इनको राव और जागा भी कहते हैं । जागा इस लिए कहते हैं कि ये प्रात: काल में उठकर यजमानों की गाथा गा कर उन्हें जगाते हैं । इनका मुख्य धन्धा यजमानों की वंशावली तैयार करना था तथा यजमानों को पढ़कर सुनाना है । यह काम पीढ़ि दर पीढ़ि चला आ रहा है । ये लोग पीढ़ियों से यजमानों की वंशावली का लेखा-जोखा रखते हैं । भाटों की बहियां इतिहास के महत्वपूर्ण दस्तावेज है । बही लिखने में ये लोग एक विशेष प्रकार की लिपि का प्रयोग करते हैं । इनकी लिपि में कम से कम मात्रा का प्रयोग होता है । बल्कि यों कहना चाहिए कि ये बिना मात्रा के अक्षरों की विशेष बनावट को काम में लेते हैं । इनकी भाषा और लिपि को हर आदमी न तो समझ सकता है और ना ही पढ़ सकता है । ये स्वयं ही पढ़ सकते है और समझ सकते हैं । मैने रामचन्द्र आत्मज नाथूराम बही भाट निवासी माहोला जिला भिलवाड़ा से साक्षात्कार किया । श्री रामचन्द्र भाट के पास नौ सौ वर्ष पुराना रिकार्ड है जिसका वजन लगभग 11.5 मन है ।
बही भाट चार प्रकार के होते हैं जैसे – बागौरा, छंडीसा, भूंणा तथा केदारा । इनमें आपस में बेटी व्यवहार नहीं होता है । चारों ही प्रकार के बही भाट चित्तौड़गढ़ जिले के अपने नाम से सम्बंधित गाँवों से उठे हुए है । बागौरा भाट चित्तौड़गढ़ जिले के बागौर गाँव से उठे हुए है । बागौरा भाटों मे 52 गोत्र है । जो 52 जातियों को मानते हैं । बागौर भाटों में सौलंकी गोत्र ही रैगरों को मांगती है । सौलंकी भाट अजमेर, आम्बा, सूरजपुरा, माहोला, कुराबड़, कपासन, फागी वगैरा में फैले हुए है । ये रैगरों को मांगने के अलावा खेतीबाड़ी का धन्धा भी करते हैं । शहरों में मजदूरी और अन्य धन्धे भी करने लगे है । बही भाटों में नौजवान पढ़ लिखकर छोटी-मोटी नौकरियों में भी लग गये हैं । पुरानी पीढ़ि के बही भाट अभी भी यजमानों की वंशावली पढ़ने का धन्धा कर रहे हैं । नियमानुसार तीन साल में एक बार जाकर वंशावली तैयार करनी चाहिए मगर पॉच-सात साल में एक बार जा पाते हैं । बही भाट रैगरों के घरों में बना हुआ भोजन नहीं करते हैं । मगर उनके घरों से आटा, दाल, घी, तेल आदि ले लेते हैं । अपने हाथ से बना हुआ भोजन खाते हैं । बही भाट स्वयं यह मानते हैं कि पहले रैगरों के घरों में बना हुआ भोजन करते थे मगर बाद में त्याग दिया गया आधुनिक पीढ़ि के कई लोग इसलिए आज भाटो का विरोध करते है । यदि भाटों ने रैगर जाति में आना बन्द कर दिया तो रैगर जाति को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा क्योंकि बही भाटो के अलावा रैगर जाति का कही भी लिखित में इतिहास नहीं है ।
(साभार- चन्दनमल नवल कृत ‘रैगरजाति : इतिहास एवं संस्कृति’)