मृत्यु-भोज (नुक्ता-मोसर-गंगाप्रसादी) कानूनी शिकन्जे में

P.M.Jaluthariya

हिन्‍दू-धर्म व समाज व्‍यवस्‍था के अनेक संस्‍कार व मान्‍यताये अपराध बन गये :- 
हजारों वर्षों के धार्मिक अंधी आस्‍था व वर्ण व्‍यवस्‍था के काले युग में जन्‍मी-पनपी अनेक मान्‍यताएं, परम्‍पराएं व धार्मिक अनुष्‍ठान वर्तमान वैज्ञानिक व सामाजिक राजनैतिक स्‍वतंत्रता के युग में अपराधों की श्रेणी में आ चुके है । इस देश की संसद व विधान सभाओं में इन आपराधिक मान्‍यताओं, परम्‍पराओं के लिए दाण्डिक कानून बनाये है जैसे :-

(1). महाभारत कालीन जुआं खेलने जैसे प्रचलन को रोकने के लिऐ :
”सार्वजनिक जुआं अधिनियम सन् 1867”, ”राजस्‍थान जुआं अध्‍यादेश सन् 1949”

(2). गुरूड़-पुराण की नारी-बलि (पति की लाश के साथा जिन्‍दा जलना) जैसी व्‍यवस्‍था को रोकने के लिए : ”सती प्रथा निवारण अधिनियम 1987”

(3). वैदिक यज्ञों में एवं देवी-देवताओं को प्रसन्‍न करने हेतु धर्म के नाम पर मूक पशु-पक्षियों की बलि जैसे कत्‍लेआम को रोकने के लिए : ”राजस्‍थान पशु-पक्षी बलि निषेध अधिनियम सन् 1975”

(4). छोटी उम्र में लड़के-लड़कियों की शादी कर बालकों के शोषण को रोकने हेतु : ”बाल-विवाह निषेध अधिनियम सन् 1929 शारदा एक्‍ट” एवं ”दहेज निषेध अधिनियम”

(5). सोलह-सोलह हजार रानिया रखने एवं पांच-पांच पति रखने जैसे बहुपत्नीक व बहुपति रखने की प्रथा को रोकने के लिए : “भारतीय दण्‍ड संहिता की धारा 494 एवं हिन्‍दू विवाह अधिनियम में अपराध माना गया है ।”

(6). देवतओं एवं म‍हर्षियों द्वारा रम्‍भा, मैनका, उर्वसी, तिलोत्तमा जैसी अपस्‍राओं के साथ रति किया करना व ‘नियोग’ से सन्‍ताने उत्‍पन्न करने जेसे व्‍यभिचार को रोकने हेतु वैश्‍यावृति निषेध अधिनियम (पीटा एक्‍ट) सन् 1956 एवं नारी का अशिष्‍ट प्ररूपण निषेध अधिनियम सन् 1986 बनाया गया ।

(7). वर्ण व्‍यवस्‍था से पनपी जाति-पांती भेदभाव मिटाने व जातीय आधार पर होने वाले अत्‍याचारों को अपराध करार देने हेतु ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 एवं अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्‍याचार निवारण) अधिनियम 1990 बनाया गया । इन अपराधों की सख्‍त सजाऐ है ।

(8). साधनहीन गरीबों को बंधुवा मजदूर रखकर बैगार लेने जैसे अपराधों को रोकने हेतु ”बन्‍धुवा मजदूर मुक्ति अधिनियम 1976” बनाया गया ।

(9). जागरण, रात्री-जागरण, भजन-मंडली, प्रार्थनाओं से होने वाले शोरगुल व हंगामों से ध्‍वनि-प्रदूषण होता है एवं लोगों की शान्ति भंग होती है । इसको रोकने के लिए ‘शोरगुल नियंत्रण अधिनियम 1963” बनाया गया । उच्‍चतम न्‍यायालय ने धर्म के नाम पर होने वाले ध्‍वनि-प्रदूषण को अधार्मिक करार दिया है ।

