भारतीय समाज व्यवस्था एवं शूद्र

डॉ. अम्‍बेडकर एक समाज सुधारक और समाज व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन का समर्थन करने वाले दार्शनिक थे । उनकी साधना बहुमुखी थी । उन्होंने सदियों से दलित समाज को आत्मविश्वास और आत्मगौरव से युक्त करने और अस्पृश्यता निवारण के लिए भागीरथी प्रयास किया । वे एक ऐसे समाज सुधारक थे, जो मात्र भाषणों तक ही स्वयं को सीमित करने के बजाय अपने विचारों को व्यवहारिक रूप देने के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे । डॉ. अम्बेडकर उच्चकोटि के राष्ट्रीय नेता और महान् समाज सुधारक थे । भारत की शोषित, पीड़ित और मूक जनता के वे मुक्तिदाता थे ।

सामान्यतया यह माना जाता है कि जाति प्रथा कि उत्पति वैदिक काल में हुई । ब्राह्मणों का कार्य धार्मिक क्रियाकलापों का संपादन करना था । क्षत्रियों का कार्य देश की सुरक्षा और शासन प्रबंध करना था । वैश्य कृषि और वाणिज्य संभालते थे तथा शुद्रों का कार्य तीन वर्गों की सेवा करना था । प्रारंभ में जाति प्रथा के बंध कठोर न थे । जाति जन्म पर नहीं अपितु कर्म पर आधारित थी । बाद में जाति प्रथा में कठोरता आती गई । वह पूरी तरह जन्म पर आधारित हो गई तथा एक जाति से दूसरी जाति में अंतःक्रिया असंभव हो गई ।

आदि (प्राचीन) साहित्य में दलित

भागवत् गीता में श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं (परमात्मा) ने स्वयं चारों वर्णों को उनके गुण, कर्म, स्वाभावानुसार बनाया है । स्त्री और शूद्र को पापयोनि (अर्थात् पिछले जन्म के पापों का फल भोगने के लिए) कहा है ।

रामचरित मानस में कहा गया कि ‘सेविए विप्र ज्ञान गुण हीना, शूद्र न सेविए ज्ञान प्रवीणा ।’ ब्राह्मण चाहे मूर्ख ही क्यों न हो उसकी सेवा पूजा करनी चाहिए, किंतु शूद्र चाहे ज्ञान में कितना ही प्रवीण हो तो भी उसकी सेवा-पूजा नहीं करनी चाहिए ।

वशिष्ठ संहिता (अ. 18) में ब्राह्मणों से कहा गया है कि-शूद्र को शिक्षा न देवें, धर्म का उपदेश न करे और व्रत आदि न बताए । जो ब्राह्मण शूद्र को ये बातें बतलाता या सिखलाता है, वह शूद्र समेत अंधकारमय नरक में जा गिरेगा । आपस्तम्ब स्मृति (अष्ट) में कहा गया कि-शूद्र का अन्न खाकर यदि उसे पेट में रखे ही ब्राह्मण की मृत्यु हो जाए, वह ग्राम का सूअर या कुत्ता बनकर जन्म लेता है । वृहद् अत्रिस्मृति (अ. 5) में ब्राह्मण को यह उपदेश दिया गया कि-शूद्र का अन्न खाकर मरने वाला ब्राह्मण सात जन्मों का कुत्ता, नौ जन्मों तक सूअर और आठ जन्मों तक गिद्ध बनता है ।

जगद्गुरू शंकराचार्य ने भी शूद्र को वेदाध्ययन को मनाही की हैं उसके भी शूद्र को वेद सुनने पर उसके कानों में पिघला सीसा भरवाने का उपदेश दिया है । उसके मन में शूद्र श्मशान (मुर्दाघाट) की भांति है । अतः जेसे श्मशान में वेद पढ़ना सुनना वर्जित है, इसी प्रकार शूद्र के पास भी वेद नहीं पढ़ना चाहिए । उसकी कथनी और करनी में अंतर था ।

ब्राह्मण को जरूरत पड़ने पर वह शूद्र का धन छीन सकता है, क्योंकि शूद्र का अपना धन तो हो ही नहीं सकता, उसका तो केवल सेवा ही धन है । तीनों वर्णों की सेवा करना ही शूद्र का धर्म-कर्म है । ब्राह्मण उसका स्वामी है । अतः यह सब धन ब्राह्मण का ही है ।

मनु स्मृति में कहा गया है, ‘राजा प्रयत्न कर वैश्यों तथा शूद्रों से अपने-अपने कार्य कराएं, नहीं तो वे अपने-अपने कर्मों से अलग होकर सम्पूर्ण विश्व में क्षोभ पैदा कर देंगे ।’

कालान्तर में ब्राह्मणों ने विचार तथा प्रचार तन्त्रों पर नियंत्रण कर लिया और शिक्षातंत्र पर भी उनका एकाधिकार हो गया । कर्म विभाजन में ब्राह्मण का मुख्य कर्म पठन और पाठन घोषित किया गया । इस नाते उसे गुरुपद प्राप्त हुआ । उन्हें तत्कालीन धर्म ग्रन्थों में इच्छानुसार परिवर्तन करने और उनके आधार पर नए धर्मग्रन्थ रचने का भी सुअवसर मिल गया ।

महाभारत में कहा गया है कि यदि शूद्र वैदिक पाठ या उच्चारण करें तो उसकी जीभ काट दी जाय, यदि सुने तो पिघला हुआ गर्म सीसा कानों में भर दिया जाये, यदि वह द्विजों के साथ समानता की स्थिति धारण करे तो उसे शारीरिक दण्ड दिया जाये या जीवित जला दिया जाये जबकि यदि ब्राह्मण शूद्र को कोई अपशब्द कहे तो भी वह दण्ड का भागी नहीं होगा । शूद्र को तीनों वर्णों को दास माना गया है क्योंकि उसकी उत्पत्ति पैर से मानी जाती है ।

