‘संगठन में शक्ति है !’

‘संगठन में शक्ति है ।’ इस मूल मंत्र को समझे और क्रियांवित करे । संगठन से बड़ी कोई शक्ति नहीं है । बिना संगठन के कोई भी देश व समाज सुचारू रूप से नहीं चल सकता है । संगठन ही समाज का दीपक है- संगठन ही शांति का खजाना है । संगठन ही सर्वोत्कृषष्ट शक्ति है । संगठन ही समाजोत्थान का आधर है । संगठन बिना समाज का उत्थान संभव नहीं । संगठन के बिना समाज आदर्श स्थापित नहीं कर सकता ।, क्योंकि संगठन ही समाज एवं देश के लिए अमोघ शक्ति है, किन्तु विघटन समाज के लिए विनाशक शक्ति है । विघटन समाज को तोड़ता है और संगठन व्यक्ति को जोड़ता है । संगठन समाज एवं देश को उन्नति के शिखर पर पहुंचा देता है । आपसी फूट एवं समाज का विनाश कर देती है । धागा यदि संगठित होकर एक जाए तो वः हठी जैसे शक्तिशाली जानवर को भी बांध सकता है । किन्तु वे धागे यदि अलग-अलग रहें तो वे एक तृण को भी बंधने में असमर्थ होते हैं ।

संगठन किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, वह सदैव अच्छा होता है- संगठन ही प्रगति का प्रतीक है, जिस घर में संगठन होता है उस घर में सदैव शांति एवं सुख की वर्षा होती है । चाहे व्यक्ति गरीब ही क्यों न हो, किन्तु यदि उसके घर-परिवार में संगठन है अर्थात सभी मिलकर एक हैं तो वह कभी भी दुखी नहीं हो सकता, लेकिन जहाँ या जिस घर में विघटन है अर्थात एकता नहीं है तो उस घर में चाहे कितना भी धन, वैभव हो किन्तु विघटन, फूट हो तो हानि ही हाथ आती है । संगठन बहुत बड़ी उपलब्धि है, जहाँ संगठन है वहां कोई भी विद्रोही शक्ति सफल नहीं हो सकती है, जहाँ संगठन है वहां बहुत बड़ा बोझ उठाना भारी नहीं लगता । जहाँ संगठन है, एकता है वहां हमेशा प्रेम-वात्सल्य बरसता है- एकता ही प्रेम को जन्म देती है, एकता ही विकास को गति देती है । जो समाज संगठित होगा, एकता के सूत्र में बंधा होगा, वह कभी भी परास्त नहीं हो सकता- क्योंकि संगठन ही सर्वश्रेष्ठ शक्ति है, किन्तु जहाँ विघटन है, एकता नहीं है उस समाज पर चाहे कोई भी आक्रमण कर विध्वंस कर देगा । इसलिए 500 विघटित व्यक्तियों से 5 संगठित व्यक्ति श्रेष्ठ हैं, बहुत बड़े विघटित समाज से छोटा सा संगठित समाज श्रेष्ठ है । यदि समाज को आदर्शशील बनाना चाहते हो तो संगठन की और कदम बढाओ । संगठन के बिना किसी भी समाज की परिकल्‍पना ही नहीं की जा सकती है ।

आज हमारे समाज में सामाजिक संगठनों की जैसे बाढ सी आगई है किसी ना किसी क्षेत्र में कोई ना कोई सामाजिक संगठन जरूर कार्य कर रहा है लेकिन सवाल यह उठता है कि आज हमारे समाज विशेष में अनेक प‍ंजीकृत राष्‍ट्रीय, प्रादेशिक व क्षेत्रिय संगठन कार्यरत है क्‍या वे संगठन अपना दायित्‍व पूर्ण रूप से निभा रहे हैं और वे अपने स‍ंविधान व विधान के अनुरूप कार्य कर रहे हैं ? यदि ये संगठन ऐसा करने में असमर्थ है तो हमारा नैतिक दायित्‍व बनाता है कि हम उस अनियमित्‍ता का आंकलन करे और उसके सुधार के लिए आवाज़ उठाएं । प्राय: ऐसा देखने में आता है कि कुछ लोग अपना दायित्‍व निभाने के बजाय केवल टिप्‍पणियां ही करते रहते हैं । जबकि वास्तिविकता में वे खुद भी उसका पालन नहीं करते हैं । लेकिन वे दूसरो से अपेक्षा करते हैं कि वे उसका पालन करें । ऐसे व्‍यक्ति किसी भी समाज व संगठन के लिए खतरा है । क्‍या इस प्रकार भी कोई समाज का भला हो सकता है । जब किसी सामाजिक संगठन का मुख्‍य व्‍यक्ति केवल यह चाहता है कि वह ही हर बार उस संगठन के मुखियां के रूप में चुन कर आए । वह अपनी कुर्सी को बचाने के लिए साम-दाम दण्‍ड भेद की नीति अपनाने से भी नहीं हिचकिचाता है ओर वह चाहता है कि वह उस संस्‍था का आ‍जीवन मुखियां बनकर अपनी वाहवाही लूटने की फिराख़ में रहता है । लेकिन उसे इस बात का अहसास नहीं होता है कि वह इस स्‍वार्थ की भावना के पीछे समाज का कितना नुकसान कर रहा है । ऐसे व्‍यक्तियों को चाहिए कि वे अपनी नीति और नियती दौनों में सुधार करे और समाज हित के बारे में सोचे उसी में उनका व समाज का भला है । नहीं तो आने वाली पीढ़ि उन्‍हें निश्चित ही दोषी ठहराएगी । ऐसी स्थिति में समाज के बुद्धिजीवी वर्ग और समाज के बंधुओं को इस बात पर गौर फरमाना चाहिए कि समाज की इस दीमक को जल्‍द से जल्‍द समाज से केसे अलग किया जाए क्‍योंकि जब तक किसी संगठन का मुख्‍य बिन्‍दु अर्थात् उसका मुखियां बिना अपने हित के कार्य नहीं करेगा तो उस संगठन का बंटाढार हो जाएगा । आज हमारे संगठनों को स्‍वच्‍छ और दृढ़ रखना भी हमारी जिम्‍मेदारी है ।

समाज संगठन की चर्चा करने के पूर्व आवश्यकता है- घर की एकता, परिवार की एकता की । क्योंकि जब तक घर की एकता नहीं होगी- तब तक समाज, राष्ट्र, विश्व की एकता संभव नहीं । संगठन ही समाज को विकासशील एवं प्रगतिशील बना सकती है । समाज के संगठन से एकता का जन्म होता है एवं एकता से ही शांति एवं आनंद की वृष्टि होती है । इसलिए हम सब के लिए यही संकेत है की एकता के सूत्र को चरितार्थ कर समाज को गौरवान्वित करें ।

लेखक : ब्रजेश हंजावलियामन्‍दसौर (म.प्र.)