(10). मृत्‍यु-भोज, नुकता, मौसर, गंगा-प्रसादी भी इनमे एक है । मृतक की आत्‍मा के लिए स्‍वर्ग व मोक्ष की कल्‍पना करके श्रमजीवी-वर्ग अपनी कड़ी मेहनत की कमाई को इस कर्मकाण्‍ड में बर्बाद करके कंगाल होता रहा है । इस आपराधिक कृत्‍य को रोकने के लिए सरकार ने ”मृत्‍यु-भोज निषेध अधिनियम 1960” पारित कर मृत्‍यु-भोज आयोजकों व उनके सहयोगियों को दण्डित करने का प्रावधान किया गया है ।

अत: कोई कर्मकाण्‍ड धार्मिक कल्‍याणीकारी है या पतनकारी हमको समझना पड़ेगा ।

हिन्‍दू धर्म ग्रंथों के अनुसार 16 संस्‍कार करने पर ही हिन्‍दू संस्‍कारित होकर उच्‍च वर्ण का होता है एवं मोक्ष प्राप्‍त करता है । संस्‍कारों से ही शुद्र से ब्राह्मण बनता है अन्‍यथा जन्‍म से सबको शुद्र मानने की कल्‍पना की गयी है । जिस व्‍यक्ति के सोलह संस्‍कार नहीं होते वह असली वैदिक हिन्‍दू नहीं बनता है । 16 संस्‍कार सम्‍पन्‍न कराना शुद्ध हिन्‍दू के लिए आवश्‍यक माने गये है इसलिए शुद्र-वर्ण के व्‍यक्ति के लिए 16 संस्‍कारों में से अनेक संस्‍कार वर्जित किये गये है जिससे वह शुद्ध हिन्‍दू नहीं माना जाता है । शुद्रों को जान बूझकर अनेक संस्‍कारों से रोककर संस्‍कारहीन बना दिया गया फिर भी दुविधाभोगी वर्ग जबरन इस कर्मकाण्‍ड व्‍यवस्‍था से लिपटा हुआ डूबता जा रहा है जैसे डूबते हुए काले-भालू को कम्‍बल समझकर उसको प्राप्‍त करने वाला अज्ञानी डूबने वाला व्‍यक्ति । (नोट : यह कहानी आगे पढेंगे )

हिन्‍दुओं के 16 संस्‍कार जन्‍म से मरण तक लिपटे हुए है । महर्षि परासर गौभिल, शौनक, आश्‍यलायन के ग्रंथ गृहसुत्रों में, महर्षि-गौतम मनु की स्‍मृतियों में गरूड़-पुराण सतपथ ब्राह्मणग्रंथ व अन्‍य सेकड़ों ग्रंथों में 16 संस्‍कारों की प्रतिस्‍थापना की गयी ।

16 संस्‍कार निम्‍न है :-

1. गर्भ संस्‍कार
2. पुंसवन संस्‍कार
3. सीमन्‍मांन्‍न्‍यन संस्‍कार
4. जात कर्म संस्‍कार
5. पुंसवन नामकरण संस्‍कार
6. निष्‍क्रमण संस्‍कार
7. अन्‍नप्रसान संस्‍कार
8. मुंडन संस्‍कार
9. कण भेद संस्‍कार
10. उपनयन (जनेऊ) संस्‍कार
11. वेदारम्‍भ संस्‍कार
12. विवाह संस्‍कार
13. गृहस्‍थाश्रम संस्‍कार
14. वानप्रस्‍थ संस्‍कार
15. सन्‍यास संस्‍कार
16. अन्तिम संस्‍कार (इसी में नुकता, मौसर-गंगाप्रसादी शामिल है )

