रिशता- रैगर जाति में लड़के लड़की के माता- पिता, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, बुआ-फूफा, मौसा-मौसी, मामा-मामी आदि एक पक्ष के दूसरे पक्ष को ‘ब्याई‘ व ‘ब्याण‘ यानी ‘समधी-समधिन जी‘ कहते है। यह समधी समधिन समान रिशते होने पर ही संबंध होने के बाद ही विवाह संबंधी बातचीत करते है। रैगर समाज मे रिशतेदारी के आधार पर ही बोलचाल व व्यवहार में अन्तर किया जाता है जैसे लड़के व लड़की के सभी रिशतों के बहिन भाई, विपरीत रिशते के बुजुर्गो को यानी उन के बहिन भाई के सास-ससुर व उन के समान रिशतेदारोे को ‘बुॅडा जी‘ और ‘बुॅडी जी‘ कहते है। इसी प्रकार रैगर जाति के बुजुर्ग भी उन्हे पुत्र पुत्री समान ही मानते है। इसी तरह लड़की की ननद व देवरानी, जिठानी को भी पुत्री बतौर व जेठ देवर ननदोई को पुत्र व दामाद के समकक्ष मानते है। इसी प्रकार लड़के की साली व ‘बड़मास‘ को पुत्री समान व उस के ‘साढु‘ को पुत्रवत् मानते है। रैगर समाज में बुढ़ा बुढी कहने से बड़े व बुजुर्गो की इज्ज देने की परम्परा का निर्वहन होता है। एक कहावत बहुत ही प्रसिद्व है:साख में साढु व भोजन में लाडू‘। यह साढु भाईयों में आपस के प्रेम की द्योतक है। एक साढु दूसरे साढु को भाई-भाई के समान मानते है। साढु के मां-बाप को माता-पिता और वे भी उसे पुत्र समान ही मानते है। साढु के भाई-बहिन को वह भी भाई बहिन तथा भाभी को भाभी ही मानता है।
  1. चाचा-ताऊ आदि के बच्चो के रिशते- चाचा-ताऊ के लड़के-लड़की तो आपस में बहिन-भाई होते ही है किन्तु बहिन-भाई, बहिन-बहिन, व मामा-बुआ के लड़के भी आपस में बहिन-भाई ही होते है और उन में सगे बहिन भाईयों जैसी ही आत्मीयता व मधुरता होती है। इसी प्रकार चाची-ताई की बहिन मौसी तथा उन के भाई-भौजाई भी मामा-मामी व भुआ को ननद व देवर आदि भी भुआ व फूफा ही माने जाते है। इन में भी वैसा ही प्यार होता है जैसा असल के रिशतों में होता है।
  1. धर्म-भाई का रिशता- रैगर जाति में धर्म का भाई और धर्म की बहिन बनाने का रिवाज भी है। इस रिशतें में इतनी पवित्रता होती है कि धर्म के भाई और धर्म की बहिन के परिवार में यदि किसी भी प्रकार का सुख-दुख का कार्य होता है तो उसे अपने असली भाई और बहिन के रूप में ही निभाया जाता है। कई बार ऐसा रिशता उस समय भी बनाया जाता है जब यदि किसी महिला का कोई भाई न हो अथवा किसी पुरूष के कोई बहिन नही हो परन्तु यह रिशता उस समय भी बना लिया जाता है जब कि सगे भाई-बहिन मौजुद भी हो। इस रिशते को ‘मुंह बोला भाई ‘ अथवा ‘मुंह बोली बहिन‘ भी कहा जाता है।
  1. सगाई नही छोड़ना और विवाह कर छोड़ देना- रैगर जाति में पहले यह माना जाता था कि किसी लड़की से यदि सगाई हो गई है तो उस सगाई के रिशते को नही छोड़ा जाता था बल्कि उस लड़की से सगाई के बाद विवाह करने के उपरान्त उसे तलाक देना ज्यादा सही माना जाता था। यह परम्परा अब समाप्त सी हो गई है जो एक अच्छी बात है।
  1. बहिन-बेटी का रिशता- रैगर जाति में बहिन-बेटी के रिशते को बड़ा ही पवित्र रिश्ता माना गया है। इस में रैगर महिला वर्ग का सम्मान झलकता है। इस रिशते से यह भी अभिप्राय निकलता है कि रैगर जाति का पुरूष वर्ग अपने परिवार की बहिन बेटियों की रक्षा करे और अपनी बहिन बेटियो को सारी उम्र पूर्ण सम्मान दे।
  1. बड़ी बहु की इज्जत- प्रत्येक घर की बड़ी बहु का परिवार में सभी छोटी बहुओ और बेटियो द्वारा सम्मान किया जाता था। इस का कारण यह था कि रैगर जाति के परिवारो में बड़े बुजूर्गो की इज्जत करना सामान्य परम्परा थी। इसी परम्परा का निर्वहन परिवार की बड़ी बहु के संदर्भ में भी किया जाता था। बड़ी बहु भी अपना कर्तव्य निभाते हुये अपने से उम्र में बुजूूर्ग व बड़ी बूढी औरतो का पूरा सम्मान करती थी और उन की सलाह के अनुसार की कार्य किया करती थी। इस प्रकार उम्र में छोटी औरते और बालिकायें बड़ी बहु का सम्मान करते हुये उस की प्रत्येक सलाह को माना करती थी। इस का