समाज की धार्मिक अंधता

हमारा समाज गाँव-गाँव और गली-गली मन्दिरों के निर्माण में लाखों रूपये व्‍यर्थ गवां रहा है । इन मन्दिरों में असामाजिक तत्‍व जुआ खेलते हैं, ताश खेलते हैं, शराब पीते हैं तथा बिड़िया फूंकते रहते हैं । कुछ गिने-चुने लोग ही सुबह शाम हाजरी देने जाते हैं । इन मन्दिरों से समाज को क्‍या फायदा हुआ है ? सोचने का विषय है मन्दिरों से समाज पर आर्थिक बोझ ही पड़ रहा है । मंदिर बनाकर समाज ब्राह्मणवाद को ही पोष रहा है । उनका ही पेट पाल रहा है । यह हमारी अज्ञानता का द्योतक है । अंध विश्‍वास है ।

         हमारे संत महात्‍मा ब्राह्मणवाद की जड़ को पानी सींचने का कार्य ही कर रहे हैं । वे मंदिर निमार्ण की सलाह देते हैं । मंदिर निर्माताओं और दान-दाताओं के गुणगान गाते रहते हैं ।

         बाबा साहेब अम्‍बेडकर ने ग्रंथों का खुब अध्‍ययन किया है वे इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि भगवान व देवी-देवता की कल्‍पना एक अंधविश्‍वास है । उन्‍होंने कई बार अपने भाषण में कहा है कि ”तीर्थों और मंदिरों में जाते-जाते खत्‍म हो गये, उनका कुछ भी कल्‍याण नहीं हुआ । आज भी वे लंगोटी में ही जीवन बिता रहे हैं । ”

         हमारे सन्‍त – महात्‍मा, शंकराचार्यों, मठाधीशों व ब्राह्मणवाद के ब्रह्मजाल में ही गोते खा रहे हैं । उनके बताये मार्ग को ही मुक्ति का मार्ग मान रहे हैं । सन्‍त रैदास जी व कबीर दास कभी ब्राह्मणवाद या उनके ब्रह्मजाल में नहीं फंसे । ब्राह्मणवाद का विरोध कर हिन्‍दु व मुस्लिम दोनों को ही अच्‍छी शिक्षा दी है ।

रैदास जी ने कहा है –

रविदास न पुजहूं देहरा, अरु न मसजिद जाय ।
जंह जंह ईस का वास है, तंह तंह सीस नवाय ।।

कबीर साहेब ने भी कहा –

पत्‍थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़ ।

         इन दोनों ही संतों ने मन्दिर और मस्जिद का घोर विरोध किया है । हमारे सन्‍तों को चाहिए – मंदिरों की बजाय विद्या मंदिर और छात्रावास बनाने की सलाह समाज को देवें । अशिक्षा, अंधविश्‍वास एवं भगवान के भरोसे को त्‍यागने की सलाह देवें । भगवान बुद्ध ने अपने संदेशों में कहा था – ”अप्‍प दिपों भव:” अपना प्रकाश स्‍वयं बने । इससे ही हमारा कल्‍याण सम्‍भव है ।

रैदास जी ने यही कहा था –

जहां अंध विश्‍वास, सत परख तहं नाहिं ।
रैदास सत सोई जानि हैं, जो अनभव होई मन माहि ।।

         जो सत्‍य था वही उन्‍होंने कहा । समाज की एकता, समानता व बन्‍धुता पर उन्‍होंने कहा था – सभी मानक एक है, जाति-पांति का भेद क्‍यों बनाते हो । इन सन्‍तों ने सत्‍य ही मानव को समझाया –
(अ) जो ब्राह्मण, ब्राह्मणि का जाया और राह ते काहे न आया ।
(ब) जो तूं तुरक तुरकिन का जाया, पेट हि काहे न सुन्‍नति कराया ।
(स) एके चाम एक मल-मूतर, एक खून एक गूदा ।
एक बून्‍द से सब उत्‍पन्‍न, को बांमन को सूदा ।।


कबीर दास और रैदास जी से भी 2000 वर्ष पहले गौतम बुद्ध ने इसी बात को निम्‍न शब्‍दों में वर्णन किया है –

न जच्‍चा नसलो होती, न जच्‍चा होति ब्राह्मणों ।
कम्‍मूनो वसलो होति, कम्‍मूना होति ब्राह्मणों ।।