शुद्रों को इन संस्‍कारों में से न. 10, 11, 14, 15 संस्‍कारों से वंचित रखा गया है जिससे इस वर्ग के लोग शिक्षित-दीक्षित होकर उच्‍चवर्ण योग्‍य बन सके । मृत्‍यु-भोज अंतिम संस्‍कार है वर्तमान सामाजिक न्‍याय व समानता की स्थिति नये संविधान के कारण पनपने लगी हैं इनमें धर्मगुरूओं या जगद्गुरूओं का योगदान नहीं है बल्कि ये तो नये संविधान को बदलने के कुत्सि‍त अनुष्ठान कर रहे है जिन्‍होंने राजनिति का चौगा पहन रखा है ।

मोक्ष-स्‍वर्ग की कल्‍पनाओं ने पिंडदान, गौदान, श्राद्ध व मृत्‍युभौज के कर्मकाण्‍डों को जन्‍म दिया हैं । इन कर्मकाण्‍डों व संस्‍कारों के मकड़जाल में इस देश का सामान्‍य जनमानस जन्‍म से मृत्‍यु तक फसा रहता है । अपने खून पसीने की जीवन भर की कमाई गवा देता है ।

गंगा जो संसार की सबसे प्रदुषित नदी है जिसका पानी गंदा व जहरीला है उसमें मृतकों की हड्डिया डालने व स्‍नान करने में भोले-भाले श्रमजीवी माक्ष स्‍वर्ग के भुलावे की कल्‍पना करते है । घर आकर गंगाप्रसादी के नाम पर मृत्‍युभोज करके कंगाल बन जाते है । स्‍वार्थी व पाखंडी पंडों ने गंगा नदी को पापमोचनी घोषित कर रखा है और इस अवो आस्‍था से पेटपालन करते है । भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्‍यक्ष प्रो. ए.के. शर्मा ने 1981 में कहा था ”गंगा नदी विश्‍व की सबसे ज्‍यादा दुषित नदी है ।” प्रसिद्ध वैज्ञानिक वी.डी. त्रिपाठी ने लिखा है कि ”इलाहाबाद वाराणसी के घाटों पर 30 हजार लोशें हर वर्ष लाई जाती है । इसमें 15 हजार टन लकड़िया जलती है जिसकी तीन हजार टन राख तथा 150 टन अधजली लाशों की हड्डियां-मांस गंगा में प्रवाहित होते हैं । बनारस मं गंगा सबसे गंदी है वहां 100 मि.ली. पानी में 50,000 कालीफार्म कीड़े पाये जाते हैं । फिर भी भोले-भाले करोड़ों अंधविश्‍वासी गंगा जल को पवित्र मानते हैं ।

मृत्‍यु-भोज निषेध कानून :- मृत्‍यु-भोज जिसमें, गंगा-प्रसादी इत्‍यादि शामिल है अब ”राजस्‍थान मृत्‍यु-भोज निषेध अधिनियम 1960” के तहत दण्‍डनीय अपराध हो गया है ।

मृत्‍यु-भोज की कानून में परिभाषा :- राजस्‍थान मृत्‍यु-भोज निषेध अधिनियम की धारा 2 में लिखा है कि किसी परिजन की मृत्‍यु होने पर, किसी भी समय आयोजित किये जाने वाला भोज, नुक्‍ता, मौसर, चहलल्‍म एवं गंगा-प्रसादी मृत्‍युभोज कहलाता है कोई भी व्‍यक्ति अपने परिजनों या समाज या पण्‍डों, पुजारियों के लिए धार्मिक संस्‍कार या परम्‍परा के नाम पर मृत्‍यु-भोज नही करेगा ।

मृत्‍यु-भोज करने व उसमें शामिल होना अपराध है :-  धारा 3 में लिखा है कि कोई भी व्‍यक्ति मृत्‍यु-भोज न तो आयोजित करेगा न जीमण करेगा न जीमण में शामिल होगा न भाग लेगा ।