प्रभाव यह होता था कि पूरे परिवार में एकता बनी रहती थी जिस से परिवार में शान्ति और सूखमय जीवन व्यतीत हो जाता था। प्रायः छोटी उम्र की औरते अपने से बड़ी उम्र की औरतो के पांव छुआ और सलाहा करती थी जिस पर बड़ी उम्र की औरते सदैव सुहागिन बनी रहने का आर्शीवाद दिया करती थी। इसी को लेकर राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है कि ‘आढी-लीक, आढी लीक। बड़ी जेठानी गाढी लीक‘। अविवाहित बालिकायें किसी भी औरत का पांव छूने की परम्परा नही निभाती थी तथा परिवार की बहिन बेटियां भी अपने परिवार की किसी औरत यथा माता बहिन आदि के पांव नही छुआ करती थी। प्रायः किसी बहु या बुजूर्ग स्त्री को नाम से नही बुलाया जाता था बल्कि उसे सम्मान सूचक शब्दो से बुलाया जाता था। इस सम्मान सूचक शब्दो में रिशते वाले शब्द भी प्रयोग में लाये जाते थे जैसे जीजी, बुआ जी, मौसी जी, भाभी जी आदि। कई बार यदि किसी बहु अथवा गांव की औरत का स्वभाव खराब पाया जाता था तो परिवार और आस पास के लोग उसे ‘कर्म खोड़ली‘ मान कर ज्यादा बाते करना पसन्द नही करते थे।
  1. रैगर जाति में सामाजिक परस्पर निर्भरता व भावनात्मक पवित्रता- यदि रैगर जाति के सामाजिक जीवन को देखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस जाति के लोगो में अमीर और गरीब का अन्तर आपस में विद्यमान रहा है जब कि हिन्दू धर्म के उच्च वर्ग में रैगर जाति के सभी लोगो को शूद्र और अछूत ही माना गया है चाहे कोई रैगर जाति का व्यक्ति आर्थिक रूप से समृद्व हो अथवा गरीब हो। उस का हिन्दू धर्म्र में स्थान एक शूद्र का ही माना गया है। यदि कोई रैगर जाति का व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से सात्विक और शाकाहारी होने के बावजूद भी हिन्दू धर्म के उच्च वर्ग ने उस से शारीरिक व मानसिक छुआछूत करना अपना धर्म ही समझा है। यही कारण था कि रैगर समाज में आपस में हिन्दु धर्म के उच्च वर्ग के विरूद्व सदैव भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक एकता का भाव विद्यमान रहा था। इस लिये जब भी कोई रैगर जाति का व्यक्ति किसी अन्य गांव के अनजान रैगर जाति के व्यक्ति के घर में जाता था तो वह रैगर जाति का होने के कारण रैगर जाति के उस व्यक्ति से उचित सम्मान व शरण प्राप्त करता था। यंहा वह अपने गोत्र का वर्णन कर अपने पुरखो का सम्बन्ध उस अनजान गांव से जोड़ने का प्रयास करता था।
  1. रैगर जाति में संयुक्त परिवार प्रथा- रैगर संस्कृति का मूलभूत तत्व रैगर समाज में संयुक्त परिवार का होना था। संयुक्त परिवार में पीढी दर पीढी से चले आ रहे पारीवरिक पुरखो के गुण व उन के द्वारा किये गये उत्कृष्ट कार्यो का गुणगान एक परम्परा रही थी जो रैगर जाति के लोग एक संास्कृतिक धरोहर के रूप में संजोये रखा करते थे तथा अपनी भविष्य की नयी पीढी को समर्पित कर दिया करते थे। रैगर समाज पुरूइस सांस्कृतिक धरोहर का वर्णन करने में परिवार की महिलाये भी एक अहम् भूमिका निभाया करती थी तथा अपने आप को उस गौरवमयी परिवार की बहु होने पर गर्व किया करती थी। इस आधुनिक युग में भी प्रत्येक रैगर जाति का व्यक्ति अपने पुरखो के गौरवमयी इतिहास और उन के द्वारा किये गये श्रेष्ठ कार्याे का वर्णन कर अपने आप को गौरवमयी महसूस करता है। रैगर जाति एक पुरूष प्रधान जाति है और संयुक्त परिवार में पुरूषो की एहम् भूमिका रही है। रैगर जाति का संयुक्त परिवार सभी सदस्यो को आर्थिक सबलता प्रदान करने के अलावा भावनात्मक एकता भी प्रदान किया करता था। इस प्रकार रैगर समाज का मुखिया वह पूरे परिवार के लिये एक आदर्श होता था। परिवार में कोई भी सगाई, विवाह अथवा महत्वपूर्ण आयोजन उस के बिना नही हुआ करता था। इसी प्रकार उस की धर्मपत्नी भी अपनी बहुओ के लिये एक आदर्श मानी जाती थी। परिवार के किसी सदस्य की वफादारी व अधिकार उस की उम्र के अनुसार हुआ करता है।

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