         जन्‍म से कोई ऊंच-नीच नहीं होता, कर्म से व्‍यक्ति श्रेष्‍ठ बनता है । तीर्थों की यात्रा अंधविश्‍वास है । तीर्थों से किसी का कल्‍याण नहीं हुआ । सिर्फ पंडितों का कल्‍याण जरूर होता है । तीर्थों में अनैतिकता कदम-कदम पर दिखाई देती है । आचार्य चतुर सेन ने अपनी पुस्‍तक ”तीर्थों में”, अनैतिकता का चित्रण अच्‍छी तरह से प्रकट किया है ।

रैदास जी ने अपने शब्‍दों में तीर्थों के लिए कहा था –

का मथुरा का द्वारका, का काशी का हरद्वार ।
रैदास खोज दिल अपना, तहूं मिलिया दिलदार ।।

मूर्ति पूजा के खिलाफ उन्‍होंने कहा –

देहरा अरू मसीत महिं, रैदास न शीस नवाय ।
जिहं लों सीस निवावना, सो ठाकुर सम थाय ।।

         क्‍या हमारे सन्‍त महात्‍मा इतने बुलन्‍द होकर समाज को नेक रास्‍ता दिखा सकेंगे । या अंधविश्‍वास में ही गोते खिलाते रहेंगे ?

         जो व्‍यक्ति (शंकराचार्य) जाति-पांति मे मानता है, भारत के संविधान को मानने से इनकार करता है वह मानव – समाज का कभी भला नहीं कर सकता । हमारे सन्‍त – महात्‍माओं को इस पर विचार करना चाहिए । समाज के गणमान्‍य नागरिकों को चाहिए कि, सभ मंदिरों को गुरूकुल, विद्यामंदिर व छात्रावास बनावें जिसमे रहकर हमारे बच्‍चे अध्‍ययन कर अच्‍छी शिक्षा प्राप्‍त कर सकें ।

         समाज को धार्मिक अंधता से दूर रहने के लिए, सन्‍त महात्‍माओं का योगदान सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है । जन-समुदाय सन्‍त-महात्‍माओं के वचनों को सत्‍य और प्रसाद मानकर ही स्‍वीकार करते हैं । व्‍यक्ति धर्म के नाम पर बिना सोचे समझे अंधी दौड़ लगाये जा रहा है । स्‍वर्गवासी का मृत्‍युभोज, पिंडदान, तीर्थों में स्‍नान, दान आदि अंधविश्‍वास है ।
शुभ-अशुभ अवसरों पर सत्‍संग में भक्‍त और संत-महात्‍मा सभी इकट्ठे होते हैं । पांच भजन होने तक कोई भी व्‍यक्ति बीड़ी-सिगरेट, तम्‍बाकू, गुटका का उपयोग नहीं करता है परन्‍तु पांच भजन पुरे होते ही भक्‍त ही नहीं, स्‍वयं सन्‍त लोग भी बीड़ी-सिगरेट मांग लेते हैं । यहां तक कि संत-महात्‍मा सुल्‍फा पीते हैं । पान खाते हैं । इसी अंधविश्‍वास का पीछा भक्‍त लोग स्‍वाभिमान के साथ करते हैं ।

         जीते जी हम मां-बाप की सेवा नहीं करते हैं । मरने के बाद उनकी अस्थियां गंगा जी में विसर्जित करते हैं । पंडितों को दान करते है । पांच पकवान बनाकर समाज को खिलाते हैं । यह सब धार्मिक अंधता ही तो हैं । गंगा प्रसादी करने वाला स्‍वयं आर्थिक बोझ में दबता है । साथ ही अपनी ससुराल, बच्‍चों की ससुराल, ननिहाल वालों को भी, मायरा, पेहरावली के बोझ से दबना पड़ता है । जब बच्‍चों की शिक्षा की बात आती है तो गरीब बनने का बहाना करते हैं । इससे बड़ा अंध विश्‍वास और क्‍या होगा ? समाज को इस पर ठोस कदम उठाकर, पाबंदी लगानी चाहिए ।

         हमारे सन्‍त-महात्‍मा समाज से धन इकठ्ठा कर, समाज विरोधी शंकराचार्यों को भेंट चढ़ाते हैं, बदले में उनसे आचार्य की पदवी की भीख मांगते हैं । क्‍या रैदास जी और कबीर दास ने ऐसी हीन भावना की कामना की थी ? कभी नहीं । उन्‍होंने ब्राह्मणवाद का डटकर मुकाबला किया, अंधविश्‍वास से कोसो दूर रहे । समाज को इन विषयों पर विचार कर सत्‍य का रास्‍ता अपनाना चाहिए ।

भव्‍वतु सव्‍व मंगल !!!

लेखक : आसूलाल कुर्ड़िया (ब्‍यावर, राजस्‍थान)