मृत्‍यु-भोज करने व कराने वाले की सजा व दण्‍ड :- धारा 4 में लिखा है कि यदि कोई व्‍यक्ति धारा 3 में लिखित मृत्‍यु-भोज का अपराध करेगा या मृत्‍यु-भोज करेन के लिए उकसायेगा, सहायता करेगा, प्रेरित करेगा उसको एक वर्ष की जेल की सजा या एक हजार रूपये का जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जायेगा ।

मृत्‍यु-भोज पर कोर्ट से स्‍टे लिया जा सकता है :- धारा 5 के अनुसार यदि किसी व्‍यक्ति या पंच, सरपंच, पटवारी, लम्‍बरदार, ग्राम सेवक को मृत्‍यु-भोज आयोजन की सूचना एवं ज्ञान हो तो वह प्रथम श्रेणी न्‍यायिक मजिस्‍ट्रेट की कोर्ट में प्रार्थना-पत्र देकर स्‍टे लिया जा सकता है पुलिस को सूचना दे सकता है । पुलिस भी कोर्ट से स्‍टे ले सकती है एवं नुक्‍ते को रूकवा सकती है । सामान को जब्‍त कर सकती है ।
कोर्ट स्‍टे का पालन न करने पर सजा :-

         धारा 6 में लिखा है कि यदि कोई व्‍यक्ति कोर्ट से स्‍टे के बावजूद मृत्‍यु-भोज करता है तो उसको एक वर्ष जेल की सजा एवं एक हजार रूपये के जुर्माने या दोनों से दण्डित किया जायेगा ।
सूचना न देने वाले पंच-सरपंच-पटवारी को भी सजा :-

         धारा 7 में लिखा है कि यदि मृत्‍यु-भोज आयोजन की सूचना कोर्ट के स्‍टे के बावजूद मृत्‍यु-भोज आयोजन होने की सूचना पंच, सरपंच, पटवारी, ग्रामसेवक कोर्ट या पुलिस को नहीं देते हैं एवं जान बूझकर ड्यूटी में लापरवाही करते हैं तो ऐसे पंच-सरपंच, पटवारी, ग्रामसेवक को तीन माह की जेल की सजा या जुर्माना या दोनो से दण्डित किया जायेगा ।

मृत्‍यु-भोज में धन या सामान देने वाला रकम वसूलने का अधिकार नहीं है :-

         धारा 8 में लिखा है कि यदि कोई व्‍यक्ति बणिया, महाजन मृत्‍यु-भोज हेतु धन या सामान उधार देता है तो उधार देने वाला व्‍यक्ति, बणिया, महाजन मृत्‍यु-भोज करने वाले से अपनी रकम या सामान की कीमत वसूलने का अधिकारी नहीं होगा । वह कोर्ट में रकम वसूलने का दावा नहीं कर सकेगा । क्‍योंकि रकम उधार देने वाला या सामान देने वाला स्‍वयं धारा 4 के तहत अपराधी हो जाता है ।

अत: यदि कोई व्‍यक्ति अंधविश्‍वास में फंसकर या उकसान से मृत्‍यु-भोज कर चुका है और उसने किसी से धन या सामान उधार लिया है तो उसको वापिस चुकाने की जरूरत नहीं है । अत: सभी बुद्धिजीवियों का कृर्त्तव्‍य है कि मृत्‍यु-भोज को रूकावे न मानने पर कोर्ट से स्‍टे लेवे एवं मृत्‍यु-भोज करने व कराने वालो को दण्डित करावें ।

इस देश का जन सामान्‍य, भोले-भाले, अनपढ़, रूढ़ीवादी धर्मभीरू श्रमजीवी वर्ग के लोग स्‍वर्ग-मोक्ष के अंधविश्‍वासी कर्मकाण्‍डों में सस्‍कारों में जीवन भर फंसे रहते है । ये संस्‍कार, कर्मकाण्‍ड इनके काले-भालू रूपी कम्‍बल की भांति लिपट गये है जो छोडना चाहने पर भी नहीं छूटते है है बल्कि गरीबों-कंगाली व बर्बादी के गर्त में डूबों रहे हैं ।