वर्ण-व्यवस्था में आयी विकृतियों ने अन्त्यजों के जीवन को एक अन्तहीन व्यथा कथा बना दिया था । वर्ण-व्यवस्था में अनेक विकृतियों के आने से समाज में कई बुराइयां घर कर गई तब महावीर और बुद्ध ने परम्परावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए ब्राह्मणवाद का विरोध किया । वे वर्ण व्यवस्था के कट्टर विरोधी थें सैद्धान्तिक रूप से उन्होंने वैदिक धर्म को चुनौती दी । उन्होंने सामाजिक एवं धार्मिक अन्यायों के प्रति जन चेतना जागृत की । फिर भी शूद्रों व अन्य पीड़ितों की स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही, वे दुःखपुर्ण अवस्था में ही रहे । उनकी आर्थिक स्थिति निरन्तर गिरती गई । उन्हें सभी मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया गया ।

ऋग्वेद के दसवें मण्डल में एक मन्त्र के पुरुष सूक्त के अनुसार शूद्र की उत्पत्ति पैर से हुई । बाल्मीकिकृत रामायण में वर्णित है कि श्री रामचन्द्र ने चातुर्वर्ण व्यवस्था बनाए रखने के लिए ही महात्मा शम्बूक (शूद्र) को तपस्या करने के अपराध के लिए ही उसका वध कर दिया था, क्योंकि तपस्या का अधिकारी तो केवल द्विज ही हो सकता है । शूद्र का धर्म तो केवल द्विजों की सेवा करना मात्र है ।

वर्ण व्यवस्था ने जन्मजात काम धन्धों को ही धर्म बताकर करते रहना शास्त्र सम्मत ठहरा कर मानव प्रकृति या स्वभाव की प्रवृतियों के प्रति घोर अन्याय किया है । सभी वर्णों के बालकों को अगर अपनी अपनी रूचि और रूझान के मुताबिक व्यवसाय चुनने का अवसर मिलता रहता तो शूद्रों के घर में उत्पन्न बालक भी अपनी स्वाभाविक रूचि और रूझान के अनुसार लायड जार्ज (ब्रतानिया का प्रधानमंत्री जिसकी मां जूते सीती थी) बनते और पूर्व सोवियत संघ के डिक्टेटर स्टालिन की तरह लोह पुरूष देश रक्षक पैदा होते ।

डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि-मानव को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत स्थायी वर्गों में विभाजित करना किसी तरह से न्यायोचित नहीं है, लेकिन हिन्दू समाज वर्ण-व्यवस्था से चिपका बैठा है । असमानता वर्ण-व्यवस्था का मूलाधार है । इसमें स्वतंत्रता एवं समानता के लिए कोई स्थान नहीं है, जो सभ्य समाज की आधारशिला है । वर्ण-व्यवस्था असमानता तथा पराधीनता के विचारों का पोषण करती है । हिन्दू धर्म में तीन बातों का अभाव है-सहानुभूति, समानता और स्वतंत्रता का ।

अध्यकाल में अनेक साधू महात्मा जैसे कबीर, नानक, एकनाथ, रामानंद इत्यादि ने समय-समय पर हिन्दू समाज व्यवस्था में सुधार लाने हेतु प्रयत्न किये, किन्तु शूद्रों की दशा में कोई विशेष अन्तर नहीं आया । यहां तक कि अब अछूत की परछाई भी सवर्ण हिन्दू को अपवित्र करने लगी । उनको ग्राम से पृथक अथवा ग्राम के किनारे पर रखा जाने लगा । इस प्रकार मध्यकाल में भी शूद्रों को मानव अधिकारों से वंचित रखा गया ।

शूद्रों की उत्पत्ति का सिद्धान्त –

ऋग्वेद के पुरूष-सूक्त में कहा गया है कि संसार की समृद्धि के लिए ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य एवं पैर से शूद्रों को पैदा किया अर्थात ब्रह्मा ने मानव जाति को चार वर्णों में विभाजित किया, लेकिन डॉ. अम्बेडकर इस कथन को असत्य मानते हैं । उनका कहना है कि ऋग्वेद में पुरूष-सूक्त को बहुत समय पश्चात जोड़ा गया ।

वेदों में इन चार वर्णों के विषय में कुछ भी नहीं कहा गया ऐसा बहुत से पूर्वी व पश्चिमी विद्वान मानते हैं, जिनमें प्रो. कार्लबुक, मैक्समूलर, बेबर आदि के नाम प्रमुख हैं यहां तक कि शतपथ ब्राह्मण और तैतिरीय उपनिषद् में भी केवल तीन वर्णों का उल्लेख है ।

दलित (शुद्र) कौन है और कब से तथा किन कारणों से उनकी पतन की स्थिति बनी । वैदिक साहित्य जिसमें वेद ब्राह्मण, ‘अरण्यक, पूर्व-उपनिषद आदि है । मैं ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता जिसके आधार पर कहा जाये कि शुद्र जाति पूर्व या आदि काल में विद्यमान थी । ऋग्वेद (द्वितीय शताब्दी या लगभग 1500 ई. पू.) में आर्यों में केवल तीन जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का ही उल्लेख मिलता है । ऐसा प्रतीत होता है कि ‘शुद्र जाति की रचना आर्यों द्वारा ऋग्वेद के अन्तिम चरण में की गई (काम्बले, 1979ः8) फिर भी दन्त (1931) और आप्टे (1954) जैसे विद्वान भी है जो यह मानते है कि शूद्र वर्ग ऋग्वेद में भी ज्ञात थे । यदि शुद्र शब्द का उल्लेख नहीं मिलता हैं तो इसका अर्थ नहीं है कि शूद्र नहीं थे । ‘ब्रह्मण‘ में कई बार ‘शूद्र‘ का उल्लेख ब्राह्मणों के साथ मिलता है, क्षत्रिय और वैश्यों का भी उल्लेख है, यह सब इण्डो आर्यन समाज के अभिन्न अंग थे । ‘ब्राह्मण‘ के मूल ग्रन्थ में शूद्रों (दास) निम्नतम स्थान प्रदान किया गया और उन्हें ब्राह्माणों के बलि धर्म से प्रथक ही माना गया । ऐसा सम्भवतः इसलिए है कि वे आर्यों से प्रजाति एवं संस्कृति में भिन्न थे और जहां तक उनके धर्म का सम्बन्ध था वे उनके बिल्कुल विपरीत भी थे । काम्बले के अनुसार वे न केवल आर्यों के देवताओं का विरोध करते थे, बल्कि वे ‘बलि‘ भी नहीं देते थे और न ही पुरोहितों को भेंट आदि देते थे । इन दासों के लिए जिन शब्दों का प्रयोग आर्यों ने किया वे है: ‘अन्यवृत‘, अंश, ‘मृर्ध्वक‘ ।

