क्रांतिकारी गुरू रविदास की बाणीया

गुरू रैदास प्रारम्भ से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे उन्होने ब्राह्यणों के चारों वेदों का खण्डन किया, उन्होने ब्राह्यण धर्म के सभी रीति-रिवाज़ो यज्ञ, श्राद्ध, मंदिरों मे पूजा पाठ, आदि हर ब्राह्यणी कर्मकाण्‍ड का तर्क के साथ खण्डन किया । उन्होने दलित समाज को चेताया कि केवल दलित समाज के लोग ही असल मे भारत के शासक रहे हैं, सिन्धु सभ्यता अर्थात् दलित सभ्यता से लेकर मोर्य काल तक भारत पर केवल और केवल दलितों का शासन ही रहा है ।

गुरू रैदास की वाणी मे बोद्ध धर्म का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । उनकी बाणी मे हिन्दू धर्म या उससे सम्बन्धित किसी भी वेदों का उपयोग नही मिलता है । उन्होने स्पष्ट कहा की किसी भी जाति या वर्ण विशेष मे जन्म लेने से कोई छोटा या बड़ा नही हो जाता है और उन्होने मंदिरों, अवतारो, त्रिमूर्ति, सभी को झूठ और धोखा बताया ।

रैदास बामण न पूजिए जो होवे गुण हीन ।
पूजो चरण चंडाल के जो हो शील प्रवीण । ।

       उपरोक्त श्लोक के आधार पर कहा जा सकता है कि जब गुरू रैदास ने ‘‘भगवान’’ से भी ‘‘बड़े’’ ब्राह्यण को ही तुच्छ माना है तो उनके किसी भगवन को ईष्टदेव मानकर उसकी भक्ति करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता ।

सौ बरस रहो जगत में, जीवत रह कर करो काम ।
रैदास करम ही धरम है, करम करो निष्काम । ।

       अर्थात आदमी चाहे सौ साल जीए लेकिन उसे जीते जी काम करना चाहिए क्योंकि कर्म ही धर्म है । जहा तक निष्काम करने की बात है गुरू रैदास के अनुसार जो काम जाति-पांति की भावना के बिना किए जाते है ।

नरपत एक सिंहासन सोया, सपने भया भिखारी ।
अछूत राज बिछड़े दुख पाया, सोई दसा भई हमारी । ।

अब ब्राह्यणों ने दलितों को गुलाम बना रखा है । दलित अपने दीन अर्थात धर्म से दुर हो गए है । ब्राह्यणोंधर्म उनका धर्म नहीं है । वे बोलेः

पराधीन का दीन क्या, पराधीन बेदीन ।
रैदास दास पराधीन को सब ही समझें हीन । ।

दलितों की मुक्ति का एक ही रास्ता है कि वे अपने गले से गुलामी का फंदा उतारें तथा अपना छिना हुआ राज फिर से प्राप्त करें तथा अपना बेगमपुरा बसायें । उन्होंने कहाः

पराधीन पाप है जान लेवो रे मीत ।
रैदास दास पराधीन को कौन करे परीत । ।
ऐसा चांहू राज मैं मिलै सबन को अन्न ।
छोटे बड़े सम बसे, रैदास रहै प्रसन्न । ।
अविधा अहित कीन, ताते विवके दीप भया मलीन ।
जहां अंधविश्वास होय, वहां सत् पुरूष नांहि । ।
रैदास सत् सोई जानिए, जो अनुभव हो मन मांह् । ।

अर्थात् अज्ञान अहित करता है उससे अच्छे बुरे की परख करने वाली बुद्धि मन्द पड़ जाती है तथा जहां अन्धविश्वास हो वहां सच्चे आदमी का वास नहीं होता । अन्धविश्वासों में पड़ कर आदमी स्वयं तो दुखी होता ही है और दूसरों को भी दुख देता है । सत्य वही है जो आदमी अपने मन से अनुभव करता है ।

बोलत बोलत बढै़ व्याधि, बोल अबोल जावै ।
बौले बोल अबोल तब ही मूल गवावै । ।
जो अठसठ तीरथ नहावै, द्वादस सिला पुजावै ।
जो कूप तड़ा दववो, करै निन्दा सब बिरथा जावै ।।

       अर्थात् अधिक बोलने से कलेश होता है तथा काम की बात भी बेकाम चली जाती है । और अगर कोई न करने योग्य बातें करता है तो अपनी इज्जत गंवाता है । अतः आदमी को सोच समझ कर सही बोलना चाहिए ।

रैदास श्रम कर खाइये, जो लो पार लगाए ।
नेक कमाई जो करे कभी न निसफल जाए । ।
श्रम को ईश्वर जान के जो पूजै दिन रैन ।
रैदास उसे संसार मे मिले सदा सुख चैन । ।

       अर्थात मेहनत करके खाने में ही शांति मिलती है । नेक कमाई, हक हलाल की कमाई का फल हमेशा मिलता है और अच्छा फल मिलता है । उन्होने लोगों से मंदिर में घण्टिया बजाने की बजाए मेहनत करने को ही भगवन की असली पूजा करने का आहवान किया है । जो आदमी खून पसीने की कमाई करके खाता है उसे दिन और रात चौबीस घण्टे सुख चैन मिलता है ।

       मन ही पुजा, मन ही धूप, मन ही सहज सरूप ।
       सो मन चीन्ह जो मन को खाए, बिन दौड़े तिलोक समाए ।
       जो मन बांधै सोई बांध, अमावस में ज्यों दीखे चांद ।

       अर्थात् आदमी का मन ही भगवन के समान है । मन को काबू करना ही उसकी पुजा है । उन विचारों को काबू मे करो, जो मन को बहकाते है । बुरे विचार आदमी को भटकाते है ।

रैदास सोई साधु भला, जिस मन मांहि नहीं अभिमान ।
हर्ष, शोक जाने नहीं, जाने सुख दुख एक समान । ।

       अर्थात् उसे ही साधु कहा जा सकता है जिसके मन में अभिमान नही है । ऐसे साधु खुशी-गम, सुख-दुख को एक समान लेते है ।

लेखक : कुशाल चन्द्र रैगर, एडवोकेट
M.A., M.COM., LLM.,D.C.L.L., I.D.C.A.,C.A. INTER–I,
अध्यक्ष, रैगर जटिया समाज सेवा संस्था, पाली (राज.)