काले कम्‍बल रूपी भालू की कहानी :-

         एक तेज बहाव वाली नदी में एक काला-भालू बहता डूबता चला जा रहा था । किनारे पर कुछ ज्ञानवान, समझदार एवं कुछ भोले-भालें अज्ञानी-बेसमझ लोग खड़े थे । बहता हुआ डूबता हुआ काला-भालू किनारे से काला कम्‍बल जैसा दिखाई दे रहा था क्‍योंकि पानी की सतह पर उसके काले बाल ही दिख रहे थे ।

भोले-भाले बेसमझ लोग उसे काला कम्‍बल समझकर प्राप्‍त करने के लिए (जैसे मोक्ष प्राप्‍ति के लालच में ) तेज बहाव वाली नदी में कूद पड़े । तैरते हुए उस काले कम्‍बल को पकड़ लिया । डूबता हुआ काला भालू अपनी जान बचाने के लिए उस बेसमझ लोगों से लिपट गया व पंजों में जकड़ लिया । उन्‍होंने छूटकारा पाने की बहुत कोशिश की परन्‍तु भालू ने उनकी जोरदार जकड़ लिया । वे लोग भी भालू के साथ-साथ नदीं में बहने व डूबने लग गये ।

पानी के किनारे खड़े बुद्धिमान व समझदार लोगों ने जोर-जोर से आवाजें दी अरे ! भाईयों काले कम्‍बल के लालच (मोक्ष के लालच) को छोड़ दो अपनी जान बचाकर बाहर आ जावों । डूबहते-बते ना समझो ने पुकारा, अरे ! भाईयों हम तो इस काले कम्‍बल (कर्मकाण्‍डों के संस्‍कारों) से छुटकारा पाना चाहते है छोड़ना चाहते है परन्‍तु यह तो हमारे लिपट गया है, हमें जकड़ लिया है । छोड़ता ही नहीं है । अब तो हमें भी काले कम्‍बल के साथ बहना व डूबना पड़ रहा है हम तैर कर किनारे नहीं आ सकते ।

यहीं हालत इस समाज व्‍यवस्‍था के श्रमजीतियों, भोले-भाले धर्मभीरूओं की हो चुकी है । परम्‍पराऐं कर्मकाण्‍ड, रूढीवादी संस्‍कार इनके लिपटे हुऐ है । काले-भालू रूपी काले कम्‍बल की भांति, आत्‍मा के उद्धार, मोक्ष की प्राप्‍ति स्‍वर्ग-नर्क के भूलावों की लालसा इनके लिपट चुकी है न छुटती न छुटने देती है । इनको सदियों से पतन के गर्त में डूबा रही है व डूबाकर रहेगी यह काला-भालू रूपी कम्‍बल की संस्‍कृति व सभ्‍यता । करोड़ों विचार शुन्‍य, तर्कहीन, लोग इन कर्मकाण्‍डों व अन्‍धविश्‍वासों के चंगूल में फंस गये है व फंसे हुऐ है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण व वैज्ञानिक जीवन शैली अपनाने से कतराते है क्‍योंकि इनकी मानसिकता अंधविश्‍वासों से बन्‍धकर प्रतिबद्ध हो गयी है । केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण व वैज्ञानिक जीवन शैली ही अब पतन के कारणों से छुटकारा दिला सकती है अन्‍यथा इसका पतन के गर्त में डूबना सुनिश्चित है ।

अत: स्‍वयं प्रकाशमान बनो ! (अत्त: दिपो भव:)
स्‍वयं अपने स्‍वामी आप बनो ! (अत्त: नाथो भव:) – भगवान बुद्ध !

लेखक : पी.एम. जलुथरिया (पूर्व न्‍यायाधीश)
जयपुर, राजस्‍थान