इस प्रकार सामाजिक विशेषाधिकारों एवं धार्मिक अधिकारों के विषय में शूद्रों को निम्नतम स्थान प्रदान किया गया था । वे न तो ‘यज्ञ‘ कर सकते थे, न ही ‘बलि‘ दे सकते थे । उनकों घृणित, अपवित्र और अशुद्ध जीव माना जाता था । जिसके स्पर्श से संस्कार अपवित्र हो जाने का भय था ।

धुर्य ने भी कहा है कि जहाँ तक धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन का सम्बन्ध था, वैदिक युग में केवल तीन ‘व्यवस्थाओं ‘ कों मान्यता प्राप्त थी । शूद्रों को आर्यों की धार्मिक प्रथाओं का पालन करने से व्यवस्थित ढंग से रोक दिया गया था (1961 : 214-15)

इसका अर्थ नहीं है कि शूद्र अस्पृश्य माने जाते थे यह इस बात से स्पष्ट है कि यज्ञ में एक बढ़ई का स्पर्श भी अपवित्र होता था और इसे पवित्र करने के लिए जल छिड़कने की आवश्यकता होती थी ओर बढ़ई निश्चित रूप से अस्पृश्य नहीं थे । शूद्रों के अस्पृश्य होने का विचार सम्भवतः ‘सूत्र‘ काल में विकसित हुआ ।

यद्यपि ऐसे विद्वान भी है, जो यह विचार स्वीकार नहीं करते कि आर्य ‘बलि‘ में शूद्रों का कोई स्थान नहीं था, अथवा वे यज्ञ में भाग नहीं लेते थे । उन्होंने ऐसे उदाहरण भी दिए हैं जिसमें शूद्रों ने भी यज्ञ किए हैं । (जैसे महाव्रत या उपनयन के संस्कार) । लेकिन विद्वानों ने शूद्रों के निम्न स्थान को स्वीकार किया है ।

अस्पृश्यता के पीछे अपवित्रता (Pollution) का विचार है । पवित्रता के विचार के संदर्भ में धूर्ये (1968: 216) ने कहा है ‘‘800 ई. पू. न केवल घृणित व पतित ‘चंडालों‘ में, बल्कि समाज की चतुर्थ व्यवस्था शूद्रों में भी संस्कारित पवित्रतता एवं इसका कार्यरूप प्रचलन में था ।‘‘

आम्बेडकर की मान्यता है (1942) कि जब अशुद्ध (Impure) एक वर्ग के रूप में ‘धर्म-सूत्रों‘ में काल में अस्तित्व में आया तब अस्पृश्य वर्ग 400 AD के काफी बाद उत्पन्न हुआ । आम्बेडकर ने आगे भी कहा है । ‘‘ यदि मानव विज्ञान ऐसा विज्ञान है जिस पर लोगों कि प्रजाति, निर्धारण के लिए निर्भर किया जा सकता है तब तो हिन्दू समाज के विविध स्तरों पर मानव मिति (Anthropometry) का अनुप्रयोग यह असिद्ध करता है कि अस्पृश्य व्यक्ति आर्य एवं द्रविड़ प्रजातियों से भिन्न प्रजाति के सदस्य थे ब्राह्मण और शूद्र एक ही प्रजाति से सम्बद्ध है । ‘‘ दृदन (Cast in India, 1961: 207) का विचार है कि बाहृ जातियों (External castes) की स्थिति का जन्म थोड़ा प्रजातीय, थोड़ा धार्मिक तथा कुछ सामाजिक रिवाजों का प्रतिफल है ।

शूद्रों की निम्न आर्थिक स्थिति भी यहीं दर्शाती है कि समाज के संस्करण में उनकी निम्न स्थिति थी । ऐसे उदाहरण कम है जहाँ शूद्रों के पास पशुधन या धन सम्पति रही हो । अधिकतर वे लोग भूमिहीन खेतिहर मजदूर या घरेलू नौकर की तरह काम करते थे । एक सूत्र में उल्लेख है, ‘‘शूद्रों को अपना निर्वाह केवल उच्च वर्गों की सेवा करके करना पड़ता है ।‘‘

हिन्दू साहित्य में देवी-देवताओं की मुक्ति द्वारा मुक्ति पर बल दिया गया है । ‘कर्म‘ और ‘धर्म‘ का विचार निम्न जातियों को नियंत्रण में रखने के लिए एक सुविधाजनक विचार था । यह कहा गया कि हो सकता है वे इस जीवन में कष्ट भोगें, लेकिन धर्म के आचरण से वे अगले जीवन में लाभ उठाएँ । अतः उत्तर दायित्व व्यक्ति पर है न की समाज पर । व्यक्तिगत मुक्ति पर बल देने को व्यक्ति को महत्व प्राप्त होता था जो कि वास्तविक जगत में असंभव था, अतः इसलिए वह व्यक्तिगत स्तर पर शांत और निष्क्रिय बना रहता था । लेकिन कर्म या अर्थ निम्न जाति समूहों को स्वीकार्य नहीं है जो कि पूर्नजन्म का तो समर्थन करते है लेकिन वे इस बात को स्वीकार नहीं करते कि गत जीवन के बुरे कार्यों के कारण उनका जन्म निम्न जाति में हुआ है ।

डॉ. अम्बेडकर ने अपने ग्रन्थ ‘हू वर द् शूद्राज’ के अन्तर्गत शूद्रों की उत्पत्ति कैसे हुई की विस्तार से विवेचना कीं उनके मतानुसार शूद्र पहले सूर्यवंशी क्षत्रिय थें । पहले केवल तीन वर्ण ही अस्तित्व में थें शूद्र समाज का क्षत्रियों में समावेश था, परन्तु ब्राह्मणों एवं सूर्यवंशी क्षत्रियों के मध्य प्रभुसत्ता के लिए संघर्ष हुए । प्राचीन काल में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय अपनी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को ऊंचा रखने में सजग थे । यह विवाद मुखयतः वशिष्ठ एवं विश्वामित्र और उनके अनुयायियों के मध्य हुआ । दोनों ही ऋषि थें वशिष्ठ ब्राह्मण व विश्वामित्र एक क्षत्रिय थें उन दोनों के मध्य होने वाले संघर्ष का मूल कारण पूजा-पाठ का अधिकार था ।

इस संघर्ष के बीच राजा सुदास ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया । राजा सुदास विश्वामित्र के समर्थक थे । उन्होंने क्षत्रियों का साथ दिया क्योंकि राजा स्वयं एक क्षत्रिय था । उनके साथ सुदास ने अनेक युद्ध भी लड़े । अन्त में वशिष्ठ की विजय हुई । वशिष्ठ के अनुयायियों ने सुदास की सन्तान को समाज के निम्न स्तर पर आने को बाध्य कर दिया । उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा छीन ली गई, उन्हें नीच एवं अधम बना डाला और उनकों इतना दबाया गया कि वे नीच अपर्ण शूद्र बन गये ।

ब्राह्मणों ने सुदास की सन्तान के लिए ‘उपनयन संस्कार‘ करना निषेध कर दिया । इस प्रक्रिया द्वारा एक बालक को दोहरे जन्म की कक्षा में प्रवेश दिया जाता था और वेदों के अध्ययन के लिए पूर्ण योग्य बनाया जाता । यह एक आवश्यक संस्कार था, जिसे पूर्ण रूप से सुदास के वंशजों के लिए निषेध कर दिया । इस प्रकार यह संस्कार बन्द करके ब्राह्मणों ने राजा सुदास की सन्तान से बदला लिया और इन्हें हमेशा के लिए शूद्र बना दिया ।

उपनयन का धर्म विधि संस्कार समाज में एक मौलिक संस्कार था और सामाजिक स्तर और व्यक्तिगत अधिकार इसी पर आधारित थे । उपनयन बिना एक व्यक्ति सामाजिक अपमान, अज्ञानता और गरीबी के लिए दण्डित किया जाता था । उपनयन संस्कार के प्रतिबंध के द्वारा ज्ञान का मार्ग, संपत्ति रखने का अधिकार राजा सुदास के वंशजों के लिए बंद और मना कर दिया गया । डॉ. अम्‍बेडकर मानते है कि उपनयन संस्कार का प्रतिबंध ब्राह्मणों द्वारा खोजा गया मृत्यु समान हथियार था, जिसके द्वारा उन्होंने शूद्रों से बदला लिया । इसका प्रभाव परमाणु बम से भी घातक था, जिसने शूद्रों को निम्न स्तर पर धकेल दिया ।

ब्राह्मणों ने अपनी घृणा को राजा सुदास की सन्तान तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने इसे शूद्रों की समस्त जाति तक विस्तृत कर दिया और सभी शूद्रों के लिए उपनयन संस्कार पर रोक लगा दी ।

अछूतों की खोज-

डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार प्राचीन और आधुनिक समाजों की निम्न विशेषताएं हैं – प्रथम, प्राचीन समाज घुमक्कड़ समुदाय थे, जबकि आधुनिक समाज में निश्चित स्थान पर रहने वाले समुदाय हैं । द्वितीय, प्राचीन समाज में सामुदायिक समूह थे, जो कि रक्त संबंधों पर आधारित पाये जाते थे, जबकि आधुनिक समाज में क्षेत्रीय समूह हैं- जिनका एक विशेष स्थान होता है । इस प्रकार डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार प्राचीन समाज को आधुनिक रूप ग्रहण करने में दो अवस्थाओं से गुजरना पड़ा-प्रथम, घुमक्कड़ समुदाय से एक निश्चित स्थान पर रहने वाले समुदाय तक । द्वितीय, घुमक्कड़ से स्थिर समुदाय तक ।

प्राचीन समाज घुमक्कड़ होने का मूल कारण यह था कि पशुओं को ही धन माना जाता था तथा वे लोग खेती से अनभिज्ञ थे । पशुओं को चराने के लिए ये लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते थे । किन्तु जब धन का रूप परिवर्तित हुआ, तो लोगों में स्थिरता का भाव आया और पशुओं के साथ ही भूमि को भी धन समझा जाने लगा । धीरे-धीरे मानव ने खेती करना सीखा, जिससे मनुष्य एक ही स्थान पर रहने लगा और उन्होंने अपनी-अपनी बस्तियां बसा ली । इस समय तक जो प्राचीन समाज घुमक्कड़ था वह खेती के साथ स्थिर समुदाय का रूप प्राप्त करने लगा ।

डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार, प्राचीन समाज की दो मुख्य विशेषताएं थीं-
1. प्राचीन समय में सभी घुमक्कड़ जातियां या समुदाय एक ही स्थान पर नहीं बस सकीं । इनमें से कुछ तो स्थिर हो गयी और कुछ अस्थिर ही बनी रही । स्थिर समुदाय के सम्मुख शांति (सुरक्षा) की समस्या थी । कारण यह था कि यह घुमक्कड़ समुदाय स्थिर समुदायों से घृणा करते थे, उन पर आक्रमण करते रहते और उनके पशुओं, धन और यहां तक कि उनकी मां-बेटियों को भी चुरा कर ले जाया करते थे । ये अपराधी प्रवृति के लोग थे । इससे उनके बीच शत्रुता की भावनाएं बढ़ गयी थी । वह पारस्परिक खूनी संघर्षो के रूप में प्रकट होती थी । इस प्रकार स्थिर समुदायों के सामने अपनी सुरक्षा की चिंता रहने लगी कि इन घुमक्कड़ समुदायों से अपनी सुरक्षा कैसे करे ।

2. निरंतर ऐसी संघर्षमय स्थिति से सामान्य जीवन भी प्रभावित हुआ । कभी-कभी कोई समुदाय का इस संघर्ष में अस्तित्व ही नहीं रहता । संगठित होते हुए भी घुमक्कड़ समुदाय इस संघर्ष में प्रभावित हुए और छोटी-टुकड़ियों में बंट गये । घुमक्कड़ समुदाय शक्तिहीन हो गया, इनकी सम्पत्ति छीन ली गयी और खाने तक की सामग्री को भी ये घुमक्कड़ समुदाय तरसने लगे । वे अनेक कठिनाइयों से घिर गये । इस प्रकार एक नये समुदाय का उदय हुआ जिसे ‘बिखरे मनुष्य‘ (Broken Men) कहा जाता था ।

सामुदायिक जीवन की दो विशेषताएं थी –
1. प्राचीन समाज में प्रत्येक व्यक्ति का संबंध किसी न किसी समुदाय से था ।

2. ऐसा सामुदायिक जीवन सामान्यतः रक्त संबंध और भाईचारा पर आधारित था । कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे समुदाय को न तो ग्रहण कर सकता था और न ही उसका सदस्य बन सकता था । इस प्रकार ये बिखरे हुए लोग थे और इधर-उधर भटकते रहते थे । इनकों अन्य घुमक्कड़ समुदायों के आक्रमण का भय हमेशा बना रहता था । वे यह निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि अपनी सुरक्षा के लिए कहां जायें और अपनी सुरक्षा कैसे करें । भूख और भय से अपनी सुरक्षा करने के लिए उनके पास कुछ नहीं था । इस तरह बिखरे लोगों के सामने अपनी रक्षा, अन्न, पानी एवं बसने की समस्याएं थी ।
स्पष्टतः प्राचीन समाज में स्थिर समुदायों के सामने घुमक्कड़ों के आक्रमणों से अपनी सुरक्षा की समस्या थी और वे ऐसे लोगों की तलाश में थे, जो उनकी घुमक्कड़ समुदाय से रक्षा कर सके अर्थात् बस्तियों की रखवाली का कार्य कर सकें । इधर बिखरे हुए व्यक्तियों के सामने यह समस्या थी कि उनको ऐसे समुदाय मिले जो उन्हें खाना व रहने के लिए स्थान उपलब्ध करा सके । यह बहुत ही रोमांचक कहानी थी कि इन दोनों पारस्परिक विरोधी समुदायों ने किस तरह अपनी-अपनी समस्याओं को सुलझाया । डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार, इन दोनों समुदायों ने परस्पर यह समझौता किया कि वे एक दूसरे की सहायता करेंगे । ‘बिखरे हुए मनुष्यों ने अर्थात् घुमक्कड़ लोगों ने स्थिर समुदायों पर होने वाले आक्रमणों से रक्षा का कार्य संभाला तो स्थिर समुदाय ने उन्हें भोजन एवं बसाने का वचन दिया ।‘ इस प्रकार इन लोगों ने अपनी-अपनी समस्याओं को सुलझाने की योजनाएं बनायीं ।

जब इन समुदायों (समूहों ) में ऐसा समझौता हुआ, तब स्थिर समुदायों के समक्ष यह समस्यां आई कि इन बिखरे व्यक्तियों को कहां बसाया जाये, समुदाय के मध्य या उसके बाहर ? इस समस्या के समाधान के डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार केवल दो ही रास्ते थे-

1. रक्त संबंध को ध्यान में रखा जाये ।
2. आक्रमणों से संगठित रूप से अर्थात् निर्णायक रूप से रक्षा हो सके ।

प्रथम मार्ग स्थिर समुदायों को पसंद नहीं था क्योंकि बिखरे लोग उनके रक्त संबंधी नहीं थे क्योंकि उनको विदेशी ही समझाा जाता था, तब दूसरा रास्ता ही स्थिर समुदायों को उचित लगा । स्थिर लोगों ने बिखरे हुए व्यक्तियों को युद्ध करने की दृष्टि से गांवों के किनारे या बाहर रहने की स्वीकृति प्रदान की जहां वे विरोधी समुदायों द्वारा होने वाले आक्रमणों से उनकी रक्षा कर सकें । इस प्रकार इन बिखरे लोगों को सामाजिक सम्मान नहीं मिला, उनको दूसरे दर्जे की सामाजिक स्थिति प्रदान की गई । अन्तरभोज और अन्तर विवाह तो दूर रहा, उनमें केवल मालिक-नौकर का ही संबंध रहा ।
डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार, यही सामाजिक प्रक्रिया भारत में हुई, जब आर्यों का समाज घुमक्कड़ समुदाय से स्थिर समुदायों में परिवर्तित हुआ । प्राचीन भारतीय आर्यों के समाज में भी दो ही प्रकार के समुदाय ‘स्थिर समुदाय और घुमक्कड़ समुदाय‘ पाये जाते थे । निश्चित ही स्थिर समुदायों ने गांवों का निर्माण किया, लेकिन बिखरे लोग गांवों से बाहर रहने लगे क्योंकि रक्त-भिन्नता के कारण विदेशी ही समझे जाते थे । उनका सामाजिक स्तर निम्न श्रेणी का था । डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार-आज हिन्दू समाज में जो अछूत हैं, वे ही मूलतः बिखरे हुए लोग थे । यही कारण है कि भारत में सभी अछूत समुदाय गांवों के बाहर (किनारे) ही बसे हुए हैं । उन्हें सवर्ण हिन्दुओं की तुलना में समान अधिकार प्राप्त नहीं थे, वे बहुत ही निम्न श्रेणी के समझे जाते थे । भारत के वर्तमान में अछूत समझे जाने वाले लोग ही बिखरे लोग हैं । इनकी पुष्टि निम्न दो प्रकार के तथ्यों से होती है –

1. हिन्दू धर्मशास्त्रों में कुछ विचित्र नाम पाये जाते हैं जैसे अंत्य, अंत्यज, और अन्तेवासिन आदि । ये शब्द बहुत महत्व रखते है । इनकी उत्पति ‘अन्त‘ शब्द से हुई है । हिन्दू शास्त्रों में ‘अन्त‘ शब्द का अर्थ ‘ईश्वर की अन्तिम रचना‘ से लगाया जाता है । अंत्य शब्द का तात्पर्य जो बाद में उत्पन्न हुआ है अर्थात् उन लोगों से है, जिनका सृजन अन्त में किया गया अर्थात् ‘अछूत‘ जो उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत के अनुसार अन्त में उत्पन्न हुआ । लेकिन डॉ. अम्‍बेडकर इस विचार केा नहीं मानते थे, क्योंकि दैवीय उत्पत्ति के अनुसार अछूत नहीं बल्कि शूद्र ही वे लोग है, जिन्हें अन्त में उत्पन्न किया । ‘अछूत‘ इस सिद्धान्त की परिधि से बाहर है । उसे अवर्ण कहा जाता है, जिसका वर्ण-व्यवस्था में कोई स्थान नहीं हैं । इसलिए ‘दैवीय उत्पत्ति‘ या हिन्दू सिद्धान्त अछूतों पर लागू नहीं हो सकता । शूद्र लोग ही इस सिद्धान्त के अन्तर्गत आते है । अछूत एवं शूद्र दो विभिन्न वर्ग है ।

डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार ‘अंत्य‘ शब्द का अर्थ ‘ईश्वर की अन्तिम रचना‘ से नहीं बल्कि हिन्दू ग्रामीण व्यवस्था का अन्त है । यह नाम उन्हें दिया गया है, जो हिन्दू गांव के किनारें पर रहते थे । एक समय था जब कुछ लोग गांवों के अन्दर रहते थे, कुछ गांवों से बाहर रहते थे । गांवों के अन्त में रहने वालों को ही ‘अंत्यज‘ और अन्तेवासिन कहा जाता था ।

2. दूसरे प्रकार के तथ्य से डॉ. अम्‍बेडकर ने यह प्रमाणित करने के लिए कि अछूत ही बिखरे लोग है, जो महाराष्ट्र की महार जाति से संबंधित है । महार महाराष्ट्र का एक बड़ा समुदाय हैं । महारों और हिन्दुओं के कुछ महत्त्वपूर्ण संबंध हैं, जो जानने योग्य है ।
(क) महार लोग महाराष्ट्र के सभी गांवों में पाये जाते है ।
(ख) महाराष्ट्र के प्रत्येक गांव में एक दीवार पाई जाती है, जिसके बाहर महार अपने मकानों में रहते हैं ।
(ग) महार लोग गांव की देखभाल का काम करते हैं ।
(घ) महार लोग हिन्दू ग्रामीणों के विरूद्ध 52 अधिकारों का दावा करते है ।

डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार उपयुक्त उदाहरण आदर्श है । यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि प्राचीन भारतीय समाज में कुछ ऐसे बिखरे लोग थे, जिन्होंने स्थिर समुदायों से समझौता किया और समझौते के अनुसार उन्हें गांव के बाहर बसने के लिए बाध्य किया गया । यही कारण है कि आज तक अछूत लोग गांवों के अन्त में ही मिलते है । तथ्यों के दो वर्ग हैं-

1. यद्यपि इसके समर्थन में कुछ उदाहरण तैयार करना विलक्षण या दुर्लभ है कि ‘अछूत‘ शुरू से ही हिन्दू समाज में गांवों से बाहर रहते थे । क्योंकि ये बिखरे हुए लोग थे, जो विभिन्न समुदायों और विभिन्न रक्त से संबंधित थे । ये स्थिर समुदायों से भिन्न थें इसे सिद्ध करने के लिए डॉ. अम्‍बेडकर ने दो समरूप घटनाओं का उल्लेख किया हैं, जो कि आयरलैण्ड एवं वेल्स की हैं । सर हेनरीमेन और शीभाम की रचनाओं के अनुसार-आयरलैण्ड के फ्यूडिर्स एवं वेल्स के ऑल्टयूड्ज (Alitudes) बिखरे लोग थे, जो गांवों से बाहर रहते थे क्योंकि वे बाहरी या विदेशी थे । वे मुख्य समुदायों से संबंधित नहीं थे, जो पूर्ण विराम माने जाते थे । भारत का अछूत भी उपयुक्त कारणों से गांवो के बाहर रहता था । इस प्रकार अछूतों का गांवो से बाहर रहना किसी प्रकार दूसरी जगह से असमान नहीं कहा जा सकता ।

1. कुछ समय पश्चात् लोगों के मन में भ्रातृत्व भाव का उदय हुआ । उस समय सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए आंदोलन किया गया ताकि ऐसे व्यक्ति, जो सामुदायिक जीवन के बाहर थे, किसी विशेष समुदाय के सदस्य बन सकें । उनकी कमियों को भुलाया जा सके । इस विधि के आधार पर आयरलैण्ड एवं वेल्स के बिखरे लोग विभिन्न समुदायों में सम्मिलित हो गये । इन्हें वही अधिकार व सम्मान मिलना प्रारंभ हुआ, जो समुदाय वाले व्यक्तियों के लिए था । किन्तु हिन्दू समाज में छुआछूत की भावना ने सामाजिक प्रतिष्ठा वाली विधि का प्रतिपादन नहीं होने दिया । छुआछूत ने हिन्दू समुदाय एवं बिखरे लोगों के समाजीकरण को रोक दिया । फलस्वरूप पृथक बसने की प्रथा आज तक विद्यमान है और अछूत लोग हिन्दू गांव के किनारे (अन्त) में रहते हैं ।

अस्पृश्यता की उत्पत्ति का सिद्धांत
सन् 1948 में प्रकाशित ‘दि अनटचेबल्स‘ ग्रन्थ में डॉ. अम्‍बेडकर ने अस्पृश्यता की उत्पति के सिद्धान्त का सविस्तार विवेचन किया । इस ग्रन्थ में उन्होंने अस्पृश्यता की उत्पत्ति बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के पारस्परिक संघर्ष को माना है ।
अस्पृश्यता की उत्पत्ति के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं –

1. राइस द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत-
राइस के मतानुसार अस्पृश्यता की उत्पत्ति के दो आधार है, जाति तथा व्यवसाय । जाति सिद्धांत में दो तत्व निहित हैं-
(1.) अछूत अनार्य जाति के लोग है और वे द्रविड़ जाति से भी भिन्न इस देश के मूल निवासी हैं,
(2.) द्रविड़ जाति के लोगों ने उनकों पराजित करके अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की । इस सिद्धांत में यह प्रतिपादित किया गया कि द्रविड़ जाति ने यहां के मूल निवासियों को हराया अर्थात् उन लोगों को हराया जो आज अछूत या शूद्र कहे जाने वालों के पूर्वज थे । कुछ समय के पश्चात् जब आर्य जाति के आक्रमण किये तो द्रविड़ लोगों को पराजित किया । यहीं पर ‘राइस‘ यह नहीं बताते हैं कि विजयी आर्यों ने द्रविड़ जाति के साथ कैसा व्यवहार किया ? उनकों किस तरह रखा ? इत्यादि बातों का जिक्र नहीं किया ।

डॉ. अम्‍बेडकर का कथन है कि ‘राइस‘ के अनुसार विजयी आर्यो ने द्रविड़ जाति को शूद्र बनाया । राइस का सिद्धांत क्रमानुसार केवल कुछ आक्रमणों पर ही आधारित है । राइस ने बताया कि इन्हीं आक्रमणों के कारण आज के हिन्दू समाज का सांस्कृतिक स्तर संभव हुआ है । डॉ. अम्‍बेडकर इस सिद्धांत को सत्य नहीं मानते क्योंकि यह सिद्धांत बहुत ही यांत्रिक एवं मनगढ़ंत हैं । यह एक काल्पनिक कहानी है । अससे अछूतों की खोज की समस्या का समाधान नहीं होता है ।

व्यावसायिक उत्पत्ति सिद्धांत की दृष्टि से अस्पृश्यता का प्रादुर्भाव गंदे समझे जाने वाले व्यवसायों से हुई । जो लोग निम्न एवं गन्दे व्यवसाय करके अपनी आजीविका चलाते थे, उन्हें अछूत या अंत्यज मान लिया गया । डॉ. अम्‍बेडकर इस सिद्धांत से असहमत होते हुए कहते हैं कि गंदे व्यवसाय, जो अछूत लोग करते हैं, संसार में प्रायः सभी समाजों में समान रूप से पाये जाते है । उन समाजों में ऐसे लोग भी हैं, जो उन व्यवसायों को करते हैं, किन्तु उन लोगों को अछूत क्यों नहीं समझा जाता हैं ? यदि गंदा व्यवसाय ब्राह्मण एवं क्षत्रियों को अछूत नहीं बना सकता है, तो यहां के मूल निवासियों को अछूत कैसें बना सकता है । अतः ‘राइस‘ का व्यावसायिक अस्पृश्यता की उत्पत्ति का सिद्धांत युक्तिसंगत नहीं है ।

डॉ. अम्‍बेडकर ने अस्पृश्यता की उत्पत्ति के निम्नलिखित कारण बताये हैं-
1. बौद्ध धर्म के प्रति घृणा की भावना
2. गौ-मांस का भक्षण

डॉ. अम्‍बेडकर द्वारा प्रतिपादित छुआछूत की उत्पत्ति के सिद्धांत को इस रूप में व्यक्त किया जा सकता है- हिन्दू एवं अछूतों में कोई जातिगत भेद नहीं हैं । छुआछूत से पहले उनके बीच केवल सामुदायिक एवं बिखरेपन की भिन्नता थी । केवल बिखरे लोग ही अछूत बने । छुआछूत की उत्पत्ति का कारण यह है कि ब्राह्मणों ने गौमांस भक्षण बंद कर दिया और गाय को पवित्र पशु घोषित कर दिया । लेकिन दूसरी ओर बिखरे लोग जो बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, ऐसा न कर सके और ब्राह्मणों ने उन्हें अछूत घोषित कर दिया । यही कारण है कि ब्राह्मण शाकाहारी बनने की प्रथा प्रारंभ हुई । यह प्रथा आज तक भी पायी जाती है । बिखरे लोगों द्वारा (अछूत) गौमांस भक्षण के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें सबसे निम्न सामाजिक स्तर प्रदान किया । यह मुख्यतः बौद्ध धर्म व ब्राह्मणवाद के मध्य संधर्ष की उपज है ।

अस्पृश्यता का निवारण ‘मनुवादी लोग दक्षिणी अफ्रिका की रंगभेद नीति की कड़ी आलोचना करते है, परंतु स्वदेश में स्वयं वर्ण-भेद का अनुसरण करते है, जो रंगभेद नीति से कहीं अधिक खतरनाक है ।‘

– डॉ. भीमराव अम्‍बेडकर

अस्पृश्यता निवारण के लिए संविधान में आवश्यक विधायी व्यवस्था की गई है । अस्पृश्यता को एक दण्डनीय अपराध बनाने के लिए सर्वप्रथम 1955 में अस्पृश्यता अधिनियम बनाया, जिसमें दाण्डिक उपबंधों को और अधिक कठोर बनाने के लिए ‘अस्पृश्यतो संशोधन तथा प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम 1976‘ पारित किया गया तथा इसी अधिनियम का अब नाम ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम‘ कर दिया गया है । इस अधिकार के द्वारा अस्पृश्यता को व्यवहार में लाने के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई । इसके अतिरिक्त ‘लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951‘ के द्वारा यह भी उपबंधित किया गया है कि उक्त अधिनियम के अधीन दोष सिद्ध व्यक्ति 6 वर्ष तक के लिए संसद व राज्य विधानमण्डलों का चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाता है । डॉ. अम्‍बेडकर ने कहा कि हमारा संविधान निःसन्देह कागजी तौर पर अस्पृश्यता को समाप्त कर देगा, रोग के एक किटाणु की तरह यह कम से कम 100 वर्ष तक हिन्दुस्तान में बरकरार रहेगा । यह लागों के मनों में गहरी जड़े जमाएं हुए है ।

जातिभेद (वर्णव्यवस्था) का सर्वनाश किए बगैर हिन्दू धर्म अधिक समय तक और सम्मानजनक रूप से जीवित नहीं रह सकता । जिस धर्म में मुख्य चार वर्ण और उनसे पैदा सैकड़़ों उपजातियां है और वह भी आपस में ऊंच-नीच के विषैले विश्वास के रोग से ओत-प्रोत हैं । अगर हिन्दू धर्म के अनुयायी डॉ. अम्‍बेडकर के बताये मार्ग का अनुसरण व आचरण करे तो इस देश में कोई छोटा और न कोई बड़ा हिन्दू, न कोई जन्म से सवर्ण और असवर्ण माना जाएगा । अतः हमे हिन्दू धर्म के वास्ततिक रोग वर्णव्यवस्था का ही सर्वनाश करना होगा, तभी हिन्दू धर्म जीवित रह सकेगा । हिन्दूमात्र के लिए एक समान एक धर्म संहिता बनानी होगी ।

वैसे देखा जाए तो आज पहले जैसी कठोरता लोगों में नहीं रहीं । यह आशा की जा रही है कि डॉ. अम्‍बेडकर का सपना सच हो जायेगा, जब हमारे देश से यह जातिगत भावना पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेगी । अतः इस अमानुषिक अस्पृश्यता जैसी प्रथा को समूल नष्ट करना हम सभी भारतीयों का नैतिक कर्तव्य है । अगर अस्पृश्यता जैसे भारतीय समाज पर लगे इस कलंक को हम समाप्त करेंगे तो, निसंदेह यह भारत माता को उपहार स्वरूप अनुपम भेंट होगी और आगे वाली पीढ़ियां हमारा गुणगान करेगी ।

समाज परिवर्तन की पद्धति- समाज में कुछ परिवर्तनों की प्रकृति विकासशील होती है । विकासवादी विधि वैधानिक साधनों पर निर्भर है । इस क्रम के अन्तर्गत सामाजिक जीवन के सभी कार्य सुचारू रूप से चलते रहते हैं । विभिन्न संस्थाओं का विकास धीरे-धीरे होता रहता है । डॉ. अम्‍बेडकर हिंसात्मक विधि के विरोधी थे, उनके अनुसार, नीवन समाज में हिंसा, घृणा और वैमनस्य का कोई स्थान नहीं होना चाहिए । शांतिमय ढंग सबसे उत्तम पद्धति है।

डॉ. अम्‍बेडकर के अनुसार, समाज सुधारकों को स्थूल असमनताओं के विरूद्ध जनता की संभावनाओं को जागृत करना चाहिए । समाज में सभी वर्ग साथ-साथ मिल जुल कर रहे । विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्यो में समानता एवं स्वतंत्रतापूर्वक भाग लेने से ही घृणा एवं अस्पृश्यता का अंत हो सकता है । एक दूसरे के समीप आने से वे अपनी समस्याओं को अच्छी तरह समझ सकते हैं और उनका न्यायोचित हल भी निकाल सकते है।

डॉ. अम्‍बेडकर सामाजिक परिवर्तन शांति एवं सुलह के द्वारा चाहते थे, न कि शक्ति एवं हिंसा से । स्नेह, शांति एवं सुलह ही समाज परिवर्तन के उत्तम उपाय है । उन्होंने कहा ‘छूत एवं अछूत कानून के द्वारा नहीं मिट सकते, निश्चय ही किसी चुनाव संहिता, जो संयुक्त निर्वाचन से पृथक निर्वाचन को चाहती हों, से भी नहीं । स्नेह ही उन्हें एक कर सकता है ।‘

सामाजिक परिवर्तन कानून के द्वारा भी किया जा सकता है । कानून ही एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा समाज विरोधी तत्वों एवं संस्थाओं को नष्ट किया जा सकता है । वास्तव में, जब शांति एवं सुलह के तरीके असफल रहें, तो कानून व्यवस्था का सहारा आवश्यक व न्यायोचित है ।

अंत्यज और आरक्षण – भारतीय संविधान के अंतर्गत अनुसूचित व अनुसूचित जनजातियों को एक निश्चित अवधि के लिए आरक्षण की व्यवस्था है । इन वर्गो को आरक्षण देने का न्यायोत्त कारण यह था कि भारतीय समाज का यह वर्ग जो सदियों से आर्थिक शोषण एवं सामाजिक उत्पीड़न का शिकार रहा है, देश के नवनिर्माण की सहभागिता से वंचित न रहे ।

लेखक : सुरेश खटनावलिया, वरिष्ठ पत्रकार, जोधपुर (राज.)
B.A., BJMC, MJMC